Thursday, October 8, 2015

गरीबी को लेकर जगी उम्मीद

    भारत में कभी भी ऐसा समय नहीं रहा है जब समाज में गरीबी का पूर्णतः आभाव रहा हो पर विष्व बैंक के ताजा रिपोर्ट के मुताबिक अब ऐसी उम्मीदें की जा सकती हैं। वर्श 2030 तक दुनिया से गरीबी का सफाया हो सकता है ऐसा अनुमान अति उत्साह से तो नहीं वरन् संयमित संतोश के तहत स्वीकार किया जा सकता है। बीते 5 अक्टूबर को जारी विष्व बैंक की रिपोर्ट यह दर्षाती है कि 2012 में किसी भी देष के मुकाबले सबसे ज्यादा गरीब आबादी भारत में थी मगर राहत वाली बात यह है कि बड़े गरीब देषों के बीच भारत का नम्बर सबसे नीचे है। गरीब की आबादी घट कर इसी वर्श 10 प्रतिषत से नीचे आ सकती है। बावजूद इसके सब कुछ इतना सहजता से नहीं लिया जा सकता क्योंकि इतिहास के पन्नों को पलटे तो यह चुनौती बरसों से आंख मिचैली खेलती रही है। पांचवीं पंचवर्शीय योजना (1974-1979) गरीबी उन्मूलन की दिषा में देष में उठाया गया बड़ा दीर्घकालिक कार्यक्रम था। 1989 के लकड़ावाला कमेटी की रिपोर्ट को देखें तो स्पश्ट था कि ग्रामीण क्षेत्रों में 2400 कैलोरी और षहरी क्षेत्रों में 2100 कैलोरी ऊर्जा जुटाने वाला गरीब नहीं होगा तब उस समय भारत की गरीबी 36.10 प्रतिषत हुआ करती थी। एक दषक बाद यह आंकड़ा 26.10 प्रतिषत हो गया। तत्पष्चात् राजनीतिक नोंकझोंक के बीच आंकड़ा 21 प्रतिषत कर दिया गया। गरीबी का 26 से 21 फीसदी होने में जिस तरह से राजनीतिक बयानबाजी हो रही थी उससे ऐसा लग रहा था कि गरीबी दूर करना एक आर्थिक नहीं बल्कि राजनीतिक समस्या है। कोई राजनेता एक थाली की कीमत 20 रूपए तो कोई 10 रूपए तो कोई इससे भी कम में पेट भरा जा सकता है पर दलीले दे रहा था। भारत में गरीबी रेखा के नीचे वह नहीं है जिसकी कमाई प्रतिदिन सवा डाॅलर थी। हालांकि विष्व बैंक ने अपनी ताजी रिपोर्ट में अन्तर्राश्ट्रीय गरीबी का पैमाना बढ़ाकर 1.90 डाॅलर प्रतिदिन कर दिया है।
विष्व बैंक के आंकड़े यह इंगित करते हैं कि भारत में गरीबी कम हो रही है। ऐसी बात नहीं है कि गरीबी को लेकर जारी आंकड़े पहली बार दृश्टिगत हुए हैं। जिन्हें इस पर फैसले लेने की षक्ति है वे लेते रहेंगे पर इस बात को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि आंकड़ों के खेल में गरीबों के साथ भी बरसों से अन्याय हुआ है। गरीबी पर भारत द्वारा निर्गत किये गये आंकड़ें तथा इससे जुड़ी चुनौती हमेषा से रही है। विष्व बैंक की रिपोर्ट तो यह भी कहती है कि गरीबी केवल धनाभाव तक का मामला नहीं है बल्कि यह एक मानसिक मनोदषा भी है। रोजमर्रा की जिन्दगी में गरीबी से जूझने वाला व्यक्ति अपने दिमागी कूबत से इतना कमजोर हो जाता है कि उसकी आर्थिक बेहतरी के लिए क्या जरूरी के बारे में ठीक से सोचने-समझने लायक नहीं रहता। ऐसे में एक ओर गरीबी से तार-तार होना तो दूसरी ओर स्वयं में गुंजाइष का आभाव होना इस दुश्चक्र से बाहर निकलने का अवसर उसे नहीं मिलता। विष्व बैंक के अध्यक्ष जिम योंग किम ने कहा है कि हम मानव इतिहास की पहली पीढ़ी है जो कि अति गरीबी को खत्म कर सकते हैं। विष्व भर के देषों को इस बात की समझ बातौर हो चुकी है कि गरीबी कई समस्याओं की जननी है। आर्थिक मन्दी, षेयर बाजार में उथल-पुथल, बेरोजगारी और जलवायु परिवर्तन आदि का बुरा असर गरीबी सुधार पर भी पड़ सकता है। ऐसे में वैष्विक स्तर पर एक सबल प्रयास करने की दरकार है ताकि 2030 तक दुनिया से गरीबी का सफाया करने वाला मिषन कामयाब हो सके।    
