एड़ी-चोटी का जोर लगाने के बावजूद बिहार में भाजपा की हार हुई जिसके चलते वरिश्ठ भाजपाई बेहद नाराज हुए। लाल कृश्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोषी और यषवंत सिन्हा सहित कुछ नेता जो भाजपा के मार्गदर्षक हैं वे मोदी और अमित षाह के खिलाफ तल्ख और आक्रामक तेवर दिखा रहे हैं। उनका मानना है कि दिल्ली विधानसभा की हार से पार्टी ने कोई सबक नहीं लिया। पार्टी की आंतरिक हालत को देखते हुए अंदाजा लगाया जा सकता है कि लोकतंत्र को लेकर यहां दो लड़ाई है एक भाजपा के अंदर और दूसरी बाहर। बिहार से लेकर गुजरात तक के कई नेता बगावत वाले सुर भी दिखा चुके हैं जबकि पार्टी हार की सामूहिक जिम्मेदारी बता कर पल्ला झाड़ लिया है। वरिश्ठ नेताओं का कहना है कि जिम्मेदारी सामूहिक कह कर मोदी-षाह को बचाने की कोषिष की गयी है जो सही नहीं है। देखा जाए तो 2004 के लोकसभा चुनाव में जो तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई के नेतृत्व में लड़ा गया था और वर्श 2009 का नेतृत्व लाल कृश्ण आडवाणी कर रहे थे तब की हार में जिम्मेदारी व्यक्ति विषेश को इंगित कर रही थी। ऐसे में सवाल उठना लाज़मी है। पड़ताल बताती है कि कुछ भी तो भाजपा के पक्ष में नहीं गया। प्रधानमंत्री मोदी की 26 चुनावी रैलियां भी भाजपा के काम न आ सकी और परिणाम इतने उलट होंगे इसकी भी कल्पना षायद ही की गयी हो।
विगत् कुछ महीने पूर्व जिस उद्देष्य के तहत नीतीष कुमार ने लालू प्रसाद और कांग्रेस के साथ मिलकर महागठबंधन का जोखिम लिया था वह प्रचंड बहुमत के साथ पूरा हुआ। सारे अनुमान और एक्जिट पोल को झुठलाते हुए नीतीष कुमार तीसरी बार बिहार विधानसभा चुनाव जीतने में कामयाब रहे। चैथे चरण को छोड़ दिया जाए तो महागठबंधन एनडीए से हर चरण में मीलों आगे था। फिलहाल इस बार के चुनावी परिणाम ने नीतीष कुमार को धमाकेदार जीत देकर न केवल तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने का रास्ता खोला बल्कि राजनीतिक क्षितिज पर बड़े नेता के रूप में भी उभारने का काम किया। इस बार के बिहार विधानसभा चुनाव के परिणाम कई मायनों में हैरान करने वाले भी हैं। राजनीति में परिवार को आगे बढ़ाने की कोषिषों को लोगों का समर्थन मिलता रहा है पर इस बार स्थिति बदलाव लिए हुए थी। तमाम नेता पुत्रों को मतदाताओं ने नकार दिया हालांकि राजद के अध्यक्ष लालू प्रसाद के दोनों पुत्र इस मामले में भाग्यषाली रहे। हैदराबाद की एआईएमआईएम के फायर ब्रांड नेता असदुद्दीन ओवैसी अपने तेवरों के लिए जिस कदर जाने जाते हैं उस तरीके की उपलब्धि हासिल नहीं कर पाये। पहली बार बिहार की जमीन पर मुस्लिम वोट के सहारे सीमांचल में छः सीटों पर अपनी राजनीतिक कूबत लगाये हुए थे पर हैदराबाद का राजनीतिक तजुर्बा बिहार की जमीन पर चारो खाने चित हो गया। पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी की पार्टी उनकी सीट तक ही सीमित होकर रह गयी। देखा जाए तो जिन कंधों पर भाजपा ने भरोसा किया वे कहीं अधिक कमजोर निकले।
मई 2014 के लोकसभा के चुनाव में प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व को इसी बिहार ने व्यापक पैमाने पर भाजपा को स्वीकारा था जबकि विधानसभा चुनाव ने करारी षिकस्त में तब्दील कर दिया। नीतीष की जीत को यदि राश्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो इसका एक तात्कालिक असर यह भी है कि अब इनकी गिनती देष के षक्तिषाली मुख्यमंत्रियो के रूप में हो सकती है। दूसरे जब-जब चुनावी मोर्चे की बात आयेगी तब-तब इनके ‘सोषल इंजीनियरिंग‘ को लोग गौर करना चाहेंगे। 