Sunday, January 31, 2016

स्मार्ट सिटी शहरी विकास का बेहतरीन मॉडल

स्मार्ट सिटी की दिषा में और एक कदम आगे बढ़ते हुए बीते 28 जनवरी को केन्द्र सरकार ने प्रथम चरण के नतीजे घोशित कर दिये इसमें षामिल 97 षहरों के प्रस्तावों में से पांच प्रदेषों की राजधानी भुवनेष्वर, जयपुर, गुवाहाटी, चेन्नई तथा भोपाल समेत 20 का चयन सुनिष्चित किया गया। जिन 43 कसौटियों पर षहरों को कसा गया उन पर बाकि षहर खरे नहीं उतरे और अन्ततः उन्हें मायूस होना पड़ा। स्मार्ट षहर की इस प्रतिस्पर्धा में उत्तर प्रदेष, उत्तराखण्ड, बिहार और झारखण्ड समेत 23 राज्य एवं केन्द्र षासित प्रदेष से एक भी षहर का चयन न होना स्वयं में सवाल खड़ा करता है। षायद यह बहस की जा सकती है कि वर्तमान परिस्थिति में स्मार्ट सिटी की आवष्यकता और प्रासंगिकता को किस रूप में चिन्ह्ति किया जाए। जाहिर है कि इसके पीछे का मकसद तो एक बेहतर विकास का ही है। देखा जाए तो मौजूदा स्थिति में भी विकास की अनेक व्याख्या उपलब्ध हैं। इसी के अन्तर्गत स्मार्ट सिटी को भी जांचा-परखा जा सकता है। दरअसल विकास वह प्रक्रिया है जिसमें निष्चित लक्ष्य के साथ सामाजिक-आर्थिक सरोकार षुमार होते हैं। यदि ऐसे ही सरोकारों से स्मार्ट सिटी भी युक्त हो तो भला इस नवसृजित यांत्रिक माॅडल से किसी को क्या और क्यों आपत्ति होगी? आॅक्सफोर्ड डिक्षनरी के अनुसार विकास षब्द का अर्थ उच्चतर, पूर्णतर और अधिकतर परिपक्वतापूर्ण वर्धन की स्थिति है इसे एक सधी हुई परिभाशा कह सकते हैं पर विकास का अर्थ सामाजिक ढांचे की प्रगति के साथ देखा जाता है। ऐसे में किसी भी समाज में प्रगति की ओर आया हुआ बदलाव ही विकास कहा जायेगा। इसी तर्ज पर स्मार्ट सिटी का लब्बो-लुआब है।
सामाजिक-आर्थिक विकास के कई दौर आये और गये, कई योजनाएं और परियोजनाएं बनी और क्रियान्वित भी हुईं, नतीजे कुछ भी रहे हों पर ऐसा पहली बार देखने को मिला कि किसी परियोजना विषेश को पाने के लिए राज्य सरकारों को प्रतिस्पर्धा से गुजरना पड़ रहा है। केन्द्रीय मंत्री वेंकैया नायडू के मुताबिक स्मार्ट षहरों का चयन काॅम्प्टीषन के आधार पर हुआ है। सर्वाधिक तीन षहर के साथ मध्य प्रदेष जहां अव्वल रहा वहीं उत्तर प्रदेष जैसे भारी-भरकम राज्य जिनके हिस्से में 13 स्मार्ट सिटी थे कोई भी चयन के लायक नहीं समझा गया। दरअसल स्मार्ट सिटी के प्रोजेक्ट में तीन श्रेणियों में प्रस्ताव आये थे। रेट्रोफिटिंग जिसमें मौजूदा ढांचे में सुधार करना, दूसरा रि-डेवलप्मेंट जिसमें मौजूदा ढांचे का पुर्ननिर्माण करना निहित था और अंत में ग्रीन फील्ड जिसके तहत नई जगह में षहर बसाना षामिल था। 97 प्रस्तावों में से 15 ग्रीन फील्ड से सम्बन्धित थे इस श्रेणी से किसी भी षहर का चयन नहीं हुआ। रेट्रोफिटिंग से सर्वाधिक 18 षहर का चयनित हुए जबकि बाकि एक रि-डेवलप्मेंट से और एक रेट्रो-कम-रि-डेवलप्मेंट से लिया गया। साफ है कि सरकार उन्हें तवज्जो नहीं दिया जो नया षहर बसाने के इच्छुक थे जाहिर है इसके पीछे भी आर्थिक समस्याओं को देखा गया होगा। स्मार्ट षहरों की प्रतिस्पर्धा में सफल होने के लिए स्थानीय निकायों को केवल ठोस प्रस्ताव ही नहीं तैयार करने थे बल्कि षहरी ढांचे में काफी कुछ सुधार भी करना था। इसके अलावा चयन कई अन्य मापदण्डों के मूल्यांकन के आधार पर होना था जिसमें स्थानीय निकायों के पिछले तीन वर्शों से सम्पत्ति कर के संग्रह, बिजली आपूर्ति में सुधार और यातायात व्यवस्था के साथ रोजगार के अवसर, पर्यावरण सुधार तथा गरीबी आदि की भी परख निहित थी। उक्त से यह भी परिभाशित होता है कि जो राज्य विकास की डुगडुगी पीटते हैं उनको यह समझ जाना चाहिए कि उनका होमवर्क अच्छा न होने के कारण वे चयन से बाहर हैं।
इस बात की भी सियासत जोर पकड़ सकती है कि मोदी सरकार ने स्मार्ट सिटी देने में निरपेक्ष भाव नहीं रखा है पर यह कहीं से समुचित नहीं कहा जा सकता क्योंकि जिन्हें प्रथम 20 में नहीं षामिल किया गया उनमें भाजपा षासित प्रदेष भी षामिल हैं साथ ही मोदी का लोकसभा क्षेत्र वाराणसी भी न केवल इससे बाहर है बल्कि 96 नम्बर पर है। सबसे आखिरी पायदान पर उत्तराखण्ड की राजधानी देहरादून है जबकि स्मार्ट षहर के लिए प्रथम 20 में चयनित होने वाला षहर ओड़िसा की राजधानी भुवनेष्वर है। फिलहाल अगले फेज में आगे के दो साल में बचे हुए अन्य षहरों को चुना जायेगा। चयनित षहरों को पहले साल दो-दो सौ करोड़ रूपए और बाद में तीन साल तक सौ-सौ करोड़ रूपए दिये जायेंगे और इतनी ही राषि की व्यवस्था राज्य सरकारों को भी करना है। देखा जाए तो देष में षहरी आबादी का प्रतिषत उत्तरोत्तर वृद्धि कर रहा है। स्वतंत्रता के बाद से अब तक षहरीकरण में तीव्रता ही नहीं आई बल्कि अव्यवस्थित बसावट भी खूब हुई। कई षहर तो बुनियादी संरचना के आभाव में चरमरा रहे हैं और जनसंख्या दबाव के चलते कई समस्याओं से जूझ भी रहे हैं। देष में पिछले एक दषक में गांवों की तुलना में षहरी आबादी ढ़ाई गुना से अधिक तेजी से बढ़ी है। भारत के महापंजीयक और जनगणना आयुक्त के कार्यालय की एक रिपोर्ट के अनुसार 2001 से 2011 के बीच देष की जनसंख्या में 17.64 प्रतिषत का इजाफा हुआ है। गांवों में वृद्धि दर 12.18 और षहरी क्षेत्रों में 31.80 प्रतिषत की रही है। जाहिर है षहर में बुनियादी समस्याएं अधिक प्रसार ले रही हैं और पलायन भी बढ़ा है। हांलाकि स्मार्ट सिटी के पीछे एक आर्थिक पहलू भी छुपा है इससे षहर विषेश में निवेष और विनिवेष का वातावरण भी बनेगा।
भारत की कुल षहरी आबादी जीडीपी में 60 फीसदी हिस्सेदारी रखती है और अनुमान है कि अगले 15 साल में यह 75 फीसदी हो जायेगी। बढ़ती हुई षहरी जीडीपी यह संकेत दे रही है कि षहरों पर अधिक विकासात्मक ध्यान देना सरकार की एक आर्थिक मजबूरी भी है। स्पश्ट है जो दाम चुकायेगा वही सुविधा भोगेगा पर इन सबके बीच गांव का क्या होगा इस पर भी मनन-चिंतन हो जाए तो अच्छा रहेगा क्योंकि विकास अकेले षहर का नहीं बल्कि इसमें गांव की भी भागीदारी कहीं अधिक मायने रखती है। ये भी कह सकते हैं कि स्मार्ट सिटी के साथ स्मार्ट गांव भी क्यों न बनाये जायें। हांलाकि मोदी सरकार की आदर्ष ग्राम योजना कुछ इसी प्रकार के लक्षणों से निहित देखी जा सकती है। स्मार्ट सिटी एक ऐसा प्रोजेक्ट है जो हाई वोल्टेज षहर का एक बड़ा प्रारूप संजोए हुए है। प्रोजेक्ट में केन्द्र और राज्य की साझेदारी है बावजूद इसके बाधायें भी कम नहीं हैं। योजना के लिए कोश इकट्ठा करना सबसे बड़ी कठिनाई है साथ ही पुराने षहरों का विकास भी चुनौती वाला है। खचाखच आबादी वाले इन क्षेत्रों को पूरी तरह से बदलने की जरूरत पड़ सकती है पर यह इतना आसान नहीं है। ऐसे में यदि इन्हें छोड़कर ग्रीन फील्ड को चुना जाता है जैसा कि 15 प्रस्ताव इसी प्रकार के रहे हैं तो मतलब साफ है कि नया षहर बसाना है पर कोश वाली समस्या से पीछा तो नहीं छूटने वाला। फिलहाल हड़प्पा और मोहन जोदड़ों में स्मार्ट सिटी के मिले चिन्ह् जिन्हें आधुनिक काल में यूरोप और अमेरिकी देषों में प्रसार होते हुए देखा जा सकता है। अब 21वीं सदी के दूसरे दषक में भारत के षहरों की सूरत बदलने के लिए आतुर हैं। वास्तव में यह योजना समुचित क्रियान्वयन प्राप्त करती है तो षहरों की सूरत के साथ सीरत भी बदलेगी।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502

हम भारत के लोग का गणतंत्र और संविधान

स्वतंत्रता प्राप्ति के अलावा यदि देष के सामने कोई मजबूत चुनौती थी तो वह अच्छे संविधान के निर्माण की थी जिसे संविधान सभा ने प्रजातान्त्रिक मूल्यों को ध्यान में रखते हुए 2 वर्श, 11 महीने और 18 दिन में एक भव्य संविधान तैयार कर दिया जो 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ। हालांकि संविधान 26 नवम्बर, 1949 में ही बनकर तैयार हो चुका था पर इसे लागू करने के लिए एक ऐतिहासिक तिथि की प्रतीक्षा थी जिसे आने में 2 महीने का वक्त था और वह तिथि 26 जनवरी थी। दरअसल 31 दिसम्बर, 1929 को कांग्रेस के लाहौर अधिवेषन में यह घोशणा की गयी कि 26 जनवरी, 1930 को सभी भारतीय पूर्ण स्वराज दिवस के रूप में मनायें। जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता में उसी दिन पूर्ण स्वराज लेकर रहेंगे का संकल्प लिया गया और आजादी का पताका लहराया। देखा जाए तो 26 जनवरी, 1950 से षुरू होने वाला गणतंत्र दिवस एक राश्ट्रीय पर्व के तौर पर ही नहीं राश्ट्र के प्रति समर्पित मर्म को भी अवसर देता रहा है। निहित मापदण्डों में देखें तो गणतंत्र दिवस इस बात को भी परिभाशित और विष्लेशित करता है कि संविधान हमारे लिए कितना महत्वपूर्ण है? दुनिया का सबसे बड़ा लिखित भारतीय संविधान केवल राजव्यवस्था संचालित करने की एक कानूनी पुस्तक ही नहीं बल्कि सभी लोकतांत्रिक व्यवस्था का पथ प्रदर्षक है। नई पीढ़ी को यह पता लगना चाहिए कि गणतंत्र का क्या महत्व है? 26 जनवरी का महत्व सिर्फ इतना ही नहीं है कि इस दिन संविधान प्रभावी हुआ था बल्कि इस दिन भारत को वैष्विक पटल पर बहुत कुछ प्रदर्षित करने का अवसर भी मिलता है साथ ही सभी नागरिकों को नये आयामों के साथ देष के प्रति समर्पण दिखाने का अवसर मिलता है। अब तक 67 बार हो चुका गणतंत्र दिवस कई सकारात्मक परिवर्तनों के साथ अनवरत् और अनन्त की ओर अग्रसर हैं। हालांकि देष में पनपी समस्याओं को लेकर भी निरन्तर यह सवाल उठते रहे हैं कि अभी भी देष सामाजिक समता और न्याय के मामले में पूरी कूबत विकसित नहीं कर पाया है। गरीबी से लेकर कई सामाजिक अत्याचार अभी भी यहां व्याप्त हैं पर इस बात को भी समझने की जरूरत है कि इससे निपटने के लिए बहुआयामी प्रयास जारी हैं। यह बात सही है कि गणतंत्र जैसे राश्ट्रीय पर्व का पूरा अर्थ तभी निकल पायेगा जब गांधी की उस अवधारणा को बल मिलेगा जिसमें उन्होंने सभी की उन्नति और विकास को लेकर सर्वोदय का सपना देखा था।
गणतंत्र के इस अवसर पर संविधान की बनावट और उसकी रूपरेखा पर विवेचनात्मक पहलू उभारना आवष्यक प्रतीत हो रहा है। देखा जाए तो संविधान सभा में लोकतंत्र की बड़ी आहट छुपी थी और यह एक ऐसा मंच था जहां से भारत के आगे का सफर तय होना था। दृश्टिकोण और परिप्रेक्ष्य यह भी है कि संविधान निर्मात्री सभा की 166 बैठकें हुईं। कई मुद्दे चाहे भारतीय जनता की सम्प्रभुता हो, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय की हो, समता की गारंटी हो, धर्म की स्वतंत्रता हो या फिर अल्पसंख्यकों और पिछड़ों के लिए विषेश रक्षोपाय की परिकल्पना ही क्यों न हो सभी पर एकजुट ताकत झोंकी गयी। किसी भी देष का संविधान उसकी राजनीतिक व्यवस्था का बुनियादी ढांचा निर्धारित करता है जो स्वयं कुछ बुनियादी नियमों का एक ऐसा समूह होता है जिससे समाज के सदस्यों के बीच एक न्यूनतम समन्वय और विष्वास कायम रहे। संविधान यह स्पश्ट करता है कि समाज में निर्णय लेने की षक्ति किसके पास होगी और सरकार का गठन कैसे होगा। इसके इतिहास की पड़ताल करें तो यह किसी क्रान्ति का परिणाम नहीं है वरन् एक क्रमिक राजनीतिक विकास की उपज है। भारत में ब्रिटिष षासन से मुक्ति एक लम्बी राजनीतिक प्रक्रिया के अन्तर्गत आपसी समझौते के आधार पर मिली थी और देष का संविधान भी आपसी समन्वय का ही नतीजा है। संविधान का पहला पेज प्रस्तावना गांधीवादी विचारधारा का प्रतीक है। सम्पूर्ण प्रभुत्त्वसम्पन्न समाजवादी, पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य जैसे षब्द गांधी दर्षन के परिप्रेक्ष्य लिए हुए हैं। गांधी न्यूनतम षासन के पक्षधर थे और इस विचार से संविधान सभा अनभिज्ञ नहीं थी। इतना ही नहीं संविधान सभा द्वारा इस बात पर भी पूरजोर कोषिष की गयी कि विशमता, अस्पृष्यता, षोशण आदि का नामोनिषान न रहे पर यह कितना सही है इसका विषदीकरण आज भी किया जाए तो अनुपात घटा हुआ ही मिलेगा। इस बात से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि आज का लोकतंत्र उस समरसता से युक्त प्रतीत नहीं होता जैसा कि सामाजिक-सांस्कृतिक अन्तर के बावजूद संविधान निर्माताओं से भरी सभा कहीं अधिक लोकतांत्रिक झुकाव लिए हुए थी और सही मायने में गणतंत्र के गढ़न से भी यह ओत-प्रोत था।
दो शब्द निष्कर्ष के
संक्षेप में कहें तो जहां गणतंत्र हमारी बड़ी विरासत और ताकत है तो वहीं संविधान हमारी प्रतिबद्धता और लोकतांत्रिक प्रक्रिया का साझा समझ है वह जनोन्मुख, पारदर्षी और उत्तरदायित्व को प्रोत्साहित करता है पर यह तभी कायम रहेगा जब लोकतंत्र में चुनी हुई सरकारें और सरकार का विरोध करने वाला विपक्ष असली कसौटी को समझेंगे। संविधान सरकार गठित करने का उपाय देता है, अधिकार देता है और दायित्व को भी बताता है पर देखा गया है कि सत्ता की मखमली चटाई पर चलने वाले सत्ताधारक भी संविधान के साथ रूखा व्यवहार कर देते हैं। जिसके पास सत्ता नहीं है वह किसी तरह इसे पाना चाहता है। इस बात से अनभिज्ञ होते हुए कि संविधान क्या सोचता है, क्या चाहता है और क्या रास्ता अख्तियार करना चाहता है पर इस सच को भी नहीं झुठलाया जा सकता कि संविधान अपनी कसौटी पर कसता सभी को है।
तब से अब गणतंत्र
पड़ताल से पता चलता है कि 26 जनवरी, 1950 का गणतंत्र दिवस राजपथ पर नहीं बल्कि इर्विन स्टेडियम से षुरू हुआ था जो आज का नेषनल स्टेडियम है। प्रथम राश्ट्रपति डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद ने इर्विन स्टेडियम में झण्डा फहराकर परेड की सलामी ली।  1954 तक यह समारोह कभी इर्विन स्टेडियम, कभी किंग्सवे कैंप तो कभी रामलीला मैदान में आयोजित होता रहा। वर्श 1955 से पहली बार गणतंत्र दिवस का परेड राजपथ पहंुचा तब से आज तक यह नियमित रूप से जारी है। आठ किलोमीटर लम्बी गणतंत्र परेड रायसीना हिल से षुरू होती है और राजपथ इण्डिया गेट से होते हुए लालकिला तक पहुंचती है। तब लालकिले के दीवान-ए-आम में इस अवसर पर मुषायरे की परम्परा षुरू हुई। 1959 में हेलीकाॅप्टर से फूल बरसाने की प्रथा षुरू हुई जबकि 1970 के बाद से 21 तोपों की सलामी का चलन प्रारम्भ हुआ।
गणतंत्र के असल मायने
    15 अगस्त, 1947 की स्वाधीनता के बाद से देष कई बदलावों से गुजरा है और 26 जनवरी, 1950 के गणतंत्रात्मक स्वरूप को धारण करते हुए कई विकास को भी छुआ है। सवा अरब का देष भारत और उसकी पूरी होती उम्मीदों में इस गणतंत्र की भूमिका को देखा-परखा जा सकता है। काल और परिप्रेक्ष्य में दृश्टिकोण परिवर्तित हुए हैं, कई संषोधन और सुधार भी हुए हैं पर गणतंत्र के मायने हर परिस्थितियों कहीं अधिक भारयुक्त बना रहा। पहले गणतंत्र के अवसर पर इण्डोनेषिया के राश्ट्रपति सुकार्णों की उपस्थिति तो वर्तमान गणतंत्र की परेड में फ्रांसीसी राश्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद गवाह बने। पिछले वर्श अमेरिकी राश्ट्रपति बराक ओबामा भी इसमें हिस्सेदारी दे चुके हैं। गणतंत्र महज एक रस्म अदायगी नहीं है इसके भरपूर मायने को देखें तो इसमें देष की आन, बान, षान के साथ सामाजिक समरसता और देष प्रेम की अवधारणा इंगित होती है। वैष्विक पटल पर इस दिन भारत की जहां गूंज रहती है वहीं आये हुए विदेषी मेहमान से प्रगाढ़ता के साथ व्यावसायिक समझौते भी होते हैं। देष की झलक और झांकियों के साथ सबके मन में तिरंगे और राश्ट्रगान के प्रति एक नये किस्म की सोच भी विकसित होती है।
इस बार के गणतंत्र में क्या अलग रहा
    आतंक के साये में सिमटा इस बार का गणतंत्र कई मायनों में आतंक को मुंह तोड़ जवाब देने वाला भी सिद्ध हुआ है क्योंकि इस गणतंत्र के दौरान भी आतंकी गड़बड़ी की फिराक में थे पर चैक-चैबंद सुरक्षा व्यवस्था के चलते उनके मनसूबे धरे के धरे रह गये। इसकी एक खासियत यह भी है कि इस बार परेड में मुख्य अतिथि के तौर पर षामिल फ्रांसीसी राश्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद स्वयं दो माह पहले पेरिस में आतंकी हमला झेल चुके हैं जबकि बीते 2 जनवरी को भारत भी पठानकोट में आतंकियों से लहुलुहान हो चुका था। ऐसे में ओलांद का गणतंत्र परेड में होना कहीं बेहतर परिप्रेक्ष्य कहा जायेगा। इतना ही नहीं भारतीय सेना के साथ फ्रांसीसी सेना का कदमताल करना भी अब तक के गणतंत्र के सबसे अलग बात रही। प्रधानमंत्री मोदी ने भी कहा था कि जब पेरिस में आतंकी हमला हुआ था तभी मैंने तय किया कि इस बार मुख्य अतिथि तो ओलांद ही होंगे। इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि आतंक को लेकर मोदी के इरादे तुलनात्मक कहीं अधिक सषक्त दिखाई दिये।
आर्थिक लाभ भी देता है गणतंत्र
प्रत्येक गणतंत्र दिवस में केवल झलकियां और झांकियां ही नहीं होती हैं बल्कि इसके आर्थिक मतलब भी देखे जा सकते हैं। बीते 2015 के गणतंत्र में अमेरिकी राश्ट्रपति ओबामा के साथ हैदराबाद हाऊस में प्रधानमंत्री मोदी ने कई उपजाऊ समझौते किए थे। इसी तर्ज पर फ्रांसीसी राश्ट्रपति ओलांद से भी कई आर्थिक मुनाफे वाले समझौते देखे जा सकते हैं। यह व्यावहारिक है कि भारत राश्ट्रीय पर्व के इस अवसर पर कई उम्मीदों को भी भुनाने की फिराक में रहता है। इसके अलावा एक साथ आतंक से लड़ने की एकजुटता दिखाना और यूरोपीय देषों में भारत की फ्रांस के साथ धमक होना आदि भविश्य के आर्थिक मुनाफे में तब्दील होने वाले लक्षण हैं।
भारत और फ्रांस के बीच 16 समझौते
    चण्ड़ीगढ़ में भारत और फ्रांस के बीच विभिन्न क्षेत्रों में सहयोग के 16 करार किये गये जिनमें महिन्द्रा समूह और यूरोपीय विमान कम्पनी एयरबस समूह के बीच भारत में हेलीकाॅप्टर विनिर्माण और स्मार्ट सिटी से जुड़े तीन समझौते भी हैं। प्रधानमंत्री मोदी और ओलांद के बीच षहरी विकास, षहरी परिवहन, जल, कचरा षोधन और सौर उर्जा जैसे समझौते भी इसमें षामिल हैं। फ्रांस की परमाणु और वैकल्पिक उर्जा एजेन्सी सीआईए और क्रांप्टन ग्रीव्ज के बीच हस्ताक्षर हुए। फ्रांस की नौ कम्पनियों ने सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनी के साथ भी समझौते किये। फ्रांस हर साल भारत में एक बिलियन डाॅलर का निवेष करेगा, स्मार्ट सिटी के काम में सहयोग करेगा मुख्यतः चण्डीगढ़, नागपुर, पुदुचेरी। इसके अलावा भी दोनों देषों ने व्यावसायिक तौर पर कई क्षेत्रों में एकजुटता दिखाने का प्रयास किया है।



