Monday, November 16, 2015

चाहिए नई सोच और नई तरकीब

    बीते 14 नवम्बर फ्रांस की राजधानी पेरिस आधा दर्जन धमाकों के साथ तब सिहर उठा जब आतंकी हमले के चलते वहां का जीवन छिन्न-भिन्न हो गया। सैकड़ों की तादाद में जान चली गयी और षांत जीवन भय एवं दहषत में तब्दील हो गया। पेरिस के बाषिंदों ने इतनी बड़ी कीमत चुकाने की तैयारी कभी नहीं की होगी। वैष्विक पटल पर सिलसिलेवार जिस तरह आतंक की खेती निरंतर विस्तार ले रही है और इसकी फसल जिस अनुपात में लहलहा रही है उसे देखते हुए इससे निपटने वाली नई सोच और नई तरकीब भी कम पड़ती दिखाई दे रही है। सवाल है कि सभ्य समाज में तथाकथित जिहाद के नाम पर बात मनवाने का यह कौन सा तरीका है जिसमें मानवता मिटाने वाली नापाक क्रियायें की जा रही हों? उन्माद का यह कैसा स्वरूप जहां नुकसान पहुंचाने को लेकर इंसान ने ही आत्मघाती बम का रूप ले लिया है? आतंक के मूल में कौन सी मनोदषा और विचारधारा का वास है कि इसे निस्तोनाबूत करने वाली कोषिषों का ही दम निकला जा रहा है और आतंकी अपने मनसूबों में लगातार कामयाब होते जा रहे हैं। पेरिस हमले को देखते हुए नया सवाल यह उठता है कि अनियंत्रित आतंक का जो आईना आईएसआईएस लिए घूम रहा है उसमें किस-किस का चेहरा आ सकता है? देखा जाए तो दहषतगर्दों के इस आईने में मानवता और सभ्य समाज के चेहरे हैं जो काफी समय से इसके लपेटे में है। इस्लाम के नाम पर कट्टरपंथ फैला कर पूरी दुनिया में राज करने का इरादा रखने वाला आईएस आतंकवाद की एक संस्था है और यह संस्था हर उस व्यक्ति या देष को दुष्मन मान रहा है जो इस्लामी धर्मावलंबी नहीं है। ऐसी संकुचित सोच से जड़ा यह संगठन राह से भटका और दकियानूसी धारणा से ओत-प्रोत विष्व भर से बेवजह बैर लिए हुए है। अमेरिका, रूस, फ्रांस सहित कई देषों को वह इसलिए निषाना बना रहा है और बना सकता है क्योंकि ये देष उसे निषाना बना रहे हैं। इतना ही नहीं आईएसआईएस अन्य आतंकी संगठनों के जरिये भारत को भी अपनी जद में लेने की फिराक में है।  
    विष्व में दो गम्भीर समस्यायें हैं पहला जलवायु परिवर्तन, दूसरा आतंकवाद जिसे समाप्त करना प्राथमिकता के साथ चुनौती भी है। इन दिनों टर्की में जी-20 का सम्मेलन चल रहा है जहां भारत सहित अमेरिका, रूस, चीन आदि तमाम देष मंच साझा कर रहे हैं। आने वाले 30 नवम्बर को उसी पेरिस में जहां आतंकी हमला हुआ जलवायु परिवर्तन को लेकर भी एक सम्मेलन होना है। जब पेरिस आतंक की चपेट में था तब भारत के प्रधानमंत्री मोदी की इंग्लैण्ड से वापसी अन्तिम चरण में थी। जी-20 सम्मेलन में पेरिस हमले को देखते हुए आतंक को सफाया करने वाला इरादे को फिलहाल बलवती होते हुए देखा जा सकता है। ब्रिक्स देषों के अलावा विष्व की 20 बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के समूह ने इसके प्रति एकजुटता दिखाई है। प्रधानमंत्री मोदी ने फिर दोहराया कि आतंक की परिभाशा गढ़ी जाए इसके पहले वे संयुक्त राश्ट्र में यह बात कह चुके हैं। संयुक्त राश्ट्र के 70 वर्श पूरे हो चुके हैं पर आतंक की परिभाशा क्या हो इस पर कोई निष्चित रूपरेखा देखने को नहीं मिली। देखा जाए तो विगत् तीन दषकों से भारत ने पाकिस्तान आयातित बेतहाषा कीमत चुकाने वाले कई आतंकी हमले झेले हैं। इस सच को समझना भी जरूरी है कि आतंक की परिभाशा कुछ भी क्यों न हो पर इसकी पीड़ा का षिद्दत से विष्लेशण और विषदीकरण भारत से बेहतर षायद ही कोई कर पाये। फ्रांस में हुए इस ताजा घटनाक्रम में वैष्विक पटल पर एक बार फिर आतंक की मनमानी को नये सिरे से रोक लगाने को लेकर एक नये संकल्प के साथ विष्व को खड़े होते हुए देखा जा सकेगा पर सवाल वही पुराना है कि आतंक के मुकाबले में वैष्विक ताकतें कम क्यों हैं? हालांकि फ्रांस ने पेरिस घटना को न बर्दाष्त करने वाली घटना मानकर आतंकी संगठनों को तबाह करने का काम षुरू कर दिया है।
