Sunday, October 25, 2015

अत्याचार मुक्त समाज की प्रतीक्षा आज भी

किसी भी आलेख में यह भरसक कोशिश की गयी होती है कि उसमें निहित वास्तविकता लेश मात्र भी विश्लेषित हुए बिना न रह सके पर कभी-कभार भावना प्रधान होने के चलते इसमें गाढ़ापन नहीं आ पाता। जिस तर्ज पर हरियाणा के सुनपेड़ गांव में दो मासूमों को जिंदा जलाने वाली घटना सामने आई है वह मर्म, दर्शन और दृष्टिकोण को भी विचलित करती है। समाचार पत्रों और टीवी चैनलों में इस बात पर अधिक जोर देखा गया कि दो दलित बच्चे जला कर मार दिये गये। सवाल उठता है कि घटना की विशदीकरण बच्चों के तौर पर किया जाए या दलित बच्चों के तौर पर। निःसन्देह यह एक खौफनाक मंजर था जो दिलो-दिमाग को झकझोरने वाला है। वर्ग और जाति में बंटा भारत उत्तर वैदिक काल से ही इसी रूप में समझा और जाना जाता रहा है। हिन्दू काल, मुस्लिम काल और अन्ततः इसाई काल भी आया पर वहषीपन के समापन का कोई युग परिलक्षित नहीं होता है। हालांकि प्राचीन काल से लेकर अबतक षिक्षा, संस्कृति और सदाचार में व्यापक फैलाव और विस्तार हुआ है बावजूद इसके मानव भेद का खेल बादस्तूर जारी क्यों है यह बात समझ से परे है। ‘बच्चे मन के सच्चे पर बड़े क्यों नहीं अच्छे‘ आखिर उन बच्चों की मौत का जिम्मेदार कौन है जिन्हें न तो वैमनस्य की समझ है न ही जाति और वर्ग के बंटवारे का इल्म। जाहिर है ऐसी घटनाएं यह संकेत करती हैं कि सामाजिक दिषा और दषा की मरम्मत अभी भी अधूरी है। हजारों वर्शों तक अस्पृष्य समझी जाने वाली उन तमाम जातियों के लिए ‘दलित‘ षब्द का उपयोग होता रहा है। अर्थ और अवधारणा में जाया जाय तो इसका षाब्दिक अर्थ दलन किया हुआ है। इसके तहत वह व्यक्ति आता है जिसका षोशण-उत्पीड़न हुआ है। रामचन्द्र वर्मा ने अपने षब्दकोश में दलित का अर्थ कुचला हुआ भी बताया है जो आज के पढ़े-लिखे और विकसित समाज में अपचनीय है।
भारतीय संविधान में अनुच्छेद 341 के अन्तर्गत इन्हें अनुसूचित जाति के तौर पर सूचीबद्ध किया गया है। संविधान की पड़ताल करें तो पता चलता है कि इसमें असमानता को दरकिनार कर मानवता और समानता का मापदण्ड निहित किया गया है। भारतीय समाज में वाल्मीकि या भंगी को सबसे नीची जाति समझा जाता रहा है और इन्हें मानव मल की सफाई हेतु जाना जाता रहा है आज भी इस कृत्य से इन्हें पूरी तरह मुक्ति नहीं मिली है। हालांकि घर-घर षौचालय बनाने वाली सरकारी योजना इनको इस काज से मुक्त करने का रास्ता निर्मित करती दिख रही है। इतिहास पर दृश्टि डालें तो भारतीय राश्ट्रीय आंदोलन में दलितों की पहुंच और नेतृत्व बेमिसाल रहा है। भारत में दलित आंदोलन की षुरूआत ज्योतिबा फुले के नेतृत्व में हुई जो जाति के माली थे जिन्हें उच्च जाति के समान अधिकार प्राप्त नहीं थे जिन्होंने तथाकथित नीची जाति के लोगों की हमेषा पैरवी की। इनके द्वारा उठाया गया दलित षिक्षा का कदम उस जमाने का बड़ा नेक काज था। दरअसल समाज में भेद का खेल निरन्तर प्रवाहषील रहा है। स्वतंत्रता के बाद इस षुभ इच्छा के साथ संविधान में अनुच्छेद 17 के तहत अस्पृष्यता का अंत किया गया था कि इससे सामाजिक समरसता और समानता का भाव विकसित होगा पर 65 वर्श के बाद भी इस मामले में पूरा संतोश तो नहीं दिखता। देखा जाए तो भारतीय समाज संयुक्त परिवार और जजमानी प्रथा का एक संकुल था। षनैः षनैः इरावती कर्वे की संयुक्त परिवार की परिभाशा खो गयी और तमाम समाजषास्त्रियों के अध्ययन से जजमानी प्रथा तीतर-बीतर हो गयी। जजमानी प्रथा में जातिगत भेद तो था पर ऊँच-नीच को लेकर हिंसक संघर्श का आभाव था। ब्राह्यण, क्षत्रिय, वैष्य और षुद्र अलग होते हुए भी इसलिए जुड़ाव रखते थे क्योंकि वे एक-दूसरे पर निर्भर थे। इसी खसियत के चलते मानवता और मानवीय मापदण्ड भेदभाव के बावजूद उथल-पुथल से काफी हद तक अनभिज्ञ थे।
