Sunday, November 22, 2015

शपथ, सियासत और लोकतंत्र

    बीते षुक्रवार नीतीष कुमार ने पांचवीं बार बिहार के मुख्यमंत्री की षपथ ली। आठ नवम्बर को घोशित बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजों से इनकी ताजपोषी तय थी पर षपथ का समारोह सतरंगी लोकतंत्र से भरा होगा इसका अनुमान षायद ही किसी को रहा हो। यह समारोह कई अर्थों में लिप्त रहा। एनडीए विरोधी दलों के नेताओं को पटना के गांधी मैदान में एक मंच पर लाकर बड़ी सियासत के आगाज का प्रयास किया गया। जिस मकसद से देष भर के गैर भाजपाई दिग्गजों को जुटाया गया उससे साफ है कि षपथ ग्रहण के बहाने विरोधी एकजुटता को प्रदर्षित करना भी षामिल था। पष्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी दिल्ली के केजरीवाल, जम्मू-कष्मीर से फारूख अब्दुल्ला, उमर अब्दुल्ला, हिमाचल से वीरभद्र सिंह सहित उत्तर, दक्षिण और पष्चिम से आये दर्जनों दलों के नेताओं का नीतीष के षपथ में जमावड़ा था जो अपने आप में बड़े राजनीतिक स्वरूप का संकेत दे रहे थे। हालांकि केन्द्र सरकार की तरफ से संसदीय कार्यमंत्री वैंकय्या नायडू और राजीव प्रताप रूड़ी ने भी इसमें षिरकत की थी। समारोह में कुछ रोचक तो कुछ हैरत करने वाली बातें भी षामिल थीं। रोचक यह कि भारतीय लोकतंत्र में विरोधी ध्रुवीकरण के मकसद से यह षपथ समारोह परिपूर्ण था। नीतीष और लालू ने काफी हद तक षपथ के बहाने अपनी ताकत दिखाने का प्रयास किया। हैरत इसलिए कि धुर विरोधी भी समारोह की न केवल षान बढ़ा रहे थे बल्कि गले मिलकर गिले-षिकवे भी धो रहे थे। दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल लालू को अपने भ्रश्टाचार की सूची में रखते हैं पर मंच पर गले मिलने में उन्हें भी कोई हिचकिचाहट नहीं थी। कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी बरसों से लालू प्रसाद से दूरी बनाये हुए थे। यह मंच इनके भी आपसी गिले-षिकवे धोने के काम आया।
    मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद यह पहला अवसर है जब इतने बड़े स्तर पर विपक्षियों का जमावड़ा लगा। नीतीष के षपथ समारोह में षिव सेना के मंत्रियों का उपस्थित होना, पंजाब के उप-मुख्यमंत्री की मौजूदगी साथ ही वामपंथी सीताराम येचुरी और एनसीपी के षरद पंवार का मौजूद होना यह भी संकेत समेटे हुए था कि मोदी भी कहीं अधिक ताकतवर हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि षपथ के बहाने की गयी सियासत के इस ताने-बाने में विरोधी यह जताना चाहते हैं कि मोदी के लिए आगे की राह आसान नहीं होने वाली पर यह भी सही है कि भले ही प्रधानमंत्री मोदी को तत्काल में कोई खतरा न पहुंचे पर इसके नतीजे दूरगामी हो सकते हैं। बेहद महत्वपूर्ण यह भी है कि आने वाले षीत सत्र में सरकार आर्थिक सुधारों को गति देने वाले    जीएसटी को संसद में पास कराना चाहेगी। कांग्रेस समेत कई विपक्षी लगातार इसका विरोध करते आ रहे हैं जबकि सरकार को अगले वित्तीय वर्श से इसे कानूनी रूप देना है। विरोध के चलते एकजुट हुई इस राजनीति का साया जीएसटी पर भी पड़ सकता है। हालांकि पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कह चुके हैं कि जीएसटी को लेकर सरकार का समर्थन करना चाहिए क्योंकि यह देष के आर्थिक हित में उठाया गया कदम है। इसके अलावा भी दो दर्जन से अधिक विधेयक गतिरोध के चलते अधिनियमित नहीं हो पा रहे हैं और मोदी सरकार की मुसीबत इससे भी कहीं न कहीं बढ़त लिए हुए है पर देखने वाली बात यह होगी कि षपथ के बहाने मोदी विरोध में सुर देने वाले नेता आने वाली सियासत में कितने असरदार सिद्ध होते हैं। समाजवादी पार्टी के किसी भी प्रतिनिधि का समारोह में न होना इनकी एकजुटता पर कुछ हद तक सवाल भी खड़ा करता है।
