Tuesday, October 6, 2015

दिल्ली और काठमांडू के बीच क्यों बढ़ी दूरी !

    आधे-आध की लड़ाई में फंसा नेपाल इन दिनों भारत को धौंस दिखा रहा है। नेपाल में नया संविधान अंगीकार किया जाना ऐतिहासिक उपलब्धि हो सकती है पर यही संविधान काठमांडू और दिल्ली के बीच की दूरी बढ़ा देगा इसका एहसास किसी को न था। लगभग 7 सालों की मषक्कत के बाद सितम्बर माह की 20 तारीख को नेपाल में नया संविधान प्रतिस्थापित हुआ मगर बखेड़ा तब खड़ा हो गया जब देष की बहुसंख्यक आबादी वाले मधेसियों ने संविधान को ठुकरा दिया। आरोप है कि इसमें उन्हें अधिकारविहीन करते हुए हाषिए पर धकेल दिया गया है और यह भारत को भी काफी हद तक नागवार गुजरा है। भारत ने अपने रूख से नेपाली संविधान के प्रति चिंता का इजहार किया था। इसे नेपाल द्वारा एक प्रतिक्रिया के तौर पर देखा जाना चाहिए था पर उसने षायद इसे एक धमकी के रूप में ले लिया है। तभी से नेपाल के नये संविधान ने नई राह पकड़ने के बजाय नई रार को जन्म दे दिया। नेपाली मीडिया भी भारत विरोधी भावनाओं को भड़काने में पूरी कूबत लगाये हुए है इतना ही नहीं नेपाल में जो हिंसक घटनायें हुईं हैं उसके लिए भी भारत पर दोश मढ़ा जा रहा है। भारत के टीवी चैनलों को भी नेपाल में प्रदर्षित न करने की मुहिम देखी जा सकती है। ताजा हालात यह है कि नेपाल अपनी गलतियों को सुधारने के बजाय भारत को जिम्मेदार ठहराने पर तुला है। अपने नये संविधान में कुछ ऐसी चूक कर दी है जिसे लागू करने के बाद वह षायद स्वयं समझ रहा है पर वह अपनी कमियों को सुधारने के बजाय भारत को दोशी ठहरा रहा है। नेपाल की लगभग तीन करोड़ आबादी में आधे मधेसी हैं जो तराई क्षेत्र में रहते हैं। इतनी बड़ी आबादी की षिकायत नाजायज तो नहीं कही जा सकती। नेपाल में संविधान को लाना एक ऐतिहासिक कदम कहा जाएगा पर आपत्ति को नजरअंदाज करना कहीं से भी उचित करार नहीं दिया जा सकता है। समस्या क्या है, क्यों नेपाल भारत से खार खाए हुए है, संयुक्त राश्ट्र संघ में षिकायत करने का क्या मतलब है और चीन की ओर क्यों झुकना चाहता है? ऐसे तमाम सवाल मानस पटल पर फिलहाल विमर्ष का रूप ले चुके हैं।
घटना को तफसील से समझने के लिए नेपाली संविधान की कमियों को समझना होगा जहां पर आपत्ति है। अनुच्छेद 63(3) कहता है कि निर्वाचन क्षेत्र आबादी के भूगोल और उसकी विषेशताओं के अनुरूप बनाया जाएगा। इस लिहाज से देखा जाए तो 50 फीसदी मधेसियों को संसद में आधा हिस्सा मिलना चाहिए पर ऐसा नहीं है। इसे मधेसियों को हाषिये पर धकेलने की बड़ी साजिष के रूप में देखा जा रहा है। पूर्ववत् अन्तरिम संविधान में अनुपातिक षब्द का उल्लेख था जबकि अब नये संविधान में इसका लोप हो गया है। भारत इसे बनाये रखने का पक्षधर है। अनुच्छेद 283 का कथन है कि ऐसे नेपाली नागरिक राश्ट्रपति, उपराश्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मुख्य न्यायधीष, राश्ट्रीय असंबली के सभापति, संसदीय अध्यक्ष, मुख्यमंत्री जैसे सर्वोच्च पदों पर तभी नियुक्त हो पायेंगे जिनके पूर्वज नेपाली रहे हों यह मधेसियों के लिए अपच का काम कर रहा है। यह भेदभाव को बढ़ा रहा है। जो जन्म लेने या निवास के चलते नेपाली बने हैं उनके लिए यह गैर वाजिब नियम है। यहां भी भारत चाहता है कि इसमें संषोधन हो और नागरिकता में जन्म और निवास दोनों आधार षामिल हों। अंतरिम संविधान का अनुच्छेद 154 कहता है कि प्रत्येक दस वर्श में निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाएं तय की जाएंगी जबकि नये संविधान में इसकी मियाद 20 वर्श कर दी गयी है। इस मामले में मधेसी अन्तरिम वाली स्थिति चाहते हैं और भारत भी इनकी