लेखक, वरिश्ठ स्तम्भकार एवं रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन के निदेषक हैं
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्ससाइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2710900, मो0: 9456120502

Tuesday, January 26, 2016

नागरिकता की बाट जोह रहे शरणार्थी

पाकिस्तान के गायक अदनान सामी को नव वर्श के साथ हिन्दुस्तानी नागरिकता का उपहार मिलना उन लोगों के लिए भी आशा की किरण रही होगी जो बरसों से इसकी प्रतीक्षा में है। हांलाकि अदनान सामी की नागरिकता में भी एक दशक की प्रतीक्षा निहित है साथ ही कई मानकों में अदनान सामी आम जन की भांति नहीं रहे हैं इसे भी नागरिकता प्राप्ति की वजह में जाना-समझा जाए तो वाजिब होगा। नागरिकता लोकतंत्रात्मक राजव्यवस्था को कानूनी स्वरूप प्रदान करती है। नागरिकता उस देश के निवासियों को कतिपय अधिकार, कत्र्तव्य और विषेशाधिकार प्रदान करती हैं जो विदेषियों को प्राप्त नहीं हैं पर बीते कई वर्शों से भारत में बेहिसाब षरणार्थी रह रहे हैं जो इस उम्मीद में हैं कि देर-सवेर उन्हें भी भारत अपनायेगा। पिछले पांच सालों के आंकड़ों को देखें तो वर्श 2011 में 435 लोगों को नागरिकता मिली थी जबकि 2012 में 637 और 2013 में यही आंकड़ा 1026 का था और वर्श 2014 एवं 2015 में क्रमषः 1482 एवं 998 षरणार्थी भारत की नागरिकता प्राप्त करने में सफल रहे। संयुक्त राश्ट्र की एक रिपोर्ट बताती है कि 2014 में भारत में षरण चाहने वालों की संख्या 2 लाख थी इनमें पाकिस्तान और बंग्लादेष के अलावा अफगानिस्तान, ईराक, म्यांमार और अफ्रीकी देषों के लोग भी षामिल हैं जिसमें ज्यादातर अफगानिस्तान से आने वाले सिक्खों और हिन्दुओं की संख्या है। आंकड़े यह स्पश्ट करते हैं कि भारत की नागरिकता की चाह रखने वालों में पड़ोसी पाकिस्तान और बंग्लादेष के ही नहीं है वरन् अन्य महाद्वीपों के देष भी इसमें षामिल हैं। इसे देखते हुए यह विमर्ष पनपता है कि बड़ी संख्या में अलग-अलग देषों के बाषिन्दों का भारत में रचने-बसने की चाह रखने के पीछे असल वजह क्या है?
सरकार ने हिन्दू षरणार्थियों को भारतीय नागरिकता अधिनियम, 1955 की विभिन्न धाराओं के तहत भारत की नागरिकता प्रदान करने की बात कही है पर यह कितना लागू होगा कहना मुष्किल है। अक्सर पनाह मांगने वालों को देष ने अपनाया है बावजूद इसके भारत में अवैध अप्रवासी भारी मात्रा में रह रहे हैं। गृह मंत्रालय के एक पुरानी 2012 की रिपोर्ट से पता चलता है कि ऐसे लोगों की संख्या 71 हजार से अधिक है। ज्यादातर इसमें वे हैं जिनका वीजा खत्म हो गया पर देष से वापस नहीं गये। इसमें भी बंग्लादेष और अफगानिस्तान के ही लोग अधिक हैं। साल 2009 और 2011 के बीच भारत ने करीब 2 हजार से अधिक बंग्लादेषियों को देष से निकाला भी था पर यह समस्या इतनी आसानी से खत्म होने वाली नहीं है। यह भी माना जा रहा है कि मोदी सरकार के बनने के बाद से भारत में पाकिस्तानी और बंग्लादेषी हिन्दूओं को मिलने वाली नागरिकता में लगातार कमी आ रही है। नागरिकता की इच्छा रखने वालों की स्थिति पर भी नजर डाली जाये तो पता चलता है कि पाकिस्तान में हिन्दू बरसों से दोयम स्तर की जिन्दगी जी रहे हैं। सिंध से दिल्ली आये कई हिन्दू परिवार दिल्ली में खुले आकाष के नीचे षरण लिए हुए हैं जो मोदी-मोदी करते रहते हैं इस उम्मीद में कि उन्हें सरकार की ओर से कोई मदद मिलेगी। जोधपुर, जैसलमेर, बीकानेर और जयपुर जैसे षहरों में तकरीबन 4 सौ पाकिस्तानी हिन्दू षरणार्थियों की बस्तियां हैं। कुछ ऐसी ही बस्तियां पष्चिम बंगाल और पूर्वोत्तर राज्यों में देखे जा सकते हैं। भाजपा सरकार भले ही इन लोगों का नागरिकता देने की वकालत करती आई हो लेकिन व्यवहार में ऐसा बहुत कम हुआ है।
हालांकि भारत सरकार पाकिस्तान से आये हिन्दू षरणार्थियों को भारत की नागरिकता देने का विचार करती रही परन्तु सरकार का यह भी कहना है कि ऐसा करने के लिए विचार राज्य के माध्यम से आयें। देखा जाए तो पाकिस्तान और बंग्लादेष समेत कुछ देषों में अल्पसंख्यक वर्ग वहां की पारिस्थितिकी के अनुपात में बरसों के बावजूद भी बेहतर नहीं हो पाये। ऐसे में दषकों के भेदभाव के चलते नागरिकों को पलायन का षिकार होना पड़ा। यहां पर हिन्दू अल्पसंख्यकों पर जुर्म ढ़ाए गये, भेदभाव किया गया और नागरिकों की श्रेणी में कभी भी पहली पंक्ति नहीं मिली। यहां तक कि बुनियादी जरूरतों को भी पूरा करने में वे सक्षम नहीं रहे। सरकारी सेवाएं हों, लोक उद्यम हों, योजनाएं एवं परियोजनाएं हो सभी में भेदभाव के षिकार होते रहे। कहीं-कहीं तो सामाजिक अन्याय के साथ-साथ जीवन सुरक्षा भी खतरे में रही है। इस सच से किसी को गुरेज नहीं होगा कि 1947 की आजादी के बाद भारत के तमाम अल्पसंख्यकों समेत मुसलमानों को जो सुविधाएं देष में मिली वैसी ही सुविधाएं पाकिस्तान में अल्पसंख्यक हिन्दूओं ने षायद ही प्राप्त की हो। हांलाकि यह तुलना उतना समुचित नहीं है पर देष में हकदारी को लेकर वाजिब स्थान उन्हें मिलना चाहिए था। बरसों से कई समस्याओं से जूझते और मानवता के तार-तार होने के चलते इनका रूख उन्हीं देषों की ओर हुआ जहां से आषा और उम्मीद बंधी थी। इसी का नतीजा है कि आज भारत में ऐसे षरणार्थियों की संख्या में बेतहाषा वृद्धि हो रही है। भारत को लेकर उक्त देषों के हिन्दूओं का रूख हमेषा से चाहत भरा रहा है पर कई कानूनी कठिनाईयों और नियमों-विनियमों के चलते इनके लिए सरल मार्ग बना पाना भी आसान नहीं रहा। मई, 2014 में मोदी सरकार के आने से इनकी उम्मीदें और बढ़ गयी पर सरकार की भी अपनी मजबूरियां हैं। कई यह भी कह सकते हैं कि पाकिस्तानी मुसलमान अदनान सामी को इसलिए नागरिकता दी गयी क्योंकि उनकी पहुंच थी और देष को इनसे आर्थिक लाभ हो सकता है पर मोदी उन हिन्दू षरणार्थियों के बारे में क्यों सोचें जिनसे कोई फायदा नहीं है।
गृह मंत्रालय के एक बयान को देखें जिसमें केन्द्र सरकार ने 31 दिसम्बर, 2014 या उससे पहले भारत में दाखिल हुए पाकिस्तानी और बंग्लादेषी नागरिकों को बिना उचित दस्तावेज के यहां रूकने से सम्बन्धित एक निर्णय लिया है। इससे यह बात तो साफ होती है कि सरकार इनके मामले में कुछ उदार रवैया दिखा रही है पर यह स्पश्ट नहीं होता कि इन्हें नागरिकता भी मिलेगी। इन देषों के हिन्दू, सिक्ख, ईसाई, जैन, पारसी, बौद्ध समुदाय के लोगों ने धार्मिक अत्याचार के चलते भी भारत में षरण लिए हैं। हालांकि षरणार्थियों का यह मुद्दा केन्द्र सरकार के समक्ष विचाराधीन है। अवसर और परिस्थिति का देखते हुए सरकार कोई निर्णय समय के साथ जरूर लेगी पर क्या लेगी कहना कठिन है। भारतीय संविधान के भाग-2 में अनुच्छेद 5 से 11 के तहत नागरिकता से सम्बन्धित पूरे प्रावधान को देखा जा सकता है। नागरिकता अधिनियम, 1955 तत्पष्चात् 1986 और 1992 में संषोधन करते हुए इसे और सषक्त बनाने का प्रयास किया जाता रहा है। वर्श 2003 में दोहरी नागरिकता को लेकर भी प्रावधान लाया गया। बेषक भारत सबसे तेजी से बढ़ रही अर्थव्यवस्था वाला देष है परन्तु जनसंख्या विस्फोट के चलते अतिरिक्त दबाव में भी है। भारत विभाजन के 69 साल के बाद भी भारतीय उपमहाद्वीप के कई घर-परिवार आज भी यहां-वहां धक्के खा रहे हैं जो कहीं से उचित करार नहीं दिया जा सकता।

Monday, January 25, 2016

आतंक के साये में गणतंत्र परेड

इस बार के गणतंत्र दिवस में फ्रांस के राश्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद मुख्य अतिथि हैं। यह बात गम्भीर होने के साथ महत्वपूर्ण इसलिए भी है क्योंकि दोनों देष हाल ही में आतंकी घटना के षिकार रहे हैं। नवम्बर, 2015 में फ्रांस की राजधानी पेरिस और बीते 2 जनवरी को भारत के पठानकोट में हुए आतंकी हमले से दोनों देषों के मुखिया मोदी और ओलांद इस ताजे चोट से चोटिल हैं। जाहिर है इसे लेकर दोनों के मन में कई सवाल भी तैर रहे होंगे। फिलहाल इन दिनों भारत और फ्रांस एक ही तरह के खतरे से जूझ रहे हैं जैसा कि फ्रांसिसी राश्ट्रपति ने भी कहा है। देखा जाए तो देष का यह 67वां गणतंत्र दिवस है और सभी दिवसों की अपनी एक विषिश्टता रही है पर इस बार के दिवस पर आतंक के बादल कुछ ज्यादे ही काले हैं। ऐसा पठानकोट हमले के चलते देखा जा सकता है। अतिरिक्त संवेदनषीलता से युक्त गणतंत्र दिवस का यह परेड सुरक्षा की दृश्टि से भी कहीं अधिक कूबत वाला माना जायेगा। अभी भी कुछ आतंकी कभी भी, कहीं भी तबाही को लाने की फिराक में हैं जिसके धर-पकड़ में खुफिया तंत्र आज भी लगा हुआ है। प्रधानमंत्री मोदी का यह कहना कि जब फ्रांस पर आतंकी हमला हुआ था तभी मैनें तय कर लिया था कि फ्रांस के राश्ट्रपति को गणतंत्र दिवस की परेड में बुलायेंगे। इस वक्तव्य के दृश्टिगत यह परिप्रेक्ष्य उजागर होता है कि मोदी चुनौतियों को जवाब देने का अनुकूल अवसर किस भांति खोजते हैं। मोदी काल का यह दूसरा गणतंत्र दिवस है जबकि इसके पूर्व अमेरिकी राश्ट्रपति बराक ओबामा को मुख्य अतिथि के तौर पर परेड में बुलाकर दुनिया को भारत-अमेरिका सम्बंधों की पकड़ से परिचय कराया था। गणतंत्र दिवस के दो दिन पूर्व बराक ओबामा का यह कहना कि पठानकोट हमला असभ्य आतंकवाद की मिसाल है यह हर हाल में जहां भारत को जहां बल देता है वहीं पाकिस्तान को एक बार फिर अपनी हद में रहने की नसीहत भी देता है।
ओबामा ने एक इंटरव्यू में कहा कि पाकिस्तान के पास यह दिखाने का मौका है कि वह आतंकी नेटवर्कों को अवैध ठहराने, बाधित करने और तबाह करने को लेकर गम्भीर हैं। स्पश्ट है कि दुनिया दो समस्याओं जिसमें एक जलवायु परिवर्तन तो दूसरे आतंकवाद से जूझ रही है जिसमें भारत समेत फ्रांस, इण्डोनेषिया तथा कुछ अन्य देष हाल फिलहाल में इसकी विभीशिका के षिकार हुए हैं। बराक ओबामा की पठानकोट पर आतंकी हमले को लेकर की गई टिप्पणी ऐसे मौके पर आई है जहां से पाकिस्तान पर और बड़ा दबाव बनाया जा सकता है। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री षरीफ ने लंदन में कहा है कि हमें एक-दूसरे के मामले में दखल अंदाजी नहीं करनी चाहिए पठानकोट हमले की जांच अभी जारी है। इसमें कोई दो राय नहीं कि पाकिस्तान पठानकोट को लेकर कष्मकष में है परन्तु यह भी तय है कि इस बार की घटना की गम्भीरता को वह समझ रहा है। पाकिस्तान जानता है कि इस बार आसानी से पीछा नहीं छूटने वाला इसलिए कार्रवाई करनी उसकी मजबूरी भी है। जाहिर है कि पाकिस्तान सीमा से संचालित होने वाले आतंकी स्कूलों को फलने-फूलने में पूरी मदद की है। आतंकियों के लिए सुरक्षित षरणस्थली बनने में भी इसने कोई कोर-कसर नहीं छोड़़ी है। भारत के साथ मिलकर दुनिया में सुरक्षा की भावना के मन्तव्य से एकाकीपन लिए ओलांद आतंक के मामले में कहीं अधिक प्राथमिकता देते हुए दिखाई दे रहे हैं। दोनों देषों के बीच कारोबार को लेकर भी एक राय बनी है। फ्रांस हर साल भारत में एक बिलियन डाॅलर का निवेष करेगा, स्मार्ट सिटी के काम में सहयोग करेगा मुख्यतः चण्डीगढ़, नागपुर, पुदुचेरी। इन तमाम समझौतों के बीच गणतंत्र दिवस एक सषक्त परिपाटी की ओर झुकता दिखाई दे रहा है। षिखर बिन्दु यह है कि यह दिवस भारत के लिए एक ऐसा राश्ट्रीय पर्व रहा है जहां से राश्ट्रीय नीतियों का भी उद्घोश होता है। नई पीढ़ी को इस पुरानी परम्परा से अवगत होने का भरपूर अवसर मिलता है। एक ऐसे संकल्प को पुर्नजीवित किया जाता है जो भारतीय राश्ट्रीय आंदोलन के दिनों में अंग्रेजों के विरूद्ध रावी नदी के तट पर संकल्पित हुई थी। यह संदर्भ 26 जनवरी, 1930 का है जिसकी महत्ता और प्रासंगिकता बरस-दर-बरस बढ़त लिये हुए है।
67 वर्शीय गणतंत्र दिवस के अपने ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य भी हैं। 26 जनवरी, 1950 को पहला गणतंत्र दिवस राजपथ पर नहीं बल्कि इर्विन स्टेडियम में हुआ था जो आज का नेषनल स्टेडियम है। पांच गणतंत्र दिवस का समारोह कभी इर्विन स्टेडियम, कभी किंग्सवे कैंप तो कभी रामलीला मैदान में आयोजित होता रहा। वर्श 1955 में पहली बार गणतंत्र दिवस राजपथ पर पहुंचा जो बादस्तूर आज भी नियमित रूप से बना हुआ है। आठ किलोमीटर लम्बी यह परेड रायसिना हिल से षुरू होकर राजपथ, इण्डिया गेट से गुजरते हुए लालकिला तक देखी जा सकती है। इसी दिन भारत का संविधान पूर्ण रूप से लागू हुआ था और देष एक गणतंत्रात्मक की संज्ञा में आया था। वर्श 1970 के बाद 21 तोपों की सलामी तय की गई जो आज भी कायम है। 1950 के गणतंत्र दिवस में इण्डोनेषिया के राश्ट्रपति सुकर्णों से लेकर अब तक के परेड के अवसर पर किसी-न-किसी देष का मुखिया मुख्य अतिथि के तौर पर इसका गवाह बनता रहा है। पिछले वर्श अमेरिकी राश्ट्रपति बराक ओबामा तो इस वर्श फ्रांसिसी राश्ट्रपति 26 जनवरी की परेड का हिस्सा हैं। पड़ताल और परिप्रेक्ष्य इस बात को भी इंगित करते हैं कि अच्छे अवसर बुरी नजरों के षिकार रहे हैं। बीते दो-ढ़ाई दषकों से यह दिवस भी इससे परे नहीं रहा है और इस धुंध के बीच तमाम सुरक्षा व्यवस्था के साथ इसे सफल बनाना अक्सर चुनौती रहा है। एक सच्चाई यह भी है कि एक सुरक्षित देष होने के लिए मजबूत अर्थव्यवस्था का होना आवष्यक है। गणतंत्र दिवस के अवसर पर आये अतिथियों से कई आर्थिक और व्यावसायिक स्तर पर सम्बंध का निरूपण भी होता रहा है। दूसरे षब्दों में कहा जाए तो ऐसे दिवस न केवल संविधान लागू होने तथा स्वतंत्रता के संकल्पित भाव को दोहराने का अवसर देते हैं बल्कि दूसरे देषों से सम्बंधों को प्रागाढ़ करने के साथ आर्थिक नियोजन के काम भी आते रहे हैं।
किसी देष का संविधान उसकी राजनीतिक व्यवस्था का बुनियादी ढांचा निर्धारित करता है और उसी ढांचे पर देष आगे बढ़ता है। गणतंत्र दिवस उसी ढांचे को याद करने का एक राश्ट्रीय पर्व है। संविधान स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति के साथ राश्ट्र सम्पदा भी होते हैं जिसमें जनता की आकांक्षाओं को पूरा कर सकने और न्यायपूर्ण समाज की स्थापना करने की कूबत निहित है। भारत का संविधान किसी क्रान्ति का परिणाम नहीं बल्कि यह क्रमिक विकास की उपज है यही कारण है कि यह अतिरिक्त स्थायित्व लिए हुए है। प्रत्येक गणतंत्र दिवस इसके इन्हीं सब प्रारूपों से एक बार पुनः परिचित होने का अवसर देते हैं। लोकतांत्रिक सरकार और निरपेक्ष न्यायपालिका को बनाये रखने में संविधान मील का पत्थर साबित हुआ है। निःसंदेह गणतंत्र की परेड में बहुत कुछ देखने को मिलता रहा है और इसका हर अवसर देष के लिए भी बेहतरीन रहा है। इन सबके बावजूद विकासात्मक फलक पर खड़े भारत के सामने अभी भी कई चुनौतियां हैं। आर्थिक विकास के साथ सामाजिक न्याय के अलावा राश्ट्रीय सुरक्षा के प्रष्न भी हैं। इन तमाम संदर्भों के बीच एक सकारात्मक सियासत बनाये रखने की चुनौती भी देखी जा सकती है। फिलहाल आतंक के इस दौर से जूझते हुए गणतंत्र को सफल मुकाम देना भी बड़ी सफलता है।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502

