Thursday, October 22, 2015

असहिष्णुता की चिकित्सा तो संविधान में है

    धार्मिक सहिश्णुता और सर्वधर्म समभाव जैसी अवधारणाएं भारतीय संस्कृति में प्राचीन काल से ही रची-बसी हैं। अषोक के बारहवें दीर्घ षिलालेख का यह भाव है कि अपने सम्प्रदाय का आदर करते हुए अन्य सम्प्रदाय के प्रति भी आदर भाव रखें। आज पूरा विष्व जहां आगे बढ़ने की होड़ में है, वहीं धार्मिक स्वावलंबन को हाषिए पर धकेलने का काम भी व्यापक पैमाने पर होना चिंता का विशय है। सभ्य समाज एक सुगम जीवन धारा का समावेषन ले चुका है बावजूद इसके धर्म संरक्षण को लेकर एषिया सहित भारत में आज भी काट-मार मची हुई है। सवाल है कि ऐसी स्थिति में सहिश्णुता की प्रासंगिकता कैसे सुनिष्चित हो पाएगी जब उसके परे जाकर असहिश्णुता का खेल खेला जाता रहेगा। सनातम धर्म की एक प्रचलित सूक्ति है ‘हिंसायाम् दूरते, यस्य सः सनातनः‘ इसका मतलब है कि मन से, वचन से और कर्म से जो हिंसा से दूर है वही सनातन है। फिर सवाल उठता है कि इसके परिपालन में कुछ अलग-थलग क्यों है? कई ऐसे हैं जो मन, वचन और कर्म से हिंसा और उन्माद में सारी ताकत झोंके हुए है जिसके चलते देष इन दिनों असहिश्णुता वाली घटनाओं से गुजर रहा है। गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने बीते दिन फरीदाबाद और पंजाब की ताजा घटनाओं की ओर इषारा करते हुए कहा कि ऐसी घटनाएं चिंताजनक हैं। मौजूदा स्थिति में देष जहां गरीबी, बेरोजगारी सहित कई अन्य बुनियादी समस्याओं से जूझ रहा है वहीं कुछ वर्गों द्वारा धार्मिक उन्माद, हिंसा, अलगाव और बिखराव की स्थिति पैदा कर रचनात्मक क्रियाओं को हाषिए पर धकेलने का काम भी किया जा रहा है।
    कुछ कट्टरपंथी जो अलगाववादी विचारधारा के हैं सरकार के कारनामों से असंतुश्ट हो सकते हैं। किसी के बरगलाने पर धार्मिक उन्माद फैला सकते हैं। पाकिस्तान जिन्दाबाद के नारे भी लगा सकते हैं। कसाब और अफजल गुरू जैसों को फांसी देने पर धरना प्रदर्षन भी कर सकते हैं पर देष सर्वोपरी है इस बात को वे क्यों भूल जाते हैं? जिस देष में धर्मनिरपेक्षता सबसे ऊपर हो और संविधान भी अलगाव और उन्माद की इजाजत न देता हो उन्हें देष का नागरिक होते हुए ऐसे कृत्यों के लिए कितना बर्दाष्त किया जा सकता है? देष में दो प्रकार की समस्याएं अक्सर उभरती हैं एक वे जो देष के आन्तरिक मामलों से जुड़ी होती है, दूसरा सीमा पार से उक्साई गयी समस्याएं। क्या कथित धार्मिक अपमान का मामला देष भर में चारों तरफ से बढ़ नहीं रहा है? गौ हत्या और उसका कारोबार करने वाले कुछ लोग धर्म विषेश को चुनौती नहीं दे रहे हैं? आखिर इसके जिम्मेदार कौन हैं? कुछ कट्टरवादी, तो कुछ उन्मादी तो कुछ सियासी पार्टियां भी इसमें घी का काम कर रही हैं। कईयों की राय है कि भारत में वैचारिक उथल-पुथल का दौर चल रहा है। बीजेपी पर आरोप है कि वह अधिक हिन्दुवादी दिखाने की कोषिष में लगी हुई है। यदि बीजेपी जैसी राजनीतिक पार्टियों पर धार्मिक होने का आरोप लगता है तो अलग धर्म से लिप्त पार्टियां क्या अपने धर्मों की पक्षधर नहीं है? ओवैसी जैसों की पार्टी हिन्दुओं के विरूद्ध मानो जंग ही छेड़े रहती है। पंजाब का अकाली दल सिक्खों को जोड़ कर चलना चाहती है। देखा जाए तो उत्तर से दक्षिण और पूरब से पष्चिम पूरा भारत इसी प्रकार के बंटवारे से सराबोर है। इसके अलावा जातिगत बिखराव भी यहां व्याप्त है। अगड़ा, पिछडा़, दलित और क्षेत्रीय आधार भी बाकायदा स्थान घेरे हुए है।
