Friday, October 30, 2015

जनसंवाद की ज़रूरत

भारतीय प्रजातंत्र के पिछले तीन दशकों के इतिहास में पहली बार पूर्ण बहुमत और सम्पूर्ण शक्ति के साथ केन्द्र की सरकार चल रही है। देश इतने ही समय से नई-नई नीतियों और कार्यक्रमों का रसपान भी कर रहा है। जिस तर्ज पर सरकार की कार्यप्रणाली है वह असंतोषजनक तो नहीं पर मूल्य निरपेक्ष भी है पूरी तरह कहना मुश्किल है। 3 अक्टूबर, 2014 से प्रधानमंत्री मोदी ‘मन की बात‘ कर रहे हैं जिसे लेकर कभी-कभार विरोधियों को भी असुविधा हो जाती है। दरअसल ‘मन की बात‘ कार्यक्रम मोदी खोज का परिणाम है जो धीरे-धीरे व्यापक पैमाने पर प्रसार ले चुका है। अलग-अलग मुद्दे पर यह लोकप्रियता भी बटोर चुका है पर खटकने वाली बात यह है कि रेडियो के माध्यम से सम्बोधन करने वाले प्रधानमंत्री प्रत्यक्ष तौर पर मीडिया और जनता के सामने अभी तक षायद ही आये हों और न ही खुली प्रेस वार्ता कर मीडियाकर्मियों को सवाल पूछने का अवसर दिया हो। हालांकि अमेरिकी राश्ट्रपति ओबामा के साथ बीते जनवरी में संयुक्त रूप से प्रेस के सामने थे। परिप्रेक्ष्य यह भी है कि मोदी जमीनी नेता वाली चाहत रखते हैं साथ ही जन सरोकार और जन संवाद के मामले में भी उम्दा बने रहना चाहते हैं। इसके अलावा नई पद्धति में विष्वास करने वाले मोदी जन अपेक्षाओं पर खरा उतरना चाहते हैं। ये तमाम पहलू मोदी को कहीं अधिक प्रजातांत्रिक बनाने हेतु कारगर तो हैं पर थोड़े अमूल-चूल परिवर्तन की जरूरत भी है। ऐसे में मन के साथ जन की बात का भी परस्पर होना अधिक तर्कसंगत होगा जिसमें एक तो अपने मन की बात कहने की, दूसरे जन की बात सुनने की। अब सवाल उठता है कि जन सरोकार को मजबूती से जकड़ने वाले मोदी जन संवाद करने में आतुरता क्यों नहीं दिखाते? यदि दो तरफा संवाद की अवधारणा का विकास होता है तो यह देष में नई परम्परा भी होगी और जनता का प्रधानमंत्री जन नायक की भूमिका में भी होगा जिसमें मीडिया की कारगर भूमिका हो सकती है।
असल में मीडिया सरकार का नहीं वरन् जनता का प्रहरी है जिसकी जिम्मेदारी सरकार और जनता के बीच संवाद स्थापित करना है, सरकार जो करती है या जो नहीं करती है उसे सामने लाना है। इतना ही नहीं रचनात्मक कोताही बरतने की स्थिति में विपक्षियों को भी कत्र्तव्य निर्वहन का एहसास कराना है। मीडिया के मारक हथियार जनहित में उठाए गये सार्थक प्रष्न होते हैं। इसके लिए प्रेस कांफ्रेंस सहित कई अवसरों को देखा जा सकता है। प्रजातंत्र में चुनी गयी सरकार का कत्र्तव्य है कि जनता के हितों को सुनिष्चित करने के लिए न केवल संतुलित कदम उठाए बल्कि समय-समय पर काम का हिसाब भी दे। ‘मन की बात‘ में कई सकारात्मक पक्ष देखे जा सकते हैं बावजूद इसके जनता से सीधे संवाद का आभाव काफी हद तक बना रहता है। हालांकि वीडियो कांफ्रेंसिंग के माध्यम से प्रधानमंत्री ने एक-दो अवसर पर दो तरफा संवाद भी स्थापित किये हैं और पत्रों के माध्यम से भी सवाल-जवाब लिए-दिए गये हैं। ‘मन की बात‘ का प्रसारण जब पहली बार हुआ तो यह अंदाजा लगाना कठिन था कि इसके कितने सकारात्मक नतीजे होंगे। इसके चलते न केवल रेडियो की प्रासंगिकता बढ़ी बल्कि देष को एक नया विमर्ष भी देखने को मिला। पहली बार के प्रसारण में कोई निर्धारित विशय तो नहीं था पर जिस भांति देष के लोगों में सुनने की उत्सुकता थी उसे लेकर कहना सहज है कि एक नई परम्परा की प्रारम्भिकी हो चुकी थी। दूसरी बार इसका प्रसारण 2 नवम्बर, 2014 को हुआ था जिसमें काला धन, स्वच्छता अभियान आदि विशय इसके केन्द्र बिन्दु थे। बीते गणतंत्र दिवस पर मुख्य अतिथि रहे अमेरिकी राश्ट्रपति बराक ओबामा के साथ 27 जनवरी को चैथी बार मोदी ने ‘मन की बात‘ के अन्तर्गत जनता के पत्रों का रेडियो के माध्यम से उत्तर दिया। कभी युवाओं, कभी परीक्षा में छात्रों का उत्साहवर्धन करते हुए तो कभी बेटी बचाओ जैसे सामाजिक सरोकारों वाले मुद्दे पर यह प्रसारण नियमित रूप लिये हुए है। अब तक तेरह बार के साथ यह सिलसिला प्रति माह की दर से निरन्तरता लिए हुए है।
