Tuesday, January 19, 2016

अमीरी-गरीबी की बढ़ी खाई के बीच हमारी कोशिशें

विष्व आर्थिक फोरम के 19 जनवरी, 2016 को आयोजित सालाना सम्मेलन से पहले आॅक्सफैम ने ‘एन इकाॅनोमी फाॅर द वन परसेन्ट‘ नाम की रिपोर्ट में वैष्विक आर्थिक असमानता को उजागर किया। सालाना रिपोर्ट देने वाली इस संस्था के अनुसार विष्व की सबसे गरीब 50 प्रतिषत आबादी की सम्पत्ति बीते पांच वर्श में 41 फीसद घटी है साथ ही आबादी में 40 करोड़ का इजाफा हुआ है। रिपोर्ट में दर्षाया गया है कि दुनिया के 62 सबसे अमीर व्यक्तियों की सम्पत्ति 50 प्रतिषत जनसंख्या की सम्पत्ति के बराबर है जबकि 2010 में इतनी ही गरीब जनसंख्या की सम्पत्ति की तुलना में 388 अमीर लोग हुआ करते थे। सांख्यिकीय परिप्रेक्ष्य का रोचक पहलू यह है कि अमीरों की सम्पत्ति तो गुणोत्तर श्रेणी के साथ बढ़ रही है जबकि यही बढ़त गरीबों में जनसंख्या के मामले में है। 1990 से 2010 के बीच गरीबी के आंकड़े को देखें तो वैष्विक स्तर पर यह अब आधी हो गयी है। बावजूद इसके महिलाएं अभी सबसे ज्यादा प्रभावित दिखाई देती हैं उनकी आमदनी पूरी दुनिया में सबसे कम बताई जा रही है। असमानता का मापदण्ड इसलिए बढ़ा क्योंकि आय में गरीबों की भागीदारी निरन्तर घटाव लिए हुए है। इतना ही नहीं अधिकतर विकसित और विकासषील देषों में मजदूरों की आय उस अनुपात में कभी नहीं बढ़ी जिस तुलना में आवष्यकताओं तथा विकासात्मक संदर्भों ने बढ़त बनाया है।
वल्र्ड बैंक की मई, 2014 की रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के 17.5 फीसदी गरीब भारत में रहते हैं। भारत में कभी भी ऐसा समय नहीं रहा जब समाज में गरीबी का पूर्णतः आभाव रहा हो पर यह उम्मीद जताई जा रही है कि 2030 तक भारत समेत दुनिया से गरीबी का सफाया हो जायेगा। भारत में गरीबी को लेकर दषकों से प्रयास किये जा रहे हैं। पांचवीं पंचवर्शीय योजना (1974-79) गरीबी उन्मूलन की दिषा में उठाया गया बड़ा दीर्घकालिक कदम था। 1989 में लकड़ावाला कमेटी की रिपोर्ट को देखें तो स्पश्ट था कि ग्रामीण क्षेत्रों में 2400 कैलोरी और षहरी क्षेत्रों में 2100 कैलोरी ऊर्जा जुटाने वाला गरीब की संज्ञा से मुक्त था फिर भी यहां गरीबी का आंकड़ा 36.10 फीसदी था। एक दषक के बाद यही आंकड़ा 10 फीसद घटाव के साथ 26.10 पर आकर टिका तत्पष्चात् कई नोंक-झोंक और उतार-चढ़ाव के साथ वर्तमान में यह 21 फीसद पर बना हुआ है जिस प्रकार गरीबी को लेकर खींचातानी रही है उसे देखते हुए ऐसा भी लगा कि यह आर्थिक नहीं मानो राजनीतिक समस्या हो। एक थाली भोजन की कीमत 20 रूपए, 10 रूपए या इससे कम में भी सम्भव है ऐसी दलीलें तीन-चार वर्श पूर्व काफी जोर लिए हुए थी। भारत में गरीबी रेखा के नीचे वह नहीं है जिसकी कमाई प्रतिदिन सवा डाॅलर थी। हालांकि विष्व बैंक ने अपनी ताजे रिपोर्ट में इसका पुर्ननिर्धारण करते हुए 1.90 डाॅलर कर दिया है।
