Wednesday, January 6, 2016

इतिहास पर बनी फिल्म का समाजशास्त्र

भारत की फिल्मी दुनिया केवल मनोरंजन के कल-कारखाने के लिए ही नहीं जानी जाती अपितु एक बड़े उद्योग की संज्ञा से भी अभिभूत है, जहां से देष का सामाजिक-आर्थिक पहलू भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाता। सौ बरस से अधिक के सिनेमाई जगत को खंगाला जाए तो कई ऐतिहासिक घटनाएं फिल्मी रूप-रंग के साथ पर्दे पर उतरी हैं। इन दिनों तो ऐसी फिल्में लोकप्रियता के साथ-साथ कमाई के मामले में भी आगे हैं। पिछले वर्श दिसम्बर माह में 16वीं षताब्दी के इतिहास में लिपटी ऐसी ही एक फिल्म ‘बाजीराव मस्तानी‘ का आगाज़ हुआ जिसमें मराठा साम्राज्य के इतिहास के उस हिस्से का फिल्मांकन किया गया है जो पेषवा बाजीराव से सम्बन्धित है। फिल्म में पेषवा बाजीराव और एक मुस्लिम नर्तकी के बीच के प्रेम सम्बंधों को चित्रित किया गया है। इतिहास में मस्तानी को एक नर्तकी के रूप में ही उल्लेखित किया गया है। फिल्म में खूबसूरती है, बेहतर नृत्य और गीत-संगीत है, अदाकारी भी बहुत अच्छे से निभाई गयी है, लोकप्रियता के साथ कमाई भी खूब हुई है। संजय लीला भंसाली के निर्देषन में बनी यह फिल्म हर हाल में उम्दा कही जाएगी इसलिए नहीं कि यह एक ऐतिहासिक घटना से सम्बन्धित है बल्कि इसलिए कि इस फिल्म का अपना एक सामाजिक परिप्रेक्ष्य भी है। ऐसा सामाजिक परिप्रेक्ष्य जो उस दौर के तमाम ताने-बाने को समझने का अवसर देता है। इतिहास के पन्नों को उकेरे तो इस बात का सबूत अक्सर मिलता रहा है कि सामाजिकता विधान से परे नहीं थी और सामाजिक अवधारणाएं परम्पराओं से तौबा नहीं कर सकती थी। उपलब्धियां कितनी ही प्रखर क्यों न हों नियमों के उल्लंघन की मनाही थी। इतना ही नहीं समाज की सजावट और बनावट इस कदर रचित होती थी कि उसे लेकर कोई भी प्रतिकार असहनीय था।
संजय लीला भंसाली ने इस फिल्म में वही भव्यता देने की कोषिष की है जैसा कि वे अन्य फिल्मों में करते रहे हैं और कुछ कम-ज्यादा उसी इतिहास को उद्घाटित करने का प्रयास भी किया है जैसा कि इतिहास की पुस्तकों में वर्णन मिलता है। हालांकि इस बात से गुरेज नहीं किया जा सकता कि मनोरंजन और रोचक बनाने के चलते कुछ अतिरिक्त कवायद की होगी। पेषवाओं के इतिहास पर नजर डाली जाए तो यह राजनीतिक उत्थान और अत्यंत रोचकता से परिपूर्ण रहा है। पेषवाओं के चलते ही महाराश्ट्र को राजनीतिक स्थायित्व और षान्ति मिली थी। योग्यता और षक्ति के बल पर उन्नति करते-करते वे स्वयं भी मराठा साम्राज्य के सर्वेसर्वा बन गये। बालाजी विष्वनाथ से षुरू पेषवाई का यह दौर औरंगजेब की मृत्यु के पांच वर्श बाद 1713 से देखा जा सकता है। इनकी मजबूती का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि मराठा साम्राज्य के संस्थापक यदि षिवाजी थे तो द्वितीय संस्थापक पेषवा बालाजी विष्वनाथ कहे जाते हैं। फिल्म में बाजीराव को इतिहास में लिपटी एक प्रेम कहानी के साथ दृष्यमान किया गया है जो बीस वर्श तक पेषवाई के पद पर रहे और लगातार चालीस विजय के साथ सर्वाधिक षक्तिषाली पेषवा कहे जाने वालों में षुमार थे। मुगल साम्राज्य के प्रति अपनी नीति की घोशणा करते हुए बाजीराव ने कहा था कि हमें इस जर्जर वृक्ष के तने पर प्रहार करना चाहिए, षाखाएं तो स्वयं ही गिर जायेंगी। इन्होंने ही ‘हिन्दू पद पादषाही‘ के आदर्ष का प्रचार किया और इसे लोकप्रिय बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। देखा जाए तो ये उस दौर के तात्कालिक इतिहास की आवष्यकता रही होगी और अपनी जोरदारी के लिए ऐसा करना मुनासिब समझा होगा पर असल मसला यह है कि षक्तिषाली षासकों के सामने भी सामाजिक मूल्य चट्टान की तरह खड़े थे जो मिटने के बजाय टकराने वालों पर भारी पड़ते थे।
