कहना गलत नहीं होगा कि बिहार के नतीजे भाजपा और उनके सहयोगी दलों की बड़ी हार के साथ मोदी के लिए भी करारी शिकस्त है। चुनाव से पूर्व और चुनावी अधिसूचना के बाद कुल तीस रैली करने वाले मोदी बिहार के ‘सोशल इंजीनियरिंग‘ को नहीं समझ पाये। वे इसे भी नहीं समझ पाये कि बिहार के मतदाताओं को क्या और कितना बोल कर आकर्षित किया जा सकता है। बिहार में जो पोस्टर व बैनर लगाये गये उसमें भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और प्रधानमंत्री मोदी के अलावा अन्य स्थानीय नेता एक तरह से नदारद थे। बिहार के स्थानीय भाजपाई नेता न तो संगठित दिखे, न ही संतुश्ट और न ही इनकी व्यथा को समझने का प्रयास उच्चस्थ नेतृत्व द्वारा किया गया। जिस प्रकार महागठबंधन की जीत हुई है उससे मोदी के प्रचार, प्रसार, दावों, वादों और इरादों की पोल खुलती है। विमर्ष तो इस बात का भी है कि क्या डेढ़ वर्श पुरानी मोदी सरकार चमक खोती जा रही है। बीते फरवरी में दिल्ली विधानसभा में जब भाजपा 70 के मुकाबले तीन सीट पायी थी तो यह तर्क पूरी तरह सुदृढ़ नहीं था और केवल एक चुनाव मात्र से ऐसा आंकलन पूरी तरह सही भी नहीं था पर बिहार के परिणाम ने इस पर मोहर लगा दी है। मोदी के षासनकाल में कई चीजें अप्रत्याषित हुई हैं जब उन्होंने मई 2014 में लोकसभा में प्रचंड बहुमत के साथ जीत दर्ज की और उसके पष्चात् सिलसिलेवार तरीके से महाराश्ट्र, झारखण्ड, हरियाणा और जम्मू-कष्मीर की विधानसभाओं पर जीत का परचम लहराया तो वे जीत के सिकन्दर बन गये पर यह कूबत दिल्ली विधानसभा चुनाव आते-आते कमतर पड़ गयी और अब बिहार की हार ने तो इनके कद पर ही सवाल उठा दिया है।
दषकों पहले बिछड़े जनता परिवार के नीतीष-लालू मिलन का जादू इतना प्रचंड होगा इसकी कल्पना षायद ही किसी ने की हो। बिहार की जनता ने इनके अनोखे फाॅर्मूले पर भरोसा जताया। महागठबंधन के इस षानदार जीत के साथ निष्चित तौर पर भाजपा सदमे में होगी क्योंकि दो महीने तक बिहार में चले सघन अभियान की इस तरह हवा निकल जायेगी कल्पनाओं में नहीं रहा होगा। प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित षाह की आक्रामकता बिहार की जमीन पर पूरी तरह फेल हो गयी। अब इसी जमीन पर एक दूसरा करिष्माई नेता नीतीष कुमार का उदय हुआ। चुनाव के पहले और चुनाव के बाद राजनीतिक पण्डितों और एक्जिट पोलों ने टक्कर का अनुमान लगाया था। सबको धराषायी करते हुए नीतीष बनाम मोदी के इस चुनाव में नीतीष का कद एक सषक्त राजनीतिज्ञ के रूप में उभरा। अप्रत्याषित तो यह भी है कि हाषिये पर जा चुकी लालू की राजद 80 सीटों के साथ षीर्श पर है जाहिर है लालू फूले नहीं समा रहे होंगे। इतना ही नहीं पहली बार उनके दोनों बेटे विधानसभा की दहलीज पर कदम रखेंगे जबकि अन्य राजनीतिक पुत्रों की यहां करारी हार हुई है। 71 सीटों के साथ नीतीष दूसरे स्थान पर हैं पर सत्ता की चाबी और तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने का हक उन्हीं के पास है। इस चुनाव ने यह भी साफ किया है कि दस साल पुरानी नीतीष सरकार के विरोध में कोई लहर नहीं थी जबकि मोदी अपनी रैलियों में नीतीष के सुषासन और विकास को बार-बार हाषिये पर फेंक रहे थे और अपने डेढ़ वर्श के सुषासन और विकास के साथ बिहार की जनता का मन-मोहना चाहते थे जो हो न सका।
