Wednesday, October 14, 2015

समान नागरिक संहिता आखिर कब !

समान नागरिक संहिता एक ऐसा कानून जो देश के समस्त नागरिकों पर लागू होता है और किसी भी धर्म या जाति के सभी निजी कानूनों से ऊपर होता है। इसकी आवश्यकता पर संविधान सभा में प्रस्ताव प्रस्तुत किया गया था और उन दिनों इस पर काफी बहस भी हुई थी साथ ही संविधान सभा भी इसके पक्ष में थी बावजूद इसके सरकारें आती-जाती रहीं, चर्चा और विमर्श होते रहें पर रवैया गैर संवेदनशील बना रहा। उच्चतम न्यायालय ने एक बार फिर समान नागरिक संहिता के बनाये जाने पर जोर दिया है। सरकार से पूछा है कि वे इस दिशा में आगे क्यों नहीं बढ़ रहे हैं। यह ताजा टिप्पणी उच्चतम न्यायालय से तब सुनने को मिली जब इसाई समुदाय के दम्पत्तियों को आपसी सहमति से तलाक लेने हेतु अन्य समुदायों के मुकाबले एक वर्ष अधिक प्रतीक्षा करने वाले प्रावधान को चुनौती दी गयी। सरकार को अपना पक्ष रखने के लिए तीन महीने का और समय दिया गया पर इस बात का संदेह है कि सरकार समान नागरिक संहिता के मामले में अपनी प्रतिबद्धता दिखा पायेगी। भारतीय संविधान के भाग 4 के अनुच्छेद 44 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि ‘राज्य’ भारत के समस्त राज्य क्षेत्र में एक समान सिविल संहिता प्राप्त कराने का प्रयास करेगा। संविधानविदों द्वारा न केवल इसकी आवश्यकता महसूस की गयी बल्कि विभिन्न संगठनों द्वारा इसकी मांग भी की गयी थी। भारत विविधताओं से परिपूर्ण देश है यहां अनेक जातियां, धार्मिक सम्प्रदाय, संस्कृतियां और विभिन्न भाषाई समुदाय की बसावट है। संविधान इनमें कोई भेद नहीं करता है। सभी को एक समान अधिकार प्राप्त हैं। ऐसे में एक समान कानून की अवधारणा भी अधिक प्रासंगिक प्रतीत होती है।
समान नागरिक संहिता का शुरूआत में ही मुख्यतः दो आधारों पर विरोध किया गया था। पहला यह कि इससे संविधान के अनुच्छेद 25 द्वारा प्रत्याभूत धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन होगा, दूसरे यह संहिता अल्पसंख्यकों के प्रति अत्याचार के समान होगा क्योंकि अल्पसंख्यकों को उस कानून के दायरे में आना होगा जो बहुसंख्यकों के लिए बना होगा किन्तु जो इसके पक्षधर हैं वे इसे कोरी बकवास मानते हैं। आशंकाओं को निराधार बताते हुए साफ किया गया कि धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार के उल्लंघन का समान नागरिक संहिता से कोई लेना-देना नहीं है। संविधान सभा में यह भी तर्क दिया गया था कि भारत में अभी भी अधिकतर धार्मिक संगठन वे हैं जो हिन्दू धर्म से परिवर्तित हुए हैं ऐसे में अल्पसंख्यक के बावजूद परम्पराओं में ज्यादा भेद नहीं है। जाहिर है सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता लागू किया ही जाना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष कई वाद इस मामले में दायर किये जा चुके हैं और इसके पक्ष में एक नहीं अनेकों बार निर्णय दिया जा चुका है। सरला मुद्गल बनाम भारत संघ, जॉर्डन डींगडेह बनाम एमएस चोपड़ा के वाद में न्यायालय ने कहा था कि विवाह विधि में पूर्ण सुधार कर एकरूपता लाने तथा अनुच्छेद 44 के अन्तर्गत समान नागरिक संहिता के निर्माण की आवश्यकता अधिक गम्भीर हो गयी है। भारत में अधिकतर निजी कानून धर्म के आधार पर तय किये गये हैं। हिन्दू, सिक्ख, जैन और बौद्ध हिन्दू विधि के अन्तर्गत आते हैं जबकि मुस्लिम और इसाई के लिए अलग कानून की व्यवस्था है। मुस्लिम कानून शरियत पर आधारित है। अलग-अलग धर्मों के लिए भिन्न-भिन्न कानून होना समान नागरिक संहिता के मूल भावना के विरूद्ध है ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय का चिंतित होना लाजमी है।
