Wednesday, October 28, 2015

स्थानीय मुद्दे से भटका बिहार चुनाव

    दरअसल बिहार चुनाव ऐसे वातावरण के लिए जाना और समझा जाने लगा है कि मानो देष की तस्वीर यहीं से बदलेगी। राय तो यह भी आ रही है कि प्र्रधानमंत्री मोदी सहित बिहार के कई स्थानीय नेता का काफी कुछ इस चुनाव में दांव पर लगा है। बहरहाल जो सियासत बिहार की जमीन पर पसरी है उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि सभी राजनीतिक दल कड़ी परीक्षा से गुजर रहे हैं। यूं तो सभी विकास के मुद्दे को लेकर जनता के सामने जा रहे हैं परन्तु सच्चाई इससे भिन्न हैं। अब तक यह भी किसी से नहीं छिपा है कि बिहार में जातीय समीकरण सबसे अहम् है। आंकड़े दर्षाते हैं कि 15 फीसदी सवर्ण, 16 फीसदी मुसलमान और 6 फीसद दलित तथा 10 प्रतिषत महादलित मतदाता के अलावा बचे हुए 53 प्रतिषत में अन्य पिछड़ा वर्ग से लेकर यहां की जनजाति षामिल है जो बिहार विधानसभा के चुनाव की धारा को मोड़ने का मादा रखती है। यह एक कड़वी सच्चाई है कि अब तक हुए बिहार चुनाव में जातिगत आंकड़े हमेषा हावी रहे हैं। ऐसी कोई वजह नहीं दिखाई देती जिससे कहा जाए कि यह चुनाव भी जातिगत प्रभाव से चुनाव परे है। सच्चाई तो यह भी है कि यादव और मुस्लिम ध्रुवीकरण यहां सिर चढ़कर बोलता है। ऐसे ही ध्रुवीकरण के चलते लालू प्रसाद समेत कई कद्दावर नेता बने साथ ही देष की राजनीति में भी इनकी तूती बोली।
    मुद्दे की बात यह है कि बिहार में वह सब कुछ हो रहा है जो पहले षायद किसी चुनाव में न हुआ हो। उत्तर प्रदेष का साम्प्रदायिक मुद्दा बिहार में भुनाने का प्रयास किया गया, हिन्दुत्व और बीफ खाने और न खाने को लेकर आज भी चुनावी रैलियों में जोर कम नहीं पड़ा है। इन दिनों महंगाई भी चुनावी रंगत लिए हुए है दाल के भाव आसमान छू रहे हैं और जिम्मेदार लोगों के माथे पर इसकी षिकन तक नहीं है। मानो कि दाल का मत हेरफेर में कोई योगदान ही न हो। बाहरहाल दाल की सियासत भी यहां पर जोर मारे हुए है। विकास का मुद्दा तो कब का भटक चुका है। बिहार के दस साल मुख्यमंत्री रहे नीतीष कुमार सुषासन वाले इरादों में स्वयं को षुमार करते हैं पर उनकी सियासत भी इस कदर स्याह हो गयी कि विकास उनके पहचान में नहीं आ रहा है और न ही जमीनी तौर पर कोई अन्य नेता इस पर बड़ी सियासत कर रहा है पर बद्जुबानी जरूर हो रही है। हालांकि भाजपा गाहे-बगाहे कह देती है कि मेरा मुद्दा तो विकास ही है। इन दिनों पिछड़े वर्गों के आरक्षण को लेकर भी तरह-तरह के प्रपंच हो रहे हैं। अफवाह है कि सरकार आरक्षण को समाप्त कर देगी। मत का नुकसान न हो इसे ध्यान में रखते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने जोरदार षब्दों में यह खण्डन कर दिया कि यह कोरी बकवास है और ऐसा कभी हो ही नहीं सकता। देखा जाए तो बिहार में कम-से-कम इस बार आरक्षण पर तो चुनाव नहीं हो रहा है फिर आरक्षण मुद्दा कैसे हो सकता है। रोचक तथ्य यह है कि पहले आरक्षण देने के चलते और अब इसे बनाये रखने पर भी मत निर्भर है।