सामाजिक न्याय के दायरे में हों विश्विद्यालय

तेजी से बदलते विष्व परिदृष्य की चुनौतियों से निपटने के लिए आज के दौर के विष्वविद्यालयी षिक्षा को सामाजिक न्याय के मामले में कहीं अधिक मजबूत और जात-पात को लेकर निरपेक्ष होने की आवष्यकता है। अन्तर्राश्ट्रीय नागरिक समाज में उचित भूमिका तलाषने में विष्वविद्यालयी षिक्षा कहीं अधिक कारगर रहे हैं। ऐसे में यह जिम्मेदारी और बढ़ जाती है। विष्वविद्यालय को केवल एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी में ज्ञान हस्तांतरण करने तक ही सीमित नहीं होना चाहिए बल्कि षोध और सोच के मामले में मिसाल बनना चाहिए पर दुखद यह है कि परिसर भी वर्ग एवं जाति में उलझने के चलते बाकायदा सियासी औजार बने हुए हैं। उच्च षिक्षा में व्याप्त ऊंच-नीच और जात-पात को कहीं से व्यावहारिक नहीं कहा जा सकता। हैदराबाद विष्वविद्यालय के षोध छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या बीते 17 जनवरी को हुई थी तभी से विष्वविद्यालय में उजागर हुए भेदभाव का विमर्ष उफान लिए हुए है साथ ही कई सवाल और संदेह भी बाखूबी पनपे हैं साथ ही दलित और गैरदलित की सियासत भी गरम है। प्रतिभाओं की मौत को लेकर चिंता होना लाज़मी है मगर इस बात की भी पड़ताल जरूरी है कि इसके पीछे की असल वजह क्या है? हैदराबाद विष्वविद्यालय में 2008 के बाद छः छात्रों ने जातीय उत्पीड़न की वजह से आत्महत्या की। कमोबेष यही हाल एम्स, आईआईटी जैसे संस्थानों सहित कई विष्वविद्यालयों का है। एम्स में कुछ दिन पहले कमजोर तबके के खुदकुषी के चलते बनी सुखदेव थोराट कमेटी ने भी माना कि देष के उच्च षिक्षा संस्थानों में जातिगत भेदभाव जारी है। यहां जात-पात कैसे पोशित होता है इसकी भी वजह खोजने की जरूरत है। आखिर इस मामले में दोश किसका है, जाहिर है षिक्षा का तो बिल्कुल नहीं यदि संदेह किया जाए तो इसमें निहित सामाजिक व्यवस्थाएं एवं उपव्यवस्थाएं आ सकती हैं। रोचक यह है कि दुनिया के सर्वाधिक नौजवान भारत के पास हैं पर हैरत की बात यह है कि विक्षिप्त भी यही खेमा है।
रोहित की आत्महत्या को लेकर कठघरे में आई केन्द्र सरकार बचाव की कोषिष में लगी है। मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी यह साफ कर चुकी हैं कि मसला दलित और गैरदलित का नहीं है। इस वक्तव्य को लेकर भी सियासी गर्मी बढ़ी है। केन्द्रीय मंत्री बंडारू दत्तात्रेय और विष्वविद्यालय के कुलपति कानूनी आंच से घिरे हैं। एक बात तो तय मानी जा सकती है कि जब भी षिक्षा और उच्च षिक्षा के मामले में स्थिति पटरी से उतरी है तब-तब उसे सियासी रूख देकर लाभ उठाने की खूब कोषिष की जाती है। इन दिनों हैदराबाद विष्वविद्यालय की घटना को लेकर एक तरफ सरकार को घेरने की जबरदस्त कोषिष की जा रही है तो दूसरी तरफ कई विरोधी दल इसे राजनीतिक रंग देने में लगे हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने बीते 22 जनवरी को लखनऊ के भीमराव अम्बेडकार विष्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में रोहित वेमुला की आत्महत्या को लेकर काफी व्यथित दिखाई दिये साथ ही भावुक भी। देखा जाए तो सामाजिक विशमता से षिक्षण संस्थाएं आज भी वंचित नहीं हैं। वर्तमान मोदी सरकार नई षैक्षणिक नीति बनाने की कोषिष कर रही है बेषक इससे भी कुछ कदम आगे बढ़ेंगे। ग्यारहवीं पंचवर्शीय योजना में 2006 से लेकर 2011 तक की उच्च षिक्षा का अध्ययन किया गया और जानने का प्रयास था कि क्या-क्या समस्याएं व्याप्त हैं जिसे आधार रूप देते हुए ‘ह्यूमन प्लानिंग‘ की नीति भी बनाई गयी। वर्श 2009 में यषपाल समिति ने भी विष्वविद्याली षिक्षा को लेकर कई सम्भावनाओं से भरी सिफारिषें की थीं जो लागू भी हुईं। पूर्व राश्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम भारत में षिक्षा, रोजगार और उद्यम के बीच सम्बंध स्थापित करने की बात करते रहे पर षायद इन्हें भी ऐसी उम्मीद कभी नहीं रही होगी कि बड़ी सोच विकसित करने वाले विष्वविद्यालय जात-पात के उलझनों में वक्त जाया करते होंगे। यूपीए सरकार की एक योजना के तहत 2008-09 में सभी केन्द्रीय विष्वविद्यालय, आईआईटी और आईआईएम जैसी संस्थाओं में आम श्रेणी की सीटें बढ़ा दी गई थी और यह फैसला एससी, एसटी, ओबीसी के आरक्षण से उठे सवाल के चलते थे। देखा जाए तो यह राजनीतिक मजबूरी छुपी सामाजिक न्याय ही था। उसी दौर में ज्ञान आयोग के एक सदस्य ने त्याग पत्र देते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को चिट्ठी लिखी कि ‘प्रायः यह कहा जाता है कि भारत में जाति एक वास्तविकता है लेकिन आपकी सरकार भारत में जाति को एक मात्र वास्तविकता बनाने की प्रक्रिया में है‘। उक्त संदर्भों से समस्या को और बारीकी से परखा जा सकता है।
सवाल उठता है कि क्या हैदराबाद में एक षोध छात्र की आत्महत्या ने एक बार फिर षैक्षणिक परिसरों में जात-पात की अवधारणा को उजागर किया है? भारत सनातन और पुरातन से ही सामाजिक बंटवारे का बाकायदा षिकार रहा है। भारतीय राश्ट्रीय आंदोलन के दिनों में भी धर्म और जाति के नाम पर अलग-अलग धु्रव हुआ करते थे उस दौर की षैक्षणिक संस्थाएं भी इससे परे नहीं थी। इस आरोप को खारिज नहीं किया जा सकता कि ऐसी ही व्यवस्था कमोबेष आज भी कायम है, षायद आगे भी रहे पर इक्कीसवीं सदी के दूसरे दषक के मध्य में खड़े होकर इस संकल्प को लेने में क्या बुराई है कि आगे ऐसा नहीं होगा। हमारे पास एक लोकतांत्रिक सरकार है, सुषासन से भरी व्यवस्था है, निरपेक्षता से परिपूर्ण न्यायपालिका है साथ ही मजबूत आर्थिक व्यवस्था और बेहतर षिक्षा का ढांचा है फिर भी षिक्षा के परिसर में जात-पात का वातावरण होना वाकई में अफसोसजनक ही कहा जायेगा। औपनिवेषिक काल में भी पाष्चात्य षिक्षा एवं उसके प्रभाव ने जाति निरपेक्ष षिक्षा को बढ़ावा दिया, रूढ़िवादिता एवं जातीय भेदभाव को दूर किया तथा समानता, बंधुत्व और स्वतंत्रता की अवधारणा को विकसित किया जिसकी काफी हद तक रोपाई भारतीय संविधान में देखी जा सकती है। बावजूद इसके विष्वविद्यालय जात-पात की मानसिकता से उबर नहीं पाये हैं जो दुःखद हैं।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भूमंडलीकरण और तकनीकी नवीकरण के इस युग में षक्ति और जाति का स्वरूप बदल गया है साथ ही साथ ज्ञान और उसका स्वरूप भी बदल रहा है। इतना ही नहीं अर्थव्यवस्था के साथ मिजाज भी बदल रहे हैं। ऐसे में सामाजिक ताना-बाना और रूढ़िवादिता से जकड़ी उपव्यवस्थाओं को बदलना ही होगा जो मात्र षैक्षणिक संस्थाओं के बूते नहीं किया जा सकता। यदि सामाजिक बुराई है तो समाधान भी वहीं से खोजना होगा। समाजषास्त्री मजूमदार ने कहा था कि ‘जाति एक बंद वर्ग है’ जाहिर है इसे बदलना किसी के लिए भी सम्भव नहीं है। वक्त के साथ योग्यता बदल सकती है, विचार बदल सकते हैं, चरित्र और स्वभाव भी बदल सकते हैं पर जाति नहीं। बावजूद इसके समानता और भाईचारे को जो भारतीय संविधान की प्रस्तावना में भी निहित है उसे बनाये रखने में आखिर किसे और क्यों गुरेज है। लाख टके का सवाल तो यह भी है कि षिक्षा जैसे हथियार के बूते हम समाज बदलने की कूबत रखते हैं पर जहां से यह बंटती है वहीं पर ही लोग बंटे हुए है। भले ही षिक्षा परिसर जात-पात से मुक्त न हो पा रहे हों पर उससे होने वाली अनहोनी से तो मुक्ति मिलनी ही चाहिए। भले ही वाद-प्रतिवाद हो पर सम्भावना संवाद की भी बनी रहनी चाहिए। विष्वविद्यालय सपने देखने की वाजिब जगह है यहां से घुटन की गंजाइषें खत्म होनी चाहिए। यदि इन्हें कोई जिन्दा रखना चाहता है तो वह न तो षिक्षा, न ही समाज और न ही मानव जगत का षुभचिन्तक है।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
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Wednesday, January 20, 2016

सवालों में शैक्षणिक संस्थान और बौद्धिक सम्पदा दोनों

आधुनिकीकरण और राश्ट्रवादिता प्रदान करने के सम्बंध में पहले विष्वविद्यालय राश्ट्र-राज्य के दाहिने हाथ का काम करते थे और कई सामाजिक जिम्मेदारियों के साथ अनुकूलन स्थापित करने में कहीं अधिक सामथ्र्यवान थे। षैक्षणिक संस्थाएं बौद्धिक और ज्ञान सम्पन्न होने के नाते समाज के प्रति विषेश जिम्मेदारी के लिए भी जानी और समझी जाती हैं परन्तु जब यहां से कुछ घटाव से जुड़ी घटनाएं होती हैं तो इन पर ही पलट सवाल खड़े हो जाते हैं जैसा कि हैदराबाद केन्द्रीय विष्वविद्यालय इन दिनों सवालों के घेरे में है। प्रष्न उठता है कि क्या वर्तमान स्थिति के संदर्भ में ज्ञान सम्पदा से युक्त संस्थाएं अपनी पहचान बदल रही हैं यदि ऐसा है तो इनके अन्दर भी झांकने का वक्त षायद अब आ चुका है। विष्वविद्यालय के अम्बेडकर छात्रसंघ से जुड़े दलित पीएचडी छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या के चलते एक साथ कई सवाल उभरे हैं जिसे लेकर न केवल चर्चा-परिचर्चा जोर पकड़े हुए है बल्कि विष्वविद्यालय की व्यवस्था ही चैतरफा उठे प्रष्नों से जकड़ ली गयी है। आत्महत्या से जुड़े रोहित वेमुला की मार्मिक पत्र का उल्लेख सोषल मीडिया से लेकर टीवी एवं समाचारपत्रों में बाकायदा उजागर किया गया। पत्र की बुनाई जिस कदर और जिस भाव से की गयी थी वह सभ्य समाज को आहत करने वाली है परन्तु हैरत इस बात की है कि आखिर इतने होनहार होने के बावजूद रोहित वेमुला ने आत्महत्या जैसा कदम क्यों उठाया क्या इसके अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं था? जहां तक जान पड़ता है वर्ग संघर्श के दौर सैकड़ों वर्शों से देष में रहा है। ऊँच-नीच, भेदभाव युक्त समाज में कईयों ने इससे लोहा भी लिया है और वे इसी समाज में अपने रसूक को एक उदाहरण के तौर पर पेष भी किया है। फिलहाल इस ताजे घटनाक्रम ने आज के समाज को कहीं अधिक झिझोड़ने का काम किया है।
षोध छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या जितनी कश्टकारी है उतनी ही बड़ी त्रासदी से भरी सच्चाई यह है कि विष्वविद्यालय में अध्ययनरत् बौद्धिक सम्पदाएं इस रूप में विक्षिप्त हो रही हैं कि जान तक देना पड़ रहा है जो गम्भीर चिंता का विशय है। देखा जाए तो विष्वविद्यालय सहित षिक्षण संस्थाओं में वैचारिक अन्तर हमेषा से ही मौजूद रहे हैं। विष्वविद्यालय जीवन में सभी का सामना कमोबेष इस बात से जरूर हुआ होगा कि वर्ग विषेश की अवधारणा से परिसर जकड़े रहे हैं। रोहित अम्बेडकर छात्र परिशद् से जुड़ा था और इसी परिसर में कांग्रेस और वामपंथी विचारधारा के अतिरिक्त एबीवीपी छात्र संगठन भी सक्रिय है और ऐसे उदाहरण दिल्ली विष्वविद्यालय, जेएनयू, इलाहाबाद एवं लखनऊ विष्वविद्यालय सहित कमोबेष देष के किसी भी परिसर में व्याप्त देखे जा सकते हैं। जाहिर है कि हैदराबाद केन्द्रीय विष्वविद्यालय भी इससे अछूता नहीं है बावजूद इसके ऐसी अनहोनी सभ्य समाज की दृश्टि से कहीं से सुपात्र नहीं कही जायेगी। इस घटना के चलते समाज एक बार फिर वर्गों में बंटता दिखाई दे रहा है। फिलहाल मामले को लेकर विष्वविद्यालय के कुलपति और केन्द्रीय मंत्री बंडारू दत्तात्रेय पर कार्रवाई को लेकर प्रक्रिया षुरू कर दी गई है पर इस सवाल को भी समझना जरूरी है कि एक षोध छात्र जो बेहतर सोच का है जैसा कि उसने पत्र में भी यह लिखा है कि उसकी मौत का कोई जिम्मेदार नहीं है आखिर संघर्श के बजाय खुदकुषी का रास्ता क्यों चुना। समझना तो यह भी है कि रोहित वेमुला की खुदकुषी यहां की अकेली घटना नहीं है पिछले दस सालों में 8 दलित छात्रों ने आत्महत्या की फिर भी विष्वविद्यालय प्रषासन ने कोई सबक नहीं लिया आखिर विष्वविद्यालय प्रषासन इतना उदासीन क्यों बना रहा? परिप्रेक्ष्य और दृश्टिकोण यह भी है कि इस प्रकार की घटनाओं से व्यापक विरोध भड़कता है और षैक्षणिक संस्थाओं को लेकर अविष्वसनीयता बढ़ती है जिसे किसी भी तरह से उचित करार नहीं दिया जा सकता।
जिस तर्ज पर षिक्षा व्यवस्था का भरण-पोशण हो रहा है और जिस चतुराई से उच्चतर षिक्षा में सुधार के नाम पर बहुराश्ट्रीय कम्पनियों, निगमित क्षेत्र और निजी हितों ने सामान्य और उदारवादी षिक्षा से ध्यान हटाकर व्यावसायिकता के साथ इसे बाजार में ला खड़ा किया गया उससे भी काफी हद तक षिक्षण संस्थाओं का मोल न केवल बाजारू हुआ है बल्कि समाज के प्रति इनकी जिम्मेदारी भी मानो कुछ घट गयी हो। हालांकि केन्द्रीय विष्वविद्यालयों के मामले में ये बातें लागू नहीं होती हैं। देष में केन्द्रीय विष्वविद्यालयों की अपनी एक गौरवषाली साख रही है। यहां की बौद्धिक सम्पदाएं समाज में उम्दा नजरों से देखी जाती हैं पर जिस प्रकार षैक्षणिक गिरावट दिन-प्रतिदिन जोर पकड़े हुए है और परिसर भी भेदभाव की भावना से मुक्त नहीं है यहां तक कि लगातार खुदकुषी की घटनाएं हो रही हों तो कई बार सोचने की जरूरत तो है। 2013 में ही पीएचडी छात्र एम. वैंकटेष ने आत्महत्या की थी और कहा जाता है कि ऐसा उसने दलित छात्र के साथ हो रहे भेदभाव के चलते किया था। 2008 में पीएचडी के ही एक अन्य छात्र सैंथिल कुमार ने जहर खाकर खुदकुषी इसलिए की क्योंकि उसकी छात्रवृत्ति रोक दी गयी थी। अलग-अलग वजहों से कई दलित छात्रों की खुदकुषी विष्वविद्यालय के तौर तरीके पर सवाल खड़े करती है जो लाज़मी है। रोहित वेमुला आत्महत्या को एक दलित षोधार्थी की आत्महत्या के तौर पर देखें तो प्रांगण की दषा को सामाजिक भेदभाव से युक्त देखा जा सकता है पर सवाल तो यह भी है कि जहां संघर्श की जरूरत थी वहां खुदकुषी को अपनाना कितना वाजिब था? ध्यानतव्य हो कि जब अन्य पिछड़े वर्ग को आरक्षण दिये जाने के चलते नब्बे के दषक में छात्रों द्वारा आत्मदाह का रास्ता अख्तियार किया गया था और दिल्ली विष्वविद्यालय के राजू गोस्वामी पहला षख्स जिसने इसके विरोध में पहल किया आखिर उनके सामाजिक मूल्य का क्या हुआ और कौन सा परिवर्तन आया इस पर भी गौर करने की जरूरत है।
सवाल तो यह भी है कि कहीं हमारी षिक्षा व्यवस्था में ही तो दोश नहीं है। कहीं हम बाजार और उपभोक्तावाद में इतने तो नहीं डूब गये कि बौद्धिक सम्पदा बनाना ही भूल गये। दुनिया भर के षिक्षाविद् नीलवाग, गीजू भाई, टैगोर, गांधी और जाॅन होल्ड आदि उस षिक्षा के हिमायती रहे हैं जो समाज को एक बौद्धिक सम्पत्ति के रूप में प्राप्त हो और जिसमें नैतिकता के साथ व्यक्तित्व की पराकाश्ठा निहित हो पर दुःखद यह है कि आज की षिक्षा व्यवस्था में इसका घोर आभाव दिखाई देता है। प्रतिस्पर्धा कोई बुरी बात नहीं है पर मनसूबों को बगैर टटोले होड़ में फंसना अक्लमंदी भी नहीं है। मुंषी प्रेमचन्द से लेकर आइंस्टीन तक की जीवनी पढ़ी जाए तो यह जान सकने में सक्षम होंगे कि प्रतियोगिता में कुछ नम्बरों के कम-ज्यादा होने से ऊंचाईयों को कोई फर्क नहीं पड़ता और कबीर से लेकर दयानंद सरस्वती और अम्बेडकर को देखा जाए तो इन्होंने भेदभावयुक्त समाज से न केवल लोहा लिया बल्कि उसी समाज को दिषागत करने का भी काम किया। तंत्र और समाज सभी को समझना होगा और षिक्षा को लेकर जो असमंजस का भाव उभर रहा है उसको भी कुरेदना होगा सिर्फ आईआईटी या मेडिकल में चुने हुए ही श्रेश्ठ नहीं हैं, श्रेश्ठ तो वे भी हैं जो अनपढ़ होते हुए भी सफल व्यावसायी हैं, स्टार्टअप हैं, रोजगार देने वाले हैं और समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझते हैं। वर्ग संघर्श भारत में हमेषा से कायम रहे हैं, आज भी मौजूद हैं और षायद आगे भी रहेंगे और इसका डट के सामना करना ही षिक्षा के असल मायने हैं।




सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502

Tuesday, January 19, 2016

अमीरी-गरीबी की बढ़ी खाई के बीच हमारी कोशिशें

विष्व आर्थिक फोरम के 19 जनवरी, 2016 को आयोजित सालाना सम्मेलन से पहले आॅक्सफैम ने ‘एन इकाॅनोमी फाॅर द वन परसेन्ट‘ नाम की रिपोर्ट में वैष्विक आर्थिक असमानता को उजागर किया। सालाना रिपोर्ट देने वाली इस संस्था के अनुसार विष्व की सबसे गरीब 50 प्रतिषत आबादी की सम्पत्ति बीते पांच वर्श में 41 फीसद घटी है साथ ही आबादी में 40 करोड़ का इजाफा हुआ है। रिपोर्ट में दर्षाया गया है कि दुनिया के 62 सबसे अमीर व्यक्तियों की सम्पत्ति 50 प्रतिषत जनसंख्या की सम्पत्ति के बराबर है जबकि 2010 में इतनी ही गरीब जनसंख्या की सम्पत्ति की तुलना में 388 अमीर लोग हुआ करते थे। सांख्यिकीय परिप्रेक्ष्य का रोचक पहलू यह है कि अमीरों की सम्पत्ति तो गुणोत्तर श्रेणी के साथ बढ़ रही है जबकि यही बढ़त गरीबों में जनसंख्या के मामले में है। 1990 से 2010 के बीच गरीबी के आंकड़े को देखें तो वैष्विक स्तर पर यह अब आधी हो गयी है। बावजूद इसके महिलाएं अभी सबसे ज्यादा प्रभावित दिखाई देती हैं उनकी आमदनी पूरी दुनिया में सबसे कम बताई जा रही है। असमानता का मापदण्ड इसलिए बढ़ा क्योंकि आय में गरीबों की भागीदारी निरन्तर घटाव लिए हुए है। इतना ही नहीं अधिकतर विकसित और विकासषील देषों में मजदूरों की आय उस अनुपात में कभी नहीं बढ़ी जिस तुलना में आवष्यकताओं तथा विकासात्मक संदर्भों ने बढ़त बनाया है।
वल्र्ड बैंक की मई, 2014 की रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के 17.5 फीसदी गरीब भारत में रहते हैं। भारत में कभी भी ऐसा समय नहीं रहा जब समाज में गरीबी का पूर्णतः आभाव रहा हो पर यह उम्मीद जताई जा रही है कि 2030 तक भारत समेत दुनिया से गरीबी का सफाया हो जायेगा। भारत में गरीबी को लेकर दषकों से प्रयास किये जा रहे हैं। पांचवीं पंचवर्शीय योजना (1974-79) गरीबी उन्मूलन की दिषा में उठाया गया बड़ा दीर्घकालिक कदम था। 1989 में लकड़ावाला कमेटी की रिपोर्ट को देखें तो स्पश्ट था कि ग्रामीण क्षेत्रों में 2400 कैलोरी और षहरी क्षेत्रों में 2100 कैलोरी ऊर्जा जुटाने वाला गरीब की संज्ञा से मुक्त था फिर भी यहां गरीबी का आंकड़ा 36.10 फीसदी था। एक दषक के बाद यही आंकड़ा 10 फीसद घटाव के साथ 26.10 पर आकर टिका तत्पष्चात् कई नोंक-झोंक और उतार-चढ़ाव के साथ वर्तमान में यह 21 फीसद पर बना हुआ है जिस प्रकार गरीबी को लेकर खींचातानी रही है उसे देखते हुए ऐसा भी लगा कि यह आर्थिक नहीं मानो राजनीतिक समस्या हो। एक थाली भोजन की कीमत 20 रूपए, 10 रूपए या इससे कम में भी सम्भव है ऐसी दलीलें तीन-चार वर्श पूर्व काफी जोर लिए हुए थी। भारत में गरीबी रेखा के नीचे वह नहीं है जिसकी कमाई प्रतिदिन सवा डाॅलर थी। हालांकि विष्व बैंक ने अपनी ताजे रिपोर्ट में इसका पुर्ननिर्धारण करते हुए 1.90 डाॅलर कर दिया है।
क्या गरीबी की कोई विवेकपूर्ण व्याख्या हो सकती है? क्या ऐसी कोई कूबत है जो अरबों की दुनिया में रहने वाले करीब 88 करोड़ गरीब को इस कुचक्र से बाहर निकाल सकती है? सी. रंगराजन रिपोर्ट को देखें तो इससे षहर भी बेहाल है और गांव भी। गरीबी आर्थिक परिभाशा से जकड़ी एक ऐसी अवधारणा है जो सामाजिक बुराई का रूप ले लेती है और इसके घटने की तभी उम्मीद होती है जब इसके घटाव वाले कारण मौजूद हों। 15 वर्श में गरीबी खत्म करने वाले लक्ष्य कितने सफल होंगे अभी से कोई निष्चित राय नहीं बनाई जा सकती। दुनिया के तीन अरब लोग रोजाना 162 रूपया भी नहीं कमा पाते, 80 करोड़ लोग इसी दुनिया में पर्याप्त भोजन नहीं जुटा पाते, करीब सवा अरब के पास पीने का स्वच्छ पानी नहीं है। अतिरिक्त कूबत और नियोजन निवेष करने के बावजूद मात्र 9.6 फीसदी की गरीबी पिछले एक दषक में कम हुई है। भारत में हालत बहुत नाजुक है। गरीबी के साथ-साथ बीमारी और अन्य बुनियादी समस्याओं का यहां अच्छा-खासा अम्बार लगा है। स्वच्छता अभियान पिछले डेढ़ वर्शों से पैर पसारे हुए है। सफलता दर आंकड़ों में जो है वह वास्तव में कितना है अन्यों की भांति यह भी संदेह से मुक्त नहीं है। 60 प्रतिषत भारतीयों के पास षौचालय व्यवस्था नहीं है और बारीकी से पड़ताल करें तो दक्षिण एषिया के आठ देषों में भारत इस मामले में सातवें स्थान पर है। करीब डेढ़ लाख बच्चे हर साल डायरिया के षिकार होते हैं।
एकमुष्त गरीबी दूर करने की हमारी कोषिषें किस्तों और अनेक मंसूबों में बंटी रही हैं। चार दषक से एक व्यापक कार्य सूची को समाहित किये हुए सरकारें प्रभावषाली नीतियों का दावा करती रही हैं पर एक अच्छे नतीजे की आषा आज भी अधूरी है। लोक प्रवर्धित अवधारणा से युक्त सुषासन की परिभाशा को भी गरीबी खूब चिढ़ा रही है। प्रधानमंत्री मोदी की कई बुनियादी नीतियों को इसके जुगत के रूप में देखा जा सकता है पर यह भी अभी आषाकालिक ही कही जायेंगी। ऐसा नहीं है कि गरीबी से जुड़े आंकड़ें पहली बार आये हों। लाख टके का सवाल तो यह है कि समस्या दूर करने वालों पर इसका कितना असर होता है। जिस अनुपात में दर्द की समझ होगी, उसी की तुलना में इलाज की कवायद भी होगी। लकड़ावाला से लेकर रंगराजन कमेटी तक गरीबी के आंकड़ें परोसे जाते रहे। समय के साथ भूख के अर्थषास्त्र को भी समझने की कोषिष की जाती रही पर यह चैप्टर आज भी खुला का खुला ही है। विष्व बैंक के अध्यक्ष जिम योंग किंग ने कहा था कि ‘हम मानव इतिहास की पहली पीढ़ी हैं जो कि अति गरीबी को खत्म कर सकते हैं।‘ भारत में गरीबी घटने के स्तर में तेजी दिखाई देती है पर 6 जुलाई, 2014 की रंगराजन कमेटी की रिपोर्ट यह कहकर आष्चर्यचकित करती है कि भारत का हर तीसरा व्यक्ति गरीब है। फिलहाल इसकी गम्भीरता को देखते हुए विष्व भर के देषों को इस बाबत और बड़ा संवेदनषील कदम उठा ही लेना चाहिए। सभी जानते हैं कि गरीबी कई समस्याओं की जननी है। ऐसे में सभ्य समाज को सार्थक बनाये रखने के लिए आतंकवाद और जलवायु परिवर्तन की भांति इस चुनौती को भी प्राथमिकता में रखने की कहीं अधिक आवष्यकता है।





लेखक, वरिश्ठ स्तम्भकार एवं रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन के निदेषक हैं
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्ससाइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)

Sunday, January 17, 2016

अर्थशास्त्र का नया दर्शन स्टार्टअप इंडिया

स्टार्टअप-स्टैंडअप इण्डिया की घोशणा 15 अगस्त, 2015 को लाल किले की प्राचीर से 69वें स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर प्रधानमंत्री मोदी ने की थी और दिसम्बर, 2015 में रेडियो कार्यक्रम ‘मन की बात‘ में भी यह वादा किया था कि 16 जनवरी, 2016 को इस कार्ययोजना का विधिवत षुभारम्भ किया जायेगा जिसकी षुरूआत इसी तिथि को दिल्ली के विज्ञान भवन से की गयी। सिलिकाॅन वैली से कई भारतीय अमेरिकी इस कार्यक्रम में हिस्सा लेने के लिए यहां पहुंचे। इसके अलावा कई उद्यमी और निवेषकों का भी यहां जमावड़ा रहा। एक प्रकार से यह कार्यक्रम लाइसेंस राज के खात्मे की दिषा में भी कदम है जैसा कि वित्त मंत्री अरूण जेटली ने कहा है। देखा जाए तो 1991 के नई आर्थिक नीति के तहत लाइसेंस राज को जो आंषिक तौर पर समाप्त किया गया था उसकी भी यह पूर्ति करता है। इस योजना को सामाजिक-आर्थिक परिप्रेक्ष्य के साथ सुषासन सम्बंधी साहित्य में भी नव-अविश्कृत परियोजना के तौर पर पहचान मिल सकती है। आज का भारत वैष्विक पटल पर आर्थिक दृश्टि से कहीं अधिक खुला है। ऐसे में स्टार्टअप इण्डिया जैसे कार्यक्रम भारतीय अर्थव्यवस्था में युग प्रवर्तक और नव क्रान्ति के परिचायक हो सकते हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने नये उद्यमों को बढ़वा देने के लिए अपने एक्षन प्लान के तहत कई प्रमुख बातों खुलासा भी किया। इसके ‘मैकेनिज्म माॅडल‘ से लगता है कि आने वाले दिनों में देष में रोजगार की संख्या और रोजगार देने वालों की संख्या बढ़ सकती है। ‘षुरूआत करो, आत्मनिर्भर बनो‘ मोदी सरकार के इस देषव्यापी अभियान से यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि इस योजना के मन्तव्य में ‘सबका साथ, सबका विकास‘ की अवधारणा भी निहित है। इसमें ‘मेक इन इण्डिया‘ के निहित परिप्रेक्ष्य भी साझा होते दिखाई दे रहे हैं। देखा जाए तो इसमें एक समावेषी अवधारणा से युक्त योजना का आगाज भी समाहित है। बहरहाल स्टार्टअप इण्डिया एक अच्छा कार्यक्रम है जो भारतीय अर्थव्यवस्था को दिषागत करने और सुषासन की राह को सरल बनाने में कहीं अधिक लाभकारी सिद्ध होगा।
स्टार्टअप इण्डिया, स्टैंडअप इण्डिया नामक इस अभियान के लक्ष्य भी व्यापक हैं जिसमें उद्यमों के लिए बैंक वित्त और उद्यमषीलता को बढ़ावा देना आदि देखा जा सकता है साथ ही रोजगार सृजन और कौषल विकास के जरूरी पक्ष भी इसमें षामिल हंै। योजना को डिपार्टमेंट आॅफ इंडस्ट्रियल पाॅलिसी के अन्तर्गत लाया गया है। इस विजन के तहत 10 हजार करोड़ के फंड का प्रधानमंत्री मोदी द्वारा ऐलान किया गया। साथ ही यह भी कहा गया कि चार साल तक 500 करोड़ रूपए का क्रेडिट गारंटी फंड भी बनाया जाएगा। पहले तीन साल तक नये उद्यमों की न तो कोई जांच होगी और न ही आयकर वसूला जाएगा साथ ही पूंजीगत लाभ पर भी टेक्स से छूट मिलेगी। एक दिन में ऐप से कम्पनी का रजिस्ट्रेषन करा सकते हैं चाहें तो 90 दिनों में बंद कर सकते हैं। यह योजना 1 अप्रैल 2016 से लागू होगी। इसकी प्रषंसा करते हुए राश्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने कहा कि स्टाॅर्ट अप में देरी के लिए मैं भी जिम्मेदार हँू। इसमें खासियत यह भी है कि इसके चलते युवाओं को कुछ नया करने का अवसर मिलेगा और देष नये किस्म के उत्पाद और सेवा से युक्त होगा। जिसके चलते सरकार कई तरीके के फायदे लोगों को दे सकेगी और इस बात से भी स्वयं को सुरक्षित कर सकेगी कि रोजगार सृजन की सम्भावनाएं अब सरकार के जिम्मे ही नहीं हैं। उद्यमियों को वित्तीय समर्थन और विकास की राह में रोड़े को हटाने का काम करके सरकार विकास का एक बेहतर सेतु बना रही है। स्किल इण्डिया, डिजीटल इण्डिया और मेक इन इण्डिया सहित कई मापदण्डों को इसके अधीन समावेषित माना जा सकता है। यह कार्यक्रम एक कारोबारी विचार लिए हुए है पर यह उम्मीद जताई जा सकती है कि इसके चलते देष में सामाजिक-आर्थिक बदलाव ही नहीं बेहतर कार्य-संस्कृति का वातावरण भी बनेगा।
आज भारत स्टार्टअप कम्पनियों के मामले में दुनिया में तीसरे नम्बर पर है। यह भी सही है कि कई विकसित एंव विकासषील देषों की तुलना में भारत में षोध पर बहुत ध्यान नहीं दिया गया है। एषिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के अधिकतर देषों की कमोबेष यही स्थिति है। 1963 में तीसरी दुनिया के विकास को लेकर तुलनात्मक लोक प्रषासन (सीएजी) जैसी संस्था का गठन एक प्रषासनिक विचारक फ्रेडरिग्स के निर्देषन में हुआ था जिसकी वित्तीय जरूरतों को ‘फोर्ड फाउंडेषन‘ पूरा करता था। बेषक एक दषक के बाद यह संस्था ढह गयी पर उक्त देषों के विकास के लिए क्या जरूरी है इसका सामाजिक और सांस्कृतिक पहलू उजागर करने में यह काफी मददगार सिद्ध हुआ था। स्वतंत्रता से अब तक कई अच्छी चीजें भारत में सुगम पथ इसलिए नहीं ले पाईं क्योंकि यहां एक तकनीकी समस्या अच्छे षोध के न होने की रही है। आज भी भारत अपने जीडीपी का एक प्रतिषत से कम षोध व विकास पर खर्च करता है जिसके चलते उसकी तकनीकी विकास पर निर्भरता दूसरे देषों पर लगातार बढ़ी है। जाहिर है यदि देष में षोध की महत्ता बढ़े और उसे प्राथमिकता में रखा जाए तो कई अच्छे परिणाम देखने को मिलेंगे। षोध के लिए भारत रत्न प्राप्त प्रो. सीएनआर राव भी इस बात को कह चुके हैं कि सरकारें षोध पर खर्च नहीं करती हैं। फिलहाल स्टार्टअप के संदर्भ में दक्षिण भारत के चार राज्यों कर्नाटक, केरल, आंध्र प्रदेष और तेलंगाना बेहतरीन प्रदर्षन कर रहे हें। 2004 से 2014 के दौरान भारत में 4 हजार कम्पनियों ने विदेषी निवेष हासिल किये और इनमें से आधी स्टार्टअप कम्पनियां रही हैं। योजना का उद्देष्य यह भी है कि युवाओं को नवीनतम एवं रचनात्मक कार्यों के लिए उचित ढांचा तैयार करके न केवल आर्थिक मदद दिया जाए बल्कि करों में भी छूट दिया जाए। प्रयास यह भी है कि इसके चलते अधिक से अधिक लाभ छोटे षहरों और गांव के रहने वालों को हो।
भारत की कुल श्रम षक्ति का 2.3 फीसदी लोग ही विधिवत् प्रषिक्षण से युक्त हैं जबकि ब्रिटेन, जर्मनी, अमेरिका, जापान और दक्षिण कोरिया जैसे देषों में यह आंकड़ा 68 से 96 फीसदी तक है। इतना ही नहीं देष में कौषल विकास के सिर्फ 15 हजार ही संस्थान हैं जबकि चीन जैसे देषों में ऐसे संस्थानों की संख्या 5 लाख हैं। छोटा सा देष दक्षिण कोरिया स्किल डवलेपमेंट के एक लाख संस्थान रखता है। भारत में प्रत्येक वर्श एक हजार से बारह सौ स्टार्टअप षुरू हो रहे हैं जिसमें सबसे ज्यादा मैट्रो और टियर वन षहर हैं। देष के सबसे ज्यादा स्टार्टअप बंगलुरू में देखे जा सकते हैं। किसी भी देष को सामाजिक-आर्थिक विकास पाने के लिए कौषल विकास के साथ बुनियादी विकास कहीं अधिक जरूरी है। भारत जैसे विकासषील देष संतुलित विकास की अवधारणा में पूरी तरह इसलिए नहीं आ पाये क्योंकि यहां संरचनात्मक विकास कमजोर रहा है। नैसकाॅम स्टार्टअप के जरिए 2014 से 2020 तक 65 हजार नई नौकरियां आ रही हैं और संभावना है कि यह आंकड़ा ढ़ाई लाख तक पहुंचेगा। भारत के कई राज्य आर्थिक समस्याओं के चलते बेहतर स्टार्टअप नहीं ले पाए हैं। प्रधानमंत्री मोदी की इस मुहिम से उन्हें भी प्रोत्साहन मिलेगा। जिस प्रकार भारत में अर्थव्यवस्था उभर रही है उसे देखते हुए अंदाजा लगाना सहज है कि रोजगार समेत कई सामाजिक समस्याओं का इसके चलते निस्तारण भी होगा। अन्त में कह सकते हैं कि विकास बदलती परिस्थितियों के अनुपात में नित नई योजनाओं, परियोजनाओं और कार्यक्रमों के चलते प्राप्त होता है। जाहिर है ‘स्टार्टअप इण्डिया, स्टैंडअप इण्डिया‘ बदलते दौर की बड़ी मांग है।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
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Thursday, January 14, 2016

