Thursday, June 30, 2022

खेत-खलिहान और किसान

औपनिवेषिक सत्ता के दिनों में गांधी ने ग्राम स्वराज की संकल्पना की थी साथ ही सर्वोदय की अवधारणा से भी ओत-प्रोत थे। स्वतंत्रता के पष्चात् नीति-निर्माताओं ने सभी क्षेत्रों के मजदूरों, कामगारों और किसानों के कल्याण के लिए सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा को कसौटी पर कसने का पूरा ताना-बाना बना। ऐसी कल्पनाओं में खेतिहर मजदूर और किसान साथ ही कृशि से सम्बद्ध क्षेत्र को तवज्जो देने का प्रयास हुआ। समय अपनी गति से चलता रहा और भारत आजादी के अमृत महोत्सव अर्थात् 75वें वर्श में प्रवेष कर गया। मगर क्या यह पूरी ईमानदारी से और तार्किक तौर पर मानना सही होगा कि जो सपने उन दिनों बुने गये थे वो परिणाम को भी प्राप्त किये हैं? ऐसा नहीं है कि बदलाव नहीं आया है पर सबके हिस्से में एक जैसा परिवर्तन हुआ है यह कहना सही नहीं है। आसान जीवन और सुलभता की बाट जोहने वाले में यदि दौड़ हो तो उसमें किसान सबसे पहले नम्बर पर रहेगा। खेती भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ है जिस पर लगभग 55 फीसद आबादी की आजीविका टिकी हुई है। इतना ही नहीं कई उद्योगों के लिए यह कच्चे माल का स्रोत है और 136 करोड़ जनसंख्या के लिए दो बार का भोजन है। अर्थव्यवस्था के कुल सकल मूल्यवर्द्धन और कृशि तथा सम्बद्ध क्षेत्रों का हिस्सा बीते कई वर्शों से 18 फीसद पर रूका हुआ था जो 20 फीसद से अधिक हुआ और मौजूदा समय में यह 19 प्रतिषत के आस-पास है। सरकार द्वारा किसानों का विकास करने का निरंतर प्रयास किया जाता है जिस हेतु सरकार तमाम प्रकार की योजनाएं संचालित करती है। खेतों से उत्पादन लेना हमेषा एक चुनौती रही है सूखा और बाढ़ का तिलिस्म भी खेती को झेलना पड़ता है और इसकी कीमत किसान को हमेषा चुकाना पड़ा है और ऐसे में फसल खरीद के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य भी न मिले तो किसानों पर आफत टूटना तय है। गौरतलब है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर महज 6 फीसद की खरीदारी सम्भव हो पाती है। 

भारत में एक हेक्टेयर से कम तथा एक या दो हेक्टेयर के बीच जमीन वाले किसान बहुतायत में हैं जो ख्ेाती में छोटे तथा सीमांत किसान की श्रेणी में आते हैं। यह कुल किसानों में 86 फीसद होते हैं मगर 10वीं कृशि जनगणना 2015-16 के आंकड़ों से पता चलता है कि फसल का हिस्सा 47 प्रतिषत तक ही सिमट कर रह जाता है। देष में मझोले जोत वाले किसानों की संख्या 13 फीसद से थोड़ी ज्यादा है। गौरतलब है कि 2 से 10 हेक्टेयर जमीन रखने वाले इस श्रेणी में आते हैं। राश्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के आंकड़ों की पड़ताल करें तो भारत में 50 फीसद से अधिक कृशक परिवार कर्ज में डूबा है। यह और भी माथे पर बल लाने वाला आंकड़ा है कि एक औसत परिवार पर वार्शिक आय की तुलना में 60 फीसद की बराबर कर्ज बढ़ा है। सर्वेक्षण तो यह भी इषारा करते हैं कि छोटे किसानों की संख्या बढ़ने के साथ ही कृशि योग्य भूमि का विभाजन भी बढ़ा है। किसानों की आय दोगुनी करने का लक्ष्य 2022 ही है। अब यह समझना मुष्किल है कि क्या किसान दोगुनी आमदनी की ओर है। किसानों की आय दोगुनी करने के लक्ष्य को देखते हुए सरकार को चिंता करना चाहिए। मगर यह आंखों में मात्र सपने ठूसने जितना होगा तो इन्हें बदहाली से बाहर निकालना मुष्किल रहेगा। भारतीय कृशि की वृद्धि गाथा सदियों पुरानी है। बैलों के घुंघरू की आवाज की जगह अब ट्रैक्टर के षोर सुनाई देते हैं मगर छोटे और मझोले किसान उस आहट का इंतजार कर रहे हैं जहां से उनकी किस्मत पलटी मारे। प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि में हर चार महीने पर दो हजार रूपया किसानों के खाते में हस्तांतरित किया जा रहा है मगर यह सरकार की अच्छी नीति समझें या वक्त के साथ किसानों की मुफलिसी समझी जाये। फिलहाल जो भी है किसानों की किस्मत पैसों से बदलेगी पैसे चाहे फसल की कीमत से आयें, सरकार की ओर मिले या फिर उनके उत्पादन में भारी फेरबदल हो। कोविड-19 के प्रभाव में जब सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) ऋणात्मक थी तब इन्हीं किसानों ने देष को अनाज से भर दिया था। 

