Monday, October 12, 2015

सरकार को चुनौती देते कलमकार

    किसी भी पुरस्कार या सम्मान को लौटाए जाने का षायद ही कोई प्रावधान होता हो जो सम्मान क्षेत्र विषेश में बेहतर योगदान के लिए दिए जाते हैं वे पुरस्कार प्राप्तकत्र्ताओं के लिए किसी पूंजी या सम्पदा से कम नहीं होते पर किसी वजह से इसकी वापसी की जाए तो यह घटती नहीं बल्कि और बढ़त के साथ स्थापित हो सकती है। कहा जाए तो अवार्ड लौटाना भी अपने आप में एक अवार्ड जैसा ही है। किसी सम्मान को लौटाने पर सरकार पर क्या असर होता है यह बहुत कुछ वर्ग विषेश पर निर्भर करता है। चूँकि जिस सम्मान की वापसी का दौर इन दिनों जारी है वह साहित्य से सम्बन्धित है। साहित्यकार समाज का एक बड़ा संवेदनषील अंग होता है जिससे यह अपेक्षा रहती है कि वे सामाजिक बदलाव में भूमिका अदा करेंगे। यदि ऐसे सम्मानितगण सरकार के विरोध में पुरस्कार वापस करते हैं तो इसका असर सरकार पर पड़ना चाहिए। सरकार को इसे अपनी कार्यप्रणाली में आये व्यवधान के रूप में भी देखा जाना चाहिए लेकिन सवाल यह भी है कि साहित्य अकादमी पुरस्कार सरकार नहीं देती फिर सरकार के विरोध के लिए इसे क्यों लौटाया जा रहा है। ऐसे में क्या पुरस्कार लौटाना उसके प्रति असम्मान नहीं है। फिलहाल विरोध करने का जो तरीका वाजिब लगा उस पर कदम उठा लिया गया है। जाहिर है षब्दों की पूंजी रखने वाले साहित्यकार इसके विष्लेशण में कोई कमी नहीं छोड़े होंगे पर इसका नतीजा क्या होगा अभी कुछ स्पश्ट नहीं है। विरोध क्यों हो रहा है, किसके लिए हो रहा है और यह कितना जरूरी है। इसकी पूरी व्याख्या होनी चाहिए। जब से मोदी सरकार आयी है हिन्दू राश्ट्र या सम्प्रदायवाद या फिर कई मौके पर चुप रहने के आरोप उन पर लगते रहे हैं। इसके अलावा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर भी सवाल उठते रहे हैं। साहित्यकारों के खेमे का आरोप है कि दादरी की घटना और कुछ साहित्यकारों की हत्या इस बात का संकेत है कि संवैधानिक अधिकारों को कुचला जा रहा है। देष के सामाजिक ताने-बाने को तोड़ा जा रहा है। साम्प्रदायिक हिंसा की घटनाएं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को संकीर्ण बना रही हैं।
    वर्तमान में हिन्दी, पंजाबी और कन्नड़ आदि तमाम लेखक सम्मान वापसी की होड़ में हैं। ऐसा नहीं है कि इससे सम्मान का अपमान नहीं होता। सम्मान को लौटाने के उनके तौर तरीके पर भी सवाल उठाए जा रहे हैं। पहले उदय प्रकाष, फिर नयनतारा सहगल बाद में अषोक वाजपेयी ने साहित्य अकादमी का पुरस्कार वापस करके  साहित्य जगत को ही परेषानी में डाल दिया। बात यहीं तक नहीं रूकी गुजराती लेखक गणेष देवी, अंग्रेजी के कथाकार अमन सेठी, कन्नड़ के कुम वीरभद्रप्पा और पंजाबी भाशा में गुरवचन भुल्लर सहित दर्जनों लेखक सम्मान लौटाने की जद में आ चुके हैं। लेखकों के विरोध का कारण एक ही है। सभी को लगता है कि देष की स्थिति बहुत खराब है और इसके खिलाफ साहित्य जगत को खड़ा होना चाहिए। इतना ही नहीं साहित्य अकादमी भी इनके साथ खड़ी हो। साहित्य अकादमी एक निजी संस्था है। सरकार के खिलाफ माहौल बनाने में काम आ सकती है। उक्त सम्मान वापसी के प्रकरण कई सवालों को जन्म देते है। एक तो यह कि इसकी प्राप्ति के कई वर्शों बाद इसे क्यों लौटाया जा रहा है जबकि देष की स्थिति तो पहले भी खराब होती थी। दूसरे कि सम्मान किसे लौटाया जा रहा है पुरस्कार देने वाली अकादमी को या सरकार को, तीसरा सवाल यह है कि पुरस्कारों की राषि कम होने के चलते इसे लौटाना आसान है कहीं यह भी तो एक वजह नहीं है। प्रष्न है कि यदि यही पुरस्कार करोड़ों के होते तो भी क्या ऐसा किया जा सकता था पर विरोध के तरीकों में ये तरीके भी अपनाये जाते रहे हैं। ऐसे में इसे विरोध का मात्र एक परिप्रेक्ष्य कहा जाए तो गलत न होगा। बढ़ती साम्प्रदायिकता और हिंसा के विरोध में मुखर होने की एक विधा कलम की ताकत भी है। साहित्यकारों द्वारा दिन-रात कलम के माध्यम से सरकार की आलोचना करके भी इसे रोकने का प्रयास किया जा सकता था।
