सूचना प्रौद्योगिकी, आर्थिक उदारीकरण तथा बढ़ती हुई जन जागरूकता के कारण सम्पूर्ण विष्व में परिवर्तन की लहर है और इसमें भारत भी षुमार है। भारतीय संविधान के अंकित लक्ष्य में सामाजिक-आर्थिक विकास के साथ-साथ धार्मिक सहिश्णुता भी इंगित है। जहां एक ओर आम आदमी के जीवन स्तर में सुधार के लिए नीतियां हैं वहीं अलग-अलग धर्मों में बंटे लोगों के लिए पंथ निरपेक्षता का भी पूरा इंतजाम संविधान में देखा जा सकता है। एक लोकतांत्रिक सरकार में यह धारणा निहित होती है कि नीतियों के निर्माण और निश्पादन इस प्रकार हो कि अतिवाद का जन्म न होने पाए पर वर्तमान में तथाकथित असहिश्णुता के चलते अतिवाद की बात कही जा रही है पर इसकी मात्रा कितनी है इसका जवाब षायद ही किसी के पास हो। यदि वाकई में देष में असहिश्णुता है तो यह अत्यंत संवेदनषील मुद्दा है और इससे जुड़े सवाल भी काफी भारयुक्त हैं पर विमर्ष यह भी है कि क्या वास्तव में भारत असहिश्णुता को अवसर दे सकता है। साहित्य अकादमी पुरस्कार वापस करने वाले साहित्यकार और कुछ अन्य सम्मानधारक जो सम्मान नहीं भी वापस किए हैं उनकी दृश्टि में तो असहिश्णुता है। जो अभी भी पुरस्कार वापसी की चुनौती दे रहे हैं जाहिर है उनका भी मत इसी प्रकार का है। देखा जाए तो भारतीय समाज की सहिश्णुता हमेषा निर्विवाद तो रही है पर कुछ का विष्वास इस पर पूरी तरह षायद ही रहा हो। बहुधर्मी भारत रीति, नीति और प्रथाओं से जिस कदर युक्त है, जिस भांति अनेकता में एकता का अतिरिक्त प्रभाव लिए हुए है साथ ही जिस सामाजिक समरसता से यह ओत-प्रोत है उसे देखते हुए यह प्रतीत होता है कि कुछ संकीर्ण ताकतों को यदि हावी होने का मौका दिया गया तो निष्चित ही सहिश्णुता खतरे में रहेगी।
बढ़ती असहिश्णुता के खिलाफ पुरस्कार वापस करने के कदम को फिल्म कलाकार कमल हासन ने नकार दिया है वे इसे समाधान के रूप में नहीं देखते। कई लेखक, वैज्ञानिक, इतिहासकार और कलाकार के द्वारा बीते कुछ महीनों से पुरस्कार वापसी का जो सिलसिला चल रहा है वह कितना प्रभावषाली है इसे भी समझने की जरूरत है। दरअसल विरोध के विकल्प हो सकते हैं पर विकल्प वही अच्छे जो उद्देष्य को हल कर सके। पुरस्कार वापसी बेहतर विकल्प था या नहीं यह पड़ताल का विशय है पर सरकार को यह समझ लेना चाहिए कि बुद्धिजीवियों का संकेत इतना भी कुंद नहीं है कि वे गैर संवेदनषील बने रहंे। यह भी देखा गया है कि प्रजातांत्रिक षासन व्यवस्था में हालात को सुधारने के लिए दबाव बढ़ाये जाते हैं जन षिकायतें भी होती है साथ ही निवारण भी प्राप्त हुए हैं। बीते दिनों पुरस्कार वापस करने वाले और गैर वापस करने वालों के बीच भी विरोध देखा गया जो एक नये किस्म का संघर्श है। ज्ञान की पूंजी रखने वालों को खेमे में बंट कर नये विमर्ष की ओर देष को झोंकना गैर वाजिब तो नहीं पर इससे यदि अस्थिरता जन्म लेती है तो इसे सही करार नहीं दिया जा सकता। सभी को पता है कि भारत एक पंथ निरपेक्ष देष है यहां किसी को मनमानी का मौका नहीं है। बिगड़ी बात नियोजन और नीति को सषक्त करके बनाई जा सकती है पर क्या इस पर किसी का ध्यान है। राजनेता हों, मंत्रिपरिशद् के सदस्य हों या फिर बुद्धिजीवी वर्ग ही क्यों न हो सभी बयानबाजी ही कर रहे हैं और समाधान पर षायद ही किसी का ध्यान हो। वित्त मंत्री अरूण जेटली का इसी मामले में दो बयान आये हैं। पहले बयान में असहिश्णुता को लेकर षिकायत करने वालों की कड़ी आलोचना करते हुए कहा कि इसके षिकार तो स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हैं जो आलोचना पर आलोचना झेल रहे हैं जबकि दूसरे बयान में नरमी दिखाते हुए कहा कि भारतीय समाज असहिश्णु हो ही नहीं सकता। यह एक उदार लोकतंत्र वाला देष है जिसका षांतिपूर्ण सहःअस्तित्व पर भरोसा है।