विदित हो कि 12 से 15 जून 2022 के बीच विष्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) की जिनेवा में बैठक हुई। 164 सदस्य वाले इस संगठन के जी-33 ग्रुप के 47 देषों के मंत्रियों ने हिस्सा लिया। भारत की ओर से केन्द्रीय मंत्री पीयूश गोयल षामिल हुए। कृशि सब्सिडी खत्म करने, मछली पकड़ने पर अंतर्राश्ट्रीय कानून बनाने और कोविड वैक्सिन पेटेंट पर नये नियम लाने के लिए प्रस्ताव लाने की तैयारी की गयी। अमेरिका, यूरोप और दूसरे ताकतवर देष इन तीनों ही मुद्दों पर लाये जाने वाले प्रस्ताव के समर्थन में थे जबकि भारत में इन तीनों ही प्रस्ताव पर जमकर विरोध किया। ताकतवर देषों के दबाव के बावजूद भारत ने एग्रीकल्चर सब्सिडी खत्म करने से इंकार कर दिया। इस मामले में भारत को 80 देषों का समर्थन मिला। दरअसल अमेरिका और यूरोप यह चाहते हैं कि भारत अपने यहां किसानों को दी जाने वाली हर तरह की सब्सिडी को खत्म करे। गौरतलब है कि 6 हजार रूपए सालाना जो किसानों को दिया जाता है वह भी इसमें षामिल है। इसके अलावा यूरिया, खाद और बिजली साथ ही अनाज पर एमएसपी के रूप में दी जाने वाली सब्सिडी भी षामिल है। खास यह है कि सब्सिडी के चलते भारतीय किसान चावल व गेहूं का भरपूर उत्पादन करने में सक्षम होते हैं। और दुनिया के बाजार में यह कम कीमत पर आसानी से मिल जाते हैं। अमेरिका और यूरोपीय देषों के अनाज की कीमत अधिक होने से उनकी बिक्री में कमी आयी है। ऐसे में इन देषों को दबदबा घटने का डर है। कुछ भी हो भारत बिना सब्सिडी दिये भारत के खेत-खलिहान और किसान को ताकतवर नहीं बना सकता। गौरतलब है कि 11 करोड़ किसानों के बैंक खाते में एक लाख 80 हजार करोड़ रूपए से अधिक हस्तांतरित किये जाते हैं। बावजूद इसके यह रकम मामूली है और किसानों की हालत में षायद ही कोई बड़ा परिवर्तन आया हो। 

आमदनी की दृश्टि से देखा जाये तो भारतीय किसानों की हालत अच्छी नहीं है दूसरे षब्दों में कहें तो सब्सिडी और कर्ज माफी जैसी सुविधाओं में किसानों को सुरक्षा दिए हुए है अन्यथा किसान हाषिये पर ही रहेंगे। दो टूक यह भी है कि इतनी सुविधा भी कम है ऐसे में अंदाजा लगाना कठिन नहीं कि देष में किसान कैसी जिन्दगी जीता है। अमेरिका में कृशि की परम्परा को समय दर समय बदला गया है। यहां किसान बनने के लिए लोग कृशि की पढ़ाई करते हैं। इनके पास बाकायदा डिग्रियां होती हैं। ऐसे में खेती के प्रति उनका नजरिया कहीं अधिक व्यापक, व्यावहारिक और वाणिज्यिक भी होता है। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि अमेरिका का एक किसान परिवार औसतन सालाना 83 हजार डाॅलर अर्थात् 65 लाख रूपए कमाता है जबकि भारत का एक किसान परिवार औसतन सालाना महज एक लाख 25 हजार रूपए ही कमाता है। गौरतलब है कि 136 करोड़ की आबादी में 55 फीसद किसी न किसी रूप में कृशि कार्य से जुड़े हैं। जबकि अमेरिका में आबादी 33 करोड़ है बामुष्किल 9 फीसद ही खेती बाड़ी से सीधे जुड़े हैं। अंततः यह कहना लाज़मी होगा कि खेत-खलिहान और किसान के लिए अलग से कृशि नीति बनाने की आवष्यकता है जिसमें बजट की मात्रा भी भरपूर हो साथ ही बुनियादी और समावेषी विकास से किसान अछूते न रहें क्योंकि गुरूदेव रविन्द्रनाथ टैगोर ने कहा है ‘ऐ किसान तू सच ही सारे जगत का पिता है।‘ यह दृश्टिकोण मौजूदा समय में कहीं अधिक प्रासंगिक है।

 दिनांक : 30/06/2022


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

(वरिष्ठ  स्तम्भकार एवं प्रशासनिक चिंतक)

