Tuesday, November 17, 2015

बाल श्रम, सरकार और समाज

 केन्द्रीय श्रम एवं रोजगार मंत्रालय के अनुसार बाल श्रम (प्रतिबन्ध और नियमन) संशोधन  विधेयक 2012 को केन्द्रीय मंत्रिमण्डल की मंजूरी मिल गयी है। सम्भव है कि आने वाले शीत सत्र में इसे संसद के समक्ष पेश किया जाएगा। यह बदलाव 1986 के कानून को न केवल परिमार्जित करने से सम्बन्धित है बल्कि 14 से 18 की उम्र के किशोरों के काम को  लेकर नई परिभाषा भी गढ़ी जा रही है। इसके पूर्व वर्श 2006 में भी कुछ संषोधन किये गये थे। प्रस्तावित संषोधन में पूरजोर कोषिष की गयी है कि सभी कार्यों और प्रक्रियाओं में 14 साल से कम उम्र के बच्चों को काम पर रखना प्रतिबन्धित होगा। देखा जाए तो इसे अनिवार्य षिक्षा अधिकार अधिनियम, 2009 की आयु से जोड़ने का भी काम किया गया है। हालांकि इन सब के बावजूद कुछ मामले मसलन परम्परागत व्यवसाय, गुरू-षिश्य सम्बन्धों के तहत काम करने वाले बच्चे कानून में षामिल नहीं होंगे मगर इनका भी स्कूल जाना अनिवार्य होगा। सरकार द्वारा 14 वर्श से कम उम्र के बच्चों को लेकर प्रतिबंध वाले कानून पर सैद्धान्तिक सहमति तो दे दी है पर अभी इसका मूर्त रूप लेना बाकी है। सामाजिक-आर्थिक बदलाव के इस दौर में काफी कुछ बदल रहा है बावजूद इसके कई मामले स्तरीय सुधार से वंचित हैं जिसमें बाल श्रम भी षामिल हैं। वैष्विक स्तर पर बाल श्रम की जो अवस्था है वह कहीं अधिक चिन्तनीय है। भारत में कैलाष सत्यार्थी के माध्यम से जो प्रयास किये गये वह सराहनीय है जिसके लिए उन्हें पिछले वर्श नोबल सम्मान भी दिया गया था। सरकार के स्तर से देखा जाए तो स्वतंत्रता के बाद बाल श्रम को लेकर कुछ चिंता उजागर होती है। वर्श 1979 में ऐसी समस्याओं के अध्ययन के लिए गुरूपाद स्वामी समिति बनाई गयी थी जिसकी सिफारिष पर बाल श्रम (निशेध एवं विनियमन) अधिनियम, 1986 लागू किया गया। वर्श 1987 में बाल श्रम पर एक राश्ट्रीय नीति को भी अमली जामा दिया गया था। इसके अलावा 1990 में राश्ट्रीय श्रमिक संस्थान जैसी इकाईयों को मूर्त रूप दिया गया परन्तु फिर भी बचपन बाल श्रम के चक्रव्यूह से पूरी तरह नहीं निकल पाया।
बाल श्रम का मतलब ऐसे कार्य से है जिसमें कार्य करने वाला व्यक्ति कानून द्वारा निर्धारित आयु सीमा के अन्दर होता है। बाल श्रम बालकों को उन मूलभूत आवष्यकताओं से वंचित करता है जिस पर उनका नैसर्गिक अधिकार होता है साथ ही भौतिक, मानसिक, सामाजिक तथा नैतिक विकास को भी बाधित करता है। इस संदर्भ में कई परिभाशा और व्याख्या देखी जा सकती है। बाल श्रम सम्पूर्ण विष्व में व्याप्त एक ऐसी समस्या है जिसका निदान किये बिना बेहतर भविश्य की कल्पना सम्भव नहीं है। यह स्वयं में एक राश्ट्रीय और सामाजिक कलंक तो है ही साथ ही अन्य समस्याओं की जननी भी है। देखा जाए तो यह नौनिहालों के साथ जबरन की गयी एक ऐसी क्रिया है जिससे राश्ट्र या समाज का भविश्य खतरे में पड़ता है। यह एक संवेदनषील मुद्दा है जो लगभग सौ वर्शों से चिंतन और चिंता के केन्द्र में है। अन्तर्राश्ट्रीय