यहां बाबा साहेब अम्बेडकर का जिक्र किये बिना बात अधूरी रहेगी। स्वतंत्रता के आंदोलन के दिनों से लेकर संविधान निर्माण तक इनकी भूमिका सराहना से ऊपर रही है। संविधान के प्रारूप सभा के अध्यक्ष और संविधान निर्माता के तौर पर पहचान रखने वाले कानूनविद् अम्बेडकर दलित समाज के अत्यंत सम्माननीय नेता थे और हैं भी। इन्होंने बौद्ध धर्म के जरिये एक सामाजिक और राजनीतिक क्रान्ति लाने की पहल की थी जिसकी जरूरत आज भी महसूस की जाती है। पड़ताल बताती है कि दलित उत्पीड़न का मामला देष भर में बरसों से पांव पसारे हुए है। षायद ही कोई राज्य इससे अछूता हो। क्या सत्ता, क्या विपक्ष यह होड़ रहती है कि घटनास्थल पर जल्द उपस्थिति दर्ज हो भले ही रोकथाम के मामले में कदम अधकचरा ही हो। मुख्य विरोधी कांग्रेस दलितों की उत्थान को लेकर हाल फिलहाल में काफी चिंतित दिखाई देती है। सुनपेड़ की घटना पर राहुल गांधी का अंदाज उत्तेजना से भरा था जाहिर है ऐसा करना गलत भी नहीं था पर वे यह भूल गये कि उनके दस साल के कार्यकाल में भी दलित उत्पीड़न की घटनाएं कम नहीं थी। यूपीए-1 के समय वर्श 2004 में देष भर में घटित दलित अत्याचारों की संख्या 27 हजार थी जो 2008 में 34 हजार तक पहुंच गयी। नेषनल क्राइम रिकाॅर्ड्स ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि वर्श 2014 में यूपीए-2 की समाप्ति होते-होते कुल दलित उत्पीड़न 47 हजार को पार कर चुका था। तस्वीर यह बताती है कि उत्पीड़न को लेकर कठोर कदम पहले भी नहीं उठाये गये हैं। घटना यह दर्षाती है कि सरकारों ने इसे रोकने के बजाय सियासत और विष्लेशण पर ही कूबत झोंकी है। इसका यह तात्पर्य नहीं कि मोदी सरकार के काल में हो रही दलित घटनाओं की आलोचना न की जाए।
जब घटना घटित हो जाती है तो राजनीति भी तेज हो जाती है। दर्जनों नेता फरीदाबाद के गांव का चक्कर लगा चुके है पर क्या उस पिता को न्याय मिल पाएगा जिसके दो मासूम आग के हवाले कर दिए गये। इतना ही नहीं बयान में भी लापरवाही बरती जा रही है। कोई भी सरकार कितना भी दावा कर ले घटनाओं को रोकने के लिए किये जा रहे प्रयास नाकाफी ही सिद्ध हो रहे हैं। भारत का समाज पुरातन में सामंती किस्म का था सवाल है कि यह घटनाएं क्या उस काल को पुर्नस्थापित नहीं कर रही हैं। सत्ता की सवारी करने वाले इस पर जरूर ध्यान दें कि सामाजिक समरसता देष की प्राथमिकता है इसके आभाव में टूटन की सम्भावना बन सकती है। सोनिया गांधी ने दलित अत्याचारों को लेकर प्रधानमंत्री मोदी को चिट्ठी लिखी थी कि मानसून सत्र में ऐसे अपराधों के लिए विधेयक लाया जाए। देखा जाए तो देष में कानून तो हैं पर खामी क्रियान्वयन में है। ध्यान रहे कि सामाजिक वर्गीकरण का दौर कुछ भी रहा हो पर वर्तमान दौर सामाजिक समानता का है यदि इससे परे रहने की कोषिष की जाएगी तो पहले देष ही नुकसान में जाएगा और फिर तो मानव सभ्यता टिकेगी ही नहीं। यह एक कड़वी सच्चाई है कि दलित अत्याचार सम्बन्धी कानून को कभी ठीक से लागू ही नहीं किया गया। जिस भांति अत्याचार के मामले निरन्तरता लिए हुए हैं उसे देखते हुए अब किसी ठोस नतीजे पर पहुंचना जरूरी है। जहां राज्यों को कानून व्यवस्था के मामले में सिरे से कमर कसने की जरूरत है वहीं राजनीतिज्ञों को ऊल-जलूल की राजनीति से बाज आने की भी आवष्यकता है।


लेखक, वरिश्ठ स्तम्भकार एवं रिसर्च फाॅउन्डेषन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेषन के निदेषक हैं
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल
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