कहावत है कि मन भर ज्ञान से कण भर आचरण श्रेश्ठ होता है पर जो आचरण इन दिनों राजनीतिज्ञ प्रदर्षित कर रहे हैं उसे किस श्रेणी में रखा जाए इसे सुनिष्चित करना निहायत कठिन है। बात बिहार से षुरू की जाए तो पायेंगे कि यहां की धरती पिछले कुछ दिनों से चुनावी गर्मी से तप रही है और नेता आग उगलने के काम में बाकायदा लगे हैं। निजी राजनीति को साधने के चलते लोकमत को भुनाने के चक्कर में लोकतंत्र को ही तार-तार किया जा रहा है। जिस प्रकार बिहार की जमीन पर उत्तर प्रदेष के दादरी के बिसाहड़ा गांव की पटकथा को उतारने का प्रयास किया गया वह न केवल हैरान करने वाला है बल्कि रोचक भी है। रोचक इसलिए कि कुछ सियासतदान लफ्बाजी करके उत्तर प्रदेष की बिगड़ी और कमजोर सियासत से बिहार जीतने के सपने बुन रहे हैं जबकि हैरत इस बात की है कि विकास और सुषासन की राह पर चलने वाले नीतीष जैसे नेता अब साम्प्रदायिक और तंज भाशाओं से चुनावी रास्ता अख्तियार करना चाहते हैं। बिहार का चुनाव हमेषा से देष भर का ध्यान खींचने वाला रहा है पर इस बार मामला इससे भी ऊपर चला गया है। पूरब और पष्चिम तथा उत्तर और दक्षिण की राजनीति का अब की बार यहां खूब घालमेल भी देखा जा सकता है जिन सियासतदानों का कभी बिहार में कदम नहीं पड़ा अब वे भी यहां सत्ता हथियाने के फिराक में बद्जुबानी कर रहे हैं। स्थानीय बिहारी नेताओं का भी कमोबेष हाल कम खराब नहीं है। देखा जाए तो सफेद कमीज वालों की जहरीली जुबान की सूची दिनों दिन लम्बी होती जा रही है।
गाय और गौमांस को लेकर जो सियासत इन दिनों देखने को मिली उससे साफ है कि रास्ता कोई भी हो पर चुनावी समर अपनी ओर हो। दषकों तक बिहार के मुख्यमंत्री रहे लालू प्रसाद अब पवेलियन में बैठकर तमाषबीन हैं मगर पिच पर कौन क्या करेगा इस पर पूरी कूबत झोंके हुए है। सियासत के बडे़ खिलाड़ी माने जाने वाले लालू प्रसाद मुस्लिम और यादव वोटों के चलते अक्सर राजनीति में उत्तीर्ण होते रहे हैं पर इस बार ओवैसी के कूदने से मुस्लिम वोट बैंक में सेंध लगने का डर भी है। बिहार में ओवैसी फैक्टर का कभी आगाज होगा यह षायद किसी ने नहीं सोचा। यह सच है कि जातिगत राजनीति के परे बिहार कभी नहीं था। धर्म और सम्प्रदाय के नाम पर यहां वोटों का बंटवारा भी खूब हुआ है। बावजूद इसके पिछले एक दषक से बिहार की छवि में बड़ा परिवर्तन आने लगा था। नीतीष ने भाजपा के साथ मिलकर सत्ता की जो सवारी की उससे काफी हद तक बिहार सरपट दौड़ा भी था पर दूसरी पारी के आखिरी छोर पर सारे किये धरे पर पानी फेर गए। धुर विरोधी लालू के साथ न केवल मंच साझा किया बल्कि चुनाव में भी साथी बने हुए हैं। इस सच से परे कि जिस बिहार को विकास और सुषासन की राह पर हांकने की वकालत वे करते थे अब वही नीतीष जातिगत गुणा-भाग में एक बार फिर उलझ गये। रही बात आरोप-प्रत्यारोप की तो जुबान के कसैलेपन से वे भी नहीं बचे हैं।