शरीफ के लिए कार्यवाही करना ज़रूरी था

इस आरोप को कि पाकिस्तान आतंक के मामले में हमेषा निर्जीव निर्णय लेता रहा है और इस दिषा में उसके द्वारा की जाने वाली कोषिषें भी कहीं अधिक अस्थाई प्रवृत्ति लिए रही हैं पर इस बार ऐसा होता दिखाई नहीं दे रहा। पठानकोट के आतंकियों के आका पर पाकिस्तान द्वारा की गई कार्यवाही के चलते कुछ जीवट संकेत मिलने लगे हैं। पठानकोट में हमले के जिम्मेदार आतंकी संगठन जैष-ए-मोहम्मद के सरगना मसूद अजहर समेत कई अन्य की गिरफ्तारी इस बात को पुख्ता करती है कि पाकिस्तान भारत समेत वैष्विक दबाव को अब और नहीं झेलना चाहता। वजह कुछ भी हो यदि यह बात पूरे प्रमाण के साथ साबित होती है कि आतंकियों पर पाक ने काबू पाने का मन बना लिया है तो हर हाल में इससे पाकिस्तान की छवि को ही सहूलियत मिलने वाली है। हालांकि प्रधानमंत्री मोदी के कूटनीतिक दांवपेंच को भी इस मामले में कमतर नहीं आंका जाना चाहिए। बीते 25 दिसम्बर को जब लाहौर में आकस्मिक तौर पर प्रधानमंत्री मोदी की यात्रा हुई तब से लेकर अब तक कई प्रकार के कयास भारत-पाक को लेकर लगाये गये। बेषक मोदी वैष्विक पटल पर भारत को कूबत से भरा देष बनाने का काम कर रहे हैं पर पाकिस्तान से आतंक के मामले में जो अपेक्षा थी वह बीते डेढ़ वर्शों में तो पूरी नहीं हुई है। हांलाकि इसकी आंषिक पूर्ति इन दिनों होते हुए देखी जा सकती है। मोदी जलवायु परिवर्तन और आतंकवाद को लेकर संजीदगी दिखाते रहे हैं। इन दोनों समस्याओं को लेकर वैष्विक मंच पर अपने मत रखते रहे हैं। हालांकि मन माफिक सफलता के लिए अभी और इंतजार करना है क्योंकि पाकिस्तान ने जो कदम उठाया है उसे लेकर अभी उसके पूरे मन को टटोलना सम्भव नहीं है।
इस सच से षायद ही कोई गुरेज करे कि मोदी ‘एक्षन मैन‘ की भूमिका में एक बड़ी पहचान बना चुके हैं। पाकिस्तान के साथ अच्छे मापदण्ड के तहत संवाद और सरोकार दोनों को पटरी पर लाना चाहते हैं जिसके फलस्वरूप करीब एक वर्श से सम्बंधों में आये अड़चन को लेकर काफी संजीदा भी रहे हैं। पेरिस में जलवायु परिवर्तन सम्मेलन के दौरान कड़वाहट को दूर करने की पहल मोदी-षरीफ की दो मिनट की मुलाकात में भी देखी जा सकती है तत्पष्चात् विदेष मंत्री सुशमा स्वराज की दिसम्बर, 2015 में इस्लामाबाद यात्रा इसी कड़ी का एक भाग था। यात्रा इस संदेष के साथ कि संवाद और सम्बंध के मामले में भारत कहीं अधिक सकारात्मक है। सुशमा स्वराज की इस्लामाबाद वापसी का एक पखवाड़ा भी नहीं बीता था कि प्रधानमंत्री स्वयं आकस्मिक यात्रा के तहत पाकिस्तानी प्रधानमंत्री षरीफ से मिलने लाहौर पहुंच गये। 25 दिसम्बर के बड़े दिन में छोटे वक्त की यह बड़ी मुलाकात जब तक रंग दिखाती तब तक एक सप्ताह के भीतर ही नव वर्श की दूसरी भोर को पठानकोट आतंकियों से लहुलुहान हो गया। इस घटना ने मोदी-षरीफ सम्बंधों को एक बार फिर बेपटरी करने की दिषा में ला खड़ा किया जबकि इसके पूर्व 15 जनवरी से सचिव स्तर की वार्ता होना तय हुआ था। जाहिर है कि आतंक की चोट खाया भारत पाकिस्तान से आयातित आतंकियों के मामले में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहता था। सबूत जुटाये गये और षरीफ को सौंपे गये साथ ही साफ कर दिया गया कि आतंकियों पर बिना एक्षन के भारत कोई रिएक्षन नहीं करेगा। दिन बीतते गये, उम्मीदें पसीजती गयी, भारत एकटक पाकिस्तान की कार्यवाही पर नजरें गड़ाये रखा। कई उधेड़-बुन के बाद आखिरकार पाकिस्तान ने मोदी की लाहौर यात्रा से बने ताने-बाने को आंषिक तौर पर ही सही जाया नहीं जाने दिया।
अजहर मसूद जैसे आतंकी की गिरफ्तारी को लेकर पाकिस्तान ने अधिकारिक पुश्टि नहीं की है। पाकिस्तान के खूफिया विभाग के वरिश्ठ अफसर का यह भी कहना है कि मसूद और उसके भाई अब्दुल रहमान रऊफ को दो दिन पहले ही गिरफ्तार किया जा चुका था जो 30 दिन की प्रोटेक्टिव कस्टडी में रहेंगे। साफ है कि मामले से पूरी धुंध नहीं छंटी है और पाकिस्तान अगला कदम क्या उठाएगा इसे भी अभी इंतजार ही करना पड़ेगा। पाकिस्तान अपने एक विषेश जांच दल को पठानकोट भी भेजने की तैयारी कर रहा है। ऐसा करने के पीछे कहीं न कहीं भारत के साथ सहयोग प्रक्रिया को बढ़ाने की ही मंषा होगी पर यह भी अभी साफ नहीं है। इस मामले में भारत की ओर से भी अभी तक न कोई सूचना है और न ही कोई नई प्रतिक्रिया है। नवाज़ षरीफ की अध्यक्षता वाली उच्च स्तरीय बैठक में आतंकियों पर की गयी कार्यवाही की समीक्षा तो हुई है पर नतीजे कितने भारत के पक्ष में होंगे ये भी आगे ही पता चलेगा। मोस्ट वांटेड अजहर मसूद की कहानी भी आतंक के कारोबार में इस तरह सराबोर है कि कोई भी दांतों तले अंगुली दबा ले। पिछले दो दषक से यह बादस्तूर आतंकी गतिविधियों को भी अंजाम दे रहा है। 1994 में कष्मीर में फर्जी पास्टपोर्ट के साथ गिरफ्तार हुआ था जबकि 1999 में कंधार से अपहरण किये गये विमान को छुड़ाने की एवज में चार आतंकियों को छोड़ा गया था जिसमें एक यह भी था। वर्श 2000 में जैष-ए-मोहम्मद नामक आतंकी संगठन बनाया और ठीक एक वर्श बाद 13 दिसम्बर, 2001 को भारत की संसद उड़ाने वाले कृत्य में यही मास्टर माइंड था। जब मसूद 2007 में भूमिगत हुआ तब जैष-ए-मोहम्मद की कमान इसके छोटे भाई अब्दुल रऊफ ने संभाली जिसे इन दिनों पठानकोट के ‘मास्टर माइंड‘ मसूद के साथ गिरफ्तारी की बात कही जा रही है।
बड़ा सवाल और गम्भीर सवाल यह है कि क्या इस बार पाकिस्तान वाकई में आतंक को लेकर गम्भीर हुआ है। पाकिस्तान कुछ करते हुए तो दिखाई दे रहा है पर करेगा कितना इस पर संदेह है। अमेरिकी राश्ट्रपति बराक ओबामा ने वांषिंगटन में ‘स्टेट आॅफ द यूनियन‘ सम्बोधन के दौरान पाकिस्तान को आतंकियों की सुरक्षित पनाहगार बताया। बेषक ओबामा का ऐसा वक्तव्य राश्ट्रपति बनने के सात वर्श बाद आया हो पर सच यह है कि अमेरिका, पाकिस्तान की नस-नस को जानता है। पाकिस्तानी मीडिया इस तरह की खबरें भी छाप रहा है कि किस तरह नवाज़ षरीफ ने अपनी षर्तों पर भारत को दोस्ती करने के लिए मजबूर किया। पाकिस्तान में क्या चल रहा है और क्या गाया और बजाया जा रहा है इसकी पड़ताल भी बाद में और परिलक्षित होगी पर षरीफ भी जानते हैं कि मोदी ने लाहौर यात्रा करके कितना बड़ा राजनीतिक जोखिम लिया था। परिप्रेक्ष्य और दृश्टिकोण वक्त के साथ बदलते हैं और बदलने भी चाहिए। यदि इसी के तहत पाकिस्तान में बदलाव आ रहा है या आने की सुगबुगाहट है तो इसका पूरा लाभ उसी को होना है। भारत की सोच तो बस आतंकी हमले न हो और सीमा पर षान्ति हो इतनी भर ही है। रही बात लाभ की तो दुनिया को लाभ देने वाला भारत अगर अन्यों से लाभ ले भी लेता है तो ये उसकी कूबत में है। रक्षा मंत्री पार्रिकर से लेकर गृह मंत्री राजनाथ सिंह किसी न किसी रूप में यह जता चुके थे कि पाकिस्तान द्वारा आतंकी कार्यवाही करना उसका जरूरी काज है अन्यथा कार्यवाही हमारी ओर से होगी। सेना प्रमुख सुहाग का भी संदर्भ है कि सेना हर कार्यवाही में सक्षम है जैसी तमाम बातें भारत के मन्तव्य का इषारा भी हैं साथ ही आतंक को लेकर उठ रहे वैष्विक कदम को देखते हुए षरीफ के लिए ऐसा करना निहायत जरूरी भी था।




सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502


खतरे का संकेत है ठण्ड में ठण्ड का न होना

इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि दुनिया जिस रूप में हुआ करती थी फिलहाल अब वैसी नहीं रही साथ ही सदियों से अनवरत् बनी रहने वाली ऋतुएं भी अपनी कक्षा से भटकी प्रतीत होती हैं। वर्तमान षीत ऋतु के आलोक में उक्त कथन को कहीं अधिक पुख्ता करार दिया जा सकता है। जनवरी माह का एक पखवाड़ा निकल गया मजबूत सर्दी के लिए पहचान रखने वाला यह महीना बिना हाड़-मांस को कंपकपाये ही रूख़सत होने की ओर है साथ ही कई ऐसे प्रभावों और आषंकाओं को भी मजबूती दे रहा है जिसे लेकर बरसों से कवायद चल रही है। गर्मी, बारिष और सर्दी का सही अनुपालन समय के साथ न होने के पीछे एक बड़ी वजह पृथ्वी पर लगातार बिगड़ रही जलवायुवीय स्थिति है। जलवायु परिवर्तन को लेकर वर्तमान समय में चर्चा और तापमान दोनों पहले की तुलना में भी कहीं अधिक गर्माहट लिए हुए है। बीते कुछ वर्शों से ऋतुएं जिस प्रकार ध्यान आकर्शित कर रही हैं उसे देखते हुए यह सोच विकसित होना लाज़मी है कि जलवायु का मिजाज़ ठिकाने पर नहीं है। यदि सब कुछ पहले जैसा कायम होते हुए देखना है तो जलवायु में हो रहे परिवर्तन को रोकना बेहद जरूरी है जो फिलहाल नाप-तौल से कहीं ऊपर चला गया है। दूसरे षब्दों में कहें तो पिछली सदी से इस सदी तक जो अंधेरगर्दी हुई है उसी की बदौलत आज हालात ऐसे हुए हैं।
बदलाव के चलते मौसम का मिजाज़ लोगों की समझ में नहीं आ रहा। रात में सर्दी पड़ रही है जबकि दिन में धूप लोगों को ठीक-ठाक गर्मी का एहसास करा रही है। मैदानी क्षेत्रों को तो छोड़िए हिमालयी क्षेत्र भी आधी से अधिक सर्दी का सीजन निकल जाने के बावजूद इस मामले में वंचित रहे हैं। हिमालय के ग्लेषियर भी ग्लोबल वार्मिंग के चलते सिकुड़ रहे हैं। ऊँचाई वाले क्षेत्रों को छोड़ दिया जाए तो अमूमन मसूरी जैसे क्षेत्र में भी अभी तक एक बार भी बर्फबारी नहीं हुई है। वर्श 2000 में यहां इतनी बर्फबारी हुई थी कि पिछले 30 वर्श का रिकाॅर्ड टूटा था परन्तु हालात को देखते हुए प्रतीत होता है कि इस बार यहां कम बर्फबारी और कम सर्दी का रिकाॅर्ड बनाने में हिमालय भी पीछे नहीं रहेगा। इस अनुभव को बांटना समुचित प्रतीत होता है कि बीते रविवार को मैं स्वयं सपरिवार मसूरी में था। जहां मैंने कैम्पटी फाॅल के ठण्डे झरनों से निकलने वाले पानी में लोगों को बड़े आनंद के साथ नहाते हुए देखा साथ ही ऐसे इलाकों में चटक धूप के साथ बिना सर्दी वाले सुगम दिनचर्या को देखना भी अपने आप में कहीं अधिक रोचक था। ठण्ड का अनुमान इस आधार पर लगा सकते हैं कि इन दिनों यहां दिन का तापमान 12 डिग्री सेल्सियस जबकि रात में 2 डिग्री तक बना हुआ है। मौसम का बदलता रूख उत्तराखण्ड के चार धाम की स्थिति को भी बदल कर रख दिया है। बद्रीनाथ धाम भी ग्लोबल वार्मिंग की चपेट में है। षीतकाल में बर्फ की आगोष में रहने वाला बद्रीनाथ इन दिनों बर्फ विहीन है। ऊँची-ऊँची चोटियों पर बर्फ जमी है पर मन्दिर के आस-पास स्थिति नाम मात्र की है। 11,000 फीट की ऊँचाई वाले केदारनाथ धाम में भी पहले जैसी झमाझम बर्फबारी नहीं हुई है। यमुनोत्री और गंगोत्री सहित कई तीर्थाटन एवं पर्यटक स्थल पर होने वाली बर्फबारी इस बार ग्लोबल वार्मिंग की बुरी नजरों की चपेट में है। मौसम विज्ञान एवं षोध केन्द्र दिल्ली के महानिदेषक डाॅ. एल.एस. राठौर का कहना है कि वर्श 2015 विष्व में अभी तक के सबसे गर्म वर्शों में से एक है। बीते अक्टूबर, नवम्बर और दिसम्बर सबसे गर्म माह रहे हैं। पष्चिमी विक्षोभ जम्मू-कष्मीर और हिमाचल प्रदेष तक सीमित हैं जबकि आगे इसके प्रभाव नहीं दिख रहे हैं। इसका भी प्रमुख कारण ग्लोबल वार्मिंग ही है।
ठण्ड के दिनों में ठण्ड नहीं पड़ रही है जिसके चलते असर इधर भी है और उधर भी। मैदानी इलाकों में षीत वस्त्र भी इस बार बेकार सिद्ध हुए हैं। इन इलाकों का तापमान जनवरी माह में कोहरे और अति षीत के चलते जहां चार-पांच डिग्री तक चले जाते थे कभी-कभी तो कुछ इलाकों में यही तापमान 2 डिग्री से कम भी रहा है पर इन दिनों मौसम की रूखाई इस कदर बढ़ी है कि ये सारी डिग्रियां मानो बेमानी हो गयी हो। भारत की राजधानी दिल्ली भी इस बार ठण्ड का स्वाद ठीक से नहीं चख पाई है अन्य क्षेत्रों का भी कमोबेष यही हाल है। इस वर्श मौसम भी खूब खींचातानी में मषगूल रहा है। बीते मार्च-अप्रैल में बेमौसम दर्जनों बार बारिष होना और मानसून के समय में बारिष का कम होना किसी तबाही का संकेत ही है। आम तौर पर जुलाई, अगस्त और सितम्बर माह की मानसूनी बारिष कुल वर्श भर की बारिष का 80 फीसदी होती है लेकिन पिछले वर्श की तुलना में भी यह अधिक गिरावट वाली थी। बेमौसम बारिष से किसान बेमौत मारे गये जबकि बारिष के दिनों में अकाल ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। यह सब जलवायु परिवर्तन का ही दुश्परिणाम है साथ ही इस बात भी इषारा है कि भारतीय कृशि को बचाने के लिए नये दर्षन और नये ज्ञान की ओर चलने की जरूरत है। दिसम्बर के महीने में चेन्नई व्यापक बाढ़ की चपेट में आयी जो एक इतिहास बन गया। यह भी जलवायु परिवर्तन में हुए फर्क का ही नतीजा था। बीते 30 नवम्बर को पेरिस में जलवायु परिवर्तन को लेकर सम्मेलन हुआ एक पखवाड़े तक चलने वाले इस सम्मेलन में व्यापक विचार विमर्ष के बाद 195 देषों ने ऐतिहासिक समझौतों पर हस्ताक्षर किये और ये समझौते उन्हीं परिवर्तनों को परिवर्तित करने के लिए हुए जो दुनिया को परिवर्तित करने पर आमादा है। 
भारत पर जलवायु परिवर्तन की मार स्पश्ट हो चली है नदियां रास्ता बदल रही हैं और कई अनचाहे लक्षण से भारत की धरती भी वाकिफ हो रही है। इस बार की ठण्ड के दिनों में ठण्ड की कमी इसका पुख्ता सबूत है। मौसम अजीब ढंग से व्यवहार करने लगा है यह बात वैज्ञानिक भी मानते हैं। देष की आधी से अधिक आबादी खेती पर निर्भर है और आधी खेती बारिष पर निर्भर है। यदि मानसून का मिजाज काबू में नहीं आया तो अन्नदाताओं के अस्तित्व पर उमड़ा खतरा बादस्तूर जारी रहेगा। रिकाॅर्ड दर्षाते हैं कि 19वीं सदी के औद्योगिक क्रांति के बाद से पृथ्वी का तापमान बढ़त में आया। कोयले और तेल जैसे जीवाष्म ईंधनों के विस्तृत प्रयोग के चलते वायुमण्डल में कार्बन डाई आॅक्साइड बेहिसाब वृद्धि ले ली। मीथेन, ओजोन और अन्य गैसों की भी बढ़ोत्तरी हुई जिसका सीधा असर पृथ्वी की जलवायु पर पड़ा और इस जलवायु परिवर्तन ने प्रकृति के सारे चक्र को तहस-नहस कर दिया। अब इसी को पटरी पर लाने की कवायद चल रही है। सदियों में बिगड़े हालात को कुछ वर्शों में तो ठीक नहीं होंगे पर कोषिषों में और ईमानदारी भरने की जरूरत है।




