Monday, January 25, 2016

सामाजिक न्याय के दायरे में हों विश्विद्यालय

तेजी से बदलते विष्व परिदृष्य की चुनौतियों से निपटने के लिए आज के दौर के विष्वविद्यालयी षिक्षा को सामाजिक न्याय के मामले में कहीं अधिक मजबूत और जात-पात को लेकर निरपेक्ष होने की आवष्यकता है। अन्तर्राश्ट्रीय नागरिक समाज में उचित भूमिका तलाषने में विष्वविद्यालयी षिक्षा कहीं अधिक कारगर रहे हैं। ऐसे में यह जिम्मेदारी और बढ़ जाती है। विष्वविद्यालय को केवल एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी में ज्ञान हस्तांतरण करने तक ही सीमित नहीं होना चाहिए बल्कि षोध और सोच के मामले में मिसाल बनना चाहिए पर दुखद यह है कि परिसर भी वर्ग एवं जाति में उलझने के चलते बाकायदा सियासी औजार बने हुए हैं। उच्च षिक्षा में व्याप्त ऊंच-नीच और जात-पात को कहीं से व्यावहारिक नहीं कहा जा सकता। हैदराबाद विष्वविद्यालय के षोध छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या बीते 17 जनवरी को हुई थी तभी से विष्वविद्यालय में उजागर हुए भेदभाव का विमर्ष उफान लिए हुए है साथ ही कई सवाल और संदेह भी बाखूबी पनपे हैं साथ ही दलित और गैरदलित की सियासत भी गरम है। प्रतिभाओं की मौत को लेकर चिंता होना लाज़मी है मगर इस बात की भी पड़ताल जरूरी है कि इसके पीछे की असल वजह क्या है? हैदराबाद विष्वविद्यालय में 2008 के बाद छः छात्रों ने जातीय उत्पीड़न की वजह से आत्महत्या की। कमोबेष यही हाल एम्स, आईआईटी जैसे संस्थानों सहित कई विष्वविद्यालयों का है। एम्स में कुछ दिन पहले कमजोर तबके के खुदकुषी के चलते बनी सुखदेव थोराट कमेटी ने भी माना कि देष के उच्च षिक्षा संस्थानों में जातिगत भेदभाव जारी है। यहां जात-पात कैसे पोशित होता है इसकी भी वजह खोजने की जरूरत है। आखिर इस मामले में दोश किसका है, जाहिर है षिक्षा का तो बिल्कुल नहीं यदि संदेह किया जाए तो इसमें निहित सामाजिक व्यवस्थाएं एवं उपव्यवस्थाएं आ सकती हैं। रोचक यह है कि दुनिया के सर्वाधिक नौजवान भारत के पास हैं पर हैरत की बात यह है कि विक्षिप्त भी यही खेमा है।
रोहित की आत्महत्या को लेकर कठघरे में आई केन्द्र सरकार बचाव की कोषिष में लगी है। मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी यह साफ कर चुकी हैं कि मसला दलित और गैरदलित का नहीं है। इस वक्तव्य को लेकर भी सियासी गर्मी बढ़ी है। केन्द्रीय मंत्री बंडारू दत्तात्रेय और विष्वविद्यालय के कुलपति कानूनी आंच से घिरे हैं। एक बात तो तय मानी जा सकती है कि जब भी षिक्षा और उच्च षिक्षा के मामले में स्थिति पटरी से उतरी है तब-तब उसे सियासी रूख देकर लाभ उठाने की खूब कोषिष की जाती है। इन दिनों हैदराबाद विष्वविद्यालय की घटना को लेकर एक तरफ सरकार को घेरने की जबरदस्त कोषिष की जा रही है तो दूसरी तरफ कई विरोधी दल इसे राजनीतिक रंग देने में लगे हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने बीते 22 जनवरी को लखनऊ के भीमराव अम्बेडकार विष्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में रोहित वेमुला की आत्महत्या को लेकर काफी व्यथित दिखाई दिये साथ ही भावुक भी। देखा जाए तो सामाजिक विशमता से षिक्षण संस्थाएं आज भी वंचित नहीं हैं। वर्तमान मोदी सरकार नई षैक्षणिक नीति बनाने की कोषिष कर रही है बेषक इससे भी कुछ कदम आगे बढ़ेंगे। ग्यारहवीं पंचवर्शीय योजना में 2006 से लेकर 2011 तक की उच्च षिक्षा का अध्ययन किया गया और जानने का प्रयास था कि क्या-क्या समस्याएं व्याप्त हैं जिसे आधार रूप देते हुए ‘ह्यूमन प्लानिंग‘ की नीति भी बनाई गयी। वर्श 2009 में यषपाल समिति ने भी विष्वविद्याली षिक्षा को लेकर कई सम्भावनाओं से भरी सिफारिषें की थीं जो लागू भी हुईं। पूर्व राश्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम भारत में षिक्षा, रोजगार और उद्यम के बीच सम्बंध