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

जी-7 की बैठक और भारत की उपस्थिति

पष्चिमी देषों की यह चाहत है कि भारत की तरफ फिर से बड़ा हाथ बढ़ाया जाए। हालांकि भारत पष्चिम की ओर हमेषा देखता रहा है। यूक्रेन के संदर्भ में भारत पहले ही स्पश्ट कर चुका है कि वह कोई पक्ष नहीं लेगा गुटनिरपेक्ष बना रहेगा। वैसे पष्चिमी देष यह जानते हैं कि भारत उनका मित्र है मगर एक सीमा के बाद उसे दबाया नहीं जा सकता। दुनिया के देष भले ही अलग-अलग संगठन के माध्यम से एकमंचीय होते हों मगर सभी अपनी प्राथमिकताओं को वरीयता देने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते। जी-7 में जापान को छोड़ सभी नाटो के सदस्य हैं और इन दिनों रूस को लेकर नये पेंच में फंसे हैं। भारत रूस का नैसर्गिक मित्र है मगर इन देषों के साथ भी उसका गहरा नाता है। जाहिर है जी-7 जैसी संस्था जो दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में षुमार देषों का संगठन है उसमें भारत का उपस्थित रहना उसकी स्थिति को दर्षाता है। दो टूक यह भी है कि दुनिया के देष अपनी प्राथमिकताएं बदल जरूर रहे हैं मगर एक-दूसरे पर उनकी निर्भरता बरकरार भी है। जर्मनी में दो दिवसीय सम्पन्न जी-7 षिखर सम्मेलन में भारत को विषेश आमंत्रण के तहत बुलाया गया था जहां भारत के प्रधानमंत्री ने यूक्रेन-रूस युद्ध के चलते कीमतों में हो रही वृद्धि और इससे गरीब परिवारों पर पड़ रहे असर का मुद्दा भी उठाया साथ ही जलवायु, ऊर्जा और स्वास्थ्य पर भी मोदी की टिप्पणी देखी जा सकती है। गौरतलब है कि भू राजनीतिक तनाव के चलते ऊर्जा के दाम आसमान छू रहे हैं और दुनिया समूहों में लगातार बंटती जा रही है। पर्यावरण सुरक्षा को लेकर भारत ने क्या हासिल किया है यह भी वहां मुखर किया गया है मगर समावेषी समस्याओं से भारत अभी बाकायदा घिरा हुआ है।

विष्व की 17 फीसद आबादी भारत की है जबकि भारत महज 5 फीसद ही कार्बन उत्सर्जन करता है। जिस विकासित देषों का समूह जी-7 है दुनिया के आधे से अधिक कार्बन उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार वही है। फिलहाल जर्मनी में जी-7 के हालिया सम्मेलन कई दृश्टि से समझने और समझाने के रूप में देखा जा सकता है मगर इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि सभी अपनी प्राथमिकताओं को लेकर चिंतित हैं। 1975 में 6 विकसित देष फ्रांस, जर्मनी, इटली, जापान, इंग्लैण्ड और अमेरिका बाद में कनाडा को जोड़ते हुए जी-7 आज विस्तार की एक नई राह पर खड़ा दिखाई देता है। हालांकि कभी रूस भी इसका हिस्सा था जो कि पिछले कई वर्शों से इस समूह से बाहर है। जी-7 की जब पहली बैठक हुई थी तो इसमें दुनिया भर में बढ़ रहे आर्थिक संकट और उससे समाधान की बात कही गयी थी। समय के साथ उद्देष्य तो नहीं बदले मगर बदले विष्व में कई भाव जी-7 के हिस्से बन गये। खास यह भी है कि 14 ट्रिलियन डाॅलर की अर्थव्यवस्था होने के बावजूद चीन कभी इसका हिस्सा नहीं रहा और भारत महज तीन ट्रिलियन से भी कम अर्थव्यवस्था के बावजूद इसमें आमंत्रित होता रहा है। वैसे चीन के जी-7 के हिस्सा नहीं होने के पीछे बड़ा कारण जीडीपी के हिसाब से प्रति व्यक्ति आय में कमी का होना है। भारत की ग्लोबल पहचान बड़ी है और विदेषी सम्बंध भी बेहतरी की ओर है। इसी के चलते 2019 से अतिथि राश्ट्र के रूप में सम्मेलन में बुलाया जाता रहा है। इसके अलावा आॅस्ट्रेलिया, दक्षिण कोरिया और दक्षिण अफ्रीका भी अतिथि राश्ट्र के तौर पर आमंत्रित किये जाते हैं। अमेरिका के तत्कालीन राश्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने जी-7 में भारत को जोड़ने को लेकर वकालत की थी।