    साहित्य अकादमी पुरस्कार साहित्य क्षेत्र का सबसे बड़ा पुरस्कार है। 1954 में स्थापित और 1955 से प्रतिवर्श उत्कृश्ट साहित्यकृति को यह सम्मान मिलता है। पांच हजार रूपए से षुरू यह सम्मान एक लाख रूपए तक कर दिया गया है। इस अकादमी का विवादों से बड़ा गहरा नाता रहा है। कभी लेखकों के चुनाव के कारण विवाद तो कभी यहां होने वाली नियुक्तियां चर्चे में रही हैं। आरोप लगाने वाले तो यह भी कहते हैं कि पिछले एक दषक से साहित्य अकादमी का पुरस्कार बंदर बांट का रूप ले चुका है। सब कुछ के बाद एक बात समझ लेना जरूरी है कि देष में माहौल बनाने से बनता है और बिगाड़ने से बिगड़ सकता है। ब्रिटिष काल में गुरूदेव रविन्द्र नाथ टैगोर ने जलियांवाला बाग के नरसंहार के चलते ‘नाइटहुड‘ की उपाधि वापस कर दी थी। यह ब्रिटिष हुकूमत देती थी। इसके मिलने से नाम से पहले ‘सर‘ लगाया जा सकता है। फणीष्वरनथ रेणू का पहला उपन्यास ‘मैला आंचल‘ था जिसके लिए उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया। 1975 के आपातकाल में दमन और विरोध के चलते इन्होंने पद्मश्री लौटा दिया था। जनता के साथ संघर्श करते हुए इन्हें जेल भी जाना पड़ा था। जाने-माने अखबारी और किताबी लेखक खुषवंत सिंह की बीते कुछ वर्श पूर्व ही मृत्यु हुई ‘न काहू से दोस्ती न काहू से बैर‘ के पर्याय खुषवंत सिंह भी पद्मभूशण पुरस्कार लौटा दिए थे जिसकी वजह थी अमृतसर स्वर्ण मंदिर में सेना द्वारा कब्जा किया जाना। जानी-मानी लेखिका और सामाजिक कार्यकत्र्ता अरूंधती राय वर्श 2006 में साहित्य अकादमी सम्मान ठुकरा चुकी है। कारण था अफगानिस्तान और इराक पर अमेरिका के गैर कानूनी कब्जे और भारत की चुप्पी का होना।
    ब्रितानी युग से ही कलमकार विरोध जताने के लिए सम्मान वापसी को जरिया बनाते रहे हैं। वर्तमान घटनाक्रम में साम्प्रदायिक हिंसा पर प्रधानमंत्री की चुप्पी को इसका बड़ा कारण बताया जा रहा है। साहित्यकारों का आरोप है कि संवेदनषील मुद्दों पर प्रधानमंत्री का चुप रहना इस बात को इंगित करता है की उनकी घटना विषेश पर मौन स्वीकृति है। सवाल बेजा तो नहीं है। जिस प्रकार साहित्य की संवदेना जगत के बदलाव में काम आती है उसी प्रकार उनकी सोच और बोध भी बिना किसी वजह के नहीं उपजी है। हद तो तब हो जाती है जब साहित्य जगत में इस्तीफे का तूफान हो और सरकार चुप्पी साधे हो। हिन्दी, उर्दू, पंजाबी और दक्षिण भाशाओं के साहित्यकारों ने जिस भांति राजग सरकार को कटघरे में खड़ा किया है उससे साफ है कि सरकार को इस पर कोई सटीक रणनीति विकसित करनी ही होगी। यह बात भी समझना आवष्यक है कि कलाकारों की आलोचना में सरकार को देर तक नहीं फंसना चाहिए और चतुर षासक वही होता है जो बिना किसी षोर के समस्या को हल कर दे। हालांकि सम्मान वापसी का तरीका विदेषों में भी देखा जा सकता है। तुर्की के प्रधानमंत्री इजराइल पर अमेरिका के कड़े रूख के कारण अमेरिकी यहूदी संस्था की ओर से मिला षांति सम्मान वापस लौटा दिया था, अमेरिकी पत्रकार फरीद जकारिया ने ग्राउंड जीरो कार्यवाही के विरोध में सम्मान वापस किया था। इतना ही नहीं आॅस्कर जैसे सम्मान भी विरोध के चलते लौटाए गये हैं। स्थिति और परिस्थिति के प्रकाष में साहित्यकारों का विरोध सरकार के लिए मुसीबत न होकर अच्छी षुरूआत हो सकती है। ऐसे में इन साहित्यकारों का उपयोग खामियों के मद्देनजर प्रयोग करके उपयोगी बनाने के काम में लाया जा सकता है।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2710900, मो0: 9456120502

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