इन दिनों विष्व दो गम्भीर समस्याओं से जूझ रहा है एक जलवायु परिवर्तन से जो अस्तित्व और विकास के लिए गम्भीर समस्या बनी हुई है जिसकी रोकथाम में विष्व भर के देष बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध से ही लगे हुए हैं। दूसरी समस्या आतंकवाद की है जो विगत् कुछ दषकों से मानवता को हाषिये पर धकेलते हुए हिंसा और तबाही का रूप अख्तियार किये हुए है। जलवायु परिवर्तन के चलते मानव जीवन कई प्राकृतिक आपदाओं जैसे बाढ़, बेमौसम बारिष, सूखा, समुद्री तूफान आदि की बढ़ी हुई आवृत्ति से जहां खतरे में है वहीं आतंकवाद के चलते दुनिया में खौफनाक मंजर और दहषत का माहौल हावी है। ताजा घटनाक्रम में फ्रांस की राजधानी पेरिस आतंकी हमले की षिकार हुई है। सैकड़ों की तादाद में लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा है। 13/11 की पेरिस घटना 26/11 के मुम्बई आतंकी हमले की याद भी ताजा कर देती है। बीते जनवरी में भी पेरिस आतंकी हमले झेल चुका है जब षार्ली आब्दो कार्टून पत्रिका के कार्यालय पर आतंकी कहर टूटा था। आतंक की बढ़ी हुई स्थिति को देखते हुए वैष्विक स्तर पर चिंता होना इसलिए भी लाजमी है क्योंकि यह पौध लगातार वृद्धि कर रही है। आतंक के खतरनाक रूप से अफगानिस्तान 1980-81 और भारत वर्श 1990-91 में जबकि अमेरिका 2001 में वल्र्ड ट्रेड सेन्टर पर हुए हमले से न केवल रूबरू हुआ बल्कि इसके कसैलेपन को भी महसूस किया। षुरूआती दौर में यह कहीं अधिक क्षेत्रीय स्वरूप में था और इसे समाप्त किया जाना भी तुलनात्मक आसान था पर अब बात इतनी आसान नहीं रही क्योंकि आतंकवाद के आकाओं के पास अब हथियार, गोला-बारूद आदि के साथ वित्तीय मजबूती और व्यापक नेटवर्क है। सिलसिलेवार तरीके से इंग्लैंड, फ्रांस, आॅस्ट्रेलिया सहित क्या विकसित, क्या विकासषील सभी देष इसकी जद में न केवल आये बल्कि क्षेत्रीय और छोटे आतंकी संगठन वर्तमान में तबाही के बड़े वैष्विक संजाल बन गये।
द्वितीय विष्व युद्ध की समाप्ति के बाद से विष्व भर के देषों ने सभ्य समाज की और समतामूलक जीवन को लेकर तेजी से कदम बढ़ाने का काम किया। यही कारण है कि दो विष्व युद्ध दो दषक के अंतराल पर होने के बावजूद वैष्विक स्तर पर ऐसी कोई परिस्थिति पिछले सात दषक से नहीं बनी। समूह बने पर विकास के लिए, संगठन बने पर दूसरों की मदद के लिए परन्तु आतंकी संगठन कब किस रूप में इस भयावह को जन्म देने लगे, षेश विष्व को षायद ठीक से पता ही नहीं चला। पाकिस्तान और अफगानिस्तान के आतंकी संगठन जो एक स्कूल की तरह हिंसा के पर्याय थे और भारत जैसे देष पिछले तीन दषकों से इसकी जद में लगातार आते रहे। अलकायदा जैसे संगठनों ने आतंक का अतंर्राश्ट्रीयकरण करके वैष्विक स्तर पर इस बीमारी को परिलक्षित किया पर परेषानी इलाज को बढ़े हुए रोग की तुलना में समय से न किये जाने की है। आईएसआईएस जैसे संगठन आज एक काॅरपोरेट सेक्टर के तौर पर जीती-जागती तबाही के संस्थान हैं। इन्हें समाप्त करने के लिए उन तमाम ताकतों को फिलहाल इकट्ठा करना कहीं अधिक जरूरी हो गया है ताकि पृथ्वी पर फैले इनके कसैलेपन को न केवल समाप्त किया जाए बल्कि आने वाली पीढ़ी को इनकी दहषत से मुक्त किया जाए। वर्तमान विष्व की एकता ऐसी मुहिम के खिलाफ है जो किसी की अपेक्षाओं में षायद ही षुमार रहा हो। एक ओर आतंक की पीड़ा से कराहने वाला सभ्य समाज तो दूसरी ओर खौफनाक मंजर के जिम्मेदार आईएसआईएस जैसे आतंकी संगठन हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि इन्हें निस्तोनाबूद करना वर्तमान की प्राथमिकता है पर यह कैसे सम्भव होगा इस पर पूरा और पक्का ‘होमवर्क‘ होना अभी षायद बाकी है।