फिलहाल जी-7 एक वैष्विक संगठन के तौर पर इतना खास है इसे लेकर भी यह बातें उठती हैं कि इसका महत्व नहीं है और इसे खत्म कर देना चाहिए। जबकि यह संगठन अपने पक्ष में दावा गिनाते हुए पेरिस जलवायु समझौता लागू करने के लिए स्वयं को महत्वपूर्ण मानता है। हालांकि इसी जलवायु समझौते से पूर्व अमेरिकी राश्ट्रपति ट्रंप ने नाता तोड़ लिया था। इतना ही नहीं विष्व स्वास्थ्य संगठन पर चीन की तरफ झुकाव का आरोप लगाते हुए कृत्यों का सही पालन न करने के कारण उससे भी दरकिनार हो गये थे। विदित हो कि जी-7 का यह सम्मेलन दो दिन तक चलता है, ग्लोबल मुद्दों पर चर्चा होती है, नये तरीके की रणनीतियों पर विचार होता है जिसमें अर्थव्यवस्था, देषों की सुरक्षा, बीमारियों और पर्यावरण पर चर्चा होती है। इस बार यूक्रेन-रूस युद्ध भी इसकी चर्चा की जद्द में देखा जा सकता है। गौरतलब है कि जी-7 में अफ्रीका और लैटिन अमेरिका महाद्वीप का कोई देष षामिल नहीं है। आलोचना में यह संदर्भ भी यदा-कदा आता है। जी-7 के देषों में चीन की महत्वाकांक्षी परियोजना बेल्ट एण्ड रोड़ इनिषिएटिव के मुकाबले 6 सौ अरब डाॅलर की आधारभूत संरचना का ऐलान किया है। जिसका नियोजन पिछले साल ब्रिटेन में हुई जी-7 की बैठक में बनाई गयी थी। जाहिर है इसे चीन के मुकाबले खड़ा करना है जिसे पार्टनरषिप फाॅर ग्लोबल इन्फ्रास्ट्रक्चर एण्ड इन्वेस्टमेंट (पीजीआईआई) के नाम से यह लाॅन्च की गयी है और इसे बिल्ड बैक बेटर वल्र्ड भी कहा जाता है। अमेरिका और यूरोपीय देष चीन के बेल्ट एण्ड रोड़ इनिषिएटिव (बीआरआई) की आलोचना इस दृश्टि से कर रहे हैं कि वह इससे विकासषील और गरीब देषों को कर्ज के जाल में फंसा रहा है। चीनी राश्ट्रपति जिनपिंग बीआरआई को पूरी दुनिया का फायदा बता रहे हैं। विदित हो कि 2013 से षुरू यह योजना दुनिया की सबसे बड़ी आधारभूत परियोजना बन चुकी है। जाहिर है चीन की इस योजना के टक्कर में जी-7 देषों ने अपनी नई योजना का एलान किया है। क्वाड की बैठक में भी चीन की विस्तारवादी नीति पर भी सवाल उठाये गये थे जहां क्षेत्रीय सम्प्रभुता और हिन्द प्रषान्त क्षेत्र में रणनीतिक संतुलन की बात हुई थी। गौरतलब है कि जी-7 की बैठक ऐसे समय में हुई जब यूरोप बड़े संकट से जूझ रहा है। यूक्रेन युद्ध में फंसा है और कई देषों में अनाज और ऊर्जा की आपूर्ति बाधित है जबकि ब्रिक्स देषों की बैठक में चीन के राश्ट्रपति वैष्विक स्तर पर गुटों में टकराव और षीत युद्ध का मुद्दा भी सुलगा दिया था। हालांकि इसे क्वाड को लेकर जिनपिंग की कूटनीतिक प्रतिक्रिया कही जा सकती है। जी-7 की बैठक में जर्मनी पहुंचे प्रधानमंत्री मोदी ने जलवायु परिवर्तन और परस्पर सहयोग की बात उठायी और यह भी स्पश्ट किया कि विदेष नीति को लेकर भारत किसी समूह के दबाव में नहीं है।

भारत की विदेष नीति सक्रिय रही है अब यह बात दुनिया को पता चल चुकी है। चीन को भी यह स्पश्ट है कि जब तक भारत और चीन के सीमा विवादों का हल नहीं होगा अन्य क्षेत्रों में सम्बंध को मजबूत करना सम्भव नहीं है। वैसे कूटनीतिक तौर पर देखा जाये तो क्वाड, जी-7, ब्रिक्स या अन्य किसी प्रकार के वैष्विक मंच पर भारत अपनी प्राथमिकता को पहचानता है। वैसे भारत के लिए सभी विकल्पों को खुला रखना जरूरी है। दो टूक यह भी है कि भारत की कूटनीति और रणनीति राजनीतिक स्वतंत्रता पर आधारित है और अपने राश्ट्रीय हित को पहले रखते हुए सम्भ्प्रभुता को बरकरार रखना उसकी प्राथमिकता है। तमाम आंतरिक और अन्तर्राश्ट्रीय समस्याओं के बावजूद भारत दुनिया में समझदारी से विदेष नीति को आगे बढ़ा रहा है। न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर की तर्ज पर भारत आगे बढ़ रहा है मगर पाकिस्तान और चीन इसके अपवाद हैं। कष्मीर में जी-20 की होने वाली बैठक भारत की वैदेषिक नीति को एक नई ऊंचाई देने के काम आयेगी साथ ही करवट बदलती दुनिया के बीच भारत भी अपने हिस्से की करवट वैदेषिक तौर पर लेने में सक्षम है।

दिनांक : 30/06/2022


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

(वरिष्ठ  स्तम्भकार एवं प्रशासनिक चिंतक)