बयानों के सिलसिले बादस्तूर जारी है। अब इसमें अर्थषास्त्री और फिल्म कलाकार भी जुड़ गये हैं। रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन तथा लार्ड मेघनाथ देसाई जैसे अर्थषास्त्री ने भी इस मामले में चिंता जताई है। फिल्म कलाकार षाहरूख खान भी कुछ इसी प्रकार की समस्या से स्वयं को घिरे पाते हैं। पद्मश्री वाले षाहरूख भी असहिश्णुता को लेकर अपने चटपटे बयान दे चुके हैं। जिस पर पाकिस्तान का आतंकी हाफिज सईद का भी बयान आया कि पाकिस्तान में ऐसे लोगों का स्वागत है। सवाल है कि क्या क अब आतंकी भी भारत की सहिश्णुता और असहिश्णुता को लेकर लेक्चर देंगे? इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि मामला संगीन है और विस्तार ले रहा है। अटल बिहारी वाजपेई के कार्यकाल में विनिवेष मंत्रालय संभाल रहे अरूण षौरी भी असहिश्णुता को लेकर प्रधानमंत्री की चुप्पी पर सवाल उठाया है। बीते मंगलवार को मुख्य विपक्षी कांग्रेस ने पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सहित सौ से अधिक नेताओं ने सोनिया की अगुवाई में संसद भवन से राश्ट्रपति भवन तक असहिश्णुता के विरोध में मार्च किया। सरकार की ओर से यदि कोई अच्छा और ताजा बयान आया है तो वो वित्त मंत्री अरूण जेटली का ही है जिसे देखते हुए सरकार के नरम रूख को जाना और समझा जा सकता है। पिछले दिनों की घटनाओं की पड़ताल बताती है कि असहिश्णुता को लेकर न तो इसकी मात्रा में बढ़ोत्तरी हुई है और न ही इसे रोकने के लिए कोई हिंसात्मक कार्यवाही की गयी है। हालांकि सहिश्णुता और असहिश्णुता को हिंसा की घटनाओं की संख्या के आधार पर तय नहीं किया जा सकता। घटना एक हो या दो मुद्दा तो सहिश्णुता की रक्षा का है जिस हेतु संवेदनषील कदम उठना ही चाहिए मगर यह भी देखा गया है कि यदि माहौल उदारता और षान्ति का हो तो घटना को अपवाद मानकर छोड़ा भी गया है परन्तु बीते एक-डेढ़ महीने से कई संगठनों के नेताओं द्वारा दिखाई गयी अतिरिक्त सक्रियता और बयान के चलते भी माहौल बिगड़ा है। भारत बहुलवादी देष है और विरोधी ताकतें भी रहेंगी पर सरकार, जनता और बुद्धिजीवी समाज को चाहिए कि इसका न केवल विरोध करे बल्कि सहिश्णुता की लकीर भी लम्बी करे।
लेखक, वरिश्ठ स्तम्भकार एवं रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन के निदेषक हैं
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्ससाइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2710900, मो0: 9456120502
बढ़ती असहिश्णुता के खिलाफ पुरस्कार वापस करने के कदम को फिल्म कलाकार कमल हासन ने नकार दिया है वे इसे समाधान के रूप में नहीं देखते। कई लेखक, वैज्ञानिक, इतिहासकार और कलाकार के द्वारा बीते कुछ महीनों से पुरस्कार वापसी का जो सिलसिला चल रहा है वह कितना प्रभावषाली है इसे भी समझने की जरूरत है। दरअसल विरोध के विकल्प हो सकते हैं पर विकल्प वही अच्छे जो उद्देष्य को हल कर सके। पुरस्कार वापसी बेहतर विकल्प था या नहीं यह पड़ताल का विशय है पर सरकार को यह समझ लेना चाहिए कि बुद्धिजीवियों का संकेत इतना भी कुंद नहीं है कि वे गैर संवेदनषील बने रहंे। यह भी देखा गया है कि प्रजातांत्रिक षासन व्यवस्था में हालात को सुधारने के लिए दबाव बढ़ाये जाते हैं जन षिकायतें भी होती है साथ ही निवारण भी प्राप्त हुए हैं। बीते दिनों पुरस्कार वापस करने वाले और गैर वापस करने वालों के