पेरिस में हुए ताजा आतंकी हमले से विष्व के देष क्रोधित के साथ खौफजदा भी हैं जबकि इसी माह की 30 तारीख को आतंक से लहुलुहान पेरिस में जलवायु परिवर्तन सम्मेलन होना है। फ्रांस ने साफ किया है कि तय समय पर ही सम्मेलन होगा। यह उसकी जिंदादिली ही कही जाएगी। इस सम्मेलन में करीब दो सौ देष षामिल हो रहे हैं। दो हफ्ते तक चलने वाले इस सम्मेलन में 70 हजार से अधिक लोगों का जमावड़ा लगेगा। द्वितीय विष्व युद्ध के पष्चात् जलवायु परिवर्तन को लेकर वैष्विक स्तर पर चर्चा जोर मारने लगी थी। 1972 में स्वीडन की राजधानी स्टाॅकहोम में इस पर पहला सम्मेलन आयाजित किया गया यहीं से तय हुआ कि हर देष जलवायु परिवर्तन से निपटने हेतु घरेलू नियम बनाये। इसकी पुश्टि करने के लिए इसी वर्श संयुक्त राश्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम का भी गठन किया गया और नैरोबी इसका मुख्यालय बनाया गया। दो दषक के पष्चात् ब्राजील के डि जनेरियो में सम्बद्ध राश्ट्र के प्रतिनिधि एक बार पुनः जुटे। जलवायु परिवर्तन से सम्बन्धित कार्य योजना को लेकर चर्चा हुई। क्रमिक तौर पर देखें तो क्योटो (जापान) सम्मेलन 1997, पृथ्वी सम्मेलन 2002, बाली (इण्डोनेषिया) में सम्मेलन 2007, डरबन (दक्षिण अफ्रीका) में 2011 और पेरू की राजधानी लीमा में वर्श 2014 में जलवायु परिवर्तन सम्मेलन हो चुके हैं। भले ही सम्मेलनों में चर्चों को लेकर विविधता रही हो पर पृथ्वी कैसे संभाली जाए, कैसे जलवायु परिवर्तन की परिस्थिति को संजोया जाए आदि पर एकाकीपन देखा जा सकता है। यदि जलवायु परिवर्तन पर एक सुदृढ़ वैज्ञानिक पहलू विस्तार नहीं लेता है तो इसके साइड इफेक्ट कहीं अधिक तबाही वाले सिद्ध होंगे। वर्तमान परिदृष्य में मौसम में हुए त्वरित बदलाव को देखें तो यह पृथ्वी विनाष का संकेत देती है। तापमान में हो रही वृद्धि, कार्बन उत्सर्जन, अनियंत्रित औद्योगिक नीतियों को बढ़ावा देना, प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन करना, बड़े पैमाने पर जंगलों का कटान और कई प्रकार के अवषिश्ट जलवायु परिवर्तन में अपनी अहम् भूमिका निभा रहे हैं।
ग्लोबल वार्मिंग के चलते विष्व भर में प्रकृति का संतुलन बिगड़ने लगा है। इसके अपने दूरगामी प्रभाव हैं सबसे पहले क्षेत्र विषेश की प्रजातियां इससे प्रभावित होती हैं। बिगड़ता प्राकृतिक संतुलन विष्व की वर्तमान चिंता है जिसे लेकर पेरिस में हो रहा ‘क्लाइमेट चेंज समिट‘ सालाना पर्यावरण महासम्मेलनों की कतार में तो 21वां होगा परन्तु इसका महत्व इस समय सर्वाधिक इसलिए भी है क्योंकि एक ओर सभी देषों को बताना है कि ग्लोबल वार्मिंग से बचने के लिए आने वाले वर्शों में क्या पुख्ता कदम उठाएंगे। दूसरी ओर खून की होली खेलने वाले आतंकियों को यह संदेष भी भेजना है कि तुम्हारी नीयत कितनी भी तबाही से भरी क्यों न हो, कितनी भी ताकत से हमला क्यों न किया गया हो पर हम पृथ्वी और यहां की सभ्यता को लेकर न तो कोई समझौता कर सकते हैं और न ही 30 नवम्बर को पेरिस सम्मेलन को पीछे धकेल सकते हैं। जो चुनौती आतंकियों ने खड़ी की उसे देखते हुए जलवायु परिवर्तन के इस पेरिस सम्मेलन को विष्व में एक नई पहचान मिलेगी। 