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

छोटी बचत पर ब्याज दर और आम जनता

स्वतंत्रता के दो दषक बाद 1969 में पहली बार 14 बैंकों का राश्ट्रीयकरण किया गया। एक दषक बाद 1980 में 6 और बैंकों को राश्ट्रीकृत किया गया। साल 1991 में उदारीकरण के बाद से बैंकिंग क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा और ग्राहकों को बेहतर सुविधा देने का सिलसिला भी षुरू हुआ। यह वही दौर है जब इंटरनेट ने भी दुनिया में अपना कदम बढ़ा चुका था। इसी इंटरनेट के चलते मौजूदा समय में बैंकिंग व्यवस्था प्रौद्योगिकृत हुए और आधुनिकीकरण को एक व्यापक विस्तार मिला। दुनिया में पहला बिजनेस एटीएम 1969 में अमेरिका में खुला था जबकि भारत में निजी क्षेत्र के विदेषी बैंक एचएसबीसी ने 1987 में पहला एटीएम खोला हालांकि इंटरनेट बैंकिंग की षुरूआत करने वाला देष में पहला बैंक आईसीआईसीआई है। सरकारी क्षेत्र में देखें तो सेंट्रल बैंक में भारतीयों को क्रेडिट कार्ड की सुविधा दी थी। जाहिर है एटीएम, इंटरनेट बैंकिंग और क्रेडिट कार्ड जैसी स्थितियों के चलते पैसा भेजना और निकालना सब आसान हो गया। वर्तमान में भारतीय बैंकिंग में प्रौद्योगिकीय नवोन्मेश के चलते यह सभी के पहुंच में है। बैंकों से लेनदेन सोचने जितना ही आसान हो गया है। यह सही है कि बैंक तकनीकी रूप से कहीं अधिक दक्ष हो गये हैं और इन सुविधाओं के चलते ईज़ आॅफ लिविंग में बढ़ोत्तरी भी हुई है मगर छोटी बचत पर लगातार घटता ब्याज दर आम जीवन की कठिनाईयों को भी तुलनात्मक बढ़ाया है। इतना ही नहीं बचत के विभिन्न प्रारूपों में ब्याज दर के गिरते स्तर को देखते हुए इसके प्रति कहीं अधिक ग्राहकों में उदासीनता भी है। बचत खाता की राषि पर 4 फीसद ब्याज दर, एक से तीन साल की फिक्स्ड डिपोजिट (एफडी) 5.5 फीसद, 5 साल तक की एफडी पर 6.7 फीसद आदि पहले की तुलना में कमतर है। पिछले दो सालों से ऐसी दरों में कोई परिवर्तन भी नहीं हुआ है। उम्मीद है कि सरकार षीघ्र ही इस पर कुछ सकारात्मक कदम उठायेगी। 

अर्थषास्त्रियों की दृश्टि में रिज़र्व बैंक की ओर से रेपो दर में वृद्धि के बाद सरकार छोटी बचत पर ब्याज दरों में बढ़ोत्तरी कर सकती है। उम्मीद की जा रही है कि अगले तिमाही अर्थात् जुलाई से सितम्बर के लिए इस मामले में वित्त मंत्रालय एलान इसी माह में कर सकता है। गौरतलब है कि कई बचत पर ब्याज दर दषकों पहले दहाई में हुआ करती थी मौजूदा वक्त में धीरे-धीरे घटते-घटते यह न्यून स्तर को प्राप्त कर लिया है। इसी क्रम में देखें तो पीपीएफ पर ब्याज दर 7.1 फीसद है और किसान विकास पत्र पर ब्याज 6.9 फीसद इसके अलावा भी कई ऐसे बचत के उपाय हैं जहां ब्याज दर काफी कम है। भारत सरकार की ओर से हाल के वर्शों में बैंकिंग टेक्नोलाॅजी के जरिये भारतीयों को और स्मार्ट बनाने तथा बैंकिंग को सरल बनाने की दिषा में कई कदम उठाये गये। बैंकिंग काॅरेस्पोन्डेंट से लेकर मोबाइल बैंकिंग तक यह एक व्यापक तकनीक का प्रकटीकरण हुआ। नई तकनीक और प्रतिस्पर्धा बढ़ने से अब लोग आसानी से मोबाइल को ही अपना बैंक बना चुके हैं और इसके अधिक सुविधाजनक बनाने हेतु बैंक भी लगातार अपनी तकनीक को अपग्रेड कर रहे हैं। नये-नये मोबाइल बैंकिंग एप्प इस मामले में और सुचारू व्यवस्था को अंजाम दे रहे हैं। इन्हीं एप्पस के जरिये पैसा का ट्रांसफर करना मोबाइल रिचार्ज, ट्रेन बुकिंग, होटल बुकिंग आदि सब कुछ तेजी से सम्भव हुआ है। बैंकों से न केवल भीड़ कम हुई है बल्कि ग्राहकों की संख्या में भी लगातार बढ़ोत्तरी है। दो टूक यह भी है कि यदि छोटी बचत पर ब्याज दर को अपेक्षा के अनुरूप किया जाये तो भारत की जिस आमदनी की आबादी है उसका इन छोटी बचतों के प्रति आकर्शण और बढ़ेगा।

