Wednesday, January 20, 2016

सवालों में शैक्षणिक संस्थान और बौद्धिक सम्पदा दोनों

आधुनिकीकरण और राश्ट्रवादिता प्रदान करने के सम्बंध में पहले विष्वविद्यालय राश्ट्र-राज्य के दाहिने हाथ का काम करते थे और कई सामाजिक जिम्मेदारियों के साथ अनुकूलन स्थापित करने में कहीं अधिक सामथ्र्यवान थे। षैक्षणिक संस्थाएं बौद्धिक और ज्ञान सम्पन्न होने के नाते समाज के प्रति विषेश जिम्मेदारी के लिए भी जानी और समझी जाती हैं परन्तु जब यहां से कुछ घटाव से जुड़ी घटनाएं होती हैं तो इन पर ही पलट सवाल खड़े हो जाते हैं जैसा कि हैदराबाद केन्द्रीय विष्वविद्यालय इन दिनों सवालों के घेरे में है। प्रष्न उठता है कि क्या वर्तमान स्थिति के संदर्भ में ज्ञान सम्पदा से युक्त संस्थाएं अपनी पहचान बदल रही हैं यदि ऐसा है तो इनके अन्दर भी झांकने का वक्त षायद अब आ चुका है। विष्वविद्यालय के अम्बेडकर छात्रसंघ से जुड़े दलित पीएचडी छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या के चलते एक साथ कई सवाल उभरे हैं जिसे लेकर न केवल चर्चा-परिचर्चा जोर पकड़े हुए है बल्कि विष्वविद्यालय की व्यवस्था ही चैतरफा उठे प्रष्नों से जकड़ ली गयी है। आत्महत्या से जुड़े रोहित वेमुला की मार्मिक पत्र का उल्लेख सोषल मीडिया से लेकर टीवी एवं समाचारपत्रों में बाकायदा उजागर किया गया। पत्र की बुनाई जिस कदर और जिस भाव से की गयी थी वह सभ्य समाज को आहत करने वाली है परन्तु हैरत इस बात की है कि आखिर इतने होनहार होने के बावजूद रोहित वेमुला ने आत्महत्या जैसा कदम क्यों उठाया क्या इसके अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं था? जहां तक जान पड़ता है वर्ग संघर्श के दौर सैकड़ों वर्शों से देष में रहा है। ऊँच-नीच, भेदभाव युक्त समाज में कईयों ने इससे लोहा भी लिया है और वे इसी समाज में अपने रसूक को एक उदाहरण के तौर पर पेष भी किया है। फिलहाल इस ताजे घटनाक्रम ने आज के समाज को कहीं अधिक झिझोड़ने का काम किया है।
षोध छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या जितनी कश्टकारी है उतनी ही बड़ी त्रासदी से भरी सच्चाई यह है कि विष्वविद्यालय में अध्ययनरत् बौद्धिक सम्पदाएं इस रूप में विक्षिप्त हो रही हैं कि जान तक देना पड़ रहा है जो गम्भीर चिंता का विशय है। देखा जाए तो विष्वविद्यालय सहित षिक्षण संस्थाओं में वैचारिक अन्तर हमेषा से ही मौजूद रहे हैं। विष्वविद्यालय जीवन में सभी का सामना कमोबेष इस बात से जरूर हुआ होगा कि वर्ग विषेश की अवधारणा से परिसर जकड़े रहे हैं। रोहित अम्बेडकर छात्र परिशद् से जुड़ा था और इसी परिसर में कांग्रेस और वामपंथी विचारधारा के अतिरिक्त एबीवीपी छात्र संगठन भी सक्रिय है और ऐसे उदाहरण दिल्ली विष्वविद्यालय, जेएनयू, इलाहाबाद एवं लखनऊ विष्वविद्यालय सहित कमोबेष देष के किसी भी परिसर में व्याप्त देखे जा सकते हैं। जाहिर है कि हैदराबाद केन्द्रीय विष्वविद्यालय भी इससे अछूता नहीं है बावजूद इसके ऐसी अनहोनी सभ्य समाज की दृश्टि से कहीं से सुपात्र नहीं कही जायेगी। इस घटना के चलते समाज एक बार फिर वर्गों में बंटता दिखाई दे रहा है। फिलहाल मामले को लेकर विष्वविद्यालय के कुलपति और केन्द्रीय मंत्री बंडारू दत्तात्रेय पर कार्रवाई को लेकर प्रक्रिया षुरू कर दी गई है पर इस सवाल को भी समझना जरूरी है कि एक षोध छात्र जो बेहतर सोच का है जैसा कि उसने पत्र में भी यह लिखा है कि उसकी मौत का कोई जिम्मेदार नहीं है आखिर संघर्श के बजाय खुदकुषी का रास्ता क्यों चुना। समझना तो यह भी है कि रोहित वेमुला की खुदकुषी यहां की अकेली घटना नहीं है पिछले दस सालों में 8 दलित छात्रों ने आत्महत्या की फिर भी विष्वविद्यालय प्रषासन ने कोई सबक नहीं लिया आखिर विष्वविद्यालय प्रषासन इतना उदासीन क्यों बना रहा? परिप्रेक्ष्य और दृश्टिकोण यह भी है कि इस प्रकार की घटनाओं से व्यापक विरोध भड़कता है और षैक्षणिक संस्थाओं को लेकर अविष्वसनीयता बढ़ती है जिसे किसी भी तरह से उचित करार नहीं दिया जा सकता।