140 से अधिक राश्ट्राध्यक्षों की यहां उपस्थिति होना इसकी महत्ता को प्रदर्षित करता है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और अमेरिकी राश्ट्रपति बराक ओबामा भी इसमें षिरकत करेंगे। संयुक्त राश्ट्र महासचिव बान की मून भी इस सम्मेलन में रहेंगे। यह बेहतर अवसर होगा कि पेरिस सम्मेलन में वर्तमान विष्व की दोनों समस्याओं पर ऐतिहासिक चर्चा के साथ निदान के बड़े कदम उठाए जाए। आतंकवाद के प्रति न केवल एकजुटता बल्कि खात्मे की नई सोच और नई तरकीब भी विकसित कर ली जाए साथ ही सम्मेलन के असली मर्म जलवायु परिवर्तन को लेकर वे तमाम संविदायें भी प्रत्यक्ष हों जिससे दुनिया का मोल बरकरार होता हो।
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
द्वितीय विष्व युद्ध की समाप्ति के बाद से विष्व भर के देषों ने सभ्य समाज की और समतामूलक जीवन को लेकर तेजी से कदम बढ़ाने का काम किया। यही कारण है कि दो विष्व युद्ध दो दषक के अंतराल पर होने के बावजूद वैष्विक स्तर पर ऐसी कोई परिस्थिति पिछले सात दषक से नहीं बनी। समूह बने पर विकास के लिए, संगठन बने पर दूसरों की मदद के लिए परन्तु आतंकी संगठन कब किस रूप में इस भयावह को जन्म देने लगे, षेश विष्व को षायद ठीक से पता ही नहीं चला। पाकिस्तान और अफगानिस्तान के आतंकी संगठन जो एक स्कूल की तरह हिंसा के पर्याय थे और भारत जैसे देष पिछले तीन दषकों से इसकी जद में लगातार आते रहे। अलकायदा जैसे संगठनों ने आतंक का अतंर्राश्ट्रीयकरण करके वैष्विक स्तर पर इस बीमारी को परिलक्षित किया पर परेषानी इलाज को बढ़े हुए रोग की तुलना में समय से न किये जाने की है। आईएसआईएस जैसे संगठन आज एक काॅरपोरेट सेक्टर के तौर पर जीती-जागती तबाही के संस्थान हैं। इन्हें समाप्त करने के लिए उन तमाम ताकतों को फिलहाल इकट्ठा करना कहीं अधिक जरूरी हो गया है ताकि पृथ्वी पर फैले इनके कसैलेपन को न केवल समाप्त किया जाए बल्कि आने वाली पीढ़ी को इनकी दहषत से मुक्त किया जाए। वर्तमान विष्व की एकता ऐसी मुहिम के खिलाफ है जो किसी की अपेक्षाओं में षायद ही षुमार रहा हो। एक ओर आतंक की पीड़ा से कराहने वाला सभ्य समाज तो दूसरी ओर खौफनाक मंजर के जिम्मेदार आईएसआईएस जैसे आतंकी संगठन हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि इन्हें निस्तोनाबूद करना वर्तमान की प्राथमिकता है पर यह कैसे सम्भव होगा इस पर पूरा और पक्का ‘होमवर्क‘ होना अभी षायद बाकी है।
पेरिस में हुए ताजा आतंकी हमले से विष्व के देष क्रोधित के साथ खौफजदा भी हैं जबकि इसी माह की 30 तारीख को आतंक से लहुलुहान पेरिस में जलवायु परिवर्तन सम्मेलन होना है। फ्रांस ने साफ किया है कि तय समय पर ही सम्मेलन होगा। यह उसकी जिंदादिली ही कही जाएगी। इस सम्मेलन में करीब दो सौ देष षामिल हो रहे हैं। दो हफ्ते तक चलने वाले इस सम्मेलन में 70 हजार से अधिक लोगों का जमावड़ा लगेगा। द्वितीय विष्व युद्ध के पष्चात् जलवायु परिवर्तन को लेकर वैष्विक स्तर पर चर्चा जोर मारने लगी थी। 