भारत में लोकतंत्र षासन का हृदय है और सुषासन सम्बन्धी आकांक्षाएं भारतीय संविधान की प्रस्तावना में निहित हैं। उत्तरदायी षासन व्यवस्था से ओत-प्रोत सरकारें जनहित के मामले में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ना चाहती। जनहित को साधने के फिराक में कई चुनौतियों का सामना भी सरकारें करती रही हैं। नित नये नीतियों और नियोजनों का अम्बार भी लगाती हैं। एक समुच्चय अवधारणा यह भी रही है कि चुनौती का सम्बन्ध सामाजिक विकास और सामाजिक अवसरों के विस्तार से होता है इतना ही नहीं न्याय, सषक्तीकरण, रोजगार तथा क्षमतायुक्त श्रम संसाधनों की सुनिष्चित करने वाली विधा भी इसमें षुमार है। षासन तब ‘सु‘ अर्थात् अच्छा होता है जब समस्याओं के निदान के लिए नीतियां हों और उन्हें पूरा करने के लिए उपलब्ध संसाधन हों। डेढ़ वर्श पुरानी मोदी सरकार ने कई बार सुषासन के प्रति अपनी वचनबद्धता दर्षायी है। इसी के दायरे में जीएसटी जैसी महत्वाकांक्षी आर्थिक योजनाओं को देखा जा सकता है जिसका कानूनी रूप आना अभी बाकी है। केन्द्र और राज्य के बीच अप्रत्यक्ष करों के वितरण को लेकर विवाद झेल रहा वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) विधेयक जो 122वां संविधान संषोधन 2014 होगा पिछले षीत सत्र में लोकसभा में पेष किया गया पर मामला आज भी खटाई में है। बरसों से चर्चा बटोरने वाला जीएसटी एक बरस से मोदी सरकार को भी पेषोपेष में डाले हुए है। यदि यह कानूनी रूप लेता है जैसा कि प्रधानमंत्री मोदी कह चुके हैं कि 1 अप्रैल, 2016 को इसे चलायमान करना है तो प्रत्येक सामान और प्रत्येक सेवा पर केवल एक टैक्स लगेगा अर्थात् वैट, एक्साइज़, सर्विस टैक्स आदि की जगह एक ही कर चुकाना होगा।
देष में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष किस्म के कई कर लागू हैं पर ये कितने पारदर्षी हैं पड़ताल का विशय है। जीएसटी आने के बाद काफी हद तक जहां ‘कर‘ सम्बन्धी विवाद समाप्त होंगे वहीं कर ढांचे में भी पारदर्षिता आयेगी जो सुषासन में निहित पारदर्षी विचारधारा को कहीं अधिक पुख्ता भी करेगी। जीएसटी का सबसे बड़ा मुनाफा आम आदमी को होने वाला है। ऐसा इसलिए क्योंकि कोई भी सामान पूरे देष में एक ही दर पर मिलेगा चाहे किसी भी स्थान से खरीदारी क्यों न की गयी हो। इससे टैक्स से भी राहत मिलेगी। आम तौर पर बिना जीएसटी के सामान खरीदते समय 30 से 35 फीसदी कर के रूप में चुकाना पड़ता है जबकि सरकार द्वारा जीएसटी के माध्यम से 20 से 25 फीसदी तक टैक्स की बात की जा रही है साफ है सामान सस्ते दर पर मिलेंगे। कारोबारी जगत भी सरकार से बड़ी अपेक्षाएं रखते हैं जीएसटी लागू होने से उनकी भी झंझटे कम होंगी। व्यापारियों को सामान की आवाजाही को लेकर दिक्कतें भी नहीं होगी, अलग-अलग टैक्स नहीं चुकाना पड़ेगा। इतना ही नहीं सामान बनाने की लागत भी घटेगी और सस्ते सामान की उम्मीद की जा सकती है। जीएसटी के मामले में राज्य सदमे में थे, डर कमाई कम होने का था। राज्य मुख्यतः पेट्रोल, डीजल से अच्छा खासा आय करते हैं। भारतीय संविधान के अन्तर्गत कर लगाने एवं वसूलने का प्रावधान देखा जा सकता है। संविधान में केन्द्र-राज्यों के बीच तीन सम्बन्धों की चर्चा है जिसमें एक वित्तीय सम्बन्ध है। राज्यों की ये षिकायत रही है कि