दरअसल समान नागरिक संहिता को लेकर उच्चतम न्यायालय अपना रूख साफ कर चुका है पर सरकार के स्तर पर इसमें सियासत का घाल-मेल अधिक शामिल रहा है। यह परस्पर विरोधी विचारधाराओं की टकराहट को समाप्त करके राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ बनाने में सहायक सिद्ध हो सकती है पर यह संहिता धरातल पर उतरेगी ऐसी आशा रखना मृगमारीचिका की भांति है। शाह बानो से लेकर न जाने कितने मुस्लिम और इसाई सहित कई मामले न्यायालय की चैखट पर आये पर समान नागरिक संहिता दूर की कौड़ी बनी रही। तीस बरस पहले इस विधेयक पर चर्चा के दौरान इन्द्रजीत गुप्ता ने कहा कि इसे कदापि पारित नहीं करना चाहिए क्योंकि यह मूल अधिकारों से सम्बन्धित अनुच्छेद 14 एवं 15(1) का उल्लंघन करता है। 8 मई, 1986 को राज्यसभा में चर्चा के दौरान साम्यवादी दीपेन घोष ने कहा कि यह विधेयक मुस्लिम महिलाओं को भेड़ियों का ग्रास बना देगा। जनता पार्टी के एक सांसद ने तो कहा कि यह संविधान की मूल भावना का ही हनन करता है। कम्यूनिस्ट के गुरदास दासगुप्ता ने इसे देश विरोधी बताया था जबकि सर्वोच्च न्यायालय इसे लागू कराने के लिए बार-बार निर्देश देता रहा है। सर्वोच्च न्यायालय समान नागरिक संहिता के संदर्भ पर अब तक तीन बार अपने विचार दे चुका है। सबसे पहले 23 अप्रैल, 1985 में मोहम्मद अहमद बनाम शाह बानो बेगम मुकदमे में निर्णय देते हुए कहा कि यह अत्यंत खेद की बात है कि संविधान का अनुच्छेद 44 अभी तक लागू नहीं किया गया। तब से तीन दशक बीत जाने के बावजूद अभी भी यह मामला केवल गाहे-बगाहे चर्चा और विमर्श तक ही रह जाता है। दरअसल समान नागरिक संहिता को कोई भी कुरेद कर जोखिम नहीं लेना चाहता पर इससे जो सामाजिक ताना-बाना बिगड़ रहा है उसका क्या होगा इस पर भी बहुत बेहतर राय नहीं देखने को मिली है। सवाल है कि क्या समान सिविल संहिता राष्ट्र की आवश्यकता है, क्या यह कभी मूर्त रूप ले पायेगी, हालात को देखते हुए मामला खटाई में ही जाता दिखाई देता है। जानकारों की राय में समान सिविल संहिता भारत जैसे लोकतांत्रिक राष्ट्र में एक शक्ति काम कर सकती है। भारत विजातीय देश है ऐसे में इसे अनेकता में एकता को सुदृढ़ करने के काम में भी लिया जा सकता है। विश्व के अधिकतर आधुनिक देशों में इसकी व्यवस्था देखी जा सकती है।
व्यवहारिक दृष्टि से देखें तो समान नागरिक संहिता भविष्य में एक सामाजिक उत्थान करने वाला उपकरण साबित हो सकता है। हिन्दू, मुस्लिम, जैन, इसाई, पारसी इत्यादि समुदायों के लिए अलग-अलग वैयक्तिक विधियों को समाप्त कर एक समान विधि को लागू करने से जहां एकरूपता आयेगी वहीं समुदाय और समाज भी एक सूत्र में बंधा दिखेगा जो स्वयं में एकता और अखण्डता की मिसाल होगी। संविधान सभा का बहुमत भी इसके साथ था पर बढ़ते समय के साथ इसके प्रति उदासीनता भी बढ़ती गयी और आज भी इसका क्रियात्मक पक्ष सामने नहीं आया। कई बार संसद में इसको लेकर बहस और चर्चा का बाजार गर्म रहा। उच्चतम न्यायालय के निर्देश भी इसके पक्ष में आते रहे पर मामला ढाक के तीन पात ही रहा। संविधान लागू होने के बाद हिन्दू कोड बिल तो आया परन्तु अन्य समुदायों से सम्बन्धित पर्सनल लॉ में कहीं भी कोई कोशिश नहीं की गयी। भले ही भाजपा समान नागरिक संहिता की बात करती रही हो पर सच तो यह है कि राजनीतिक दल इस मामले में साथ तो नहीं देने वाले। स्थिति को देखते हुए नहीं लगता कि मामला अभी भी आगे बढ़ेगा। फिलहाल अब सभी समुदायों को धार्मिक और सांस्कृतिक स्वतंत्रता का मान रखते हुए सर्वमान्य समान नागरिक संहिता का मन बना लेना चाहिए। इससे न केवल देश एकरूपता के सूत्र में बंधेगा बल्कि सामाजिक समस्याओं का समाधान भी आसानी से किया जा सकेगा।
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
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