Wednesday, February 3, 2016

आरक्षण पर आश्वासन का आशय

कोयम्बटूर की रैली में एक बार फिर प्रधानमंत्री मोदी यह आष्वासन देते हुए देखे गये कि देष से आरक्षण समाप्त नहीं होगा। 2 फरवरी को आयोजित इस रैली को तमिलनाडु में होने वाले आगामी विधानसभा चुनाव के अभियान के रूप में भी देखा जा रहा है। हालांकि यह रैली स्थानीय राजनीति से परे थी पर प्रधानमंत्री मोदी का कांग्रेस पर परोक्ष मगर तीखा प्रहार इस रैली में देखा जा सकता है जिसमें उन्होंने कहा कि देष को विघटित करने के लिए यह सोची समझी साजिष है और दलितों के मुद्दे पर झूठ का अभियान षुरू किया गया है। असल में आरक्षण का मुद्दा एक ऐसी सामाजिक समस्या है जिसमें किसी भी सत्ताधारी के लिए किसी जोखिम से कम नहीं है। ध्यान्तव्य हो कि बिहार विधानसभा चुनाव से पहले आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत द्वारा दिया गया आरक्षण विरोधी बयान को भाजपा की हार से जोड़ा गया था। हालांकि बाद में भागवत की भी आरक्षण के पक्ष में ही सफाई आई थी। प्रधानमंत्री मोदी जानते हैं कि सामाजिक वर्गीकरण के अन्तर्गत व्याप्त आरक्षण अत्यंत संवेदनषील मुद्दा है। ऐसे में यदि इसके साथ कोई ऊंच-नीच हुई तो बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है। यही कारण है कि वे आरक्षण को लेकर पहले भी स्थिति स्पश्ट कर चुके हैं और अब भी उसी पर कायम है यह संदेष जनता के बीच भेजना चाहते हैं। प्रधानमंत्री का बयान ऐसे समय में आया जब आंध्र प्रदेष में ओबीसी दर्जे के तहत आरक्षण की इन दिनों मांग चल रही है। कापू जाति के प्रदर्षन के चलते बीते 31 जनवरी को रत्नांचल एक्सप्रेस के आठ डिब्बे आग के हवाले कर दिये गये थे और अभी भी वहां अफरा-तफरी का माहौल कायम है। जाहिर है प्रधानमंत्री के बयान से उन्हें राहत मिली होगी जिन्हें पहले से आरक्षण प्राप्त है पर आरक्षण की मांग करने वालों के बारे में अभी कुछ कह पाना सम्भव नहीं है।
जब भी आरक्षण के मुद्दे परिलक्षित होते हैं और साफ-सफाई का दौर आता है तब इस बात की समझ भी विकसित होने लगती है कि आखिर जब संविधान नागरिकों के बीच भेदभाव का निशेध करता है तो फिर आरक्षण की आवष्यकता और औचित्य क्या है? अब यह समझना जरूरी है कि आरक्षण क्या है और क्यों दिया जाता है? असल में समाज में उपलब्ध अवसरों को किसी वर्ग विषेश के लिए उपलब्ध कराना या अवसरों के लिए निर्धारित मापदण्डों में किसी वर्ग विषेश के लिए छूट देना आरक्षण है पर देने के पीछे का तथ्य समानता के सिद्धांत को कायम करना है। भारतीय संविधान निर्माता इस तथ्य से बाखूबी परिचित थे इसी कारण उन्होंने संविधान में स्त्रियों, बच्चों, एससी/एसटी तथा पिछड़ों आदि के लिए विषेश उपबन्ध कराने का प्रावधान रखा। पिछड़े वर्गों के आरक्षण का इतिहास खंगाले तो इसकी षुरूआत गरीबी दूर करने और राज्य प्रषासन में नौकरी देने से हुई जिसे लेकर महाराश्ट्र के कोल्हापुर के छत्रपति साहू जी महाराज ने 1901 में षुरू किया था। औपनिवेषिक काल में आरक्षण की ऐतिहासिक रूपरेखा 1909 एवं 1935 आदि के अधिनियम में देखी जा सकती है। संविधान के अनुच्छेद 16(4) में सामाजिक एवं षैक्षणिक दृश्टि से पिछड़े वर्गों के नियुक्तियों और पदों के आरक्षण के लिए उपबन्ध हैं। इससे यह स्पश्ट है कि आरक्षण के पीछे निहित उद्देष्य सामाजिक और षैक्षणिक समानता की स्थापना थी पर इसे समय के साथ कूबत पाने का तरीका भी मान लिया गया। देखा जाए तो मण्डल कमीषन की सिफारिषों के अनुरूप अन्य पिछड़े वर्गों को 27 फीसदी आरक्षण 1993 से मिला हुआ है पर गौरतलब यह है कि दो दषक बीतने के बावजूद इस बात का मूल्यांकन करने की जहमत किसी ने नहीं उठाई कि जिन उद्देष्यों के लिए इसे लागू किया गया वह पूरा हो भी रहा है या नहीं। ऐसा न कर पाने के पीछे भी राजनीतिक मजबूरियां ही रही हैं क्योंकि सत्ता एवं गैरसत्ताधारी दोनों जानते हैं कि कम-से-कम आरक्षण के मूल्यांकन एवं हटाने की सोच उन पर कितनी भारी पड़ सकती है।