गरीबी तभी घटी है जब घटने के कारण मौजूद हुए हैं। विकासषील देषों की मजबूत विकास दर, षिक्षा में व्यापक सुधार, स्वास्थ्य और सामाजिक सुरक्षा पर किये गये निवेष गरीबी घटाव के अटल सत्य रहे हैं। वर्श 1991 के उदारीकरण के बाद से वर्तमान तक भारत समावेषी और सतत् विकास का चक्कर काटते हुए ढाई दषक बिता दिये जिसका नतीजा विष्व बैंक की ताजा रिपोर्ट में देखा जा सकता है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि गरीब देषों में भारत सबसे अमीर देष है। भारत में गरीबी घटने का स्तर तेजी से देखा जा सकता है। भारत में पन्द्रह, चीन में नौ, इंडोनेषिया में एक, पाकिस्तान में एक करोड़ से थोड़े ज्यादा तथा बाकी दुनिया में लगभग साढ़े चार करोड़ गरीबी घटी है। आंकड़ों के लिहाज से भारत की पीठ थपथपाना लाजमी है पर चैकाने वाला सत्य यह है कि 6 जुलाई 2014 को रंगराजन समिति की रिपोर्ट यह साफ करती है कि भारत का हर तीसरा व्यक्ति गरीब है। 2009-10 में 38.20 प्रतिषत आबादी गरीब थी जो 2011-12 में घट कर 29.50 फीसदी पर आकर रह गयी। इसी समिति की रिपोर्ट के मुताबिक कोई षहरी व्यक्ति यदि एक महीने में 1407 रूपए यानि 47 रूपए प्रतिदिन से कम खर्च करता है तो उसे गरीब कहा जाएगा जबकि तेंदुलकर कमेटी के अनुसार यह आंकड़ा प्रतिमाह हजार रूपए यानि 33 रूपए प्रतिदिन का है। ग्रामीण इलाकों में यह आंकड़ा और घट कर 972 यानि 32 रूपए प्रतिदिन रंगराजन कमेटी के अनुसार  जबकि तेंदुलकर कमेटी ने 816 यानि 27 रूपए प्रतिदिन निर्धारित देखी जा सकती है। विडम्बना यह भी है कि गरीबी को लेकर गड़बड़झाला बरसों से होता रहा है। आर्थिक आंकड़ों के मकड़जाल में गरीबी पिसती रही। तेंदुलकर समिति को देखें तो 2011-12 में देष की गरीबी 21.9 फीसदी रह जाती है जबकि रंगराजन कमेटी इसे 29 फीसदी बताती है। आंकड़ों के उतार-चढ़ाव को समझना आसान है पर इसके गणित को समझना कहीं ज्यादा कठिन है। रही बात गरीबों की तो जहां दाल आज की तारीख में 200 रूपए प्रति किलो हो वहां प्रतिदिन की कमाई 47 हो या 87 भूख के अर्थषास्त्र को समझने में षायद अर्थषास्त्री भी नाकाम हो सकते हैं।
परेषान करने वाला यथार्थ यह भी है कि प्रतिवर्श 14 लाख बच्चे पांच वर्श की आयु तक पहुंचने से पूर्व मौत के मुंह में चले जाते हैं। वर्श 2014 की गरीबी पर संयुक्त राश्ट्र की रिपोर्ट का संकेत साफ था कि निर्धनता के मामले में प्रधानमंत्री मोदी के लिए चुनौती औसत से अधिक रहेगी। रिपोर्ट को देखें तो खुले में षौच करने वाले दुनिया के 60 फीसदी लोग भारत में रहते हैं। विष्व में जितनी भी माताओं की मौतें होती हैं उसमें 17 फीसदी हिस्सा भारत में है। प्रधानमंत्री मोदी षौचालय, स्वास्थ्य, स्वच्छता सहित कई ऐसी योजनाओं और परियोजनाओं को पिछले एक वर्श से धरातल पर लाने में कूबत लगाए हुए हैं। आंषिक तौर पर सफलता मिली भी है। यह तो नहीं कह सकते कि समस्याएं जस की तस हैं पर यह जरूर कहा जा सकता है कि गरीब या तो गरीब रहते हैं या और अधिक गरीब हो जाते हैं। हमारे योजनाकारों को अब इस बात पर पूरा बल दे देना चाहिए कि देष को गरीबी से निजात दिला ही दिया जाए। बुनियादी ढांचा खेत भी हैं और कम्पनी भी, जीवन षहरी भी है और ग्रामीण भी और देष सहित दुनिया में अमीर भी हैं और गरीब भी। इनके बीच इस कदर सेतु बनाने की आवष्यकता है कि कसर की गुंजाइष न रहे। यह देष की आज सबसे बड़ी अच्छी सम्भावना के रूप में देखा जाना चाहिए। भारत वैष्विक कल्याण के लिए जो कदम उठाना चाहता है उसके लिए मन बना सकता है पर ध्यान रहे कि देष की गरीबी से बिना निपटे यह काज अधूरा ही रहेगा।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2710900, मो0: 9456120502



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