सवाल है कि क्या भाजपा और प्रधानमंत्री मोदी करामात करने के फेर में मात खा गये। भाजपा की पराजय की पड़ताल की जाए तो कई बातें उभर कर सामने आती हैं। जनता का मिजाज समझने में मोदी चूक गये। नकारात्मक चुनाव प्रचार भी इन पर भारी पड़ा। स्थानीय मुद्दों पर ध्यान देने के बजाय नीतीष और लालू को घेरने वाले अनियंत्रित षब्दों का अधिक प्रयोग इनके लिए घातक सिद्ध हुआ। सरसंघसंचालक मोहन भागवत के आरक्षण पर पड़ताल वाली टिप्पणी पर सही समय पर कदम न उठाना भी एक बड़ी वजह रही है। इन सभी के अलावा प्रधानमंत्री मोदी को यह लगता था कि लोकसभा की भांति प्रचंड रैलियां करके और बड़ी-बड़ी लुभावनी बातें करके जनमत को रिझाया जा सकता है पर वे यह भूल गये कि जिस जनता के बीच बड़े-बड़े दावे कर रहे हैं वह रैलियों में महंगाई की मार के चलते आधा पेट ही खा कर आई है। ध्यान दिलाना जरूरी है कि उस दौर में भी दाल की कीमत आसमान छू रही थी और मोदी को ही नहीं देष के वित्त मंत्री अरूण जेटली को भी यही लग रहा था कि दाल चुनाव का खेल नहीं बिगाड़ पायेगी। इतना ही नहीं जिस मांझी के भरोसे नाव पार लगाना चाहते थे वे भी स्वयं तक ही सिमट कर रह गये और एक जगह से हार भी गये। राम विलास पासवान बिहार के स्थानीय नेता होने के बावजूद दो ही स्थानों पर सीट जीत पाये। कहा जाए तो भाजपा की लुटिया डुबोने में सहयोगी भी कम नहीं थे। महापराजय की गम्भीरता को देखते हुए एनडीए की सहयोगी षिवसेना ने भी तंज कसा कि भाजपा नहीं यह तो मोदी की हार है।
देखा जाए तो बिहार के परिणाम ने देष की राजनीति में नये सिरे से गोलबन्दी की सम्भावना को भी उजागर कर दिया है। जीत से उत्साहित लालू प्रसाद समाजवादी पार्टी को भी एक बार फिर करीब लाने का प्रयास कर सकते हैं। हालांकि महागठबंधन की षुरूआ मुलायम सिंह यादव की अध्यक्षता में ही होनी थी पर ऐन मौके पर सपा के मुखिया इससे हट गये और अकेले ही बिहार चुनाव लड़ने का निर्णय लिया पर सफलता नहीं मिली। यहां समझना जरूरी है कि सपा की चुनावी जमीन उत्तर प्रदेष है न कि बिहार यहां मात्र एक प्रयोग किया गया था। उत्तर प्रदेष में 2017 में चुनाव होना है और एनडीए से मुकाबला करने के लिए महागठबन्धन जैसी परिस्थितियां बिहार के परिणाम को देखते हुए उत्तर प्रदेष में भी कारगर सिद्ध हो सकती हैं। फिलहाल अभी यह दूर की कौड़ी है पर राजनीति में कब, क्या और कैसे समावेषित हो जाये इसमें कोई हैरत की बात नहीं है। पराजय को देखते हुए इन दिनों कई भाजपाई नेता बिहार चुनाव की हार से मोदी के सम्बन्ध को नकारने में लगे हैं उनका मानना है कि यह मोदी बनाम नीतीष की लड़ाई नहीं थी। दिल्ली विधानसभा की हार के बाद कुछ इसी प्रकार मोदी को बचाने की कोषिष की गयी थी। हालांकि मुख्यमंत्री के तौर पर किरण बेदी को पेष करके हार का ठीकरा फोड़ने का इंतजाम वहां कर लिया गया था पर बिहार में तो इस मामले में भी भाजपा पीछे रह गयी। भाजपा के नेता षत्रुघ्न सिन्हा ने साफ कहा है कि यदि जीत दिलाने वाले को ताली मिलती है तो हार की गाली भी उन्हें ही मिलनी चाहिए। संकेत साफ है कि इस हार के जिम्मेदार मोदी ही हैं क्योंकि इसके पहले जीत के सारे श्रेय वो ले चुके हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि महागठबंधन की महाविजय से राश्ट्रीय स्तर की राजनीति पर भी प्रभाव पड़ेगा और इससे देष की राजनीति भी संतुलित हो सकती है इसके अलावा आने वाले दिनों में जनता के हितों को ध्यान में रखते हुए मोदी सरकार नियोजित और व्यवस्थित कदम उठाने के लिए भी मजबूर हो सकती है क्योंकि वे समझ रहे हैं कि यदि ऐसी करारी षिकस्त से बचना है तो धरातल पर बहुत कुछ करके दिखाना होगा।
लेखक, वरिश्ठ स्तम्भकार एवं रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन के निदेषक हैं
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
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