    हम सवाल धर्मनिरपेक्षता और सहिश्णुता का कर रहे हैं पर यह बात भी समझ लेनी चाहिए कि इसे प्राप्त करने के लिए न तो धर्म, न ही जाति और न ही राजनीति इसकी सटीक दवा है बल्कि इसकी खूबसूरत चिकित्सा भारतीय संविधान में छिपी है। स्वतंत्र भारत के संविधान में धर्मनिरपेक्षता को महत्व और स्थान दिया गया है। 42वें संविधान संषोधन 1976 द्वारा संविधान की प्रस्तावना में पंथनिरपेक्ष षब्द जोड़कर इस परिप्रेक्ष्य में स्थिति को और स्पश्ट करने का प्रयास किया गया। इसके अतिरिक्त तमाम संवैधानिक प्रावधानों में धार्मिक सहिश्णुता की भावना बिखरी हुई है। अटकलों से बाहर निकलकर देखें तो धर्मनिरपेक्षता की विवेचना बहुत सटीक और सरल है। राज्य सभी भेदभावों से ऊपर उठकर सभी नागरिकों का उनके धार्मिक विष्वासों तथा व्यवहारों की ओर ध्यान दिये बिना कल्याण सुनिष्चित करने का प्रयास करता है जो धर्मों, सम्प्रदायों और जातियों को लाभ देने के मामले में तटस्थ और निश्पक्ष है। संविधान की इस परिपाटी को आज के उन्माद में एक चिकित्सा के तौर पर इसलिए अनुप्रयोग करने की आवष्यकता है क्योंकि दिगभ्रमित विचारधारा वालों के लिए संविधान एक दिषा भी है। धर्मनिरपेक्षता एक विवाद का विशय भी हो सकता है पर उन्माद का विशय कैसे? सहिश्णुता को लेकर राय बंटी हुई हो सकती है पर इसका गलत अर्थ निकाल कर देष को दोराहे पर खड़ा कर देना कहां की समझ है?
    ‘हिन्दी हैं हम, वतन हैं, हिन्दुस्तान हमारा‘ यह किसी धर्म, सम्प्रदाय और जाति से परे है। भारत जैसी मजबूत संस्कृति रखने वाले देष का हृदय इसलिए फटा जा रहा है क्योंकि इसके क्षत-विक्षत करने वालों की संख्या इकाई में नहीं बल्कि अब दहाई में बदलती जा रही है। देष की आत्मा को व्यथित न होने दें, रोग लग गया है तो चिकित्सा की सही पद्धति तलाषी जाए। विचारों में मतभेद सम्भव है पर बिखराव और टकराव और अन्ततः अलगाव सहमति का विशय नहीं हो सकता। विष्व बन्धुत्व का पाठ पढ़ाने वाला देष साम्प्रदायिक दंगों में उलझ कर क्या अपनी ही कद-काठी को बौना नहीं कर रहा है? अमेरिकी राश्ट्रपति बराक ओबामा भी कुछ माह पूर्व आरोपित कर चुके हैं कि भारत में असहिश्णुता बढ़ी है और गांधी होते तो दुखी होते। सवाल है कि यदि साम्प्रदायिक दंगे होते रहेंगे, धार्मिक उन्माद बढ़ते रहेंगे तो इससे न केवल गंगा-जमुनी संस्कृति वाले देष पर बाहरी उंगली उठाएंगे बल्कि संविधान का भी अपमान बढ़ता जायेगा। ऐसे में जरूरी है कि बेहिसाब स्वतंत्रता वाले इस देष में संविधान प्रदत्त पंथनिरपेक्षता को एक बार पुनः बारीकी से समझ कर व्यवहारों में षुमार किया जाए।


लेखक, वरिश्ठ स्तम्भकार एवं रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन के निदेषक हैं
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
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सेन्ट्रल एक्ससाइज आॅफिस के सामने,
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