स्तर पर इसे लेकर वर्श 1924 में विचार तब पनपा जब जेनेवा घोशणा पत्र में बच्चों के अधिकारों को मान्यता देते हुए पांच सूत्रीय कार्यक्रम की घोशणा की गयी। इसके चलते बाल श्रम को प्रतिबन्धित किया गया साथ ही विष्व के बच्चों के लिए जन्म के साथ ही कुछ विषिश्ट अधिकारों को लेकर स्वीकृति दी गयी। भारतीय संविधान में बाल अधिकार को लेकर संदर्भ निहित किये गये हैं। स्वतंत्रता के बाद लागू संविधान में कई प्रावधान इन्हें नैसर्गिक न्याय प्रदान करते हैं। अनुच्छेद 21(क) षिक्षा का मौलिक अधिकार देता है जबकि नीति-निर्देषक तत्व के अन्तर्गत यह अनिवार्य किया गया कि 6 से 14 वर्श तक के बालकों को राज्य निःषुल्क तथा अनिवार्य षिक्षा उपलब्ध करायेगा। इतना ही नहीं अनुच्छेद 51(क) के तहत मौलिक कत्र्तव्य के अन्तर्गत यह प्रावधान भी 2002 में लाया गया कि ऐसे बालकों के अभिभावक उन्हें अनिवार्य रूप से षिक्षा दिलायेंगे।
 अन्तर्राश्ट्रीय श्रम संगठन बाल श्रम को बच्चे के स्वास्थ्य की क्षमता, उसके षिक्षा को बाधित करना और उनके षोशण के रूप में परिभाशित किया है। वैष्विक पटल की पड़ताल करें तो बच्चों की स्थिति कहीं अधिक चिंताजनक है। बाल श्रम का जंग बहुत पुराना है। कार्ल माक्र्स की विचारधारा के अन्तर्गत बाल श्रम का यह रोग औद्योगिक क्रांति के षुरूआती दिनों से ही देखा जा सकता है। अन्तर्राश्ट्रीय श्रम संगठन की ताजा रिपोर्ट का मानना है कि 140 देषों में 71 देष ऐसे हैं जहां बच्चों से मजदूरी करवाई जाती है। जिसमें भारत भी षामिल है। नन्हें हाथों में बीड़ी, पटाखे, माचिस, ईंटें, जूते यही सब दिखाई देते हैं, कालीन बुनवाये जाते हैं, कढ़ाई करवाई जाती है, रेषम के कपड़े बनवाये जाते हैं। चैकाने वाला सच यह है कि रेषम के तार खराब न हो इस हेतु बच्चों से ही काम करवाया जाता है। ‘फाइन्डिंग्स आॅन द फाॅम्र्स आॅफ चाइल्ड लेबर‘ नाम की एक रिपोर्ट ने ऐसी बातों का खुलासा करते हुए इस झकझोरने वाले सच को सामने लाया था। विकासषील देषों में बाल श्रमिकों की संख्या सबसे अधिक है एषिया और अफ्रीका के कई देषों में ये भयावह रूप लिए हुए है। भारत के बाद बांग्लादेष और फिलिपीन्स के नाम भी इस सूची में देखे जा सकते हैं। भारत में स्टील का फर्नीचर बनाना, चमड़े इत्यादि से जुड़े काम मानो इन्हीं नोनिहालों के जिम्मे हों। फिलिपीन्स में बच्चों से केला, नारियल, तम्बाकू आदि खेतिहर कामों के साथ गहने और अष्लील फिल्मों के लिए इस्तेमाल होने वाला सामान भी बनवाया जाता है जबकि पड़ोसी राश्ट्र बांग्लादेष में चैदह उत्पादों का जिक्र किया गया है जिससे बाल मजदूर जुड़े हैं।
