जिस अनुपात में भारत की राजनीति अनवरत् है उसे देखते हुए यह समझना तनिक मात्र भी कठिन नहीं है कि भले ही सत्ता लोकतंत्र से सराबोर हो पर उसकी भी कई दुखती रग होती है। प्रथम आम चुनाव से लेकर सोलहवीं लोकसभा तक की यात्रा में बहुदलीय सरकारें भी आयीं परन्तु इसी लोकतंत्र में कांग्रेस एकतरफा सत्ता अख्तियार करने वाली राजनीतिक पार्टी रही है। यदि दूसरे दल को सत्ता में सेंध लगाने का अवसर मिला तो वह अस्सी के दषक में जनता पार्टी थी। संविधान लागू होने से अब तक की सत्ता यात्रा में बारह वर्श ही ऐसे रहे जब कांग्रेस विहीन षासन देष में रहा। तथ्य यह भी है कि सवा सौ बरस से अधिक पुरानी एक राश्ट्रीय पार्टी कांग्रेस पूरे दमखम के साथ 55 साल तक सत्ता में रही जिसके चलते उसे बहुदलीय सरकारों जैसा आन्तरिक विरोध नहीं झेलना पड़ा षायद उसी का परिणाम है कि आज विपक्ष में इन्हीं कमियों के चलते वह काफी हद तक अपरिपक्वता का प्रदर्षन कर रही है। विगत् डेढ़ वर्शों से सत्तासीन एनडीए के साथ अभी तक कांग्रेस विरोधी भूमिका में तो रही पर रचनात्मक भूमिका में भी रही इस पर संदेह है। कहा जाता है कि एक रचनात्मक विपक्षी सकारात्मक सत्ता का विकल्प होता है पर कांग्रेस में अभी ऐसी कोई वजह नहीं दिखाई देती। कांग्रेसियों के बारे में तो यह भी कहा जाता है कि जब वे सत्ता में होते हैं तब कहीं अधिक नियंत्रित होते हैं, समन्वित होते हैं और एकजुट रहते हैं जैसे ही सत्ता से हटते हैं अनुषासन का आवरण उनसे दूर भागने लगता है और बिखराव स्थान घेरने लगता है। इसमें कोई दो राय नहीं कि वर्तमान कांग्रेस अन्दर और बाहर से सुगम और सरल तो नहीं है। घटनाक्रम को निचोड़ा जाए तो मोदी काल के पूर्व का कांग्रेस काल कई कालों की तुलना में षायद सबसे खराब दौर से गुजरा था। इस दौर के बड़े-बड़े घोटाले कांग्रेस के लिए बड़ी कीमत चुकाने वाले सिद्ध हुए जिसका खामियाजा गैर मान्यता प्राप्त विपक्ष की भूमिका में होना देखा जा सकता है।
देष के लिए बदले लोकतंत्र में बदली तस्वीर होगी और कांग्रेस एक विपक्षी के रूप में रचनात्मक मुहिम के साथ नया रूप अख्तियार करेगी यह अनुमान पूरी तरह सही नहीं बैठ रहा है। पिछले वर्श के षीत सत्र को देखें तो कांग्रेस की रचनात्मकता सवालों के घेरे में रही है। महत्वपूर्ण संसद का सत्र तथाकथित सम्प्रदायिकता की आड़ में स्वाहा कर दिया गया। मजबूरन सरकार को कानून के आभाव में कई अध्यादेष मसलन भू-अधिग्रहण, बीमा, बैंकिंग आदि लाने पड़े जबकि जीएसटी विधेयक आज भी धूल खा रहा है। भू-अधिग्रहण अध्यादेष तो चार बार लाया गया और कहीं अधिक चर्चे के साथ विरोध का भी सामना किया। बजट सत्र में उम्मीदें थी कि इन्हें कानूनी रूप दिया जा सकेगा पर सरकार को यहां भी खाली हाथ ही लौटना पड़ा। 20 फरवरी, 2015 को बजट सत्र से ठीक पहले प्रधानमंत्री मोदी ने सम्प्रदायिकता पर दो टूक जवाब दे दिया पर विरोधी संतुश्ट नहीं हुए। इसी दौरान कांग्रेस के युवराज और उपाध्यक्ष राहुल गांधी फलक से ही ओझल हो गये और 56 दिन की छुट्टी बिताने के बाद अप्रैल के दूसरे पखवाड़े में प्रकट हुए तब उनका जोर किसानों की जमीन बचाने को लेकर था और वे इतने तल्ख थे कि मानो सरकार किसानों को प्रताड़ित कर रही हो। मानसून सत्र भी विरोधी दबाव के चलते सूखे की ही चपेट में रहा। अब पुनः एक बार षीतकालीन सत्र मुहाने पर है जो तथाकथित असहिश्णुता की काली छाया से षायद ही बच सके।