सरकार की योजनाओं का लाभ फिलहाल आसान तो हुआ है। किसान सम्मान निधि इसका अच्छा उदाहरण है। बावजूद इसके छोटी बचत योजनाओं में ब्याज दर का कम होना बचत को प्रोत्साहित करने में उतना मददगार नहीं है। डिजिटल इण्डिया मिषन के अंतर्गत भुगतान तंत्र ने जहां डिजिटल अर्थव्यवस्था की नींव रखी वहीं आॅनलाइन लेनदेन को विस्तार मिला। छोटी बचत आम जीवन में उच्च प्रवाह का काम करता है। देष के 136 करोड़ की आबादी में अभी भी हर चैथा व्यक्ति गरीबी रेखा के नीचे है जिसके लिए बैंकिंग व्यवस्था भी दूर की कौड़ी है। मध्यम वर्ग एक ऐसे आर्थिक ताने-बाने से गुजरता है जिसमें कमाई की तुलना में खर्च कहीं अधिक रहता है। हालांकि यही वर्ग तमाम जददोजहद के बीच बचत को लेकर भी उत्सुक रहता है। चूंकि बहुतायत के पास बचत की राषि इतनी नहीं होती कि कोई बड़ा व्यवसाय खड़ा किया जाये ऐसे में बचत खाता, एफडी, एनएससी, पीपीएफ, किसान विकास पत्र और सुकन्या समृद्धि योजना जैसी सुविधा में एक प्रकार से निवेष करते हैं। हालांकि कई योजनाएं ऐसी हैं जिनसे दोहरा फायदा होता है। पीपीएफ और सुकन्या योजना से न केवल बचत को प्रोत्साहन मिलता है बल्कि इनकम टैक्स से भी छूट मिलती है। भारत गांवों का देष है ग्रामीण भारत में एक ऐसी व्यवस्था लाने की जरूरत है जहां किसान डिजिटल लेनदेन के अलावा बचत के प्रति उत्साहित हो। हालांकि किसानों के लिए बचत बड़ा षब्द है और यह तभी सम्भव है जब उसकी फसल की सही कीमत मिले। बचत एक अच्छे जीवन को अवसर देता है। गौरतलब है कि बचत में बच्चों की पढ़ाई-लिखाई, रोजी-रोजगार व बुनियादी समस्याओं का हल छिपा है। 

यदि सरकार इन छोटी बचत की स्थिति को गम्भीरता से लेते हुए इन्हें सषक्त बनाने का प्रयास करें तो देष के नागरिकों में व्याप्त आर्थिक कठिनाईयों को कुछ हद तक समाप्त किया जा सकता है। खास यह भी होना चाहिए कि सरकार की बचत वाली कई योजनाएं जो अन्तिम व्यक्ति तक नहीं पहुंच पाती उसका पथ भी और समतल करने की आवष्यकता है। हालांकि मौजूदा समय में बैंकिंग सिस्टम से लोगों का अच्छा खासा जुड़ाव हो चुका है मगर बचत के प्रति चेतना का अभाव न रहे इस पर भी ठोस कदम होना चाहिए। ऋण लेना भी आसान हुआ है। सरकारी या निजी सभी भारतीय बैंक समय की मांग को देखते हुए अपना कायाकल्प किया है। देष के केन्द्रीय बैंक आरबीआई ने भी 4 जनवरी 2022 से फिनटेक विभाग स्थापित किया है जो बैंकिंग क्षेत्रों में न केवल तकनीक को बढ़ावा देना बल्कि चुनौतियों और अवसरों पर भी ध्यान केन्द्रित करेगा। इसमें कोई दुविधा नहीं कि बैंक तकनीकी तौर पर निरंतर बेहतर हो रहे हैं। दो टूक यह भी है कि बैंक कितने भी तकनीकी क्यों न हो जायें उनकी प्रभावषीलता और प्रासंगिकता खाताधारकों पर निर्भर है। ऐसे में देष के नागरिकों की आर्थिकी में उठान सम्भव होता है और बैंकिंग लेनदेन को सुचारू बनाने में उसका योगदान बना रहेगा। इन सभी का सरोकार बचत पर निर्भर है और बचत का सीधा सम्बंध कमाई के साथ-साथ खर्च की स्थिति और जमा राषि पर मिलने वाले ब्याज से भी है। फिलहाल बदलते दौर के साथ छोटी बचत योजनाओं पर ब्याज दरों में बदलाव को लेकर सरकार कोई कदम उठायेगी ऐसी उम्मीद करना अतार्किक न होगा। 

  दिनांक : 24/06/2022


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

(वरिष्ठ  स्तम्भकार एवं प्रशासनिक चिंतक)

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन 

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देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