41 सीटों पर चुनाव लड़ने वाली कांग्रेस 27 पर जीत के साथ बरसों से धूल खा रहे पटना के कांग्रेसी कार्यालय में उत्सव मनाने का अवसर दे दिया। महागठबंधन के नेता सामाजिक समीकरणों को दुरूस्त करने में तो सफल रहे ही साथ ही मतदाताओं को यह भरोसा दिलाने में कामयाब रहे कि नीतीष कुमार ही बिहार के बेहतर विकल्प हैं। हालांकि माना जा रहा है कि नीतीष की तुलना में लालू को सीटे अधिक मिली हैं ऐसे में लालू प्रभावी रहेंगे। प्रभावी होने तक तो मामला ठीक है पर गड़बड़ तब होगा जब वो हावी होने की कोषिष करेंगे। हालांकि यह भी रहा है कि महागठबंधन के षुरूआती दिनों में नीतीष के अंदर एक हिचकिचाहट थी पर उनकी मजबूरी यह थी कि यदि लालू को साथ नहीं लेते तो अकेले एनडीए से जीत वाला मुकाबला भी नहीं कर सकते थे। दांव सीधा पड़ा और जीत बड़ी कर ली। इससे न केवल उनका राजनीतिक कद बढ़ा बल्कि कई जो हाषिये पर हैं उनको भी ऊर्जावान बना दिया।
देखा जाए तो नीतीष की जीत में स्थानीय भाजपाई नेताओं की बेरूखी भी मददगार रही है। टिकट बंटवारे में न तो स्थानीय नेताओं को तरजीह दी गयी और न ही आपसी खटपट पर कोई बड़ा अंकुष लग पाया जिसके चलते भाजपा की बुरी गति हुई। अब हार के बाद कोहराम मचा है। भाजपा के बुजुर्ग नेता अब अपनी ही पार्टी पर हमला कर रहे हैं और अनुमान है कि सकारात्मक जवाब न मिलने पर आडवाणी-जोषी खेमा इस मामले में और जोर पकड़ सकता है। मुखर पक्ष यह है कि क्या नतीजे मोदी सरकार की चमक को कमजोर करने के सूचक हैं? क्या स्टार प्रचारक प्रधानमंत्री मोदी इस नतीजे से प्रभावित होंगे। दो टूक कहा जाए तो भाजपा करारी षिकस्त की षिकार हुई है पर मोदी देष के प्रधानमंत्री हैं और पूर्ण बहुमत धारक हैं। ऐसे में केन्द्र सरकार पर इसका कोई सीधा असर नहीं है पर भाजपा के रसूक पर तो उंगली उठेगी। बड़ी बात यह है कि बिहार की जमीन पर जिस सामाजिक न्याय की लड़ाई हो रही थी उसमें स्थानीय मुद्दे हावी थे और जातीय समीकरण भी महागठबंधन के पक्ष में था। इसके अलावा नीतीष कुमार के सुषासन और विकास की बातें बिहार की जनता को भी जच गयी। इतना ही नहीं आरोप-प्रत्यारोप से ऊपर उठते हुए नीतीष कुमार जनता को यह समझाने में लगे रहे कि वे बिहार के लिए कितने काम के हैं जबकि भाजपाई बुनियादी सवाल तक पहुंच ही नहीं पाये परिणामस्वरूप हैरत भरी हार का सामना करना पड़ा।
लेखक, वरिश्ठ स्तम्भकार एवं रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन के निदेषक हैं
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्ससाइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
विगत् कुछ महीने पूर्व जिस उद्देष्य के तहत नीतीष कुमार ने लालू प्रसाद और कांग्रेस के साथ मिलकर महागठबंधन का जोखिम लिया था वह प्रचंड बहुमत के साथ पूरा हुआ। सारे अनुमान और एक्जिट पोल को झुठलाते हुए नीतीष कुमार तीसरी बार बिहार विधानसभा चुनाव जीतने में कामयाब रहे। चैथे चरण को छोड़ दिया जाए तो महागठबंधन एनडीए से हर चरण में मीलों आगे था। फिलहाल इस बार के चुनावी परिणाम ने नीतीष कुमार को धमाकेदार जीत देकर न केवल तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने का रास्ता खोला बल्कि राजनीतिक क्षितिज पर बड़े नेता के रूप में भी उभारने का काम किया। इस बार के बिहार विधानसभा चुनाव के परिणाम कई मायनों में हैरान करने वाले भी हैं। राजनीति में परिवार को आगे बढ़ाने की कोषिषों को लोगों का समर्थन मिलता रहा है पर इस बार स्थिति बदलाव लिए हुए थी। तमाम नेता पुत्रों को मतदाताओं ने नकार दिया हालांकि राजद के अध्यक्ष लालू प्रसाद के दोनों पुत्र इस मामले में भाग्यषाली रहे। हैदराबाद की एआईएमआईएम के फायर ब्रांड नेता असदुद्दीन ओवैसी अपने तेवरों के लिए जिस कदर जाने जाते हैं उस तरीके की उपलब्धि हासिल नहीं कर पाये। पहली बार बिहार की जमीन पर मुस्लिम वोट के सहारे सीमांचल में छः सीटों पर अपनी राजनीतिक कूबत लगाये हुए थे पर हैदराबाद का राजनीतिक तजुर्बा बिहार की जमीन पर चारो खाने चित हो गया। पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी की पार्टी उनकी सीट तक ही सीमित होकर रह गयी। देखा जाए तो जिन कंधों पर भाजपा ने भरोसा किया वे कहीं अधिक कमजोर निकले।