 भारत में बाल श्रम निशेध के लिए अनेक कानून बनाये गये हैं। 1948 के कारखाना अधिनियम से लेकर दर्जनों प्रावधान हैं बावजूद इसके बाल श्रमिकों की संख्या में निरन्तर वृद्धि दर्ज की गयी है। कुल श्रम षक्ति का 5 फीसदी बाल श्रम ही है। संविधान को लागू हुए 65 साल हो गये पर बाल श्रम की चिंता से देष मुक्त नहीं हुआ। भारत ने अभी तक संयुक्त राश्ट्र बाल अधिकार समझौते की धारा 32 पर सहमति नहीं दी है जिसमें बाल मजदूरी को जड़ से खत्म करने की बाध्यता षामिल है। वर्श 1992 में संयुक्त राश्ट्र संघ में भारत ने कहा था कि अपनी आर्थिक व्यवस्था को देखते हुए इस दिषा में रूक-रूक कर कदम उठाएगें क्योंकि इसे एकदम नहीं रोका जा सकता। 23 बरस बीतने के बाद आज भी हम और हमारा देष बाल मजदूरी से अटा पड़ा है। इतना ही नहीं बालश्रम कानून के संषोधन में भी थोड़ी नरमी देखने को मिल रही है। ताजा मामला यह है कि एन्टरटेनमेंट इंडस्ट्री, स्पोटर््स एक्टिविटी तथा पारिवारिक कारोबार आदि को बाल श्रम के दायरे से बाहर रखा गया है। देखा जाए तो कानून में बदलाव के बावजूद भी आंषिक तौर पर बाल श्रम बने रहने की गुंजाइष भी इसी कानून में है साथ ही यह पुछल्ला भी जोड़ा गया है कि अभिभावक ध्यान रखेंगे कि बच्चे की पढ़ाई प्रभावित न हो और न ही सेहत पर कोई गलत प्रभाव पड़े। दण्डात्मक कार्यवाही के प्रावधान में भी काफी हद तक यह संषोधन ढीलापन लिए हुए है। विषेशज्ञों और बाल संगठनों की चिंता है कि स्थिति सुधरने के बजाय बद से बद्तर होने की ओर हो सकती है। दरअसल पहले भी ऐसा देखा गया है कि कानून में सभी गुंजाइषे एक साथ नहीं आती हैं। बाल श्रमिकों के मामले में षोशण और रोजगार के बहुत आयाम हैं इसके अलावा अवैध व्यापार और षारीरिक षोशण के षिकार भी बहुतायत में यही हैं और इसके पीछे गरीबी बड़ी वजह है। असल में बच्चा गरीब इसलिए है क्योंकि घर के हालात ही खराब हैं। ऐसे में दो जून की रोटी के जुगाड़ में बाल श्रम आविश्कार लेता है।
भारत सरकार द्वारा बाल श्रम उन्मूलन के अनेक उपाय किये गये हैं। 1996 में उच्चतम न्यायालय ने बाल श्रम पुर्नवास कल्याण कोश की स्थापना का निर्देष दिया था जिसमें नियोजित करने वाले व्यक्ति द्वारा प्रति बालक 20 हजार रूपए कोश में जमा कराने का प्रावधान है। इसी वर्श न्यायालय द्वारा षिक्षा, स्वास्थ्य एवं पोशण में सुधार के भी निर्देष दिए गये। बालक अधिकार संरक्षण आयोग अधिनियम, 2005 में बालकों के अधिकारों के संरक्षण के लिए एक राश्ट्रीय आयोग और राज्य आयोग के गठन का प्रावधान किया। वर्श 2006 में भारत सरकार ने बच्चों को घरेलू नौकर के रूप में काम करने पर या अन्य प्रतिश्ठानों मसलन होटल, रेस्तरां, दुकान आदि के नियोजन पर रोक लगा दी पर सवाल है कि सफलता कितनी मिली? 2011 की जनगणना के अनुपात में जो बाल श्रम का आंकड़ा है वह यह संकेत देता है कि बाल श्रम निवारण को लेकर अभी मीलों का सफर तय करना है। यक्ष प्रष्न यह भी है कि क्या केवल कानूनों से ही बालश्रम को समाप्त किया जा सकता है। सम्भव है उत्तर न में ही होगा। जब तक षिक्षा और पुनर्वास के पूरे विकल्प सामने नहीं आयेंगे तब तक कानून लूले-लंगड़े ही सिद्ध होंगे चाहे सरकार हो या संविधान बाल श्रम के उन्मूलन वाले आदर्ष विचार बहुत उम्दा हो सकते हैं पर धरातल पर देखें तो बचपन आज भी पिस रहा है।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)

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