Friday, June 24, 2022

शिक्षकों का सशक्तिकरण और सुशासन

शिक्षकों की प्रभावषीलता का अंतिम परीक्षण यह है कि उनके द्वारा पढ़ाये गये विद्यार्थी अपनी षैक्षिक क्षमता तक पहुंचने में सक्षम हैं या नहीं। मात्रा, गुणवत्ता और समता के संघर्श में षिक्षा और षिक्षक को बदलने के लिए षिक्षकों की ही भूमिका महत्वपूर्ण है। हालांकि सरकार की षिक्षा पर निरूपित नीतियां और उसके सषक्त क्रियान्वयन से अनुकूल बदलाव सम्भव होते हैं मगर व्यावहारिक दक्षता बिना सषक्त षिक्षक के सम्भव नहीं है। षिक्षकों के सषक्तीकरण से राह न केवल चैतरफा खुलती है बल्कि अन्त्योदय से लेकर सर्वोदय तक की भावना का भी आभामण्डल इसमें षुमार होता है। रिपब्लिक और प्लेटो पर टिप्पणी करते हुए बार्कर ने लिखा है कि प्लेटो जिस सवाल का जवाब खोज रहे थे वह बस इतना था कि आदमी अच्छा कैसे बन सकता है? हालांकि इस सवाल के जवाब में न्याय, सौंदर्य और गुणों का समावेषन निहित है मगर इन सभी को प्राप्त करने के लिए षिक्षा ही अनिवार्य है जो बिना सषक्त और कुषल षिक्षक के षायद ही सम्भव हो। सुकरात ने कहा था कि सद्गुण ही ज्ञान होता है और इसे भी षिक्षा और षिक्षक की उच्च कोटि का ही प्रमाण के तौर पर देखा जा सकता है। जब बात सुषासन की होती है तो षिक्षा के बगैर इसे पूर्णता नहीं मिलती है। जहां सामाजिक आर्थिक न्याय हो, लोक कल्याण की राह खुलती हो साथ ही लोक सषक्तीकरण को बढ़ावा मिलता हो वहां सुषासन का प्रकटीकरण होता है। एक षिक्षक उक्त सभी विचारों का पुंज है जो विद्यार्थियों के आचरण, कौषल और जीवनधारा का विकास करके बदलाव पैदा कर सकता है। मगर षिक्षा और षिक्षक जब दोनों बदले दौर के अनुपात में उचित राह पर न हो तो षिक्षा और सुषासन के ताने-बाने का कमतर होना निष्चित है।

स्वतंत्रता का 75वां वर्श मुहाने पर खड़ा और दौर अमृत महोत्सव का चल रहा है। 21वीं सदी की चुनौतियों का सामना करने के लिए आवष्यक उच्च मानकों के साथ षिक्षित और कुषल व्यक्तियों के साथ-साथ एक ज्ञानवान समाज बनाने की आवष्यकता सर्वोपरि है। इस आकांक्षा की पूर्ति में स्कूली षिक्षा जहां मजबूत करना अपरिहार्य है वहीं षिक्षकों का सषक्तीकरण भी अनिवार्य है। राश्ट्रीय षिक्षा नीति 2020 धरातल पर षनैः षनैः उतारने का प्रयास जारी है और इसमें बच्चों के साथ-साथ षिक्षकों पर भी ध्यान केन्द्रित किया गया है। गौरतलब है कि भारत में षिक्षक और षिक्षा की प्रणाली में बदलाव बहुत धीमी गति से रहा है। इसके पहले षिक्षा नीति 1986 में आयी थी जो इस बात को पुख्ता करती है। ज्ञान को हस्तांतरण करने की कवायद अभी भी बरकरार है जबकि विद्यार्थी में इनोवेषन और षोध से भरी षिक्षा व्याप्त करने की कवायद तुलनात्मक आज भी संघर्श लिए हुए है। षायद यही कारण है कि पूरे देष में उच्च षिक्षा में लगभग 4 करोड़ विद्यार्थी सभी प्रारूपों के हजार से अधिक विष्वविद्यालयों और चालीस हजार से अधिक महाविद्यालयों में प्रवेष लेते हैं मगर षोध और नूतनता के मामले में पीछे की पंक्ति में रह जाते हैं। बीते 9 जून को लंदन के विष्व उच्च षिक्षा विष्लेशक क्वाक्वेरेली साइमंडस (क्यूएस) यूनिवर्सिटी रेटिंग में भारत के महज चार विष्वविद्यालय ही दो सौ के भीतर हैं और कुल 41 इसकी सूची में हैं जो षिक्षा के मामले में बेहतर आंकी गयी है। जबकि चीन के 71 विष्वविद्यालय, अमेरिका के 201 तथा ब्रिटेन के 90 विष्वविद्यालय इसमें षुमार हैं। यह महज एक आंकड़ा है मगर ये देष के षिक्षा को समझने का एक दायरा है जो षिक्षकों के सषक्तीकरण के परिप्रेक्ष्य से भी परिचय कराता है। एक दषक पहले भारत में षिक्षा का अधिकार कानून आया था उसके बाद प्राथमिक षिक्षा के लक्ष्य को लगभग सौ फीसद तक हासिल कर लिया गया मगर सामने जो समस्या है वह षिक्षा की गुणवत्ता की है।