मीडिया के मिले रूझानों से जनमत एनडीए की ओर झुकता दिख रहा है पर परिणाम आने तक कुछ नहीं कहा जा सकता। बिहार के इस बार वाले चुनाव में सतरंगी राजनीति देखने को मिल रही है। कुछ तो बेमेल जोड़ वाले हैं तो कुछ जुड़कर भी अलग-थलग हैं और कुछ ओवैसी जैसे बिहार को न समझने वाले नेता भी हैं जो या तो वोटकटवा हैं या जहर की खेती करने वाले हैं। ओवैसी की पार्टी की जड़ हैदराबाद में है। हालांकि पिछले महाराश्ट्र के विधानसभा चुनाव में दो सीट हथियाने में कामयाब रहे वाया महाराश्ट्र अब बिहार के सीमांचल इलाके में मुस्लिम मतदाताओं को भड़का कर लोकमत की फिराक में है। इसी के चलते ओवैसी बन्धुओं द्वारा ऐसे बोल बोले जा रहें हैं जिससे सियासत षर्मसार हो रही है और लोकतंत्र का सरे आम चीरहरण हो रहा है। अकबरूद्दीन ओवैसी एआईएमआईएम का छोटा नेता है मगर जहर उगलने में सबसे आगे है। जिस कदर इनकी बोली है उसे सुनना निहायत हैरत भरा है। प्रधानमंत्री मोदी पर जिस प्रकार का आपत्तिजनक बयान किषनगंज में अकबरूद्दीन ओवैसी द्वारा दिया गया वह किसी अपराध से कम नहीं प्रतीत होता। इतना ही नहीं हिन्दू और मुस्लिम के बीच का अन्तर भी जिस कदर ये करते हैं उसे सुन कर सभ्य समाज सन्न रह जाता है। अकबरूद्दीन के ऐसे कारनामे बिना रोकथाम के जारी हैं। इसके पूर्व जनवरी 2013 में अपने भाशणों के जरिये साम्प्रदायिक तनाव फैलाने और राश्ट्र के खिलाफ युद्ध के लिए उकसाने हेतु न्यायिक हिरासत में भी इन्हें लिया जा चुका है। तब इन्होंने कहा था कि सौ करोड़ हिन्दू और हम 25 करोड़ मुसलमान हैं 15 मिनट पुलिस हटाकर देखो पता चल जाएगा कि किसमें कितनी ताकत है। सवाल है कि क्या लोकतंत्र में मर्यादाओं की कोई आचार संहिता हो सकती है? क्या ऐसा कोई बंदोबस्त किया जा सकता है जिससे कि इस प्रकार की राय रखने वालों का राजनीति निकाला हो सके? ओवैसी बन्धु मुख्यतः अकबरूद्दीन ओवैसी जैसों को क्या भारतीय लोकतंत्र में कोई स्थान बनता है। निर्वाचन आयोग जैसी संस्था को इस पर गम्भीरता से विचार करना चाहिए। हालांकि किषनगंज में दिए गये भाशण को लेकर भी इनकी गिरफ्तारी के आदेष दिये जा चुके हैं।
बद्जुबानी की सूची लम्बी है इसी क्रम में उत्तर प्रदेष के कैबिनेट मंत्री आजम खां भी आते हैं। इनके बोल में भी साम्प्रदायिक चाषनी घुली रहती है। बिसाहड़ा की घटना को लेकर संयुक्त राश्ट्र में जाने की धमकी इनकी इन दिनों की बड़ी करतूत है। अपनी ही सरकार की फेल कानून व्यवस्था पर मेहनत करने के बजाय भड़काऊ बात कह कर मुसलमानों के नेता बनने की गलतफहमी के साथ अपनी कमीज ज्यादा सफेद बताने पर भी तुले हैं। अगले चरण में लालू प्रसाद, नीतीष कुमार, सुषील मोदी और गिरिराज किषोर सहित कई नेताओं को सूचीबद्ध किया जा सकता है। एक बात तो यह भी सही है कि इस बार बिहार की सियासत ने कई राजनेताओं को बद्जुबान बनाने का भी काम किया है। गुरूवार को प्रधानमंत्री मोदी ने बिहार में तीन रैलियां की। बेगुसराय में उन्होंने जंगलराज बनाम विकासराज की बात के साथ ही षैतान षब्द का भी प्रयोग किया। सवाल है कि षब्दों के चयन में हर कोई त्रुटि क्यों कर रहा है? लालू प्रसाद ने पलटवार करते हुए इस षब्द को पिछड़े और दलितों से जोड़ने में कोई देर नहीं की और मोदी को माफी मांगने के लिए कहा। प्रधानमंत्री मोदी द्वारा बिहार को पूर्ववत् में दिया गया आर्थिक पैकेज भी चुनावी रंग में रंगा आलोचना झेल रहा है। दो टूक यह भी है कि वर्श 2014 के लोकसभा