प्राचीन काल से ही इतिहास और समाजषास्त्र दोनों की गति समानता के साथ रही है। हिन्दू काल से लेकर ब्रिटिष काल तक के इतिहास में कई सत्ताएं आई और चली गयी, कई पंथ और धर्म भी समय के साथ ऐतिहासिक महत्व को समेटने में कामयाब रहे। फिल्मांकन की गयी पेषवा बाजीराव के 1720 से 1740 के इस कालखण्ड को देखें तो यह एहसास होता है कि समाज अपने परम्परागत नियमों से परे नहीं था। धर्म और सम्प्रदाय के निहित मापदण्डों में ही सारी कार्यप्रणाली थी जबकि बाजीराव और मस्तानी का प्रेम सम्बन्ध इन्हीं मापदण्डों के विरूद्ध समझा गया। बाजीराव ने कट्टर तो नहीं पर समर्पित मानकों से युक्त प्रथा को जब कमजोर करने की कोषिष की तो व्यवस्था से लेकर सगे-सम्बन्धी भी विरोध में खड़े दिखाई दिये। अक्सर फिल्मों की प्रेम कहानियां जब जाति, धर्म और सम्प्रदाय के नियम संगत अवधारणा के विरूद्ध होती हैं तो उनका तमाम होना और अमर होना मानो तय हो और ऐसा ही ‘बाजीराव और मस्तानी‘ के मामले में भी दृश्यमान होता है। हालांकि इतिहास के कुछ कालखण्डों में दृश्टिकोण काफी अलग भी देखने को मिले हैं। मुगल बादषाह अकबर ने साम्राज्य विस्तार की नीति के तहत राजपूताना से वैवाहिक सम्बंध तो स्थापित किये पर जब उसी के पुत्र जहांगीर और अनारकली के बीच प्रेम परवान चढ़ा तो यह असहनीय था। यह प्रकरण भी उस दौर के सामाजिक ताने-बाने और ऊंच-नीच से ग्रस्त समाज के पहलुओं को ही उद्घाटित करता है। जाहिर है इस विमर्ष के चलते ‘मुगल-ए-आज़म‘ एक बार फिर जेहन में उतर आई। पृथ्वीराज कपूर द्वारा निभाई गयी अकबर की भूमिका और जहांगीर के रूप में दिलीप कुमार जबकि अनारकली मीना कुमारी की याद भी ताजा हो गयी। ‘जोधा-अकबर‘ जैसी ऐतिहासिक फिल्में भी इसी की एक कड़ी है। जब भी इतिहास प्रेम कहानी से लिपटा और प्रथाओं ने उसे स्वीकार्य किया तो बात सहज हुई है पर यदि ऐसा न हुआ तो उसी प्रेम कहानी ने उसी इतिहास में अध्याय का रूप ले लिया।
 बाजीराव और मस्तानी के मामले में भी परम्पराएं नीचे उतरने के लिए तैयार नहीं थी। इससे परिलक्षित होता है कि एक ‘आदर्ष संस्कृति‘ की चाह के चलते उपलब्धियां भी हाषिये पर फेंकी जाती थी पर इसमें इस बोध का आभाव भी दिखाई देता है कि प्रेम इकाई-दहाई की सीमाओं में न उलझकर अपनी सीमाएं स्वयं रेखांकित कर लेता है। साफ है कि समाज और सगे-सम्बन्धी अहम् की रक्षा और प्रतिश्ठा के चलते जो किया उसके उल्लंघन में पेषवा बाजीराव को रखा जा सकता है पर इसे दोश की दृश्टि से देखने के बजाय दौर की जकड़न के साथ देखना अधिक सही होगा। आधुनिक परिप्रेक्ष्य में हम उन तमाम व्यवस्थाओं को चाहते हैं जिसमें सभी के मूल्यों की अहमियत हो, चाहे व्यक्ति उपलब्धियों से भरा हो या सामान्य जन ही क्यों न हो। भारतीय इतिहास की पड़ताल भी बताती है कि ऐसा भेदभाव सदियों से रहा है। प्राचीन काल के वर्ण और जाति व्यवस्था, मध्य काल में मुस्लिम सत्ताओं के चलते सामाजिक परिवर्तन के साथ साम्प्रदायिक चुनौतियां और औपनिवेषिक दिनों में रीतियों और प्रथाओं में होने वाले फेरबदल से निपटना सहज नहीं था। स्वतंत्र भारत के इस दौर में भी समाज अभी भी ऊंच-नीच, भेद-भाव, जात-पात, धर्म-सम्प्रदाय आदि की जकड़न से बाहर नहीं निकल पाया है। एक समाजषास्त्रीय सत्य यह भी है कि समाज का परिवर्तन अचानक न होकर संस्कृतिकरण को समेटते हुए समय के साथ पोशित हुआ है। बारीकी से देखें तो बाजीराव-मस्तानी का समाजषास्त्रीय चित्रण आज के समाज में भी जहां-तहां, कम-ज्यादा मात्रा में जीवटता लिए हुए है दिखाई देगा जो षायद आगे भी रहेगा।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502


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