विकास के नाम पर आर्थिक परिभाषाएं आंकड़ों में भले ही कितनी लुभाने वाली क्यों न हों पर इन दिनों की महंगाई ने बुनियादी अर्थशास्त्र पर कई सवाल खड़े कर दिये हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के अच्छे दिन का परिभाषित पक्ष इस भीषण महंगाई से होकर गुजरेगा इसकी कल्पना शायद ही किसी ने की होगी। आखिर किस दृष्टिकोण के अन्तर्गत अच्छे दिन को परखने की कूबत जुटाई जाए। अगर प्रशासन की सक्रियता समाज के उन वर्गों के काम नहीं आ रही है जो आज की महंगाई से बिलबिला उठे हैं तो शासन और सत्ता का क्या अर्थ निकाला जाए। कारोबारियों को पकड़ने में सफलता मिल सकती है। जिन आढ़तियों ने गोदामों में अनाजों को दबा रखा है उन पर नकेल कसी जा सकती है। हजारों टन दाल गोदामों में जमा होना और मूल्य में निरन्तर इजाफा होना इस बात का संकेत है कि सरकार ने समय रहते अव्यवस्था को नहीं रोका है और जब महंगाई के चलते हाहाकार मचा तब सरकार ने तेजी दिखाई। सवाल है कि जो नीति नियोजक और क्रियान्वयनकत्र्ता इन्हीं कार्यों के लिए पदासीन किए गये हैं वे इतने बेपरवाह क्यों हैं? पैसे वालों की सेहत पर अधिक प्रभाव नहीं पड़ेगा लेकिन गरीबों का क्या होगा। गरीबों की मौत के सामान के रूप में महंगाई को भी माना जाता रहा है। वर्तमान बाजारी हालत को देखें तो खाद्यान्न सामग्री के भाव आसमान छू रहे हैं। अरहर की दाल 200 रू. में एक किलो को पार कर चुकी है। इसके अलावा अन्य सामग्री मसलन उड़द 160 रू., राजमा 150 रू., छोले 140 रू., सरसों का तेल 110 रू. सहित कईयों के दाम खतरे के निषान से ऊपर हैं। उम्मीद कर सकते हैं कि अच्छे दिन इन बुरे दिनों के बाद आयेंगे पर यह साबित करने का काम तो सरकार का है।
निम्न आर्थिक वर्ग वाला आधा पेट खाकर रात गुजार रहा है। आम आदमी यह सोचने के लिए मजबूर है कि क्या खाए और क्या न खाए जबकि आर्थिक रूप से सुसज्जित इनसे परे है। सोच को इस दिषा में भी मोड़ कर देखा जाए कि खाद्यान्नों के दाम बढ़ने से क्या किसान मुनाफे में है। सरल गणित का सिद्धान्त कहता है कि यदि कृशि उत्पाद की कीमत बढ़ती है तो इससे किसान का हित सधेगा पर न्यूनतम समर्थन मूल्य की दृश्टि से देखें तो तय कीमतों पर या उसके आसपास के मूल्य पर किसान अमूमन वस्तुएं बेच देता है। मूल्य से ऊपर उसे रकम तभी मिलेगी जब कारोबारियों द्वारा खरीदारी की जाती है पर कारोबारी चतुराई का अनुसरण करते हुए माल को बाजार के नब्ज के अनुपात में कम-ज्यादा उतारते हैं। ज्यादातर मामलों में गोदामों में माल जमा रहता है और अच्छे मौके का इंतजार किया जाता है। एक ओर जहां कारोबारी किसानों के कृशि उत्पाद से बेहिसाब मुनाफा कमाते हैं वहीं उपज देने वाले किसानों की हालत जस की तस बनी रहती है। इस लिहाज से देखें तो महंगाई जमाखोरी का तो परिणाम है ही साथ ही किसानों का इसमें कोई हित षामिल दिखाई नहीं देता। थोक मूल्य सूचकांक के वृद्धि के ताजा आंकड़ों ने सरकार की बेचैनी बढ़ाई है। इसके अलावा एलनीनो के प्रभाव ने मानसून को कम करके उत्पादन दर को भी कमजोर किया है। इसके पूर्व बेमौसम बारिष के चलते रबी की फसलें पहले ही चैपट हो चुकी थी। अर्थषास्त्र की अवधारणा में कृशि एवं पषुपालन, उद्योग एवं सेवा क्षेत्र इन तीनों की गणना में जीडीपी में कृशि का योगदान न्यूनतम है।