स्थापित करने की बात करते रहे पर षायद इन्हें भी ऐसी उम्मीद कभी नहीं रही होगी कि बड़ी सोच विकसित करने वाले विष्वविद्यालय जात-पात के उलझनों में वक्त जाया करते होंगे। यूपीए सरकार की एक योजना के तहत 2008-09 में सभी केन्द्रीय विष्वविद्यालय, आईआईटी और आईआईएम जैसी संस्थाओं में आम श्रेणी की सीटें बढ़ा दी गई थी और यह फैसला एससी, एसटी, ओबीसी के आरक्षण से उठे सवाल के चलते थे। देखा जाए तो यह राजनीतिक मजबूरी छुपी सामाजिक न्याय ही था। उसी दौर में ज्ञान आयोग के एक सदस्य ने त्याग पत्र देते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को चिट्ठी लिखी कि ‘प्रायः यह कहा जाता है कि भारत में जाति एक वास्तविकता है लेकिन आपकी सरकार भारत में जाति को एक मात्र वास्तविकता बनाने की प्रक्रिया में है‘। उक्त संदर्भों से समस्या को और बारीकी से परखा जा सकता है।
सवाल उठता है कि क्या हैदराबाद में एक षोध छात्र की आत्महत्या ने एक बार फिर षैक्षणिक परिसरों में जात-पात की अवधारणा को उजागर किया है? भारत सनातन और पुरातन से ही सामाजिक बंटवारे का बाकायदा षिकार रहा है। भारतीय राश्ट्रीय आंदोलन के दिनों में भी धर्म और जाति के नाम पर अलग-अलग धु्रव हुआ करते थे उस दौर की षैक्षणिक संस्थाएं भी इससे परे नहीं थी। इस आरोप को खारिज नहीं किया जा सकता कि ऐसी ही व्यवस्था कमोबेष आज भी कायम है, षायद आगे भी रहे पर इक्कीसवीं सदी के दूसरे दषक के मध्य में खड़े होकर इस संकल्प को लेने में क्या बुराई है कि आगे ऐसा नहीं होगा। हमारे पास एक लोकतांत्रिक सरकार है, सुषासन से भरी व्यवस्था है, निरपेक्षता से परिपूर्ण न्यायपालिका है साथ ही मजबूत आर्थिक व्यवस्था और बेहतर षिक्षा का ढांचा है फिर भी षिक्षा के परिसर में जात-पात का वातावरण होना वाकई में अफसोसजनक ही कहा जायेगा। औपनिवेषिक काल में भी पाष्चात्य षिक्षा एवं उसके प्रभाव ने जाति निरपेक्ष षिक्षा को बढ़ावा दिया, रूढ़िवादिता एवं जातीय भेदभाव को दूर किया तथा समानता, बंधुत्व और स्वतंत्रता की अवधारणा को विकसित किया जिसकी काफी हद तक रोपाई भारतीय संविधान में देखी जा सकती है। बावजूद इसके विष्वविद्यालय जात-पात की मानसिकता से उबर नहीं पाये हैं जो दुःखद हैं।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भूमंडलीकरण और तकनीकी नवीकरण के इस युग में षक्ति और जाति का स्वरूप बदल गया है साथ ही साथ ज्ञान और उसका स्वरूप भी बदल रहा है। इतना ही नहीं अर्थव्यवस्था के साथ मिजाज भी बदल रहे हैं। ऐसे में सामाजिक ताना-बाना और रूढ़िवादिता से जकड़ी उपव्यवस्थाओं को बदलना ही होगा जो मात्र षैक्षणिक संस्थाओं के बूते नहीं किया जा सकता। यदि सामाजिक बुराई है तो समाधान भी वहीं से खोजना होगा। समाजषास्त्री मजूमदार ने कहा था कि ‘जाति एक बंद वर्ग है’ जाहिर है इसे बदलना किसी के लिए भी सम्भव नहीं है। वक्त के साथ योग्यता बदल सकती है, विचार बदल सकते हैं, चरित्र और स्वभाव भी बदल सकते हैं पर जाति नहीं। बावजूद इसके समानता और भाईचारे को जो भारतीय संविधान की प्रस्तावना में भी निहित है उसे बनाये रखने में आखिर किसे और क्यों गुरेज है। लाख टके का सवाल तो यह भी है कि षिक्षा जैसे हथियार के बूते हम समाज बदलने की कूबत रखते हैं पर जहां से यह बंटती है वहीं पर ही लोग बंटे हुए है। भले ही षिक्षा परिसर जात-पात से मुक्त न हो पा रहे हों पर उससे होने वाली अनहोनी से तो मुक्ति मिलनी ही चाहिए। भले ही वाद-प्रतिवाद हो पर सम्भावना संवाद की भी बनी रहनी चाहिए। विष्वविद्यालय सपने देखने की वाजिब जगह है यहां से घुटन की गंजाइषें खत्म होनी चाहिए। यदि इन्हें कोई जिन्दा रखना चाहता है तो वह न तो षिक्षा, न ही समाज और न ही मानव जगत का षुभचिन्तक है।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502

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