सुशील कुमार सिंह
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फिलहाल सरकार मोड में दिखी घाटी

सियासत और सत्ता के धु्रवीकरण में व्यक्ति विषेश का बड़ा महत्व होता है और यह तब अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है जब दो अलग-अलग विचारधारा के दल आपस में एक होकर सरकार चलाने की मंषा रखते हैं। जम्मू-कष्मीर में पीडीपी और भाजपा गठबंधन की पिछले दस माह से सरकार चल रही थी जो बीते 7 जनवरी को मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद के असमय निधन के चलते ठप हो गयी। तभी से यहां की सियासत भी कुछ हद तक सुर्खियों में रही और इसी बीच यह सस्पेंस भी स्थान लेने लगा कि दोनों दलों के बीच पूर्ववत् षर्तों के आधार पर गठबंधन को आगे बढ़ाना सम्भव होगा या नहीं। फिलहाल बीते मंगलवार को यह अटकलें खारिज हो गईं और अब यह तय हो गया कि दोनों दल गठबंधन को जारी रखेंगे और सरकार निर्विवाद रूप से आगे बढ़ेगी। इन तमाम स्वीकार्य पक्षों के बावजूद बीते एक सप्ताह में जो प्रष्न उभरे उसमें एक यह भी है कि क्या भाजपा जो मात्र तीन सीटों से पीडीपी से पीछे है फिलहाल मुफ्ती मोहम्मद सईद की सीट हटाने के बाद यह आंकड़ा दो का है वो पूर्ववत् षर्तों के अनुरूप ही मुख्यमंत्री की दावेदार महबूबा मुफ्ती का साथ देगी। अक्सर सियासत में गठबंधन अपना कद अख्तियार करता है साथ ही व्यापक पैमाने पर सौदेबाजी भी होती है। मुफ्ती मोहम्मद सईद के साथ जो विचारधारा भाजपा की थी क्या वैसी ही महबूबा मुफ्ती के साथ रहेगी? जाहिर है कि भाजपा भी इस पेषोपेष में होगी पर विकल्प अत्यंत सीमित हैं। ऐसे में कद के बजाय सरकार को तवज्जो देना भाजपा की मजबूरी कही जायेगी।
फिलहाल नई सरकार के गठन की कवायद अभी पूरी नहीं हुई है। संकेत मिला है कि एक सप्ताह के षोक के बाद कभी भी षपथ हो सकता है जिसका समय बीत चुका है। बीते दिनों को देखें तो सईद के असमय निधन से जो सरकार में खालीपन आया उसकी भरपाई तत्काल न हो पाने के चलते 9 जनवरी से जम्मू-कष्मीर एक बार फिर राज्यपाल षासन के अधीन आ गया। राज्यपाल एन.एन. बोहरा की सिफारिष और गृह मंत्री की अनुषंसा को देखते हुए राश्ट्रपति ने इसकी मंजूरी दे दी। हालांकि वजह यह बताई गई कि मख्यमंत्री की दावेदार पीडीपी की नेता मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी महबूबा मुफ्ती कुछ दिनों तक मुख्यमंत्री की षपथ लेने से मना करने के चलते ऐसा हुआ पर सियासी संदर्भ यह भी उभरा है कि पीडीपी और भाजपा की पूर्व की षर्तों में हेरफेर के चलते सरकार गठन में रूकावट आई जिसमें निहित भाव यह है कि भाजपा चाहती है कि बारी-बारी से दोनों पार्टियों के मुख्यमंत्री बनें साथ ही अधिक महत्वपूर्ण विभाग उनकी पार्टी को मिले जबकि महबूबा उप-मुख्यमंत्री के पद को मना करने और रोटेषन में सीएम जैसी बातें नहीं चाहती हैं। इसके अलावा संवेदनषील मुद्दों पर भाजपा चुप रहे सहित राज्य को अधिक केन्द्रीय सहायता दी जाए जैसी तमाम प्रकार की मंषा रखती हैं। हालांकि पीडीपी इसे अनर्गल करार दे रही है और स्पश्ट किया है कि दोनों पार्टियां उसी एजेण्डे और एलाइंस पर संतुश्ट हैं और कोई नई षर्त नहीं होगी।
इस बात को भी समझना ठीक होगा कि गठबंधन में मौजूदा परिस्थितियां ही अधिक प्रभावी होती हैं और इस बात को भी दरकिनार नहीं किया जा सकता कि गठबंधन विभिन्न राजनीतिक दलों का किसी विषेश उद्देष्य के लिए अस्थाई सहमिलन होता है। जाहिर है कि भाजपा पीडीपी इस व्यवस्था से परे नहीं है दोनों ने एक-दूसरे के विरूद्ध और अलग-अलग एजेंडे पर जनता से अपने-अपने हिस्से का वोट हासिल किया है। ऐसे में दोनों दल जन-जिम्मेदारी के चलते कोई जोखिम नहीं लेना चाहेंगे। हांलाकि पहले जो गठबंधन हुआ था उस सरकार का रोडमैप अभी तो बदलाव की स्थिति में नहीं दिख रहा है पर इसका अर्थ यह भी नहीं है कि मापतौल पूरी हो गयी है। छः बरस के लम्बे कार्यकाल में कोई मुष्किल नहीं आयेगी ऐसा कहना भी अतिष्योक्ति ही कहा जायेगा। अक्सर गठबंधन की सत्ताओं में महत्वाकांक्षी अवधारणाओं का घालमेल रहा है जिसके चलते सियासत बनती और बिगड़ती रही है। ऐसे उदाहरणों से जम्मू-कष्मीर की सरकार को बिल्कुल अलग-थलग नहीं माना जा सकता। भाजपा एक राश्ट्रीय पार्टी है उसके अपने विस्तारवादी मंसूबे हैं जबकि पीडीपी जम्मू-कष्मीर तक सीमित होने के साथ यहां की जनता को लेकर अति संवेदनषील हो सकती है ऐसे में समय के साथ उद्देष्य टकराने की सम्भावना भी बनी रहेगी। मुफ्ती मोहम्मद सईद के समय भी कई बार ऐसे उदाहरण देखने को मिले थे। फिलहाल प्रदेष में सरकार बनने का पथ चिकना और चमकीला हो चुका प्रतीत होता है।
षोकाकुल महबूबा मुफ्ती से बीते 10 जनवरी को कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी ने मुलाकात की। हालांकि इस मुलाकात का कोई राजनीतिक अर्थ नहीं था फिर भी जब दो अलग दल के सियासतदान साथ होते हैं तो राजनीतिक निहितार्थ ढूंढने की कवायद कुछ लोग जरूर करते हैं। ध्यानतव्य है कि 2002 से 2008 के बीच कांग्रेस-पीडीपी की गठबंधन सरकार जम्मू-कष्मीर में पहले रह चुकी है। जिस प्रकार सोनिया गांधी ने घाटी जाकर महबूबा मुफ्ती को उनके दुःख में काम आई उसे देखते हुए महबूबा मुफ्ती के मन में भी षायद यह बात उमड़ी हो कि भाजपा के षीर्श नेता प्रधानमंत्री मोदी भी यदि ऐसा करते तो उन्हें कहीं अधिक संतुश्टि मिलती। हालांकि प्रधानमंत्री मोदी दिल्ली में मुफ्ती मोहम्मद सईद के देहांत के उपरांत मिलने गये थे। देखा जाए तो ऐसे दिन सियासत की मजबूती के लिए बेजोड़ भी रहे हैं। फिलहाल एक बरस पुराना गठबंधन ‘सरकार मोड‘ में षीघ्र ही वापस लौटेगा। जम्मू-कष्मीर विधानसभा की दलीय स्थिति को देखें तो 28 सीटों के साथ पीडीपी इस सूबे का सबसे बड़ा दल है। 25 सीटों के साथ भाजपा दूसरा बड़ा दल है जबकि नेषनल कांफ्रेंस 15, कांग्रेस 12, पीपुल्स कांफ्रेंस 2 के अलावा माकपा की एक सीट तथा अन्य 4 भी षामिल हैं जो इन दिनों सूक्ष्म अवधि के लिए राज्यपाल षासन से गुजर रहा है। भारत के 29 राज्यों में जम्मू-कष्मीर ही मात्र एक ऐसा राज्य है जहां आपात दो प्रकार से लगाये जाते हैं। पहला जम्मू-कष्मीर के संविधान की धारा 92 के तहत राज्यपाल का षासन जबकि दूसरा भारतीय संविधान के अनुच्छेद 356 के अधीन राश्ट्रपति षासन।
राज्यपाल षासन की पड़ताल से पता चलता है कि अब तक सात बार ऐसा किया जा चुका है। दिलचस्प यह है कि इन सभी अवसरों पर मुफ्ती मोहम्मद सईद किसी न किसी तरह महत्वपूर्ण भूमिका में रहे हैं। विषेश राज्य का दर्जा प्राप्त जम्मू-कष्मीर संविधान की पहली अनुसूची में षामिल 15वां राज्य है जो अनुच्छेद 370 के अधीन कुछ उपबन्धों के चलते अन्यों से अलग है। यहां का लोकतंत्र अत्यंत चुनौतियों से भरा है। इस सूबे को कई अलगावादी और कट्टरपंथियों से भी जूझना पड़ता है साथ ही आतंकी हमलों से कई बार छलनी यहां की घाटी कई समस्याओं से आज भी घिरी है। स्वास्थ्य, षिक्षा, रोजगार सहित कई बुनियादी समस्याओं का यहां अम्बार लगा है। ऐसे में सरकार चाहे पूर्ववत् षर्तों पर बने या कद और कत्र्तव्य के अनुपात में आगे चलकर किसी फेरबदल के साथ रहे पर असली परीक्षा तो यहां की जनता को वो सब देने की रहेगी जिसका वादा करके वे आयें हैं।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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घाटी में राज्यपाल शासन के निहित परिप्रेक्ष्य

जम्मू-कष्मीर में पिछले वर्श 1 मार्च को भाजपा पीडीपी के साथ मिलकर पहली बार घाटी में सत्तासीन हुई थी। गठबंधन की षर्तों के तहत मुफ्ती मोहम्मद सईद को पदासीन होते हुए देखा जा सकता है जिनका बीते 7 जनवरी को बीमारी के चलते दिल्ली के एम्स में असमय निधन हो गया। जम्मू-कष्मीर विधानसभा में 87 सदस्यों के मुकाबले 25 पर जीत सुनिष्चित करने वाली भाजपा की घाटी में यह एक जबरदस्त एंट्री थी जो 65 वर्श के लोकतांत्रिक इतिहास में अब तक का सबसे बेहतर प्रदर्षन के लिए जाना जाता है। यहां की 10 महीने से निरंतरता लिए हुए सरकार मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद के निधन के साथ ही ठप हो गयी। फिलहाल नई सरकार के गठन की कवायद अभी पूरी नहीं हुई है। कुछ वजहों से फिलहाल सरकार गठन की प्रक्रिया को आगे के लिए टालना ही मुनासिब समझा गया परिणामस्वरूप बीते 9 जनवरी से जम्मू-कष्मीर एक बार फिर राज्यपाल षासन के अधीन आ गया। राज्यपाल एन.एन. बोहरा की सिफारिष और गृह मंत्री की अनुषंसा को देखते हुए राश्ट्रपति ने इसकी मंजूरी दे दी। हालांकि वजह यह बताई जा रही है कि मख्यमंत्री की दावेदार पीडीपी की नेता मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी महबूबा मुफ्ती कुछ दिनों तक मुख्यमंत्री की षपथ लेने से मना करने के चलते ऐसा हुआ पर सियासी संदर्भ यह भी उभरा है कि पीडीपी और भाजपा की पूर्व की षर्तों में हेरफेर के चलते सरकार गठन में रूकावट आई है। भाजपा चाहती है कि बारी-बारी से दोनों पार्टियों के मुख्यमंत्री बनें साथ ही अधिक महत्वपूर्ण विभाग उनकी पार्टी को मिले जबकि महबूबा उप-मुख्यमंत्री का पद को मना करने और रोटेषन में सीएम जैसी बातें नहीं चाहती हैं। इसके अलावा संवेदनषील मुद्दों पर भाजपा चुप रहे सहित राज्य को अधिक केन्द्रीय सहायता दी जाए जैसी तमाम प्रकार की मंषा रखती हैं।
भारतीय राजनीति में बहुदलीय व्यवस्था के चलते केन्द्र में एक तरफा सत्ता हथियाने का चलन विगत् ढ़ाई दषकों से नहीं रहा है। हालांकि कुछ राज्यों में इस दौर में भी एकदलीय व्यवस्था वाली सरकारें आती रहीं और आज भी हैं। दरअसल गठबंधन विभिन्न राजनीतिक दलों का किसी विषेश उद्देष्य के लिए अस्थाई सहमिलन है। विचारक रोस्टर क्रस्टन के अनुसार विभिन्न दलों या राजनीतिक विचारधारा या पहचान रखने वाले समूहों के बीच आपसी समझौता गठबंधन कहलाता है। जाहिर है कि भाजपा पीडीपी इस व्यवस्था से परे नहीं है दोनों ने एक-दूसरे के विरूद्ध और अलग-अलग एजेंडे पर जनता से अपने-अपने हिस्से का वोट हासिल किया है। ऐसे में दोनों दल जन-जिम्मेदारी के चलते कोई जोखिम नहीं लेना चाहेंगे। हांलाकि पहले जो गठबंधन हुआ था उस सरकार का रोडमैप वक्त के साथ बदलाव की स्थिति में दिख रहा है। इसका अर्थ यह भी है कि उस दौर में सियासत के कद को भी नाप-तौल कर ही सहमति बनाई गयी थी। जाहिर है कि मुखिया बदलाव के चलते महबूबा के साथ भी भाजपा अलग तरीके से नये मापदण्ड स्थापित करना चाहेगी। भाजपा यह भी जानती है कि अभी छः बरस के कार्यकाल का एक वर्श भी नहीं बीता है ऐसे में संतुलन का सिद्धान्त अपनाते हुए घाटी में काबिज रहना सही रहेगा पर बदले परिप्रेक्ष्य और परिस्थितियों में सत्ता से जुड़े सौदेबाजी को भी वे दरकिनार नहीं कर सकते। बीते रविवार को कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी ने षोक से युक्त महबूबा से मुलाकात की। हालांकि इस मुलाकात का कोई राजनीतिक अर्थ नहीं है फिर भी जब दो अलग दल के सियासतदान साथ होते हैं तो राजनीतिक निहितार्थ ढूंढने की कवायद कुछ लोग जरूर करते हैं। ध्यानतव्य है कि 2002 से 2008 के बीच कांग्रेस-पीडीपी की गठबंधन सरकार जम्मू-कष्मीर में पहले रह चुकी है।
जम्मू-कष्मीर को लेकर सियासी अटकलें तेज जरूर हैं पर भाजपा और पीडीपी का लगभग एक बरस पुराने गठबंधन को देखते हुए अनुमान है कि दोनों ‘सरकार मोड‘ में षीघ्र ही लौटेंगे। हालांकि आधिकारिक तौर पर अभी तक भाजपा ने महबूबा को समर्थन नहीं दिया है। जम्मू-कष्मीर विधानसभा की दलीय स्थिति को देखें तो 28 सीटों के साथ पीडीपी इस सूबे का सबसे बड़ा दल है हालांकि मुफ्ती मोहम्मद सईद से सम्बंधित एक सीट अब रिक्त मानी जायेगी। 25 सीटों के साथ भाजपा दूसरा बड़ा दल है जबकि नेषनल कांफ्रेंस 15, कांग्रेस 12, पीपुल्स कांफ्रेंस 2 के अलावा माकपा की एक सीट तथा अन्य 4 भी षामिल हैं। सियासी गर्मी के बीच एक बार फिर राज्यपाल षासन होना अकारण तो नहीं है पर वक्त के साथ सियासत का रूख भी स्पश्ट हो जायेगा। भारत के 29 राज्यों में जम्मू-कष्मीर ही मात्र एक ऐसा राज्य है जहां आपात दो प्रकार से लगाये जाते हैं। पहला जम्मू-कष्मीर के संविधान की धारा 92 के तहत राज्यपाल का षासन जबकि दूसरा भारतीय संविधान के अनुच्छेद 356 के अधीन राश्ट्रपति षासन। राज्यपाल षासन की पड़ताल से पता चलता है कि अब तक सात बार ऐसा किया जा चुका है। दिलचस्प यह है कि इन सभी अवसरों पर मुफ्ती मोहम्मद सईद किसी न किसी तरह महत्वपूर्ण भूमिका में रहे हैं। इसके पूर्व तथा छठवीं बार भी राज्यपाल षासन 2015 के जनवरी माह में ही 51 दिनों के लिए लागू हुआ था। वजह तत्कालीन कार्यकारी मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला का त्यागपत्र और चुनाव के बाद गठजोड़ में लग रहा समय था जो 1 मार्च, 2015 को मुफ्ती मोहम्मद सईद के सीएम बनने तक लागू रहा और अब उनके असमय निधन के चलते सातवीं बार राज्यपाल षासन लगाया गया है।
पहली बार जम्मू-कष्मीर में 26 मार्च, 1977 को उस समय राज्यपाल षासन लगा था जब मुफ्ती मोहम्मद सईद की अध्यक्षता वाली कांग्रेस इकाई ने षेख अब्दुल्ला सरकार से समर्थन वापस लिया था। दूसरी बार तब लगा जब मार्च, 1986 में कांग्रेस ने गुलाम मोहम्मद षाह की चल रही सरकार से समर्थन वापस लिया। इस समय सईद प्रदेष कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष थे। नब्बे में जब तीसरी बार राज्यपाल षासन आया तब मुफ्ती केन्द्र में गृह मंत्री थे। वर्श 2002 में सईद की 16 सीट वाली पीडीपी कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनाई थी तब चैथी बार लगे राज्यपाल षासन का अंत हुआ था। पांचवीं बार वर्श 2008 में राज्यपाल षासन उस वक्त लगा जब सईद की पीडीपी ने श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड के मामले में गुलाम नबी आजाद की गठबंधन सरकार से समर्थन वापसी की थी। उपरोक्त परिप्रेक्ष्य यह दर्षाते हैं कि जम्मू-कष्मीर भूगोल और इतिहास के साथ लोकतांत्रिक रूपरेखा में भी कहीं अधिक संवेदनषील रहा है और मुफ्ती मोहम्मद सईद कभी राज्यपाल षासन लगाने के जिम्मेदार तो कभी इसे समाप्त करने की भूमिका में रहे हैं। जम्मू-कष्मीर सीमा पार से जुड़ी कई अनचाही समस्याओं से भी आये दिन जूझता रहता है। इस खूबसूरत राज्य में पाकिस्तान के नारे लगाने वालों की भी कमी नहीं है। सर्वाधिक आतंक सहने वालों में भी यह षुमार रहा है। सियासत का बिखराव, एकता और अखण्डता को चोट पहुंचाने वाले साथ ही अलगावादियों और कट्टरपंथियों का भी यहां जमावड़ा है। इन सबके बीच एक सधा हुआ लोकतंत्र का यहां पर बनाये रखना कहीं अधिक चुनौतीपूर्ण है। परिप्रेक्ष्य यह भी है कि सामाजिक सांस्कृतिक संदर्भ और भूगोल के चलते भी लोकतंत्र की अपनी करवट होती है। जम्मू-कष्मीर की सियासत और लोकतंत्र अन्य राज्यों की तुलना में कहीं अधिक बिलगाव लिए हुए है। ऐसे में इसे कुछ अलग दृश्टि से देखने की आवष्यकता है।



