Thursday, January 14, 2016

खतरे का संकेत है ठण्ड में ठण्ड का न होना

इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि दुनिया जिस रूप में हुआ करती थी फिलहाल अब वैसी नहीं रही साथ ही सदियों से अनवरत् बनी रहने वाली ऋतुएं भी अपनी कक्षा से भटकी प्रतीत होती हैं। वर्तमान षीत ऋतु के आलोक में उक्त कथन को कहीं अधिक पुख्ता करार दिया जा सकता है। जनवरी माह का एक पखवाड़ा निकल गया मजबूत सर्दी के लिए पहचान रखने वाला यह महीना बिना हाड़-मांस को कंपकपाये ही रूख़सत होने की ओर है साथ ही कई ऐसे प्रभावों और आषंकाओं को भी मजबूती दे रहा है जिसे लेकर बरसों से कवायद चल रही है। गर्मी, बारिष और सर्दी का सही अनुपालन समय के साथ न होने के पीछे एक बड़ी वजह पृथ्वी पर लगातार बिगड़ रही जलवायुवीय स्थिति है। जलवायु परिवर्तन को लेकर वर्तमान समय में चर्चा और तापमान दोनों पहले की तुलना में भी कहीं अधिक गर्माहट लिए हुए है। बीते कुछ वर्शों से ऋतुएं जिस प्रकार ध्यान आकर्शित कर रही हैं उसे देखते हुए यह सोच विकसित होना लाज़मी है कि जलवायु का मिजाज़ ठिकाने पर नहीं है। यदि सब कुछ पहले जैसा कायम होते हुए देखना है तो जलवायु में हो रहे परिवर्तन को रोकना बेहद जरूरी है जो फिलहाल नाप-तौल से कहीं ऊपर चला गया है। दूसरे षब्दों में कहें तो पिछली सदी से इस सदी तक जो अंधेरगर्दी हुई है उसी की बदौलत आज हालात ऐसे हुए हैं।
बदलाव के चलते मौसम का मिजाज़ लोगों की समझ में नहीं आ रहा। रात में सर्दी पड़ रही है जबकि दिन में धूप लोगों को ठीक-ठाक गर्मी का एहसास करा रही है। मैदानी क्षेत्रों को तो छोड़िए हिमालयी क्षेत्र भी आधी से अधिक सर्दी का सीजन निकल जाने के बावजूद इस मामले में वंचित रहे हैं। हिमालय के ग्लेषियर भी ग्लोबल वार्मिंग के चलते सिकुड़ रहे हैं। ऊँचाई वाले क्षेत्रों को छोड़ दिया जाए तो अमूमन मसूरी जैसे क्षेत्र में भी अभी तक एक बार भी बर्फबारी नहीं हुई है। वर्श 2000 में यहां इतनी बर्फबारी हुई थी कि पिछले 30 वर्श का रिकाॅर्ड टूटा था परन्तु हालात को देखते हुए प्रतीत होता है कि इस बार यहां कम बर्फबारी और कम सर्दी का रिकाॅर्ड बनाने में हिमालय भी पीछे नहीं रहेगा। इस अनुभव को बांटना समुचित प्रतीत होता है कि बीते रविवार को मैं स्वयं सपरिवार मसूरी में था। जहां मैंने कैम्पटी फाॅल के ठण्डे झरनों से निकलने वाले पानी में लोगों को बड़े आनंद के साथ नहाते हुए देखा साथ ही ऐसे इलाकों में चटक धूप के साथ बिना सर्दी वाले सुगम दिनचर्या को देखना भी अपने आप में कहीं अधिक रोचक था। ठण्ड का अनुमान इस आधार पर लगा सकते हैं कि इन दिनों यहां दिन का तापमान 12 डिग्री सेल्सियस जबकि रात में 2 डिग्री तक बना हुआ है। मौसम का बदलता रूख उत्तराखण्ड के चार धाम की स्थिति को भी बदल कर रख दिया है। बद्रीनाथ धाम भी ग्लोबल वार्मिंग की चपेट में है। षीतकाल में बर्फ की आगोष में रहने वाला बद्रीनाथ इन दिनों बर्फ विहीन है। ऊँची-ऊँची चोटियों पर बर्फ जमी है पर मन्दिर के आस-पास स्थिति नाम मात्र की है। 11,000 फीट की ऊँचाई वाले केदारनाथ धाम में भी पहले जैसी झमाझम बर्फबारी नहीं हुई है। यमुनोत्री और गंगोत्री सहित कई तीर्थाटन एवं पर्यटक स्थल पर होने वाली बर्फबारी इस बार ग्लोबल वार्मिंग की बुरी नजरों की चपेट में है। मौसम विज्ञान एवं षोध केन्द्र दिल्ली के महानिदेषक डाॅ. एल.एस. राठौर का कहना है कि वर्श 2015 विष्व में अभी तक के सबसे गर्म वर्शों में से एक है। बीते अक्टूबर, नवम्बर और दिसम्बर सबसे गर्म माह रहे हैं। पष्चिमी विक्षोभ जम्मू-कष्मीर और हिमाचल प्रदेष तक सीमित हैं जबकि आगे इसके प्रभाव नहीं दिख रहे हैं। इसका भी प्रमुख कारण ग्लोबल वार्मिंग ही है।