किसी भी प्रधानमंत्री का इस प्रकार का सम्बोधन देष में पहले कभी नहीं हुआ था पर रोचक तथ्य यह है कि ऐसे सम्बोधन अब तक कितने असरदार सिद्ध हुए हैं? देष के दूरस्थ क्षेत्रों में रहने वाले नागरिकों को प्रधानमंत्री ने अपनी बात पहुंचा कर उन्हें उत्प्रेरित करने का काम तो किया ही साथ ही जो सरकार और सत्ता से कटे हैं, जो वन और बियावान में हैं और जो आज भी आधुनिक तकनीक से अछूते हैं उन तक भी पहुंच बनाई है। बीते 25 अक्टूबर को उनकी ‘मन की बात‘ का तेरहवां संस्करण था जिसमें उन्होंने छोटी नौकरियों से साक्षात्कार समाप्त करने सहित कई बातें की गई थी। ऊंचे मंचों के उम्दा प्रवक्ता प्रधानमंत्री मोदी व्यक्तिगत तौर पर न तो कोई प्रेस कांफ्रेंस और न ही अबतक सीधे जनता से जुड़ने का कोई कार्यक्रम ही बना पाये हैं। हालांकि वे अलग-अलग समूहों में पत्रकारों से जरूर मिले हैं। केन्द्र सरकार के एक साल के पूरे होने के मौके पर सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने इस प्रकार के आयोजन का प्रस्ताव दिया था। वित्त मंत्री अरूण जेटली बजट के बाद सीधे लोगों से जुड़ चुके हैं और सवाल-जवाब भी हुए हैं। जिस प्रकार कुछ पष्चिमी देषों में चुनाव सहित अन्य अवसरों पर खुली बहस होती है उसी तर्ज पर भारत में भी सरकार की ओर से किये गये कार्यों पर बहस हो तो प्रजातंत्र कहीं और अधिक षक्तिषाली हो सकता है जिसमें कभी-कभार प्रधानमंत्री भी षामिल हों। यदि प्रधानमंत्री को ध्यान में रखकर निर्धारित रूपरेखा के तहत समय और प्रष्न की सीमा के अन्तर्गत ‘टाॅक षो‘ आयोजित किया जाए तो सरकार की कार्यप्रणाली को न केवल बल मिलेगा बल्कि जन विष्वास भी बढ़ेगा साथ ही सरकार अपनी उपलब्धियों और खामियों को सीधे जनता से जोड़कर उनकी संवेदनषीलता, प्रभावषीलता और सहानुभूति को भी प्राप्त कर सकती है। मोदी जिस विचार और कद के हैं उसे देखते हुए ऐसी उम्मीद करना बेमानी नहीं है।
मीडिया जनमत को प्रभावित करता है नीतियों के पक्ष या विपक्ष में जनमत के निर्माण में प्रभावषाली भूमिका निभाता है। न केवल स्वतंत्र राय देता है बल्कि जरूरी नीति के लिए सुझाव भी देता है। इतना ही नहीं विभिन्न पक्षों का वस्तुनिश्ठ विष्लेशण करके जनपक्षधर नीति के लिए दबाव बनाने का काम भी करता है। मीडिया जहां सरकार की गलत नीतियों की खिंचाई करता है वहीं जनता की आवाज बन कर उनके दुख-दर्द को भी सरकार से साझा करता है। वर्तमान में यह एक ऐसा मंच है जो स्वयं षक्तिषाली होते हुए दूसरों की दुबर्लताओं की चिंता करता है। विवेचना, विष्लेशण व विषदीकरण में मीडिया उस पथिक की भांति है जो लक्ष्य की प्राप्ति में अनवरत् रहता है। सरकार, मीडिया और समाज एक ही चिंता से जकड़े हुए तीन अलग-अलग रूप हैं। जनता की सरकार की सदैव यह भावना रही है कि जनहित को सुनिष्चित करने में कूबत झोंकी जाए। प्रधानमंत्री मोदी के मन की बात इस सोच से परे नहीं है पर यह एक कड़वी सच्चाई है कि ‘जन की बात‘ पूरी तरह उन तक नहीं पहुंच रही है।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2710900, मो0: 9456120502




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