Sunday, October 18, 2015

अनुच्छेद ३७० पर नई बहस


 भारतीय संविधान में निहित अनुच्छेद 370 ऐसा प्रावधान है जो जम्मू-कश्मीर को अन्य राज्यों से भिन्नता प्रदान करता है जिस पर बरसों से बहस और विमर्ष की खपत हुई है। जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय का अनुच्छेद 370 के मामले में यह कहा जाना कि इसे न तो संशोधित  किया जा सकता है, न हटाया जा सकता है और न ही रद्द किया जा सकता है। इससे न केवल अनुच्छेद 370 के मामले में न्यायालय की राय का पता चलता है बल्कि उन लोगों के लिए भी एक संकेत है जो बरसों से इसे हटाने के पक्षधर रहे हैं पर सवाल है कि क्या न्यायालय के इस कदम से इस धारा को लेकर छिड़ी बहस विराम लेगी या फिर विमर्श और गहरे होंगे। जम्मू-कश्मीर भारतीय संघ का वैसे ही अभिन्न अंग है जैसे कि अन्य राज्य। यहां के प्रत्येक निवासी भारत के नागरिक हैं और वे भी वैसे ही अधिकार रखते हैं जैसे कि भारतीय नागरिकों को हैं। कुछ का मानना है कि जम्मू-कश्मीर के साथ भारत का सम्बंध अनुच्छेद 370 ही निर्धारित करता है पर यह पूरा सच नहीं है। जिस प्रकार अन्य राज्यों के साथ भारत का सम्बन्ध है उसी भांति जम्मू-कश्मीर से भी सम्बन्ध है। यहां यह समझना जरूरी है कि भारतीय संविधान में जम्मू-कश्मीर राज्य को विशेष दर्जा प्राप्त है और यह संविधान की पहली अनुसूची में पन्द्रहवां राज्य है। हालांकि संविधान के भाग 6 में अनुच्छेद 152 के तहत राज्य में जम्मू-कश्मीर शामिल नहीं है। इसका तात्पर्य है कि राज्यों के संविधान में वर्णित उपबन्ध जम्मू-कश्मीर में लागू नहीं होंगे। यहां के लिए संविधान के अनुच्छेद 370 के अधीन कुछ विशेष उपबन्ध किये गये हैं जो कि ऐतिहासिक कारणों के चलते हैं।
 असल में अनुच्छेद 370 के संवैधानिक परिप्रेक्ष्य और न्यायिक दृष्टिकोण का मतलब जब तक ठीक से न समझा जाए इसकी संवेदनशीलता को उभारना कठिन है। जब जम्मू-कश्मीर अधिमिलन पत्र पर हस्ताक्षर की राह पर आ गया तब भारत सरकार ने यह घोषणा की थी कि राज्य के लोगों को अपने संविधान का निर्माण करने और उसका स्वरूप तय करने की छूट दी जाएगी तत्पश्चात तत्कालीन महाराजा हरि सिंह ने अखिल जम्मू-कश्मीर नेशनल कांफ्रेंस के शेख अब्दुल्ला को पहला प्रधानमंत्री नियुक्त किया और संविधान निर्मात्री सभा के गठन की घोषणा भी की गयी जिसमें प्रति 40 हजार की जनसंख्या पर कुल 75 प्रतिनिधि निर्वाचित हुए। राज्य के लिए पृथक संविधान सभा के गठन को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 में मान्यता दी गयी। यहां के संविधान के निर्माण और भारत के साथ सम्बन्धों के निर्धारण हेतु राज्य की जनता द्वारा प्रभुत्वसम्पन्न संविधान का निर्वाचन किया गया और संविधान सभा ने राज्य के संविधान को नवम्बर, 1956 को स्वीकार किया और 26 जनवरी, 1957 को यह लागू हो गया जबकि इसके एक दिन पूर्व संविधान सभा विघटित कर दी गयी थी। अनुच्छेद 370 में जम्मू-कश्मीर राज्य के लिए विशेष अस्थाई उपबन्ध किये गये जिसे समाप्त करने की मांग भी दशकों से होती रही है। हालांकि इसे हटाने का उपबन्ध भी अनुच्छेद 370(3) में निहित किया गया है। इसके अनुसार राष्ट्रपति लोक अधिसूचना द्वारा घोषणा कर सकते हैं कि यह अनुच्छेद प्रवर्तन में नहीं रहेगा परन्तु इसके पूर्व राज्य की संविधान सभा की सिफारिश आवश्यक है परन्तु यह सभा 25 जनवरी, 1957 से ही भंग है। जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय ने कहा कि संविधान सभा ने भंग किये जाने से पहले ऐसी कोई अनुसंशा नहीं की थी। परिणामस्वरूप यह अनुच्छेद अस्थाई उपबन्ध वाले शीर्षक के तहत उल्लेखित होने के बावजूद एक स्थाई प्रावधान हैं। इतना ही नहीं अदालत ने तो यह भी कहा कि अनुच्छेद 368 जो कि संविधान संशोधन से सम्बन्धित है वह भी इस मामले में अमल में नहीं लाया जा सकता। सवाल है कि संवैधानिक और न्यायिक व्याख्या में अनुच्छेद 370 की असल पहचान अब क्या है? क्या संविधान के शब्दों में अस्थाई उपबन्ध या फिर न्यायालय के नजरिए से स्थाई उपबन्ध।