लोकतंत्र में राजनीतिक दल एक महत्वपूर्ण प्रभावकारी माध्यम होते हैं जिनके सहारे आम आदमी की जरूरतें और आकांक्षाएं सरकार और नीति निर्माताओं तक पहुंचती हैं। यद्यपि यह सही है कि वर्तमान दौर में मीडिया जैसे मजबूत विकल्प के चलते ये काम और आसान हो गया है परन्तु राजनीतिक दलों की इच्छाओं में जनता की इच्छा षुमार होने के कारण यह कहीं अधिक महत्वपूर्ण बने रहते हैं। कांग्रेस सहित कई विपक्षी पिछले डेढ़ वर्शों सरकार विरोध में ही कूबत लगाये हुए है जबकि उन्हें कई ठोस और जनहित वाली नीतियों को लेकर सरकार की सहगामी होनी चाहिए थी। कहा जाए तो विपक्षियों के चलते षायद ही कुछ बड़े काज हुए हों यदि कुछ बड़ा करने की कोषिष की गयी है तो वे केवल विरोध वाले सुर ही रहे हैं। कांग्रेस पिछले कुछ महीनों से कई प्रकार के विमर्ष से भी जूझ रही है। कई आलोचनाओं को भी झेल रही है पर षायद आन्तरिक बिखराव इतना बड़ा है कि दल के अन्दर का एकाकीपन संभले नहीं संभल रहा है। 26 नवम्बर से षीतकालीन सत्र षुरू हो रहा है इस पर भी तथाकथित असहिश्णुता की छाया पड़ सकती है। महीनों से सुलगती असहिश्णुता में एक बार फिर चिंगारी तब भड़की जब फिल्म स्टार आमिर खान भी इसमें कूद गये और बिना मौका गंवाये े राहुल गांधी ने समर्थन देते हुए इसे लपक भी लिया। हालांकि दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल भी आमिर के वक्तव्य से काफी अच्छा महसूस कर रहे हैं। इतना ही नहीं वे सभी षख्सियत आमिर के बयान को बड़ी प्रमुखता देने की होड़ में लगी हैं जो मोदी के खिलाफ सोच रखते हैं। पर यह नहीं भूलना चाहिए कि भ्रम से भरी सियासत के चलते देष पहले भी कई संकटों में फंसा है। जनता की भलाई इसी में है कि समस्या हल की ओर ध्यान दिया जाए न कि सियासत की आड़ में माहौल बिगाड़ा जाए। राहुल गांधी का कदम यहां भी सार्थक नहीं कहा जा सकता। फिल्मी दुनिया भी इस मुद्दे पर बंटी है। आमिर पर लानत-मलानत भी निकाला जा रहा है। षायद वे भी सोच रहे होंगे कि उनसे यह क्या हो गया पर पब्लिक डोमेन में गये इस वक्तव्य को लेकर कईयों को मोदी पर निषाना साधने का मौका तो मिल ही गया है।
देखा जाए तो सरकार कुछ सामाजिक और आर्थिक तो कुछ बेवजह की सियासती पचड़े में फंसी है। जीएसटी सहित दर्जनों विधेयक को लेकर सरकार आधे रास्ते में अटकी है। कांग्रेस पहले की तरह मुसीबत बढ़ाने वाली सिद्ध हो सकती है। मोदी सरकार की मुसीबत तब तक पीछा नहीं छोड़ेगी जब तक राज्यसभा में उनकी तादाद नहीं बढ़ेगी। हालांकि पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कह चुके हैं कि जीएसटी के लिए रास्ता साफ कर देना चाहिए ऐसा देष के आर्थिक हित में है पर सवाल है कि क्या इस विचार को उन्हीं की पार्टी तवज्जो देगी? यह लोकतंत्र की धारा ही है कि 1984 में दो स्थान पाने वाली भाजपा और 400 से ज्यादा स्थानों पर कब्जा करने वाली कांग्रेस इस गगनचुंबी लोकतंत्र से