चुनाव में विकास और सुषासन की जोर की हवा बही थी और मोदी उसके बड़े नतीजे हैं। ऐसे में नीतीष कुमार के लिए सुषासन और विकास का मार्ग फायदे का सिद्ध हो सकता था क्योंकि जाति और सम्प्रदाय की राजनीति से जनतंत्र ऊब चुका है। इस मामले में आरोप-प्रत्यारोप कितने भी सुकून देने वाले क्यों न हो पर यह सच है कि वोट के मामले में यह यंत्र फेल हो चुका है। आर्थिक पैकेज यह संकेत करता है कि मोदी बिहार की लड़ाई को विकास पर ही जीतना चाहते हैं पर जहर उगलने वाले और साम्प्रदायिक रंग देने वालों के गले यह बात उतरेगी नहीं।
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2710900, मो0: 9456120502
गाय और गौमांस को लेकर जो सियासत इन दिनों देखने को मिली उससे साफ है कि रास्ता कोई भी हो पर चुनावी समर अपनी ओर हो। दषकों तक बिहार के मुख्यमंत्री रहे लालू प्रसाद अब पवेलियन में बैठकर तमाषबीन हैं मगर पिच पर कौन क्या करेगा इस पर पूरी कूबत झोंके हुए है। सियासत के बडे़ खिलाड़ी माने जाने वाले लालू प्रसाद मुस्लिम और यादव वोटों के चलते अक्सर राजनीति में उत्तीर्ण होते रहे हैं पर इस बार ओवैसी के कूदने से मुस्लिम वोट बैंक में सेंध लगने का डर भी है। बिहार में ओवैसी फैक्टर का कभी आगाज होगा यह षायद किसी ने नहीं सोचा। यह सच है कि जातिगत राजनीति के परे बिहार कभी नहीं था। धर्म और सम्प्रदाय के नाम पर यहां वोटों का बंटवारा भी खूब हुआ है। बावजूद इसके पिछले एक दषक से बिहार की छवि में बड़ा परिवर्तन आने लगा था। नीतीष ने भाजपा के साथ मिलकर सत्ता की जो सवारी की उससे काफी हद तक बिहार सरपट दौड़ा भी था पर दूसरी पारी के आखिरी छोर पर सारे किये धरे पर पानी फेर गए। धुर विरोधी लालू के साथ न केवल मंच साझा किया बल्कि चुनाव में भी साथी बने हुए हैं। इस सच से परे कि जिस बिहार को विकास और सुषासन की राह पर हांकने की वकालत वे करते थे अब वही नीतीष जातिगत गुणा-भाग में एक बार फिर उलझ गये। रही बात आरोप-प्रत्यारोप की तो जुबान के कसैलेपन से वे भी नहीं बचे हैं।
मीडिया के मिले रूझानों से जनमत एनडीए की ओर झुकता दिख रहा है पर परिणाम आने तक कुछ नहीं कहा जा सकता। बिहार के इस बार वाले चुनाव में सतरंगी राजनीति देखने को मिल रही है। कुछ तो बेमेल जोड़ वाले हैं तो कुछ जुड़कर भी अलग-थलग हैं और कुछ ओवैसी जैसे बिहार को न समझने वाले नेता भी हैं जो या तो वोटकटवा हैं या जहर की खेती करने वाले हैं। ओवैसी की पार्टी की जड़ हैदराबाद में है। हालांकि पिछले महाराश्ट्र के विधानसभा चुनाव में दो सीट हथियाने में कामयाब रहे वाया महाराश्ट्र अब बिहार के सीमांचल इलाके में मुस्लिम मतदाताओं को भड़का कर लोकमत की फिराक में है। इसी के चलते ओवैसी बन्धुओं द्वारा ऐसे बोल बोले जा रहें हैं जिससे सियासत षर्मसार हो रही है और लोकतंत्र का सरे आम चीरहरण हो रहा है। अकबरूद्दीन ओवैसी एआईएमआईएम का छोटा नेता है मगर जहर उगलने में सबसे आगे है। जिस कदर इनकी बोली है उसे सुनना निहायत हैरत भरा है। प्रधानमंत्री मोदी पर जिस प्रकार का आपत्तिजनक बयान किषनगंज में अकबरूद्दीन ओवैसी द्वारा दिया गया वह किसी अपराध से कम नहीं प्रतीत होता। इतना