जिस तर्ज पर षिक्षा व्यवस्था का भरण-पोशण हो रहा है और जिस चतुराई से उच्चतर षिक्षा में सुधार के नाम पर बहुराश्ट्रीय कम्पनियों, निगमित क्षेत्र और निजी हितों ने सामान्य और उदारवादी षिक्षा से ध्यान हटाकर व्यावसायिकता के साथ इसे बाजार में ला खड़ा किया गया उससे भी काफी हद तक षिक्षण संस्थाओं का मोल न केवल बाजारू हुआ है बल्कि समाज के प्रति इनकी जिम्मेदारी भी मानो कुछ घट गयी हो। हालांकि केन्द्रीय विष्वविद्यालयों के मामले में ये बातें लागू नहीं होती हैं। देष में केन्द्रीय विष्वविद्यालयों की अपनी एक गौरवषाली साख रही है। यहां की बौद्धिक सम्पदाएं समाज में उम्दा नजरों से देखी जाती हैं पर जिस प्रकार षैक्षणिक गिरावट दिन-प्रतिदिन जोर पकड़े हुए है और परिसर भी भेदभाव की भावना से मुक्त नहीं है यहां तक कि लगातार खुदकुषी की घटनाएं हो रही हों तो कई बार सोचने की जरूरत तो है। 2013 में ही पीएचडी छात्र एम. वैंकटेष ने आत्महत्या की थी और कहा जाता है कि ऐसा उसने दलित छात्र के साथ हो रहे भेदभाव के चलते किया था। 2008 में पीएचडी के ही एक अन्य छात्र सैंथिल कुमार ने जहर खाकर खुदकुषी इसलिए की क्योंकि उसकी छात्रवृत्ति रोक दी गयी थी। अलग-अलग वजहों से कई दलित छात्रों की खुदकुषी विष्वविद्यालय के तौर तरीके पर सवाल खड़े करती है जो लाज़मी है। रोहित वेमुला आत्महत्या को एक दलित षोधार्थी की आत्महत्या के तौर पर देखें तो प्रांगण की दषा को सामाजिक भेदभाव से युक्त देखा जा सकता है पर सवाल तो यह भी है कि जहां संघर्श की जरूरत थी वहां खुदकुषी को अपनाना कितना वाजिब था? ध्यानतव्य हो कि जब अन्य पिछड़े वर्ग को आरक्षण दिये जाने के चलते नब्बे के दषक में छात्रों द्वारा आत्मदाह का रास्ता अख्तियार किया गया था और दिल्ली विष्वविद्यालय के राजू गोस्वामी पहला षख्स जिसने इसके विरोध में पहल किया आखिर उनके सामाजिक मूल्य का क्या हुआ और कौन सा परिवर्तन आया इस पर भी गौर करने की जरूरत है।
सवाल तो यह भी है कि कहीं हमारी षिक्षा व्यवस्था में ही तो दोश नहीं है। कहीं हम बाजार और उपभोक्तावाद में इतने तो नहीं डूब गये कि बौद्धिक सम्पदा बनाना ही भूल गये। दुनिया भर के षिक्षाविद् नीलवाग, गीजू भाई, टैगोर, गांधी और जाॅन होल्ड आदि उस षिक्षा के हिमायती रहे हैं जो समाज को एक बौद्धिक सम्पत्ति के रूप में प्राप्त हो और जिसमें नैतिकता के साथ व्यक्तित्व की पराकाश्ठा निहित हो पर दुःखद यह है कि आज की षिक्षा व्यवस्था में इसका घोर आभाव दिखाई देता है। प्रतिस्पर्धा कोई बुरी बात नहीं है पर मनसूबों को बगैर टटोले होड़ में फंसना अक्लमंदी भी नहीं है। मुंषी प्रेमचन्द से लेकर आइंस्टीन तक की जीवनी पढ़ी जाए तो यह जान सकने में सक्षम होंगे कि प्रतियोगिता में कुछ नम्बरों के कम-ज्यादा होने से ऊंचाईयों को कोई फर्क नहीं पड़ता और कबीर से लेकर दयानंद सरस्वती और अम्बेडकर को देखा जाए तो इन्होंने भेदभावयुक्त समाज से न केवल लोहा लिया बल्कि उसी समाज को दिषागत करने का भी काम किया। तंत्र और समाज सभी को समझना होगा और षिक्षा को लेकर जो असमंजस का भाव उभर रहा है उसको भी कुरेदना होगा सिर्फ आईआईटी या मेडिकल में चुने हुए ही श्रेश्ठ नहीं हैं, श्रेश्ठ तो वे भी हैं जो अनपढ़ होते हुए भी सफल व्यावसायी हैं, स्टार्टअप हैं, रोजगार देने वाले हैं और समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझते हैं। वर्ग संघर्श भारत में हमेषा से कायम रहे हैं, आज भी मौजूद हैं और षायद आगे भी रहेंगे और इसका डट के सामना करना ही षिक्षा के असल मायने हैं।




सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502

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