मई 2014 के लोकसभा के चुनाव में प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व को इसी बिहार ने व्यापक पैमाने पर भाजपा को स्वीकारा था जबकि विधानसभा चुनाव ने करारी षिकस्त में तब्दील कर दिया। नीतीष की जीत को यदि राश्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो इसका एक तात्कालिक असर यह भी है कि अब इनकी गिनती देष के षक्तिषाली मुख्यमंत्रियो के रूप में हो सकती है। दूसरे जब-जब चुनावी मोर्चे की बात आयेगी तब-तब इनके ‘सोषल इंजीनियरिंग‘ को लोग गौर करना चाहेंगे। 41 सीटों पर चुनाव लड़ने वाली कांग्रेस 27 पर जीत के साथ बरसों से धूल खा रहे पटना के कांग्रेसी कार्यालय में उत्सव मनाने का अवसर दे दिया। महागठबंधन के नेता सामाजिक समीकरणों को दुरूस्त करने में तो सफल रहे ही साथ ही मतदाताओं को यह भरोसा दिलाने में कामयाब रहे कि नीतीष कुमार ही बिहार के बेहतर विकल्प हैं। हालांकि माना जा रहा है कि नीतीष की तुलना में लालू को सीटे अधिक मिली हैं ऐसे में लालू प्रभावी रहेंगे। प्रभावी होने तक तो मामला ठीक है पर गड़बड़ तब होगा जब वो हावी होने की कोषिष करेंगे। हालांकि यह भी रहा है कि महागठबंधन के षुरूआती दिनों में नीतीष के अंदर एक हिचकिचाहट थी पर उनकी मजबूरी यह थी कि यदि लालू को साथ नहीं लेते तो अकेले एनडीए से जीत वाला मुकाबला भी नहीं कर सकते थे। दांव सीधा पड़ा और जीत बड़ी कर ली। इससे न केवल उनका राजनीतिक कद बढ़ा बल्कि कई जो हाषिये पर हैं उनको भी ऊर्जावान बना दिया।
देखा जाए तो नीतीष की जीत में स्थानीय भाजपाई नेताओं की बेरूखी भी मददगार रही है। टिकट बंटवारे में न तो स्थानीय नेताओं को तरजीह दी गयी और न ही आपसी खटपट पर कोई बड़ा अंकुष लग पाया जिसके चलते भाजपा की बुरी गति हुई। अब हार के बाद कोहराम मचा है। भाजपा के बुजुर्ग नेता अब अपनी ही पार्टी पर हमला कर रहे हैं और अनुमान है कि सकारात्मक जवाब न मिलने पर आडवाणी-जोषी खेमा इस मामले में और जोर पकड़ सकता है। मुखर पक्ष यह है कि क्या नतीजे मोदी सरकार की चमक को कमजोर करने के सूचक हैं? क्या स्टार प्रचारक प्रधानमंत्री मोदी इस नतीजे से प्रभावित होंगे। दो टूक कहा जाए तो भाजपा करारी षिकस्त की षिकार हुई है पर मोदी देष के प्रधानमंत्री हैं और पूर्ण बहुमत धारक हैं। ऐसे में केन्द्र सरकार पर इसका कोई सीधा असर नहीं है पर भाजपा के रसूक पर तो उंगली उठेगी। बड़ी बात यह है कि बिहार की जमीन पर जिस सामाजिक न्याय की लड़ाई हो रही थी उसमें स्थानीय मुद्दे हावी थे और जातीय समीकरण भी महागठबंधन के पक्ष में था। इसके अलावा नीतीष कुमार के सुषासन और विकास की बातें बिहार की जनता को भी जच गयी। इतना ही नहीं आरोप-प्रत्यारोप से ऊपर उठते हुए नीतीष कुमार जनता को यह समझाने में लगे रहे कि वे बिहार के लिए कितने काम के हैं जबकि भाजपाई बुनियादी सवाल तक पहुंच ही नहीं पाये परिणामस्वरूप हैरत भरी हार का सामना करना पड़ा।
लेखक, वरिश्ठ स्तम्भकार एवं रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन के निदेषक हैं
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्ससाइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
No comments:
Post a Comment