ही नहीं हिन्दू और मुस्लिम के बीच का अन्तर भी जिस कदर ये करते हैं उसे सुन कर सभ्य समाज सन्न रह जाता है। अकबरूद्दीन के ऐसे कारनामे बिना रोकथाम के जारी हैं। इसके पूर्व जनवरी 2013 में अपने भाशणों के जरिये साम्प्रदायिक तनाव फैलाने और राश्ट्र के खिलाफ युद्ध के लिए उकसाने हेतु न्यायिक हिरासत में भी इन्हें लिया जा चुका है। तब इन्होंने कहा था कि सौ करोड़ हिन्दू और हम 25 करोड़ मुसलमान हैं 15 मिनट पुलिस हटाकर देखो पता चल जाएगा कि किसमें कितनी ताकत है। सवाल है कि क्या लोकतंत्र में मर्यादाओं की कोई आचार संहिता हो सकती है? क्या ऐसा कोई बंदोबस्त किया जा सकता है जिससे कि इस प्रकार की राय रखने वालों का राजनीति निकाला हो सके? ओवैसी बन्धु मुख्यतः अकबरूद्दीन ओवैसी जैसों को क्या भारतीय लोकतंत्र में कोई स्थान बनता है। निर्वाचन आयोग जैसी संस्था को इस पर गम्भीरता से विचार करना चाहिए। हालांकि किषनगंज में दिए गये भाशण को लेकर भी इनकी गिरफ्तारी के आदेष दिये जा चुके हैं।
बद्जुबानी की सूची लम्बी है इसी क्रम में उत्तर प्रदेष के कैबिनेट मंत्री आजम खां भी आते हैं। इनके बोल में भी साम्प्रदायिक चाषनी घुली रहती है। बिसाहड़ा की घटना को लेकर संयुक्त राश्ट्र में जाने की धमकी इनकी इन दिनों की बड़ी करतूत है। अपनी ही सरकार की फेल कानून व्यवस्था पर मेहनत करने के बजाय भड़काऊ बात कह कर मुसलमानों के नेता बनने की गलतफहमी के साथ अपनी कमीज ज्यादा सफेद बताने पर भी तुले हैं। अगले चरण में लालू प्रसाद, नीतीष कुमार, सुषील मोदी और गिरिराज किषोर सहित कई नेताओं को सूचीबद्ध किया जा सकता है। एक बात तो यह भी सही है कि इस बार बिहार की सियासत ने कई राजनेताओं को बद्जुबान बनाने का भी काम किया है। गुरूवार को प्रधानमंत्री मोदी ने बिहार में तीन रैलियां की। बेगुसराय में उन्होंने जंगलराज बनाम विकासराज की बात के साथ ही षैतान षब्द का भी प्रयोग किया। सवाल है कि षब्दों के चयन में हर कोई त्रुटि क्यों कर रहा है? लालू प्रसाद ने पलटवार करते हुए इस षब्द को पिछड़े और दलितों से जोड़ने में कोई देर नहीं की और मोदी को माफी मांगने के लिए कहा। प्रधानमंत्री मोदी द्वारा बिहार को पूर्ववत् में दिया गया आर्थिक पैकेज भी चुनावी रंग में रंगा आलोचना झेल रहा है। दो टूक यह भी है कि वर्श 2014 के लोकसभा चुनाव में विकास और सुषासन की जोर की हवा बही थी और मोदी उसके बड़े नतीजे हैं। ऐसे में नीतीष कुमार के लिए सुषासन और विकास का मार्ग फायदे का सिद्ध हो सकता था क्योंकि जाति और सम्प्रदाय की राजनीति से जनतंत्र ऊब चुका है। इस मामले में आरोप-प्रत्यारोप कितने भी सुकून देने वाले क्यों न हो पर यह सच है कि वोट के मामले में यह यंत्र फेल हो चुका है। आर्थिक पैकेज यह संकेत करता है कि मोदी बिहार की लड़ाई को विकास पर ही जीतना चाहते हैं पर जहर उगलने वाले और साम्प्रदायिक रंग देने वालों के गले यह बात उतरेगी नहीं।
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
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फोन: 0135-2710900, मो0: 9456120502
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