क्या गरीबी की कोई विवेकपूर्ण व्याख्या हो सकती है? क्या ऐसी कोई कूबत है जो अरबों की दुनिया में रहने वाले करीब 88 करोड़ गरीब को इस कुचक्र से बाहर निकाल सकती है? सी. रंगराजन रिपोर्ट को देखें तो इससे षहर भी बेहाल है और गांव भी। गरीबी आर्थिक परिभाशा से जकड़ी एक ऐसी अवधारणा है जो सामाजिक बुराई का रूप ले लेती है और इसके घटने की तभी उम्मीद होती है जब इसके घटाव वाले कारण मौजूद हों। 15 वर्श में गरीबी खत्म करने वाले लक्ष्य कितने सफल होंगे अभी से कोई निष्चित राय नहीं बनाई जा सकती। दुनिया के तीन अरब लोग रोजाना 162 रूपया भी नहीं कमा पाते, 80 करोड़ लोग इसी दुनिया में पर्याप्त भोजन नहीं जुटा पाते, करीब सवा अरब के पास पीने का स्वच्छ पानी नहीं है। अतिरिक्त कूबत और नियोजन निवेष करने के बावजूद मात्र 9.6 फीसदी की गरीबी पिछले एक दषक में कम हुई है। भारत में हालत बहुत नाजुक है। गरीबी के साथ-साथ बीमारी और अन्य बुनियादी समस्याओं का यहां अच्छा-खासा अम्बार लगा है। स्वच्छता अभियान पिछले डेढ़ वर्शों से पैर पसारे हुए है। सफलता दर आंकड़ों में जो है वह वास्तव में कितना है अन्यों की भांति यह भी संदेह से मुक्त नहीं है। 60 प्रतिषत भारतीयों के पास षौचालय व्यवस्था नहीं है और बारीकी से पड़ताल करें तो दक्षिण एषिया के आठ देषों में भारत इस मामले में सातवें स्थान पर है। करीब डेढ़ लाख बच्चे हर साल डायरिया के षिकार होते हैं।
एकमुष्त गरीबी दूर करने की हमारी कोषिषें किस्तों और अनेक मंसूबों में बंटी रही हैं। चार दषक से एक व्यापक कार्य सूची को समाहित किये हुए सरकारें प्रभावषाली नीतियों का दावा करती रही हैं पर एक अच्छे नतीजे की आषा आज भी अधूरी है। लोक प्रवर्धित अवधारणा से युक्त सुषासन की परिभाशा को भी गरीबी खूब चिढ़ा रही है। प्रधानमंत्री मोदी की कई बुनियादी नीतियों को इसके जुगत के रूप में देखा जा सकता है पर यह भी अभी आषाकालिक ही कही जायेंगी। ऐसा नहीं है कि गरीबी से जुड़े आंकड़ें पहली बार आये हों। लाख टके का सवाल तो यह है कि समस्या दूर करने वालों पर इसका कितना असर होता है। जिस अनुपात में दर्द की समझ होगी, उसी की तुलना में इलाज की कवायद भी होगी। लकड़ावाला से लेकर रंगराजन कमेटी तक गरीबी के आंकड़ें परोसे जाते रहे। समय के साथ भूख के अर्थषास्त्र को भी समझने की कोषिष की जाती रही पर यह चैप्टर आज भी खुला का खुला ही है। विष्व बैंक के अध्यक्ष जिम योंग किंग ने कहा था कि ‘हम मानव इतिहास की पहली पीढ़ी हैं जो कि अति गरीबी को खत्म कर सकते हैं।‘ भारत में गरीबी घटने के स्तर में तेजी दिखाई देती है पर 6 जुलाई, 2014 की रंगराजन कमेटी की रिपोर्ट यह कहकर आष्चर्यचकित करती है कि भारत का हर तीसरा व्यक्ति गरीब है। फिलहाल इसकी गम्भीरता को देखते हुए विष्व भर के देषों को इस बाबत और बड़ा संवेदनषील कदम उठा ही लेना चाहिए। सभी जानते हैं कि गरीबी कई समस्याओं की जननी है। ऐसे में सभ्य समाज को सार्थक बनाये रखने के लिए आतंकवाद और जलवायु परिवर्तन की भांति इस चुनौती को भी प्राथमिकता में रखने की कहीं अधिक आवष्यकता है।





लेखक, वरिश्ठ स्तम्भकार एवं रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन के निदेषक हैं
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्ससाइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)

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