हमें महंगाई और चुनाव के सम्बन्ध का भी आंकलन कर लेना चाहिए। चुनाव भी महंगाई के अर्थषास्त्र से अछूते नहीं रहे हैं देष में कई चुनाव ऐसे हुए जिसमें हार जीत का फैसला महंगाई पर निर्भर था। 1977 की हार के बाद कांग्रेस की 1980 में हुई वापसी में प्याज की अहम् भूमिका थी। 1998 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में भाजपा ने इसलिए सत्ता खो दी क्योंकि प्याज का दाम बेकाबू हो चुका था और सत्ता स्वादन कांग्रेस के हिस्से आया। इसी प्याज ने दिल्ली की षीला दीक्षित सरकार को भी बेदखली का रास्ता दिखाया। दरअसल महंगाई एक ऐसा मुद्दा है जिससे समाज का सभी तबका प्रभावित होता है। महंगाई क्यों बढ़ती है यदि बढ़ती है तो बेलगाम क्यों होती है? किस मानक तक इसे बर्दाष्त किया जा सकता है? इन तमाम बिन्दुओं पर एक आर्थिक विमर्ष होना चाहिए और एक ऐसी ठोस रणनीति तैयार होनी चाहिए जिससे महंगाई जैसी डायन से समाज को बचाया जा सके। केन्द्र में भाजपाकृत मोदी सरकार के माथे पर बल बेलगाम बढ़ी इन दिनों की महंगाई ला सकती है। इन दिनों बिहार विधानसभा का चुनाव चल रहा है आगे भी उत्तर प्रदेष, उत्तराखण्ड जैसे प्रदेषों का चुनाव होना है। जिस प्रकार महंगाई सत्ता परिवर्तन में काम करती रही है उसे देखते हुए मोदी सरकार को भी यह समझ लेना चाहिए कि यह महंगाई आने वाले दिनों में उनके लिए भी महंगा सौदा सिद्ध हो सकता है।
1991 में जब नई आर्थिक नीति आई थी तब एक आस जगी थी कि बुनियादी अर्थषास्त्र सुधरेगा पर अमीर-गरीब के बीच की बढ़ी खाई को देखते हुए इसे नाकाफी कहा जा सकता है। अर्थव्यवस्था का आम सिद्धान्त यह भी रहा है कि यदि गरीबों की भलाई करनी है तो आर्थिक विकास दर ऊँचा रखो जबकि सच यह है कि वर्तमान भारत की आर्थिक दर आठ फीसदी के बावजूद गरीबों की हालत में बड़ा सुधार नहीं है। असल में मानव विकास सूचकांक के साथ भूख, स्वास्थ, रोजगार और गरीबी का सूचकांक भी बेहतर होना चाहिए। भारयुक्त सवाल यह भी है कि महंगाई से जूझने वाले क्या मोदी सरकार को आम आदमी की सरकार कह सकते हैं। गरीब तो छोड़िए मध्यम वर्ग का भी निवाला काबू से बाहर है। महंगाई की कसौटी पर मोदी सरकार की रणनीति सटीक है कहना जल्दबाजी होगा। महंगाई की चक्की में पिसने वाले गरीब न तो विकास दर समझते हैं और न ही अर्थव्यवस्था के उलटफेर। अच्छा होगा कि मोदी सरकार उन वचनों को याद करे और महंगाई वाले दिन के बदले अच्छे दिन लाये जिसका उन्होंने वायदा किया था।
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
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सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
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