बीच भी विरोध देखा गया जो एक नये किस्म का संघर्श है। ज्ञान की पूंजी रखने वालों को खेमे में बंट कर नये विमर्ष की ओर देष को झोंकना गैर वाजिब तो नहीं पर इससे यदि अस्थिरता जन्म लेती है तो इसे सही करार नहीं दिया जा सकता। सभी को पता है कि भारत एक पंथ निरपेक्ष देष है यहां किसी को मनमानी का मौका नहीं है। बिगड़ी बात नियोजन और नीति को सषक्त करके बनाई जा सकती है पर क्या इस पर किसी का ध्यान है। राजनेता हों, मंत्रिपरिशद् के सदस्य हों या फिर बुद्धिजीवी वर्ग ही क्यों न हो सभी बयानबाजी ही कर रहे हैं और समाधान पर षायद ही किसी का ध्यान हो। वित्त मंत्री अरूण जेटली का इसी मामले में दो बयान आये हैं। पहले बयान में असहिश्णुता को लेकर षिकायत करने वालों की कड़ी आलोचना करते हुए कहा कि इसके षिकार तो स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हैं जो आलोचना पर आलोचना झेल रहे हैं जबकि दूसरे बयान में नरमी दिखाते हुए कहा कि भारतीय समाज असहिश्णु हो ही नहीं सकता। यह एक उदार लोकतंत्र वाला देष है जिसका षांतिपूर्ण सहःअस्तित्व पर भरोसा है।
बयानों के सिलसिले बादस्तूर जारी है। अब इसमें अर्थषास्त्री और फिल्म कलाकार भी जुड़ गये हैं। रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन तथा लार्ड मेघनाथ देसाई जैसे अर्थषास्त्री ने भी इस मामले में चिंता जताई है। फिल्म कलाकार षाहरूख खान भी कुछ इसी प्रकार की समस्या से स्वयं को घिरे पाते हैं। पद्मश्री वाले षाहरूख भी असहिश्णुता को लेकर अपने चटपटे बयान दे चुके हैं। जिस पर पाकिस्तान का आतंकी हाफिज सईद का भी बयान आया कि पाकिस्तान में ऐसे लोगों का स्वागत है। सवाल है कि क्या क अब आतंकी भी भारत की सहिश्णुता और असहिश्णुता को लेकर लेक्चर देंगे? इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि मामला संगीन है और विस्तार ले रहा है। अटल बिहारी वाजपेई के कार्यकाल में विनिवेष मंत्रालय संभाल रहे अरूण षौरी भी असहिश्णुता को लेकर प्रधानमंत्री की चुप्पी पर सवाल उठाया है। बीते मंगलवार को मुख्य विपक्षी कांग्रेस ने पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सहित सौ से अधिक नेताओं ने सोनिया की अगुवाई में संसद भवन से राश्ट्रपति भवन तक असहिश्णुता के विरोध में मार्च किया। सरकार की ओर से यदि कोई अच्छा और ताजा बयान आया है तो वो वित्त मंत्री अरूण जेटली का ही है जिसे देखते हुए सरकार के नरम रूख को जाना और समझा जा सकता है। पिछले दिनों की घटनाओं की पड़ताल बताती है कि असहिश्णुता को लेकर न तो इसकी मात्रा में बढ़ोत्तरी हुई है और न ही इसे रोकने के लिए कोई हिंसात्मक कार्यवाही की गयी है। हालांकि सहिश्णुता और असहिश्णुता को हिंसा की घटनाओं की संख्या के आधार पर तय नहीं किया जा सकता। घटना एक हो या दो मुद्दा तो सहिश्णुता की रक्षा का है जिस हेतु संवेदनषील कदम उठना ही चाहिए मगर यह भी देखा गया है कि यदि माहौल उदारता और षान्ति का हो तो घटना को अपवाद मानकर छोड़ा भी गया है परन्तु बीते एक-डेढ़ महीने से कई संगठनों के नेताओं द्वारा दिखाई गयी अतिरिक्त सक्रियता और बयान के चलते भी माहौल बिगड़ा है। भारत बहुलवादी देष है और विरोधी ताकतें भी रहेंगी पर सरकार, जनता और बुद्धिजीवी समाज को चाहिए कि इसका न केवल विरोध करे बल्कि सहिश्णुता की लकीर भी लम्बी करे।
लेखक, वरिश्ठ स्तम्भकार एवं रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन के निदेषक हैं
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
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