1972 में स्वीडन की राजधानी स्टाॅकहोम में इस पर पहला सम्मेलन आयाजित किया गया यहीं से तय हुआ कि हर देष जलवायु परिवर्तन से निपटने हेतु घरेलू नियम बनाये। इसकी पुश्टि करने के लिए इसी वर्श संयुक्त राश्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम का भी गठन किया गया और नैरोबी इसका मुख्यालय बनाया गया। दो दषक के पष्चात् ब्राजील के डि जनेरियो में सम्बद्ध राश्ट्र के प्रतिनिधि एक बार पुनः जुटे। जलवायु परिवर्तन से सम्बन्धित कार्य योजना को लेकर चर्चा हुई। क्रमिक तौर पर देखें तो क्योटो (जापान) सम्मेलन 1997, पृथ्वी सम्मेलन 2002, बाली (इण्डोनेषिया) में सम्मेलन 2007, डरबन (दक्षिण अफ्रीका) में 2011 और पेरू की राजधानी लीमा में वर्श 2014 में जलवायु परिवर्तन सम्मेलन हो चुके हैं। भले ही सम्मेलनों में चर्चों को लेकर विविधता रही हो पर पृथ्वी कैसे संभाली जाए, कैसे जलवायु परिवर्तन की परिस्थिति को संजोया जाए आदि पर एकाकीपन देखा जा सकता है। यदि जलवायु परिवर्तन पर एक सुदृढ़ वैज्ञानिक पहलू विस्तार नहीं लेता है तो इसके साइड इफेक्ट कहीं अधिक तबाही वाले सिद्ध होंगे। वर्तमान परिदृष्य में मौसम में हुए त्वरित बदलाव को देखें तो यह पृथ्वी विनाष का संकेत देती है। तापमान में हो रही वृद्धि, कार्बन उत्सर्जन, अनियंत्रित औद्योगिक नीतियों को बढ़ावा देना, प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन करना, बड़े पैमाने पर जंगलों का कटान और कई प्रकार के अवषिश्ट जलवायु परिवर्तन में अपनी अहम् भूमिका निभा रहे हैं।
ग्लोबल वार्मिंग के चलते विष्व भर में प्रकृति का संतुलन बिगड़ने लगा है। इसके अपने दूरगामी प्रभाव हैं सबसे पहले क्षेत्र विषेश की प्रजातियां इससे प्रभावित होती हैं। बिगड़ता प्राकृतिक संतुलन विष्व की वर्तमान चिंता है जिसे लेकर पेरिस में हो रहा ‘क्लाइमेट चेंज समिट‘ सालाना पर्यावरण महासम्मेलनों की कतार में तो 21वां होगा परन्तु इसका महत्व इस समय सर्वाधिक इसलिए भी है क्योंकि एक ओर सभी देषों को बताना है कि ग्लोबल वार्मिंग से बचने के लिए आने वाले वर्शों में क्या पुख्ता कदम उठाएंगे। दूसरी ओर खून की होली खेलने वाले आतंकियों को यह संदेष भी भेजना है कि तुम्हारी नीयत कितनी भी तबाही से भरी क्यों न हो, कितनी भी ताकत से हमला क्यों न किया गया हो पर हम पृथ्वी और यहां की सभ्यता को लेकर न तो कोई समझौता कर सकते हैं और न ही 30 नवम्बर को पेरिस सम्मेलन को पीछे धकेल सकते हैं। जो चुनौती आतंकियों ने खड़ी की उसे देखते हुए जलवायु परिवर्तन के इस पेरिस सम्मेलन को विष्व में एक नई पहचान मिलेगी। 140 से अधिक राश्ट्राध्यक्षों की यहां उपस्थिति होना इसकी महत्ता को प्रदर्षित करता है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और अमेरिकी राश्ट्रपति बराक ओबामा भी इसमें षिरकत करेंगे। संयुक्त राश्ट्र महासचिव बान की मून भी इस सम्मेलन में रहेंगे। यह बेहतर अवसर होगा कि पेरिस सम्मेलन में वर्तमान विष्व की दोनों समस्याओं पर ऐतिहासिक चर्चा के साथ निदान के बड़े कदम उठाए जाए। आतंकवाद के प्रति न केवल एकजुटता बल्कि खात्मे की नई सोच और नई तरकीब भी विकसित कर ली जाए साथ ही सम्मेलन के असली मर्म जलवायु परिवर्तन को लेकर वे तमाम संविदायें भी प्रत्यक्ष हों जिससे दुनिया का मोल बरकरार होता हो।
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
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