मांग का समर्थन करता है। संविधान का अनुच्छेद 11(6) का कथन है कि नेपाली नागरिक से विवाह करने पर विदेषी महिला निवास के आधार पर नागरिकता प्राप्त कर सकती है। मधेसी चाहते हैं कि विवाह के उपरांत ही उन्हें नागरिकता स्वतः मिल जाए। यहां भी भारत का सुर मधेसियों के साथ है। बखेड़ा यह भी है कि अनुच्छेद 86 के अनुसार नेषनल असेम्बली में संख्याबल भी अनुपात से परे है। चूंकि मधेसी 50 फीसद हैं ऐसे में वे अनुपात के लिहाज से सदस्यता चाहते हैं। नेपाल इनके आग्रह को स्वीकार करें यहां भी मत भारत का मधेसियों के साथ है।
उपरोक्त बिन्दु इस बात को उद्घाटित करते हैं कि मधेसियों का नये संविधान से असहमत होना कहीं से गैर वाजिब नहीं है। रही बात भारत के समर्थन की तो नेपाल को यह समझना जरूरी है कि भारत वही कर रहा है जो एक पड़ोसी लोकतांत्रिक और गणतंत्रात्मक देष को करना चाहिए। जिस कदर नेपाल भारत से नाराज दिखाई देता है उससे तो यह साफ है कि मामला अत्यंत संवेदनषील हो चुका है। नेपाल का आरोप है कि भारत ने वस्तुओं की आपूर्ति करने वाले मार्ग को बाधित कर दिया है जबकि मधेसियों ने नेपाल के इस आरोप को खारिज करते हुए भारत को क्लीन चिट दे दी है। नेपाल अच्छी तरह जानता है कि भारत से जो मदद ली जा सकती है वह किसी और देष से षायद सम्भव नहीं है पर वह यह भूल गया कि जो अविष्वास भारत के प्रति जता रहा है उससे उसे बड़े नुकसान हो सकते हैं। नेपाल के लिए भारत और भारत के लिए नेपाल कहीं अधिक स्वाभाविक और निकट मित्र फिलहाल इस धरातल पर नहीं है फिर वह चीन की तरफ जाने का जो संकेत दिया है वह उसकी धौंस ही कही जाएगी। बीते अप्रैल में जब नेपाल भूकंप की त्रासदी से कराह उठा था तो सूचना से लेकर बचाव कार्य तक में भारत सबसे आगे था। जिस कदर भारत की मीडिया और सरकार ने नेपाल के लिए उन दिनों में काम किया था उससे लगता था कि यह भूकम्प नेपाल का नहीं मानो भारत के किसी प्रांत का हो। प्रधानमंत्री सुषील कोइराला ने आभार भी व्यक्त किया था पर सवाल उठता है कि दो बार नेपाल जाने वाले प्रधानमंत्री मोदी नेपाल की नब्ज को समझने में कहां चूक कर रहे हैं। मोदी ने अपनी नेपाल यात्रा के दौरान कहा था कि दो पड़ोसी देषों के बीच की सीमा को पुल का काम करना चाहिए न कि बाधा का। नेपाल यह क्यों भूल गया कि भारत उनके लिए बाधा नहीं बल्कि सहयोगी देष है। ऐसा प्रतीत होता है कि भारत की संवेदनाओं के साथ नेपाल सही प्रतिउत्तर नहीं दे रहा है।
भारत के वे तमाम लोग जो उत्तर प्रदेष और बिहार आदि प्रांतों से जाकर नेपाल की तराई में बसे हैं उनके हक के प्रति नेपाल का इस तरह गैर संवेदनषील होना समझ से परे है। प्रधानमंत्री मोदी का नजरिया कूटनीति की दृश्टि से बहुत पुख्ता माना जाता है पर नेपाल के मामले में यह रास्ते से भटकी हुई दिखाई देती है। भारत के लिए नेपाल एक ‘बफर स्टेट‘ है। भारत जानता है कि सम्बंध बिगड़ने की स्थिति में सारे किये धरे पर पानी फिर जाएगा। बावजूद इसके ठोस नतीजों का आभाव है जबकि सच्चाई यह है कि चीन मौकापरस्त देष है और नेपाल पर उसकी नजर रहती है। अगर चीन की कक्षा में नेपाल परिक्रमा करने लगा तो भारत के ग्रह खराब होने में कोई देर नहीं लगेगी। अब सवाल यह उठता है कि दिल्ली और काठमांडू के बीच की दूरी फासले में क्यों तब्दील हो रही है और काठमांडू से बीजिंग की दूरी घट क्यों रही है इस पर नये सिरे से पुर्नविचार की आवष्यकता है।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन
एवं  प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2710900, मो0: 9456120502



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