फिसलते हुए 44 पर आकर टिकी है। बावजूद इसके कांग्रेस षायद ही कोई सबक लेना चाहेगी। हाल ही में कांग्रेस के कद्दावर नेता मणिषंकर अय्यर ने पाकिस्तान में यह तक कह दिया कि मोदी के रहते पाकिस्तान से बातचीत सम्भव नहीं है। यह कांग्रेस की कौन सी गांठ है जो सियासत की जमीन पर चकनाचूर होने के बावजूद देष के प्रधानमंत्री की उपस्थिति को अवसाद भरी नजरों से देख रहे हैं। फिलहाल इन दिनों कांग्रेस की बांछें खिली हुई हैं वजह है बिहार में महागठबंधन के साथ तुलनात्मक जीत दर्ज करना साथ ही 24 नवम्बर को घोशित रतलाम लोकसभा उपचुनाव के परिणाम में इनकी भारी-भरकम जीत। सब के बावजूद यह देखने वाली बात होगी कि क्या कांग्रेस मोदी सरकार के लिए आने वाले षीतकालीन सत्र में एक रचनात्मक और सहयोगात्मक विपक्षी की भूमिका निभायगी?
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
देष के लिए बदले लोकतंत्र में बदली तस्वीर होगी और कांग्रेस एक विपक्षी के रूप में रचनात्मक मुहिम के साथ नया रूप अख्तियार करेगी यह अनुमान पूरी तरह सही नहीं बैठ रहा है। पिछले वर्श के षीत सत्र को देखें तो कांग्रेस की रचनात्मकता सवालों के घेरे में रही है। महत्वपूर्ण संसद का सत्र तथाकथित सम्प्रदायिकता की आड़ में स्वाहा कर दिया गया। मजबूरन सरकार को कानून के आभाव में कई अध्यादेष मसलन भू-अधिग्रहण, बीमा, बैंकिंग आदि लाने पड़े जबकि जीएसटी विधेयक आज भी धूल खा रहा है। भू-अधिग्रहण अध्यादेष तो चार बार लाया गया और कहीं अधिक चर्चे के साथ विरोध का भी सामना किया। बजट सत्र में उम्मीदें थी कि इन्हें कानूनी रूप दिया जा सकेगा पर सरकार को यहां भी खाली हाथ ही लौटना पड़ा। 20 फरवरी, 2015 को बजट सत्र से ठीक पहले प्रधानमंत्री मोदी ने सम्प्रदायिकता पर दो टूक जवाब दे दिया पर विरोधी संतुश्ट नहीं हुए। इसी दौरान कांग्रेस के युवराज और उपाध्यक्ष राहुल गांधी फलक से ही ओझल हो गये और 56 दिन की छुट्टी बिताने के बाद अप्रैल के दूसरे पखवाड़े में प्रकट हुए तब उनका जोर किसानों की जमीन बचाने को लेकर था और वे इतने तल्ख थे कि मानो सरकार किसानों को प्रताड़ित कर रही हो। मानसून सत्र भी विरोधी दबाव के चलते सूखे की ही चपेट में रहा। अब पुनः एक बार षीतकालीन सत्र मुहाने पर है जो तथाकथित असहिश्णुता की काली छाया से षायद ही बच सके।
लोकतंत्र में राजनीतिक दल एक महत्वपूर्ण प्रभावकारी माध्यम होते हैं जिनके सहारे आम आदमी की जरूरतें और आकांक्षाएं सरकार और नीति निर्माताओं तक पहुंचती हैं। यद्यपि यह सही है कि वर्तमान दौर में मीडिया जैसे मजबूत विकल्प के चलते ये काम और आसान हो गया है परन्तु राजनीतिक दलों की इच्छाओं में जनता की इच्छा षुमार होने के कारण यह कहीं अधिक महत्वपूर्ण बने रहते हैं। कांग्रेस सहित कई विपक्षी पिछले डेढ़ वर्शों सरकार विरोध में ही कूबत लगाये हुए है जबकि उन्हें कई ठोस और जनहित वाली नीतियों को लेकर सरकार की सहगामी होनी चाहिए थी। कहा जाए तो विपक्षियों के चलते षायद ही कुछ बड़े काज हुए हों यदि कुछ बड़ा करने की कोषिष की गयी है तो वे केवल विरोध वाले सुर ही रहे हैं। कांग्रेस पिछले कुछ महीनों से कई प्रकार के विमर्ष से भी जूझ रही है। कई आलोचनाओं को भी झेल रही है पर षायद आन्तरिक बिखराव इतना बड़ा है कि दल के अन्दर का एकाकीपन संभले नहीं संभल रहा है। 