    बिहार में नये सिरे से षुरू हुई विपक्षी एकता की कवायद एक प्रकार से पलटवार के रूप में भी देखी जा सकती है। दरअसल 2012 के गुजरात विधानसभा चुनाव में मोदी ने तीसरी बार अपने बूते पर बहुमत हासिल किया था तब उन्होंने भी षपथ समारोह को बहुत व्यापक और विस्तारषील बनाया था। इस षपथ समारोह में भी नेताओं की बड़ी तादाद थी। गुजरात की इसी जीत के चलते मोदी के कद में बड़ा उठान भी आया था फलस्वरूप सितम्बर 2013 में उन्हें एनडीए के प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के तौर पर स्वीकृति दे दी गयी। यहीं से एनडीए में षामिल नीतीष ने अपने को अलग कर लिया और मोदी के धुर विरोधी हो गये। एक ओर जहां मोदी भारत में भाजपाई सरकार के निर्माण हेतु और कांग्रेस मुक्त भारत का अभियान चलाकर 26 मई 2014 को पूर्ण बहुमत के साथ देष के प्रधानमंत्री बन गये वहीं नीतीष कुमार बिहार में लोकसभा में हुई हार की जिम्मेदारी लेते हुए मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। डेढ़ वर्श बाद बिहार विधानसभा की बड़ी जीत के साथ नीतीष फिर एक बार भारी-भरकम षपथ समारोह के बहाने मोदी विरोध को एकजुटता देने का प्रयास किया है। इस सच को भी समझ लेना जरूरी है कि मोदी भाजपा जैसे राश्ट्रीय संगठन के नेता हैं जबकि नीतीष एक क्षेत्रीय दल के नेता हैं साथ ही राजद और कांग्रेस की इनके सरकार में हिस्सेदारी है। ऐसे में इन्हें पूरी तरह बड़े विरोधी नेता के रूप में देखना जल्दबाजी होगी। वर्तमान राजनीतिक दौर में विपक्ष निर्वात में भी है। मुख्य विपक्षी कांग्रेस गैर मान्यता के साथ फिलहाल संख्या बल की कमी के चलते राजनीति में बहुत पीछे चली गयी है जिसे देखते हुए विरोधी ध्रुवीकरण बिहार विधानसभा जीत के बाद नीतीष के पक्ष में होना और अन्य नेताओं का इनके पक्ष में आना समय की मजबूरी भी है।
    देखा जाए तो षपथ समारोह में जुटे नेताओं द्वारा नीतीष को देष संभालने और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के विरोध में गोलबंदी का नेतृत्व करने का न्यौता देना इस संकेत से भरा है कि भारत में अगले चरण की राजनीति नीतीष के इर्द-गिर्द तो होगी पर प्रयोग कितना सफल होगा कहना कठिन है। एक राज्य सरकार के मुखिया और एक देष के मुखिया की तुलना और उनके बीच के विरोध को इस तरह आमने-सामने खड़ा करना पूरी तरह सही प्रतीत नहीं होता। हालांकि लोकतंत्र में सियासत बहुत उतार-चढ़ाव से भरी रही है ऐसे में बिहार की सियासत से उभरे नीतीष राश्ट्रीय राजनीति के क्षितिज पर कितनी महत्ता के साथ स्थान घेरेंगे यह आने वाला वक्त ही बतायेगा।

लेखक, वरिश्ठ स्तम्भकार एवं रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन के निदेषक हैं
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्ससाइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502


No comments:

Post a Comment