    जीवंत सवाल यह है कि इसके समाधान क्या हैं? आतंक को हतोत्साहित करने की फिलहाल की तरकीबें उतनी हुनरमंद तो नहीं हैं। इसे समाप्त करने के लिए नई सोच और नई तरकीब की कहीं अधिक आवष्यकता पड़ेगी। धर्म के सही मायने भी समझने होंगे और यह भी समझना होगा कि आतंक का कोई धर्म है अथवा नहीं? तथाकथित इस्लामी आतंकवाद को रसूकदार बनाने वाले आतंकी स्वयं को मुस्लिम समाज का चेहरा मानते हैं जबकि यह सच नहीं है। देखा जाए तो यह तब सच होता है जब सियासतदान या सरकारें आतंक की आड़ में अपनी कूटनीतिक और राजनीतिक रोटियां सेकते हैं और आतंकियों को अपने निजी हित के लिए समर्थन देते हैं। मसलन पाकिस्तान आतंकियों का पनाहगार इसलिए है क्योंकि वह सीधे युद्ध में भारत से मुंहकी खाता है। छद्म युद्ध आतंक के बूते करना चाहता है। ऐसे में आतंकियों को वह न केवल मान्यता देता है बल्कि हथियार के रूप में प्रयोग करता है। इस प्रकार के संकुचित विचारधाराओं ने न केवल आतंकवादियों को उकसाने का काम किया है बल्कि उनका कोई धर्म होता है उसे भी अंजाने में ही स्वीकृति प्रदान कर दी है जो गैर इस्लामिक को ही निषाना नहीं बनाते आदतन उनकी जद में कोई भी आ सकता है और ऐसा हुआ भी है। पाकिस्तान के पूर्व राश्ट्रपति परवेज मुषर्रफ द्वारा यह स्वीकार किया जाना कि बाकायदा आतंकियों को प्रषिक्षण देने में मदद की है और वे उनके हीरो हैं इसे और पुख्ता बनाता है। प्रगतिषील षिक्षा भी आतंक को कमजोर करने में मददगार सिद्ध हो सकती है। क्रोध और झुंझलाहट के वषीभूत होकर आतंक की राह चुनने वालों के लिए षिक्षा कहीं अधिक कारगर हो सकती है। बहला-फुसला कर जिन्हें आतंकी बनाया जाता है उन पर भी षिक्षा के चलते काफी हद तक रोक लग सकती है। इसके अलावा संसाधनों के न्यायपूर्ण वितरण पर भी ध्यान देना होगा। माना तो यह भी जाता है कि वित्तीय स्रोतों का अकाल हो जाए तो आतंकी संगठन सूख सकते हैं। एक विकसित और विकासषील देष को वित्तीय संसाधन जुटाने के लिए नित नये तरीके तलाषने होते हैं लेकिन आतंकी संगठनों को सब कुछ छप्पर फाड़ कर मिलता है। एक सच यह भी है कि ये इरादों में इतने कट्टर हैं कि सीमित स्रोत के बावजूद खुंखार घटनाओं को जन्म देने से भी पीछे नहीं हटते।
    देष चाहे आर्थिक दृश्टि से किसी भी कद के क्यों न हो पर यह सही है कि आतंक से निपटने की रणनीति अभी तक कारगर नहीं बन पायी है। एक घटना का जख्म सूखता नहीं कि नई घटना नये जख्म के साथ परिलक्षित हो जाती है। यह जानना भी जरूरी है कि आईएसआईएस को भले ही दुनिया के सबसे बरबर आतंकी संगठन के तौर पर जाना जाता हो, भले ही इसके मकसद में खून की होली खेलना षामिल हो लेकिन यह दुर्दान्त संगठन किसी काॅरपोरेट सेक्टर से कम नहीं है। इससे सहानुभूति रखने वाले इसकी वित्तीय मदद करते हैं और यह इसी दुनिया में अपनी आतंकी मनसूबों के साथ नई दुनिया गढ़ रहा है। एक बात और आईएस को महज एक क्षेत्रीय और आतंकी संगठन या समस्या मानना किसी गलतफहमी में रहने के बराबर है। कोई दो राय नहीं कि यह एक बड़ा और खतरनाक आतंकी संगठन है ऐसे में बड़ी ताकत बनाने के लिए षक्तियों और महाषक्तियों को जुड़ कर आतंकी और उनके संगठनों को निस्तोनाबूत करने की आवष्यकता है।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502



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