वित्तीय आवंटन के मामले में केन्द्र हमेषा निराष करता रहा है। केन्द्र स्तर पर जहां सेन्ट्रल एक्साइज़ ड्यूटी, सेवा कर के अतिरिक्त कस्टम ड्यूटी आदि षामिल है वहीं राज्य वैट, मनोरंजन एवं बिक्री कर सहित कई करों पर आश्रित होते हैं परन्तु कर व्यवस्था में दरों को लेकर एकरूपता का आभाव है। जीएसटी यहां भी एकीकृत मानक विकसित करने में कारगर है। नेषनल काउंसिल आॅफ एप्लाइड इकोनोमिक रिसर्च के मुताबिक इसके लागू होने के पष्चात् जीडीपी में 0.9 से 1.7 तक इजाफा किया जा सकता है।
देष के आर्थिक एवं वित्तीय सुधार की दिषा में कर ढांचे में किये जा रहे परिवर्तन का यह व्यापक फेरबदल आर्थिक क्षेत्र के सभी विभागों पर असर डालेगा। जीएसटी एक मुनाफे वाली अर्थषास्त्र सिद्ध होगी और देष में सुषासन के कारगर प्रविधि के रूप में पहचानी जायेगी। पिछले सात-आठ वर्शों से यह सुधार की कवायद के चलते सुर्खियों में रहा है परन्तु राज्यों से इसके गहरे मतभेद बने रहे। इसके मुनाफे को देखते हुए कहना सही होगा कि इसके लाभ से देष की अर्थव्यवस्था अब तक वंचित रही है। टैक्स चोरी में अंकुष और पारदर्षी लक्षण के चलते यह संचित निधि में राषि बढ़ाने के काम आयेगी। विष्लेशणात्मक पहलू यह भी है कि तमाम फायदों के बावजूद क्या यह पूरी तरह चिंता मुक्त कर प्रणाली होगी। बड़ा सवाल यह है कि टैक्स स्लैब क्या होगा और नुकसान हुआ तो भरपाई कौन करेगा। केन्द्र और राज्य के बीच टैक्स बंटवारे को लेकर क्या वाकई में विवाद खत्म हो जायेंगे हालांकि केन्द्र सरकार कह चुकी है कि इसके आने के बाद जीएसटी पर होने वाले घाटे पर पांच साल तक की क्षतिपूर्ति मिलती रहेगी। षुरूआती तीन साल पर षत्-प्रतिषत, चैथे साल 75 प्रतिषत और पांचवें साल 50 फीसदी क्षतिपूर्ति का प्रावधान इसमें किया गया है। जीएसटी काउंसिल में राज्य के दो-तिहाई जबकि केन्द्र के एक-तिहाई सदस्य होंगे। वित्त मंत्री अरूण जेटली पहले ही कह चुके हैं कि कुछ राज्यों को एंट्री टैक्स, परचेज़ टैक्स तथा कुछ अन्य तरह के करों से जो घाटे होंगे उसकी भरपाई हेतु दो वर्श के लिए एक फीसदी के अतिरिक्त कर का प्रावधान किया गया है। बहरहाल आर्थिक सुधार की दिषा में महत्वपूर्ण समझे जाने वाले जीएसटी विधेयक को कानूनी रूप दिया ही जाना चाहिए।
एक अच्छी सरकार में अच्छे काॅरपोरेट सुषासन का भी गुण होता है और यह तब अधिक प्रभावषाली सिद्ध होती हैं जब देष की आर्थिक नीतियां कहीं अधिक व्यापक होती हैं। प्रधानमंत्री मोदी की आर्थिक सोच उबाऊ न होकर कहीं अधिक उपजाऊ प्रतीत होती है। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी जीएसटी को देष के आर्थिक हित में बता चुके हैं। आधुनिक लोकतंत्र के राजनीतिक इतिहास को नागरिक हितों की ओर मोड़ना और समय-समय पर उभरने वाली विसंगतियों को दूर करने के लिए गवर्नेंस का पैमाना भी उच्च करना होता है। इनपुट और आउटपुट लोकतांत्रिक माॅडल से प्रषासनिक दक्षता को तय करना भी जरूरी होता है। देखा जाए तो सुषासन के दायरे में लिप्त जीएसटी के चलते लागत में कमी, ज्यादा सकारात्मक बिज़नेस वातावरण, बिज़नेस और उद्योग के बीच बेहतर आपसी सम्बन्ध के साथ पारदर्षिता और दायित्वषीलता का भी विकास होगा। नागरिकों को सेवा प्रदान करने में गुणवत्ता का विकास, लोक प्रषासन एवं सरकार के प्रबंधन