आरक्षण को राजनीतिक दलों ने चुनाव जीतने के औजार के रूप में भी उपयोग किया है। वर्ग विषेश से ताल्लुक रखने वाले राजनेता भी इसकी जमकर वकालत करते रहे हैं। पिछली यूपीए सरकार ने भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिशद् की विषेशज्ञ समिति की सिफाारिष पर जाठों को आरक्षण देने का फैसला किया था। देष की षीर्श अदालत ने इसे गलत करार देते हुए कहा था कि तत्कालीन सरकार ने राश्ट्रीय पिछड़ा आयोग की रिपोर्ट को नजरअंदाज किया। कोर्ट ने यह भी कहा कि जाति आरक्षण देने के लिए एक महत्वपूर्ण कारक है मगर पिछड़ापन निर्धारित करने के लिए यह अकेले ही पर्याप्त नहीं है। इसी कसौटी पर आन्ध्र प्रदेष की कापू सहित अन्य जातियां जो आरक्षण मांग रही हैं उन्हें भी कसने की आवष्यकता है ताकि यह समझना मुमकिन हो कि वाकई में इसके पीछे का मजबूत आधार क्या है? देखा जाए तो संविधान के अनुच्छेद 15 एवं 16 में सामाजिक एवं षैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया है मगर यह सिद्ध भी होना चाहिए कि औरों के मुकाबले अमुक जाति या वर्ग षैक्षणिक रूप से पिछड़ी है। यह भी सही है कि अगर समाज के सभी तबके तरक्की करते हैं तो देष में अच्छा वातावरण बनेगा पर आरक्षण को मात्र क्षतिपूर्ति के लिए प्रयोग तो नहीं किया जा सकता। पर यह सही है कि इसकी बुनियादी पड़ताल समय-समय पर होनी चाहिए।
सवाल यह भी है कि आरक्षण को लेकर राजनीतिक चर्चा-परिचर्चा आये दिन जोर क्यों पकड़ती है। दरअसल इसके पीछे मत विभाजन की अवधारणा भी निहित है। यही कारण है कि चुनावी अवसरों पर इस पर विमर्ष बढ़ जाता है। आगे के एक साल के अन्दर उत्तर प्रदेष, उत्तराखण्ड, तमिलनाडु तथा असम समेत कई राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। इसे देखते हुए सरकार की आरक्षण से जुड़ी जिम्मेदारी भी बढ़ जाती है जिसके चलते प्रधानमंत्री मोदी रैलियों में इसके पक्ष में बयान देना जरूरी समझ रहे हैं जबकि विरोधी इन्हें आरक्षण विरोधी बताकर अपनी राजनीतिक जमीन चिकनी करना चाहते हैं। असल में आरक्षण हमेषा से सत्ता हथियाने का एक जरिया भी रहा है। आरक्षण की सीमा को लेकर भी देष में एकरूपता का आभाव देखा जा सकता है। तमिलनाडु में सर्वाधिक 69 फीसदी जबकि महाराश्ट्र में 52 फीसदी तथा अन्य राज्यों में तय सीमा 50 फीसदी के दायरे में इसे देखा जा सकता है। 1963 में बाला जी के मामले में फैसले को दोहराते हुए इन्दिरा साहनी केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि आरक्षण 50 फीसदी से अधिक नहीं हो सकता क्योंकि एक तरफ मेरिट तो दूसरी तरफ सामाजिक न्याय को भी ध्यान में रखना है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने ही मण्डल कमीषन केस में यह साफ किया कि अलग-अलग राज्यों की अलग-अलग आरक्षण स्थिति हो सकती है। बेषक आरक्षण सामाजिक न्याय की अवधारणा से ओत-प्रोत है पर इसकी मांग करने वाले हिंसा का रास्ता अख्तियार करने से बाज नहीं आते। राजस्थान के गुर्जर और जाठ, गुजरात के पाटीदार समेत हर आरक्षण की मांग करने वालों ने सरकारी सम्पत्तियों को नुकसान पहुंचाने में कोई गुरेज नहीं किया। सबके बावजूद इस बात को भी समझना होगा कि आरक्षण सामाजिक उत्थान का जरिया है और इसे इसी रूप में बने रहना चाहिए।



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502

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