    स्थानीय मुद्दे का नाम कोई भी नेता नहीं ले रहा है। राश्ट्रीय मुद्दे के सहारे यहां भी चुनावी बैतरणी पार करने का प्रयास किया जा रहा है। अगर कुछ बड़ा इजाफा हुआ है तो यह कि इस बार बिहार चुनाव बद्जुबानी से भी पटा है। ताजा घटनाक्रम में लालू प्रसाद की बेटी मीसा ने प्रधानमंत्री मोदी को सड़क का गुण्डा करार दिया। इस प्रकरण से दो तथ्य उभरते हैं एक तो कि ऐसी नौबत आई ही क्यों, दूसरे क्या पद की गरिमा इतनी गिर गयी है कि इससे परहेज नहीं किया जा सकता। चुनावी जंग है, सब चलेगा, कुछ को पचेगा, कुछ को नहीं पचेगा। जिसे मानक आचरण की चिंता है वे ऐसे कथनों से कोई वास्ता नहीं रखना चाहेंगे पर सवाल है कि देष को रास्ते पर लाने का जिम्मा लेने वाले स्वयं इतने भटके हुए क्यों हैं? तथाकथित परिप्रेक्ष्य यह भी है कि क्या मुद्दों की राजनीति खत्म हो चुकी है? बीते दिन पाकिस्तान से गीता की वापसी हुई जिसकी चर्चा इन दिनों सुर्खियों में है। इस चुनाव में पप्पू यादव जैसे स्थानीय नेता ने इसे भी मुद्दा बनाकर जनमत के बीच अपनी ओछी सोच का परिचय दिया है। बिहार विधानसभा चुनाव जिस मार्ग पर सरपट लिए हुए है वह थोड़ा हैरत में डालने वाला है पर उन्हें क्या फर्क पड़ता है यदि इससे जनता का वोट हथिया लिया जाए तो।
    भाजपा को भी सुषासन चाहिए, नीतीष को भी सुषासन चाहिए और लालू प्रसाद को भी चाहिए। ऐसे में सवाल है कि जब सबको सुषासन ही चाहिए तो फिर ओछी सियासत क्यों हो रही है, स्थानीय मुद्दे गौड़ क्यों हो रहे हैं? बिहार में बेरोजगारी है जिसके चलते अधिक पलायन है। गरीबी भी इसकी एक बड़ी वजह है। आधारभूत ढांचे के मामले में भी प्रदेष अगड़ों में नहीं आता, बिहार में कोई मजबूत विकास माॅडल भी नहीं दिखाई देता। षिक्षा, स्वास्थ्य और काफी हद तक कानून और व्यवस्था भी पटरी पर नहीं है। ऐसे में इन्हें हाषिये पर डाल कर अन्य मुद्दों के साथ चलना क्या बिहार के साथ अन्याय नहीं है। प्रधानमंत्री मोदी गुजरात में मुख्यमंत्री के तौर पर गुजरात माॅडल के चलते देष के चुनाव में असीम उपलब्धि हासिल की थी। ऐसे में क्या उन्हें बिहार के लिए विकास माॅडल को तवज्जो नहीं देना चाहिए पर वे भी असहज भाशा पर उतारू हैं। यह नहीं भूलना चाहिए कि बीते फरवरी में दिल्ली विधानसभा की हार के पीछे बद्जुबानी भी एक कारण रहा है। कहीं उसकी पुनरावृत्ति बिहार में भी न हो। ऐसे में मुद्दों की राजनीति हमेषा सार्थक होती है। कम-से-कम विधानसभा चुनाव में तो यह कहीं अधिक जरूरी है क्योंकि ऐसे चुनावी महोत्सव स्थानीय दुःख-दर्द को समझने और उन्हें दूर करने के साथ जनमानस के अन्दर विष्वास पैदा करके ही विजित होने का इतिहास रहा है।


लेखक, वरिश्ठ स्तम्भकार एवं रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन के निदेषक हैं
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
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