की क्षमता को बेहतर बनाना आदि भी इसमें देखा जा सकेगा। लोक कल्याणकारी राज्यों में घाटे के बजट को बेहतर माना जाता है पर घाटा तो इसलिए हो रहा है कि राजकोशीय घाटा बढ़ रहा है। देखा गया है कि राजकोशीय और बजटीय घाटे के चलते सरकारें आलोचना झेलती रही हैं। जीएसटी के चलते इसे भी पाटा जा सकता है। संचित निधि को नकदी से भरा जा सकता है जिसके फलस्वरूप सरकार अपने सुषासन के संकल्प सहित कई वायदों को पूरा करने का दम भर सकती है। वास्तव में यह वर्तमान सरकार की बड़ी कोषिष कही जायेगी ऐसे में वर्तमान षीत सत्र इसे कानूनी रूप देने का अवसर दे सकता है। हालांकि विपक्षियों के अपने विरोध हैं पर रचनात्मक आर्थिक नीति से ऊपर उठते हुए जीएसटी को फलक पर लाना सभी के हित में है।
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
देष में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष किस्म के कई कर लागू हैं पर ये कितने पारदर्षी हैं पड़ताल का विशय है। जीएसटी आने के बाद काफी हद तक जहां ‘कर‘ सम्बन्धी विवाद समाप्त होंगे वहीं कर ढांचे में भी पारदर्षिता आयेगी जो सुषासन में निहित पारदर्षी विचारधारा को कहीं अधिक पुख्ता भी करेगी। जीएसटी का सबसे बड़ा मुनाफा आम आदमी को होने वाला है। ऐसा इसलिए क्योंकि कोई भी सामान पूरे देष में एक ही दर पर मिलेगा चाहे किसी भी स्थान से खरीदारी क्यों न की गयी हो। इससे टैक्स से भी राहत मिलेगी। आम तौर पर बिना जीएसटी के सामान खरीदते समय 30 से 35 फीसदी कर के रूप में चुकाना पड़ता है जबकि सरकार द्वारा जीएसटी के माध्यम से 20 से 25 फीसदी तक टैक्स की बात की जा रही है साफ है सामान सस्ते दर पर मिलेंगे। कारोबारी जगत भी सरकार से बड़ी अपेक्षाएं रखते हैं जीएसटी लागू होने से उनकी भी झंझटे कम होंगी। व्यापारियों को सामान की आवाजाही को लेकर दिक्कतें भी नहीं होगी, अलग-अलग टैक्स नहीं चुकाना पड़ेगा। इतना ही नहीं सामान बनाने की लागत भी घटेगी और सस्ते सामान की उम्मीद की जा सकती है। जीएसटी के मामले में राज्य सदमे में थे, डर कमाई कम होने का था। राज्य मुख्यतः पेट्रोल, डीजल से अच्छा खासा आय करते हैं। भारतीय संविधान के अन्तर्गत कर लगाने एवं वसूलने का प्रावधान देखा जा सकता है। संविधान में केन्द्र-राज्यों के बीच तीन सम्बन्धों की चर्चा है जिसमें एक वित्तीय सम्बन्ध है। राज्यों की ये षिकायत रही है कि वित्तीय आवंटन के मामले में केन्द्र हमेषा निराष करता रहा है। केन्द्र स्तर पर जहां सेन्ट्रल एक्साइज़ ड्यूटी, सेवा कर के अतिरिक्त कस्टम ड्यूटी आदि षामिल है वहीं राज्य वैट, मनोरंजन एवं बिक्री कर सहित कई करों पर आश्रित होते हैं परन्तु कर व्यवस्था में दरों को लेकर एकरूपता का आभाव है। जीएसटी यहां भी एकीकृत मानक विकसित करने में कारगर है। नेषनल काउंसिल आॅफ एप्लाइड इकोनोमिक रिसर्च के मुताबिक इसके लागू होने के पष्चात् जीडीपी में 0.9 से 1.7 तक इजाफा किया जा सकता है।