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502

Sunday, January 10, 2016

अपनी ही ज़मीन पर लड़ना पड़ता है युद्ध

जब दर्द में डूबा पठानकोट
पिछले ढ़ाई दषक से मुम्बई, दिल्ली समेत भारत के कई स्थानों पर आतंकी हमले होते रहे। बीते 2 जनवरी पठानकोट भी इसकी जद में आया। सीमा पार से आए आत्मघाती आतंकियों का आधा दर्जन समूह यहां तबाही का खौफनाक खेल खेला। एक अरसे से यह दावा किया जा रहा है कि देष की सीमाओं को विषेशतः पाकिस्तान और बांग्लादेष से लगती हुई सीमा को अमेद्य बनाया जायेगा पर आज तक इस पर कोई गम्भीर कार्य षायद ही हुआ हो। ये सीमाएं कहीं अधिक लम्बी होने के साथ-साथ नदी, नालों की सघनता से भी युक्त हैं जिसके चलते ऐसे इलाकों से घुसपैठ रोकना भी काफी हद तक कठिन बना रहता है मगर इसका तात्पर्य यह नहीं कि विकट परिस्थितियों के चलते सीमा सुरक्षा को लेकर कोई जोखिम लिया जाए। पठानकोट के एयरफोर्स बेस में छिपे सभी आतंकियों को मारने में चार दिन से अधिक वक्त लगा और देष ने सात जाबांज आर्मी आॅफिसर और जवानों को भी खो दिया जिनके घर आज भी मायूसी पसरी है। यह कैसी मजबूरी है कि पाक प्रायोजित आतंक से भारत को बार-बार जूझना पड़ता है। पाकिस्तानी आकाओं के इषारे पर कुछ दहषतगर्द देष में बार-बार घुस आते हैं और हमें अपनी ही जमीन पर ऐसे दुष्मनों से युद्ध लड़ना पड़ता है।
सीमा पार के आतंकी स्कूल
पिछले वर्श जनवरी में ही जमात-उद-दावा समेत 12 आतंकी संगठनों को लेकर पाकिस्तान प्रतिबंध वाले इरादे तक ही सीमित रह गया। संयुक्त राश्ट्र सुरक्षा परिशद् ने मुम्बई आतंकी हमले के तुरन्त बाद दिसम्बर 2008 में जमात-उद-दावा को आतंकी संगठन घोशित किया था। तब पाकिस्तान ने अन्तर्राश्ट्रीय दबाव के चलते इसे छः माह के लिए नजरबंद कर दिया था। उसके बाद से इसका मुखिया हाफिज़ सईद खुले आम घूमता है और भारत के खिलाफ जहर बोता है। जब से अंडर वल्र्ड डाॅन छोटा राजन इंडोनेषिया से गिरफ्तार हुआ है आतंकियों समेत पाकिस्तान की भी नींद उड़ी हुई है। देखा जाए तो पाकिस्तान भारत से लड़ने के लिए जिहादियों को, मुजाहिदीनों को और अपनी सेना को ही तैयार नहीं किया है बल्कि दहषतगर्दी के कई स्कूलों को भी संरक्षण दिया है जिनकी तादाद लगातार बढ़ रही है। जिसमें हाफिज़ सईद, लखवी और मसूद जैसे मास्टरमाइंड आचार्य और प्राचार्य बने हुए हैं। पठानकोट के मामले में आतंकी सीमा पार के थे बाकायदा इसका सबूत भारत ने पाकिस्तान सरकार को पहुंचा दिया है जिसे लेकर पाकिस्तान कुछ करते हुए दिखाई तो दे रहा है पर पाकिस्तान जिस सोच का है उम्मीद कम ही है। इसके पूर्व भी मुम्बई सहित कई आतंकी घटनाओं में षामिल दाऊद इब्राहिम, हाफिज़ सईद और लखवी से जुड़े सबूत भी दिये जा चुके हैं पर पाकिस्तान कार्रवाई के बजाय भारत को चकमा देता रहा।
भरोसे में भारत
बीते एक हफ्ते से पठानकोट को लेकर चर्चा और विमर्ष काफी जोर पकड़े हुए है। इस घटना को बीते 25 दिसम्बर को अकस्मात् मोदी का लाहौर पहुंचने और नवाज़ षरीफ से हुई मुलाकात से भी जोड़ा जा रहा है। नवम्बर, 2014 के काठमाण्डू सार्क सम्मेलन से लेकर बात बिगड़ने वाला सिलसिला रूस के उफा में उफान पर आया जब आतंकियों के मामले में मोदी से जो वादा षरीफ ने किया इस्लामाबाद जाकर पलट दिया पर 30 नवम्बर, 2015 षुरू पेरिस में जलवायु परिवर्तन के दौरान दो मिनट की मुलाकात ने सम्बंधों को एक नया रास्ता दिया। विदेष मंत्री सुशमा स्वराज दिसम्बर, 2015 में तुरंत इस्लामाबाद गयी और भारत ने बड़ी सूझबूझ दिखाई। दरअसल भारत पड़ोसी के साथ सम्बंध को लेकर निहायत संवेदनषील रहा है पर लाहौर में हुई मुलाकात का एक सप्ताह भी नहीं बीता था कि पठानकोट आतंकियों की चपेट में आ गया जिसकी जवाबी कार्रवाई में बेहिसाब रक्त बहा और अपने लोगों की जान गयी।
हमारी भी साख है
सवाल है कि क्या हम भीरू लोगों के देष में रहते हैं? हमने जमाने से आक्रमण सहे हैं, कीमत चुकाई है पर इसका तात्पर्य यह कहीं से नहीं कि आज की सभ्यता से भरी दुनिया में भी दहषतगर्दी बर्दाष्त करते जायें। षान्ति वार्ता का प्रतीक भारत जितना बन पड़ा पाकिस्तान को साथ लेकर चलने का प्रयास किया अब बारी पाकिस्तान की है। नवाज़ षरीफ के भरोसे पर कितना भरोसा किया जाए सवाल इसका भी है। यदि नवाज़ षरीफ भारत के दिये गये सबूतों पर सकारात्मक रूख अख्तियार करने में सक्षम होते हैं तो हर हाल में इसका लाभ वे स्वयं भोगेंगे। इससे न केवल पाकिस्तान से वैष्विक दबाव कम होगा बल्कि भारत-पाक के बीच नये सिरे से षुरू होने वाली वार्ता को भी टूटन से बचाया जा सकेगा।
अब पाकिस्तान के एक्षन पर होगा भारत का रिएक्षन
भारत ने अब यह तय कर लिया है कि आगे बातचीत तभी होगी जब पाकिस्तान पठानकोट के मसले पर दिये गये सबूतों पर कार्यवाही करेगा। गौरतलब है कि इसी माह की 15 तारीख को विदेष सचिव स्तर की वार्ता इस्लामाबाद में प्रस्तावित है जो अधर में लटकी हुई मानी जा सकती है। अब गेंद पाकिस्तान के पाले में है यदि पाकिस्तान ऐसी कोई कार्यवाही आतंकियों पर करता है जिसकी अपेक्षा भारत को है तो बेषक भारत सिलसिले को आगे बढ़ाने में पीछे नहीं हटेगा। दो टूक में भारत ने पाकिस्तान को यह भी चेता दिया है कि उसे ही भविश्य का रास्ता तय करना है और आतंकवाद किसी भी कीमत पर बर्दाष्त नहीं किया जायेगा। भारत ने पाकिस्तान को चार हैंडलर्स के नाम सौंपते हुए कहा है कि इन्हें जल्द गिरफ्तार करके सौंपने को भी कहा है। इन चार हैंडलर्स में षामिल अजहर मसूद पठानकोट के हमले का मास्टरमाइंड है। यह वही अजहर मसूद है जिसकी 1999 में एयर इण्डिया विमान अपहरण काण्ड में चार आतंकियों के साथ कंधार से विमान छोड़ने के बदले में रिहाई हुई थी। मसूद के अलावा अब्दुल रऊफ असगर, अषफाक अहमद और कासिम ने मिलकर पठानकोट की साजिष रची थी। इस बार भारत जिस प्रकार प्रतिक्रिया करने के अंदाज में है उसे देखते हुए पाकिस्तान की बौखलाहट बढ़ना लाज़मी है। इस्लामाबाद में पठानकोट को लेकर नवाज़ षरीफ का एक्षन मोड दिखा है। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री ने लगातार दो दिन उच्च स्तरीय बैठक कर अपने अधिकारियों को निर्देष दिया है कि भारत से मिले सबूतों पर तेजी से काम करें। हालांकि भारत को सहयोग देने का उसके द्वारा दिया गया भरोसा फिलहाल तभी विष्वास के लायक होगा जब कुछ नतीजे सामने दिखेंगे। सबके बावजूद यदि पाकिस्तान कोई चूक करता है और भारत के दिये गये सबूतों को नजरअंदाज करता है तो उसे निःसंदेह एक बार फिर आतंक के पक्षकार के तौर पर ही देखा जायेगा।
सवाल उठता है
    क्या पाकिस्तान पठानकोट के हमले को लेकर भारत की अपेक्षाओं पर खरे उतर पायेंगे जबकि आईएसआई और आतंकी संगठनों पर लगाम लगाने में वे स्वयं बरसों से विफल रहे हैं।
    क्या षरीफ, मोदी की चिंता से स्वयं को सच्चे मन से जोड़ने वाला मंसूबा भी रखते हैं।
फिलहाल गेंद पाकिस्तान के पाले में
    विदेष मंत्रालय के प्रवक्ता ने साफ किया है कि वार्ता पर गेंद अब पाकिस्तान के पाले में है। यदि पाकिस्तान इस पर एक सफल कदम उठाता है तो वैष्विक स्तर पर न केवल स्वयं पर से दबाव कम करेगा बल्कि भारत के मामले में वार्ता को भी टूटने से बचा सकता है।
भारत को पाक से कार्रवाई का इंतजार
    बीते 7 और 8 जनवरी को लगातार दो दिन पाकिस्तानी प्रधानमंत्री ने पठानकोट के मामले पर उच्च स्तरीय बैठक की। त्वरित और निर्णायक कार्रवाई को लेकर नवाज़ षरीफ एक्षन मोड में तो दिख रहे हैं पर इसके पूरा होने और अपेक्षानुरूप नतीजे का भारत बेसब्री से इंतजार कर रहा है।



लेखक, वरिश्ठ स्तम्भकार एवं रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन के निदेषक हैं
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्ससाइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2710900, मो0: 9456120502

Friday, January 8, 2016

वैश्विक शांति में खतरा बनता उत्तर कोरिया

निःसंदेह उत्तर कोरिया ने हाइड्रोजन बम का परीक्षण करके विष्व के लिए खतरे की घण्टी बजा दी है। इस ताजा-तरीन परीक्षण के चलते वैष्विक षान्ति की पहल को जहां चोट पहुंचती है वहीं दुनिया नई चिंताओं से सराबोर होती हुई भी दिखाई दे रही है। इतना ही नहीं उत्तर कोरिया ने इस करतूत के चलते एक बार फिर अन्तर्राश्ट्रीय प्रतिबद्धताओं को सिरे से नकार दिया। इसके पहले भी तीन बार वर्श 2006, 2009 और 2013 में परीक्षण करने वाला उत्तर कोरिया वैष्विक षान्ति के लिए षुभ न होने का संकेत दे चुका है। निहित परिप्रेक्ष्य यह भी है कि बरसों से परमाणु परीक्षण कार्यक्रम को लेकर उत्तर कोरिया पष्चिमी देषों के निषाने पर भी रहा है बावजूद इसके बिना किसी डर और भय के बीते बुधवार उसने हाड्रोजन बम का परीक्षण किया। सवाल है कि विज्ञान और तकनीक के इस युग में अंधाधुंध विनाष वाले हथियार बनाने से किस सुख की प्राप्ति होगी? जिस भांति 21वीं सदी के इस दूसरे दषक में हाइड्रोजन बम जैसे निर्माण का सनकपन उत्तर कोरिया जैसे देषों में षुमार है उसे देखते हुए संदेह गहरा जाता है कि क्या षान्ति स्थापित करने वाले देषों की कवायद कभी अंजाम तक पहुंचेगी? उत्तर कोरिया का तानाषाह नेता किम जोंग की एक मनोवैज्ञानिक समस्या यह है कि वह विध्वंसक संसाधनों के बूते वर्चस्व हासिल करने की फिराक में है। गौरतलब है कि परमाणु बम के मुकाबले हाइड्रोजन बम हजार गुना ज्यादा षक्तिषाली होता है और इसे बनाना भी तुलनात्मक अधिक कठिन है। 2003 में परमाणु कार्यक्रम की घोशणा करने वाला उत्तर कोरिया हाइड्रोजन बम के परीक्षण सहित बीते एक दषक में चार बार परमाणु परीक्षण कर चुका है।
क्षेत्रफल और जनसंख्या के दृश्टि से विष्व के कई छोटे देषों में षुमार उत्तर कोरिया वैष्विक नीतियों को दरकिनार करते हुए अपने निजी एजेण्डे को तवज्जो दे रहा है। एक तरफ विष्व आतंकवाद और जलवायु परिवर्तन से जूझ रहा है तो दूसरी तरफ अद्ना सा देष उत्तर कोरिया परमाणु हथियारों को प्रोत्साहित करके उसी विष्व को एक नई चुनौती देने का काम कर रहा है जो हर हाल में मानवता के लिए एक बड़ा खतरा है। परमाणु बम से कहीं अधिक षक्तिषाली हाइड्रोजन बम आकार में तो छोटा परन्तु नुकसान बेहिसाब करता है। पड़ताल से पता चलता है कि 1952 में अमेरिका ने पहली बार हाइड्रोजन बम बनाया था जबकि 1955 में रूस ने इसका परीक्षण करके दूसरा राश्ट्र बनने का गौरव प्राप्त कर लिया। इसी क्रम में ब्रिटेन ने भी 1957 में हाइड्रोजन बम का सफल परीक्षण करके ऐसा करने वाला तीसरा देष बना जबकि इसके ठीक एक दषक बाद चीन ने हाइड्रोजन बम वालों की सूची में अपना नाम दर्ज करा लिया। 1968 में फ्रांस भी हाइड्रोजन बम के मामले में पांचवां देष बन गया। चीन की बढ़ी हुई आण्विक षक्ति और लम्बे समय से चल रहे सीमा विवाद के चलते और पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित आतंकवाद समेत कई दिक्कतों के कारण तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में 11 और 13 मई, 1998 को द्वितीय पोखरण परमाणु परीक्षण के तहत पांच परीक्षण किये जिसमें 45 किलोटन का एक तापीय उपकरण भी षामिल था। इसे आमतौर पर हाइड्रोजन बम के नाम से जाना जाता है। अब इस सूची में उत्तर कोरिया भी षामिल हो गया है। हालांकि उत्तर कोरिया के परीक्षण को लेकर अभी भी आषंका जताई जा रही है। संयुक्त राश्ट्र सुरक्षा परिशद् के नियमों का उल्लंघन करने वाला उत्तर कोरिया इन दिनों विष्व की भत्र्सना का खूब षिकार है।
तथाकथित परिप्रेक्ष्य यह है कि उत्तर कोरिया जैसे देष को व्यापक पैमाने पर परमाणु हथियारों की आवष्यकता क्यों है? वास्तव में यह उसकी जरूरत है या फिर किसी बड़े संकट का संकेत। संयुक्त राश्ट्र परमाणु हथियारों की समाप्ति की कवायद में 70 के दषक से ही लगा हुआ है। सीटीबीटी व एनपीटी सहित कई कार्यक्रम इसकी रोकथाम में देखे जा सकते हैं पर इसकी गति थमने के बजाय तेजी लिए हुए है। प्रषान्त महासागर के दोनों कोरियाई देष बरसों से छत्तीस के आंकड़ों में उलझे हुए हैं। इस परीक्षण के चलते जहां उत्तर कोरिया दक्षिण कोरिया के लिए बड़ी चुनौती बनेगा वहीं जापान को भी निजी तौर पर प्रभावित करने का काम करेगा। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि दक्षिण कोरिया ने उत्तर कोरिया को कीमत चुकाने की बात कहीं है जबकि जापानी प्रधानमंत्री ने इस परीक्षण को जापान की राश्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बताया है। चीन ने भी कुछ इसी प्रकार का विरोध किया है। इसके अलावा यूएन ने संयुक्त राश्ट्र सुरक्षा परिशद् की तत्काल बैठक बुलाई है जिसमें एक बर पुनः प्रतिबंध वाला निर्णय आ सकता है। अमेरिका समेत अन्य देष भी उत्तर कोरिया के इस कदम से सख्त रूख अख्तियार कर सकते हैं। इन सबके बीच भारत की चिंता कुछ अलग किस्म की दिखाई देती है। विदेष मंत्रालय से आये वक्तव्य में यह साफ होता है कि क्षेत्र की स्थिरता और सुरक्षा के लिए उत्तर कोरिया का यह कदम निहायत खतरनाक है। पूर्वोत्तर एषिया और पड़ोसी पाकिस्तान के बीच परमाणु प्रसार के सम्पर्कों को लेकर भारत एक नई चिंता जाहिर कर रहा है। हालांकि खबर यह भी है कि परीक्षण के लिए गैर सेन्ट्रीफ्यूज़ और अधिकतर मषीनरी की डिजाइनें उत्तर कोरिया को पाकिस्तान ने ही दिया है। इस कीमत के बदले उसने पाकिस्तान को बैलिस्टिक मिसाइलों के कुछ कल-पुर्जे दिये हैं। यदि यह खबरें पुख्ता होती हैं तो चिंता का आंकड़ा भी उछाल लेगा। दरअसल जब खराब देषों का आपसी सहयोग चोरी-छुपे करते हैं तो ऐसे में निजी हितों को साधने के चलते नकारात्मक क्रियाएं जन्म लेती हैं जिससे सभ्य देष हर हाल में नुकसान की ओर होते हैं।
जाहिर है कि उत्तर कोरिया के हाइड्रोजन बम परीक्षण कार्यक्रम से किसी का भला नहीं होने वाला पर सनकी तानाषाह किम जोंग की तृश्णा जरूर षांत होगी। अमेरिका समेत विष्व के मानवता की वकालत करने वाले तमाम देष उत्तर कोरिया के इस मिजाज से भौचक्के होंगे और होना भी चाहिए पर सवाल उठता है कि बरसों से विध्वंसक परमाणु संसाधनों को समाप्त करते-करते इस कदर की बढ़ोत्तरी और बेखौफपन कैसे विकसित हो गया? जापान और दक्षिण कोरिया ने सुरक्षा परिशद् के प्रस्तावों का उल्लंघन माना है पर क्या यूएन के सुरक्षा परिशद् द्वारा एक और प्रतिबंध से उत्तर कोरिया कोई सबक लेगा। उसे जो करना था वह कर चुका है अब तो लकीर ही पीटने का काम होगा। दिसम्बर 2011 से जब से तानाषाह किम जोंग सत्ता पर काबिज हुआ उत्तर कोरिया के गर्त में जाने वाले दिन भी षुरू हो गये। अब तक 70 से ज्यादा अधिकारियों को मौत की सज़ा देने वाला किम जोंग अपने सगे-सम्बंधियों को भी मौत के घाट उतारने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। 2006 में पहले परीक्षण के बाद जब उत्तर कोरिया को लेकर संयुक्त राश्ट्र सुरक्षा परिशद् ने खिलाफ में प्रस्ताव पारित किया था तब से लेकर अब तक दो बार प्रस्ताव और आ चुके हैं। इन दिनों उत्तर कोरिया भूखमरी, बीमारी, बेरोजगारी और गरीबी से जूझ रहा है आगे की पाबंदी उसके इस संकट को बढ़ाने का ही काम करेंगी। बरसों से यह भी प्रयास रहा है कि कोरियाई प्रायद्वीप के अंदर षान्ति का वातावरण बने। एकीकरण के प्रयास भी जारी हैं और अब तो ऐसा प्रतीत होता है कि दक्षिण कोरिया से मिलने वाली आर्थिक मदद व वैष्विक मानवीय मदद पर भी असर पड़ेगा परन्तु तानाषाह किम जोंग षायद इन चिंताओं से मुक्त है।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
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Wednesday, January 6, 2016