 विवेचित पक्ष यह भी है कि 1957 से राज्य की संविधान सभा जब विघटित है तो सिफारिश करने वाली विधिक बाध्यता कैसे प्रभावी रह सकती है। दूसरी दृष्टि से अब इसे निष्प्रभावी माना जा सकता है। ऐसे में राष्ट्रपति मात्र लोक अधिसूचना द्वारा ही अनु0 370 को समाप्त कर सकते हैं परन्तु न्यायालय के ताजा कथन से यह स्पष्ट है कि अब मामला न्यायिक परिधि में आ चुका है। सवाल तो यह भी है कि इस अनुच्छेद को उस दौर में आखिर जोड़ने की जरूरत ही क्यों पड़ी? दरअसल गोपालास्वामी आयंगर ने जब इस अनुच्छेद को प्रस्तुत किया तो केवल हसरत मोहानी ने इसकी आवश्यकता पर सवाल उठाया था। तब आयंगर ने कहा था कि जम्मू-कश्मीर में युद्ध जैसी स्थिति है, कुछ पर आक्रमणकारियों का कब्जा है साथ ही संयुक्त रष्ट्र संघ में हम उलझे हैं फैसला आना बाकी है। ऐसे में अस्थाई प्रावधान किया जा रहा है। किसी ने इस पर चर्चा करने की जरूरत तक नहीं समझी क्योंकि सभी की सोच थी कि यह स्थाई प्रावधान नहीं है और इसको समाप्त करने की प्रक्रिया भी उसी अनुच्छेद में जोड़ दी गयी। समय की मजबूरी और सरल अंदाज में निर्मित अनुच्छेद 370 को हटाना इतना कठोर काज होगा यह षायद किसी ने नहीं सोचा। अब हाल यह है कि अनुच्छेद 370 समाप्त करने का विचार मात्र ही बड़ी समस्या को न्योता देने जैसा है तो इसे जब समाप्त किया जायेगा तब क्या स्थिति बनेगी कहना निहायत कठिन है।
 दशकों पुराने यदि किसी अनुच्छेद का आज की तारीख में मूल्यांकन किया जाना हो तो दो बातें जरूरी हैं पहला संविधानविदों ने अनुच्छेद विशेष को क्यों जोड़ा, दूसरा क्या उसके होने से उद्देश्य सफल हुए। भारत राज्यों का संघ है इसे कायम रखने के लिए कुछ कांटों भरे रास्तों से गुजरना पड़ सकता है। प्रश्न है कि क्या अनु0 370 संघीय ढांचे को मजबूती प्रदान करता है? जम्मू-कश्मीर को क्यों अन्य राज्यों से भिन्न रखा जाए? क्यों न पहली अनुसूची में शामिल इस पन्द्रहवें राज्य को भारतीय संविधान के भाग 6 के अनुच्छेद 152 के तहत गणना की जाए। जैसा कि इसके पीछे कुछ व्यावहारिक दिक्कतें थीं इसलिए इसे इस हाल में रखा गया। यहां साफ कर दें कि न्यायालय के मन्तव्य पर मेरा कोई सवाल नहीं है और न ही इस पर कोई पछतावा है पर सियासत के गलियारे में इसको लेकर जो उफान आता रहा है उसे देखते हुए यह बात यहीं खत्म होती नहीं दिखाई देती। प्रधानमंत्री मोदी 370 पर बहस का आह्वान कर चुके हैं। इस पर छिड़ी जंग आर-पार हो चुकी है। इसके पूर्व अटल बिहारी वाजपाई के कार्यकाल में भी इस पर चर्चा का बाजार गर्म था। हालांकि हुआ कुछ नहीं। पीएमओ में राज्य मंत्री जितेन्द्र सिंह ने असहमत लोगों को मनाने की बात कह चुके हैं। उमर अब्दुल्ला का कहना है कि बिना संविधान सभा को आहूत किये अनुच्छेद नहीं हटा सकते। राश्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इसे हटाने की पक्षधर है पर जो सियासतदान जम्मू-कश्मीर को अपनी पैतृक सम्पत्ति समझते हैं वे तो हल्ला करेंगे ही। राज्य के स्थानीय नेता से लेकर केन्द्र के विरोधी तक की टिप्पणी इस मामले में तल्ख रही है। सवाल तो यह भी है कि क्या अनु0 370 राज्य का विकास है या रोड़ा? देखा जाए तो इस अनुच्छेद के मामले में अधिकतर की राय न हटाने वाली है पर क्या यह सोचने वाली बात नहीं कि एक अस्थाई कानून बिना किसी विशेष कोशिश के पत्थर की लकीर बन गया है।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक, रिसर्च फाउंडेशन ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
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