देष के आर्थिक एवं वित्तीय सुधार की दिषा में कर ढांचे में किये जा रहे परिवर्तन का यह व्यापक फेरबदल आर्थिक क्षेत्र के सभी विभागों पर असर डालेगा। जीएसटी एक मुनाफे वाली अर्थषास्त्र सिद्ध होगी और देष में सुषासन के कारगर प्रविधि के रूप में पहचानी जायेगी। पिछले सात-आठ वर्शों से यह सुधार की कवायद के चलते सुर्खियों में रहा है परन्तु राज्यों से इसके गहरे मतभेद बने रहे। इसके मुनाफे को देखते हुए कहना सही होगा कि इसके लाभ से देष की अर्थव्यवस्था अब तक वंचित रही है। टैक्स चोरी में अंकुष और पारदर्षी लक्षण के चलते यह संचित निधि में राषि बढ़ाने के काम आयेगी। विष्लेशणात्मक पहलू यह भी है कि तमाम फायदों के बावजूद क्या यह पूरी तरह चिंता मुक्त कर प्रणाली होगी। बड़ा सवाल यह है कि टैक्स स्लैब क्या होगा और नुकसान हुआ तो भरपाई कौन करेगा। केन्द्र और राज्य के बीच टैक्स बंटवारे को लेकर क्या वाकई में विवाद खत्म हो जायेंगे हालांकि केन्द्र सरकार कह चुकी है कि इसके आने के बाद जीएसटी पर होने वाले घाटे पर पांच साल तक की क्षतिपूर्ति मिलती रहेगी। षुरूआती तीन साल पर षत्-प्रतिषत, चैथे साल 75 प्रतिषत और पांचवें साल 50 फीसदी क्षतिपूर्ति का प्रावधान इसमें किया गया है। जीएसटी काउंसिल में राज्य के दो-तिहाई जबकि केन्द्र के एक-तिहाई सदस्य होंगे। वित्त मंत्री अरूण जेटली पहले ही कह चुके हैं कि कुछ राज्यों को एंट्री टैक्स, परचेज़ टैक्स तथा कुछ अन्य तरह के करों से जो घाटे होंगे उसकी भरपाई हेतु दो वर्श के लिए एक फीसदी के अतिरिक्त कर का प्रावधान किया गया है। बहरहाल आर्थिक सुधार की दिषा में महत्वपूर्ण समझे जाने वाले जीएसटी विधेयक को कानूनी रूप दिया ही जाना चाहिए।
एक अच्छी सरकार में अच्छे काॅरपोरेट सुषासन का भी गुण होता है और यह तब अधिक प्रभावषाली सिद्ध होती हैं जब देष की आर्थिक नीतियां कहीं अधिक व्यापक होती हैं। प्रधानमंत्री मोदी की आर्थिक सोच उबाऊ न होकर कहीं अधिक उपजाऊ प्रतीत होती है। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी जीएसटी को देष के आर्थिक हित में बता चुके हैं। आधुनिक लोकतंत्र के राजनीतिक इतिहास को नागरिक हितों की ओर मोड़ना और समय-समय पर उभरने वाली विसंगतियों को दूर करने के लिए गवर्नेंस का पैमाना भी उच्च करना होता है। इनपुट और आउटपुट लोकतांत्रिक माॅडल से प्रषासनिक दक्षता को तय करना भी जरूरी होता है। देखा जाए तो सुषासन के दायरे में लिप्त जीएसटी के चलते लागत में कमी, ज्यादा सकारात्मक बिज़नेस वातावरण, बिज़नेस और उद्योग के बीच बेहतर आपसी सम्बन्ध के साथ पारदर्षिता और दायित्वषीलता का भी विकास होगा। नागरिकों को सेवा प्रदान करने में गुणवत्ता का विकास, लोक प्रषासन एवं सरकार के प्रबंधन की क्षमता को बेहतर बनाना आदि भी इसमें देखा जा सकेगा। लोक कल्याणकारी राज्यों में घाटे के बजट को बेहतर माना जाता है पर घाटा तो इसलिए हो रहा है कि राजकोशीय घाटा बढ़ रहा है। देखा गया है कि राजकोशीय और बजटीय घाटे के चलते सरकारें आलोचना झेलती रही हैं। जीएसटी के चलते इसे भी पाटा जा सकता है। संचित निधि को नकदी से भरा जा सकता है जिसके फलस्वरूप सरकार अपने सुषासन के संकल्प सहित कई वायदों को पूरा करने का दम भर सकती है। वास्तव में यह वर्तमान सरकार की बड़ी कोषिष कही जायेगी ऐसे में वर्तमान षीत सत्र इसे कानूनी रूप देने का अवसर दे सकता है। हालांकि विपक्षियों के अपने विरोध हैं पर रचनात्मक आर्थिक नीति से ऊपर उठते हुए जीएसटी को फलक पर लाना सभी के हित में है।
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
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