26 नवम्बर से षीतकालीन सत्र षुरू हो रहा है इस पर भी तथाकथित असहिश्णुता की छाया पड़ सकती है। महीनों से सुलगती असहिश्णुता में एक बार फिर चिंगारी तब भड़की जब फिल्म स्टार आमिर खान भी इसमें कूद गये और बिना मौका गंवाये े राहुल गांधी ने समर्थन देते हुए इसे लपक भी लिया। हालांकि दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल भी आमिर के वक्तव्य से काफी अच्छा महसूस कर रहे हैं। इतना ही नहीं वे सभी षख्सियत आमिर के बयान को बड़ी प्रमुखता देने की होड़ में लगी हैं जो मोदी के खिलाफ सोच रखते हैं। पर यह नहीं भूलना चाहिए कि भ्रम से भरी सियासत के चलते देष पहले भी कई संकटों में फंसा है। जनता की भलाई इसी में है कि समस्या हल की ओर ध्यान दिया जाए न कि सियासत की आड़ में माहौल बिगाड़ा जाए। राहुल गांधी का कदम यहां भी सार्थक नहीं कहा जा सकता। फिल्मी दुनिया भी इस मुद्दे पर बंटी है। आमिर पर लानत-मलानत भी निकाला जा रहा है। षायद वे भी सोच रहे होंगे कि उनसे यह क्या हो गया पर पब्लिक डोमेन में गये इस वक्तव्य को लेकर कईयों को मोदी पर निषाना साधने का मौका तो मिल ही गया है।
देखा जाए तो सरकार कुछ सामाजिक और आर्थिक तो कुछ बेवजह की सियासती पचड़े में फंसी है। जीएसटी सहित दर्जनों विधेयक को लेकर सरकार आधे रास्ते में अटकी है। कांग्रेस पहले की तरह मुसीबत बढ़ाने वाली सिद्ध हो सकती है। मोदी सरकार की मुसीबत तब तक पीछा नहीं छोड़ेगी जब तक राज्यसभा में उनकी तादाद नहीं बढ़ेगी। हालांकि पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कह चुके हैं कि जीएसटी के लिए रास्ता साफ कर देना चाहिए ऐसा देष के आर्थिक हित में है पर सवाल है कि क्या इस विचार को उन्हीं की पार्टी तवज्जो देगी? यह लोकतंत्र की धारा ही है कि 1984 में दो स्थान पाने वाली भाजपा और 400 से ज्यादा स्थानों पर कब्जा करने वाली कांग्रेस इस गगनचुंबी लोकतंत्र से फिसलते हुए 44 पर आकर टिकी है। बावजूद इसके कांग्रेस षायद ही कोई सबक लेना चाहेगी। हाल ही में कांग्रेस के कद्दावर नेता मणिषंकर अय्यर ने पाकिस्तान में यह तक कह दिया कि मोदी के रहते पाकिस्तान से बातचीत सम्भव नहीं है। यह कांग्रेस की कौन सी गांठ है जो सियासत की जमीन पर चकनाचूर होने के बावजूद देष के प्रधानमंत्री की उपस्थिति को अवसाद भरी नजरों से देख रहे हैं। फिलहाल इन दिनों कांग्रेस की बांछें खिली हुई हैं वजह है बिहार में महागठबंधन के साथ तुलनात्मक जीत दर्ज करना साथ ही 24 नवम्बर को घोशित रतलाम लोकसभा उपचुनाव के परिणाम में इनकी भारी-भरकम जीत। सब के बावजूद यह देखने वाली बात होगी कि क्या कांग्रेस मोदी सरकार के लिए आने वाले षीतकालीन सत्र में एक रचनात्मक और सहयोगात्मक विपक्षी की भूमिका निभायगी?
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
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सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
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