ठण्ड के दिनों में ठण्ड नहीं पड़ रही है जिसके चलते असर इधर भी है और उधर भी। मैदानी इलाकों में षीत वस्त्र भी इस बार बेकार सिद्ध हुए हैं। इन इलाकों का तापमान जनवरी माह में कोहरे और अति षीत के चलते जहां चार-पांच डिग्री तक चले जाते थे कभी-कभी तो कुछ इलाकों में यही तापमान 2 डिग्री से कम भी रहा है पर इन दिनों मौसम की रूखाई इस कदर बढ़ी है कि ये सारी डिग्रियां मानो बेमानी हो गयी हो। भारत की राजधानी दिल्ली भी इस बार ठण्ड का स्वाद ठीक से नहीं चख पाई है अन्य क्षेत्रों का भी कमोबेष यही हाल है। इस वर्श मौसम भी खूब खींचातानी में मषगूल रहा है। बीते मार्च-अप्रैल में बेमौसम दर्जनों बार बारिष होना और मानसून के समय में बारिष का कम होना किसी तबाही का संकेत ही है। आम तौर पर जुलाई, अगस्त और सितम्बर माह की मानसूनी बारिष कुल वर्श भर की बारिष का 80 फीसदी होती है लेकिन पिछले वर्श की तुलना में भी यह अधिक गिरावट वाली थी। बेमौसम बारिष से किसान बेमौत मारे गये जबकि बारिष के दिनों में अकाल ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। यह सब जलवायु परिवर्तन का ही दुश्परिणाम है साथ ही इस बात भी इषारा है कि भारतीय कृशि को बचाने के लिए नये दर्षन और नये ज्ञान की ओर चलने की जरूरत है। दिसम्बर के महीने में चेन्नई व्यापक बाढ़ की चपेट में आयी जो एक इतिहास बन गया। यह भी जलवायु परिवर्तन में हुए फर्क का ही नतीजा था। बीते 30 नवम्बर को पेरिस में जलवायु परिवर्तन को लेकर सम्मेलन हुआ एक पखवाड़े तक चलने वाले इस सम्मेलन में व्यापक विचार विमर्ष के बाद 195 देषों ने ऐतिहासिक समझौतों पर हस्ताक्षर किये और ये समझौते उन्हीं परिवर्तनों को परिवर्तित करने के लिए हुए जो दुनिया को परिवर्तित करने पर आमादा है। 
भारत पर जलवायु परिवर्तन की मार स्पश्ट हो चली है नदियां रास्ता बदल रही हैं और कई अनचाहे लक्षण से भारत की धरती भी वाकिफ हो रही है। इस बार की ठण्ड के दिनों में ठण्ड की कमी इसका पुख्ता सबूत है। मौसम अजीब ढंग से व्यवहार करने लगा है यह बात वैज्ञानिक भी मानते हैं। देष की आधी से अधिक आबादी खेती पर निर्भर है और आधी खेती बारिष पर निर्भर है। यदि मानसून का मिजाज काबू में नहीं आया तो अन्नदाताओं के अस्तित्व पर उमड़ा खतरा बादस्तूर जारी रहेगा। रिकाॅर्ड दर्षाते हैं कि 19वीं सदी के औद्योगिक क्रांति के बाद से पृथ्वी का तापमान बढ़त में आया। कोयले और तेल जैसे जीवाष्म ईंधनों के विस्तृत प्रयोग के चलते वायुमण्डल में कार्बन डाई आॅक्साइड बेहिसाब वृद्धि ले ली। मीथेन, ओजोन और अन्य गैसों की भी बढ़ोत्तरी हुई जिसका सीधा असर पृथ्वी की जलवायु पर पड़ा और इस जलवायु परिवर्तन ने प्रकृति के सारे चक्र को तहस-नहस कर दिया। अब इसी को पटरी पर लाने की कवायद चल रही है। सदियों में बिगड़े हालात को कुछ वर्शों में तो ठीक नहीं होंगे पर कोषिषों में और ईमानदारी भरने की जरूरत है।




सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502

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