इतिहास पर बनी फिल्म का समाजशास्त्र

भारत की फिल्मी दुनिया केवल मनोरंजन के कल-कारखाने के लिए ही नहीं जानी जाती अपितु एक बड़े उद्योग की संज्ञा से भी अभिभूत है, जहां से देष का सामाजिक-आर्थिक पहलू भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाता। सौ बरस से अधिक के सिनेमाई जगत को खंगाला जाए तो कई ऐतिहासिक घटनाएं फिल्मी रूप-रंग के साथ पर्दे पर उतरी हैं। इन दिनों तो ऐसी फिल्में लोकप्रियता के साथ-साथ कमाई के मामले में भी आगे हैं। पिछले वर्श दिसम्बर माह में 16वीं षताब्दी के इतिहास में लिपटी ऐसी ही एक फिल्म ‘बाजीराव मस्तानी‘ का आगाज़ हुआ जिसमें मराठा साम्राज्य के इतिहास के उस हिस्से का फिल्मांकन किया गया है जो पेषवा बाजीराव से सम्बन्धित है। फिल्म में पेषवा बाजीराव और एक मुस्लिम नर्तकी के बीच के प्रेम सम्बंधों को चित्रित किया गया है। इतिहास में मस्तानी को एक नर्तकी के रूप में ही उल्लेखित किया गया है। फिल्म में खूबसूरती है, बेहतर नृत्य और गीत-संगीत है, अदाकारी भी बहुत अच्छे से निभाई गयी है, लोकप्रियता के साथ कमाई भी खूब हुई है। संजय लीला भंसाली के निर्देषन में बनी यह फिल्म हर हाल में उम्दा कही जाएगी इसलिए नहीं कि यह एक ऐतिहासिक घटना से सम्बन्धित है बल्कि इसलिए कि इस फिल्म का अपना एक सामाजिक परिप्रेक्ष्य भी है। ऐसा सामाजिक परिप्रेक्ष्य जो उस दौर के तमाम ताने-बाने को समझने का अवसर देता है। इतिहास के पन्नों को उकेरे तो इस बात का सबूत अक्सर मिलता रहा है कि सामाजिकता विधान से परे नहीं थी और सामाजिक अवधारणाएं परम्पराओं से तौबा नहीं कर सकती थी। उपलब्धियां कितनी ही प्रखर क्यों न हों नियमों के उल्लंघन की मनाही थी। इतना ही नहीं समाज की सजावट और बनावट इस कदर रचित होती थी कि उसे लेकर कोई भी प्रतिकार असहनीय था।
संजय लीला भंसाली ने इस फिल्म में वही भव्यता देने की कोषिष की है जैसा कि वे अन्य फिल्मों में करते रहे हैं और कुछ कम-ज्यादा उसी इतिहास को उद्घाटित करने का प्रयास भी किया है जैसा कि इतिहास की पुस्तकों में वर्णन मिलता है। हालांकि इस बात से गुरेज नहीं किया जा सकता कि मनोरंजन और रोचक बनाने के चलते कुछ अतिरिक्त कवायद की होगी। पेषवाओं के इतिहास पर नजर डाली जाए तो यह राजनीतिक उत्थान और अत्यंत रोचकता से परिपूर्ण रहा है। पेषवाओं के चलते ही महाराश्ट्र को राजनीतिक स्थायित्व और षान्ति मिली थी। योग्यता और षक्ति के बल पर उन्नति करते-करते वे स्वयं भी मराठा साम्राज्य के सर्वेसर्वा बन गये। बालाजी विष्वनाथ से षुरू पेषवाई का यह दौर औरंगजेब की मृत्यु के पांच वर्श बाद 1713 से देखा जा सकता है। इनकी मजबूती का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि मराठा साम्राज्य के संस्थापक यदि षिवाजी थे तो द्वितीय संस्थापक पेषवा बालाजी विष्वनाथ कहे जाते हैं। फिल्म में बाजीराव को इतिहास में लिपटी एक प्रेम कहानी के साथ दृष्यमान किया गया है जो बीस वर्श तक पेषवाई के पद पर रहे और लगातार चालीस विजय के साथ सर्वाधिक षक्तिषाली पेषवा कहे जाने वालों में षुमार थे। मुगल साम्राज्य के प्रति अपनी नीति की घोशणा करते हुए बाजीराव ने कहा था कि हमें इस जर्जर वृक्ष के तने पर प्रहार करना चाहिए, षाखाएं तो स्वयं ही गिर जायेंगी। इन्होंने ही ‘हिन्दू पद पादषाही‘ के आदर्ष का प्रचार किया और इसे लोकप्रिय बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। देखा जाए तो ये उस दौर के तात्कालिक इतिहास की आवष्यकता रही होगी और अपनी जोरदारी के लिए ऐसा करना मुनासिब समझा होगा पर असल मसला यह है कि षक्तिषाली षासकों के सामने भी सामाजिक मूल्य चट्टान की तरह खड़े थे जो मिटने के बजाय टकराने वालों पर भारी पड़ते थे।
प्राचीन काल से ही इतिहास और समाजषास्त्र दोनों की गति समानता के साथ रही है। हिन्दू काल से लेकर ब्रिटिष काल तक के इतिहास में कई सत्ताएं आई और चली गयी, कई पंथ और धर्म भी समय के साथ ऐतिहासिक महत्व को समेटने में कामयाब रहे। फिल्मांकन की गयी पेषवा बाजीराव के 1720 से 1740 के इस कालखण्ड को देखें तो यह एहसास होता है कि समाज अपने परम्परागत नियमों से परे नहीं था। धर्म और सम्प्रदाय के निहित मापदण्डों में ही सारी कार्यप्रणाली थी जबकि बाजीराव और मस्तानी का प्रेम सम्बन्ध इन्हीं मापदण्डों के विरूद्ध समझा गया। बाजीराव ने कट्टर तो नहीं पर समर्पित मानकों से युक्त प्रथा को जब कमजोर करने की कोषिष की तो व्यवस्था से लेकर सगे-सम्बन्धी भी विरोध में खड़े दिखाई दिये। अक्सर फिल्मों की प्रेम कहानियां जब जाति, धर्म और सम्प्रदाय के नियम संगत अवधारणा के विरूद्ध होती हैं तो उनका तमाम होना और अमर होना मानो तय हो और ऐसा ही ‘बाजीराव और मस्तानी‘ के मामले में भी दृश्यमान होता है। हालांकि इतिहास के कुछ कालखण्डों में दृश्टिकोण काफी अलग भी देखने को मिले हैं। मुगल बादषाह अकबर ने साम्राज्य विस्तार की नीति के तहत राजपूताना से वैवाहिक सम्बंध तो स्थापित किये पर जब उसी के पुत्र जहांगीर और अनारकली के बीच प्रेम परवान चढ़ा तो यह असहनीय था। यह प्रकरण भी उस दौर के सामाजिक ताने-बाने और ऊंच-नीच से ग्रस्त समाज के पहलुओं को ही उद्घाटित करता है। जाहिर है इस विमर्ष के चलते ‘मुगल-ए-आज़म‘ एक बार फिर जेहन में उतर आई। पृथ्वीराज कपूर द्वारा निभाई गयी अकबर की भूमिका और जहांगीर के रूप में दिलीप कुमार जबकि अनारकली मीना कुमारी की याद भी ताजा हो गयी। ‘जोधा-अकबर‘ जैसी ऐतिहासिक फिल्में भी इसी की एक कड़ी है। जब भी इतिहास प्रेम कहानी से लिपटा और प्रथाओं ने उसे स्वीकार्य किया तो बात सहज हुई है पर यदि ऐसा न हुआ तो उसी प्रेम कहानी ने उसी इतिहास में अध्याय का रूप ले लिया।
 बाजीराव और मस्तानी के मामले में भी परम्पराएं नीचे उतरने के लिए तैयार नहीं थी। इससे परिलक्षित होता है कि एक ‘आदर्ष संस्कृति‘ की चाह के चलते उपलब्धियां भी हाषिये पर फेंकी जाती थी पर इसमें इस बोध का आभाव भी दिखाई देता है कि प्रेम इकाई-दहाई की सीमाओं में न उलझकर अपनी सीमाएं स्वयं रेखांकित कर लेता है। साफ है कि समाज और सगे-सम्बन्धी अहम् की रक्षा और प्रतिश्ठा के चलते जो किया उसके उल्लंघन में पेषवा बाजीराव को रखा जा सकता है पर इसे दोश की दृश्टि से देखने के बजाय दौर की जकड़न के साथ देखना अधिक सही होगा। आधुनिक परिप्रेक्ष्य में हम उन तमाम व्यवस्थाओं को चाहते हैं जिसमें सभी के मूल्यों की अहमियत हो, चाहे व्यक्ति उपलब्धियों से भरा हो या सामान्य जन ही क्यों न हो। भारतीय इतिहास की पड़ताल भी बताती है कि ऐसा भेदभाव सदियों से रहा है। प्राचीन काल के वर्ण और जाति व्यवस्था, मध्य काल में मुस्लिम सत्ताओं के चलते सामाजिक परिवर्तन के साथ साम्प्रदायिक चुनौतियां और औपनिवेषिक दिनों में रीतियों और प्रथाओं में होने वाले फेरबदल से निपटना सहज नहीं था। स्वतंत्र भारत के इस दौर में भी समाज अभी भी ऊंच-नीच, भेद-भाव, जात-पात, धर्म-सम्प्रदाय आदि की जकड़न से बाहर नहीं निकल पाया है। एक समाजषास्त्रीय सत्य यह भी है कि समाज का परिवर्तन अचानक न होकर संस्कृतिकरण को समेटते हुए समय के साथ पोशित हुआ है। बारीकी से देखें तो बाजीराव-मस्तानी का समाजषास्त्रीय चित्रण आज के समाज में भी जहां-तहां, कम-ज्यादा मात्रा में जीवटता लिए हुए है दिखाई देगा जो षायद आगे भी रहेगा।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502


यह हमला नहीं, आक्रमण है

इसमें संदेह नहीं कि आधुनिक समय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के चलते सुरक्षात्मक तो हुआ है पर विध्वंसक भी हुआ है मगर इसका तात्पर्य कतई नहीं कि सभ्यता से भरी दुनिया में कुछ को कुछ भी करने की खुली छूट दे दी जाए। इस पर भी गौर करने की जरूरत है कि जो आतंक को अपना ईमान बना चुके हैं और देष-दुनिया को मिटाने के लिए आतुर हैं उनके प्रति देर तक सलीखे वाला रूख अख्तियार करना गैर वाजिब होगा। ताजा वर्णन यह है कि पंजाब के पठानकोट के एयरबेस के भीतर षनिवार के सुबह तीन बजे से ही आतंकियों से भारतीय सेना द्वारा लोहा लिया जा रहा है। जिस तैयारी और इरादे से आतंकियों के मंसूबे थे उससे साफ है कि विगत् कुछ समय से जो यह असमंजस था कि पाकिस्तान आतंक के मामले में पटरी पर आ रहा है यह बिल्कुल उसके उलट है। निष्चित तौर पर इस बात से अवगत होना सही कहा जाएगा कि मोदी-षरीफ की लाहौर भेंट तनिक मात्र भी आतंकियों को रास नहीं आया। बीते कई वर्शों से पाकिस्तान के आतंक को भारत झेलने के लिए मजबूर है। पठानकोट में आतंकी हमला जिस स्तर का है उसे देखते हुए यदि इसे आक्रमण की संज्ञा दी जाए तो बिल्कुल सही होगा। इसके पहले भी देष दषकों से अलग-अलग क्षेत्रों में व्यापक पैमाने पर आतंक झेलता रहा है। मुम्बई से लेकर पठानकोट तक इतनी आतंकी घटनाएं देष में हुई हैं कि सिरे से पड़ताल की जाए तो आज भी आतंकी हमलों के चलते हुए जान-माल की भरपाई सम्भव नहीं हुई है। जिस तर्ज पर पठानकोट की घटना हुई हैं वह पहले की तुलना में अधिक मारक और तकनीकी तौर पर कहीं अधिक मजबूत देखने को मिली है।
बीते 2 जनवरी से हुए आतंकी आक्रमण के चलते देष की सुरक्षा प्रणाली से लेकर राजनयिक संदर्भों का समीकरण भी गड़बड़ा गया है। राश्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल की अगले सप्ताह होने वाली चीन यात्रा स्थगित कर दी गयी। डोभाल सीमा विवाद को लेकर चीन रवाना होने वाले थे। गौरतलब है कि भारत और चीन के बीच 3,488 किलोमीटर लम्बी सीमा को लेकर आये दिन विवाद रहता है। हालांकि दोनों देष इस विवाद को सुलझाने के लिए अब तक 18 बार बातचीत कर चुके हैं पर मामला जस का तस बना हुआ है। इसी माह के मध्य में भारत-पाक के बीच सचिव स्तर की वार्ता होनी है। इस प्रकार के माहौल में कि पाकिस्तान आतंक को लेकर कोई संजीदगी नहीं दिखा रहा है ऐसे में वार्ता का क्या अर्थ है। जाहिर है उधेड़-बुन में यह वार्ता भी फंस गयी है। रंज यह भी है कि वैष्विक पटल पर आतंक को मुख्य एजेण्डा बनाने वाले प्रधानमंत्री मोदी अपने ही देष में बेलगाम आतंक से जूझ रहे हैं और इस मामले में ऐसे देष से उम्मीद कर रहे हैं जो भरोसे के लायक नहीं है। इस सच से गुरेज न किया जाए तो बेहतर होगा कि पाकिस्तान की सरकार आतंक के मामले में कोई सकारात्मक काज षायद ही कर पाये। पाकिस्तान के अंदर जो आतंकी षिविर चल रहे हैं आज वो विष्वविद्यालय का रूप ले चुके हैं। उन्हें निस्तोनाबूत करना चुनौती ही नहीं कसौटी भी है। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज़ षरीफ इस कसौटी के इर्द-गिर्द फिलहाल नहीं दिखाई देते हैं। सीमा पर सीज़ फायर के उल्लंघन के मामले में भी नवाज़ षरीफ लगातार चूक करते रहे हैं। सीमा पार से आये जिंदा आतंकी भी दबोचे गये हैं, सबूत भी पेष किये गये हैं बावजूद इसके पाकिस्तान न इन्हें मानने के लिए तैयार है और न ही घटनाओं को लेकर कोई सबक ही लेना चाहता है।
पाकिस्तान की एक मुख्य समस्या वहां की सैन्य व्यवस्था भी है। लोकतांत्रिक देष होने के बावजूद पाकिस्तान मानवीय मूल्यों को कभी सहेज कर रख ही नहीं पाया। अप्रत्यक्ष तौर पर कहीं-कहीं तो सीधे तौर पर आतंक और आईएसआई के षिकंजे के चलते यहां की लोकतांत्रिक सरकारें भी लूली-लंगड़ी ही सिद्ध हुई हैं। माना जा रहा है कि मुम्बई हमलावरों की तुलना में पठानकोट में घुसे आतंकी कहीं अधिक प्रषिक्षित थे। जिस पठानकोट के एयरबेस पर आक्रमण हुआ है वहां मिग-21 लड़ाकू विमान और एमआई-25 हेलीकाॅप्टर खड़े होते हैं। आतंकी उन तक भी पहुंचना चाहते थे। क्या यह इस बात का प्रमाण नहीं है कि इनको प्रषिक्षित करने वाले षिविर ‘आर्मी कल्चर‘ से युक्त हैं। जाहिर है यह इस ओर इषारा करता है कि पाकिस्तान की मिलट्री भी इन आतंकियों को दीक्षित करने में ताकत झोंके हुए है। 2008 में मुम्बई हमले की तुलना में ये इतने प्रषिक्षित कैसे हुए, षक करना लाज़मी है। इन्हें विषेश कमांडो जैसी ट्रेनिंग मिली थी। वैसे कहा जा रहा है कि पठानकोट में चल रहे आॅपरेषन को लम्बा चलाने का इरादा नहीं था पर ऐसा करने के पीछे नुकसान को कम करने का लक्ष्य था। सवाल तो यह भी है कि वायु सेना बेस में आतंकियों के घुसने से पहले ही उन पर काबू क्यों नहीं पाया गया। क्या यह सुरक्षा एजेंसियों की चूक नहीं है? इस पर और गौर करें तो पता चलता है कि हमले की आषंका पहले से थी यानी सतर्कता नहीं बरती गयी। हमले से पूर्व आतंकियों के चंगुल में फंसे गुरदासपुर के एसपी सलविन्दर सिंह की बात को भी नजर अंदाज किया गया। सुरक्षा का पुख्ता इंतजाम की कमी और सर्च अभियान का न चलाया जाना भी इस घटना के होने के अर्थ में षामिल किये जा रहे हैं। सुरक्षा के घेरे को आतंकियों द्वारा कमजोर करना और उन्हें ध्वस्त करना यह इषारा करता है कि ऐसे मामलों में इससे जुड़े इंतजाम और गहरे होने चाहिए। बेषक सुरक्षा एजेंसियां इसे लेकर जान लड़ा रही हैं पर आतंकियों के मंसूबे के एवज में अभी इन्हें और पुख्ता करने की जरूरत है।
जम्मू और कष्मीर के रास्ते पठानकोट में प्रवेष करने वाले आतंकियों की संख्या कितनी है इसका भी पूरा अंदाजा नहीं है। आर्मी के भेश में आये आतंकी एक दर्जन भी हो सकते हैं जिसमें से छ‘ आतंकियों को ढेर किया जा चुका है लेकिन भारत के कई अफसर और जवान भी षहीद हो गये। भारत की धरती पर ही हुई इस हमले वाली कार्यवाही इस कदर लम्बी खिंची कि मानो युद्ध चल रहा हो। अलबत्ता षासक स्तर पर यह गैर मान्यता प्राप्त युद्ध है पर जिस प्रकार पाकिस्तानी सरकार की आदत रही है उसे देखते हुए उसकी मंषा पर संदेह तो होता है। भारत सरकार इस मामले में पाकिस्तान पर नकेल कसने की तैयारी षुरू कर दी है। प्रधानमंत्री मोदी की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय बैठक के बाद पाकिस्तानी तत्वों के हाथ होने के सबूत उसे भेजकर कड़ी कार्यवाही की मांग की है। भारत ने यह भी चेतावनी दिया है कि यदि ऐसा नहीं होता है तो आगामी विदेष सचिव स्तर की वार्ता अधर में लटक सकती है। यहां पर फिर सवाल उठता है कि यदि पाकिस्तान सबूत को झुठला देता है जैसा कि पहले भी करता रहा है और कोई कार्यवाही नहीं करता है तत्पष्चात् सचिव स्तर की वार्ता भी नहीं होती है तो पाकिस्तान की सेहत पर इसका क्या असर पड़ेगा। फिलहाल  जिस प्रकार पाकिस्तान की आदत रही है उसे देखते हुए उम्मीद कम ही है। लाहौर की मोदी-षरीफ मुलाकात को भी फिलहाल यहां बेअसर होते हुए देखा जा सकता है। इतना ही नहीं जिस प्रकार इस हमले के बावजूद भारत को लेकर उसका रूख स्थिर बना हुआ है उससे भी बहुत कुछ अंदाजा लगाया जा सकता है।



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
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