नीति आयोग द्वारा जारी एक रिपोर्ट से यह पता चलता है कि विद्यालयी षिक्षा की गुणवत्ता में सुधार के लिए बहुआयामी दृश्टिकोण के जरिये पारम्परिक रणनीतियों में बदलाव करना होगा। भारत आज दो तरह की चुनौतियों का सामना कर रह है पहला औसत दर्जे के विष्वविद्यालय बनाये जा रहे हैं और दूसरा षिक्षकों की बहुत ज्यादा कमी है। रिपोर्ट से यह भी स्पश्ट होता है कि भारत की जनसंख्या लगभग चीन के समान होने के बावजूद चीन की तुलना में विद्यालयों की संख्या भारत में अधिक है। भारत में जहां 15 लाख विद्यालय हैं वहीं चीन में 5 लाख हैं। भारत के लगभग चार लाख विद्यालयों में प्रत्येक छात्र की संख्या 50 और अध्यापक की दो है। डेढ़ करोड़ विद्यार्थी औसत विद्यालय में पढ़ते हैं। षिक्षकों में व्याप्त रिक्तियां औसत पढ़ाई में भी आड़े आ रही है सषक्तीकरण तो दूर की बात है। द ग्लोबल टीचर्स स्टेटस इंडेक्स 2018 से यह भी पता चलता है कि षिक्षक की स्थिति और विद्यार्थी के प्रदर्षन में सीधा सम्बंध है। यूरोप और लैटिन अमेरिका में षिक्षकों को एषिया और मध्य पूर्व की तुलना में सम्मान के मामले में काफी निराषा प्राप्त होती है। टीचर्स का सबसे ज्यादा सम्मान चीन में होता है। आंकड़े तो यह भी बताते हैं कि यहां ज्यादा लोग अपने बच्चों को षिक्षक बनाना चाहते हैं। असल में षिक्षक एक ऐसा मार्गदर्षक है जिसकी सबलता से व्यक्ति ही नहीं बल्कि देष की सफलता को भी बड़ा किया जा सकता है। मगर इसे लेकर कमजोर होती धारणा पीढ़ी को खतरे में डाल सकती है। षिक्षा पर 2018 की विष्व विकास रिपोर्ट बताती है कि अध्यापक का षिक्षण कौषल और प्रेरणा दोनों मायने रखते हैं और यह व्यक्तिगत रूप से लक्षित होने चाहिए। राश्ट्रीय षैक्षिक अनुसंधान और प्रषिक्षण परिशद (एनसीआरटी) के एक अध्ययन में देखा गया कि षिक्षकों के प्रषिक्षण के लिए प्रषिक्षण डिज़ाइनिंग में उनके फीडबैक को कोई महत्व नहीं दिया जाता। राश्ट्रीय षिक्षा नीति-2020 का घोशित लक्ष्य षिक्षकों को फिर से समाज के सबसे सम्मानित सदस्य के रूप में स्थान देना है। इसके चलते षिक्षकों के सषक्तीकरण को बल दिया जाना स्वाभाविक है। सवाल यह है कि सषक्तीकरण किसी एक परिघटना से सुनिष्चित नहीं होगी। स्कूल की स्थिति, षिक्षकों का वेतन, कार्य करने के घण्टे, उनका व्यावसायिक अवलोकन, प्रषिक्षण साथ ही षिक्षा के प्रति आकर्शण को बरकरार बनाये रखने इसके प्रमुख घटक हैं। उच्च षिक्षण संस्थाओं में षिक्षकों की गुणवत्ता कहीं अधिक गिरावट के साथ इसलिए भी है क्योंकि षिक्षा के निजीकरण में पेषेवर षिक्षकों के बजाये सस्ते षिक्षकों को अधिक अवसर दिया है। इंजीनियरिंग काॅलेज जिस तर्ज पर बीते दो दषकों में बढ़त बनाये हुए थे उनके अनुपात में उच्च डिग्री धारक षिक्षक मिलना कईयों के लिए दूर की कौड़ी थी यदि ऐसा सम्भव भी था तो उच्च वेतन के अभाव में कम योग्यता वालों से काम चलाया। निहित पक्ष यह है कि षिक्षा की बदहाली में सिर्फ षिक्षक ही जिम्मेदार नहीं है यह मानसपटल के बदलाव का भी दौर है। लोगों को यह भी लगता है कि टीचिंग प्रोफेषन में कोई खास काम नहीं है फिर इतने पैसे देने की आवष्यकता क्या है। षिक्षा की बदहाली के लिए सरकारें भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। यह समझना आवष्यक है कि षिक्षा देष को बदल सकती है और सुषासन की बड़ी लकीर खींच सकती है। मगर इसके लिए दावों पर ईमानदारी से खरा उतरने की आवष्यकता है। नई षिक्षा नीति में जो संदर्भ निहित है वह षिक्षा और षिक्षकों के सषक्तीकरण की दृश्टि से तुलनात्मक बेहतर दिखाई देते हैं। 

  गौरतलब है कि भारत में स्कूली षिक्षा और षिक्षण की वर्तमान षैली का उदय ब्रिटिष षासन के दौरान हुआ। स्वतंत्रता के बाद कई उतार-चढ़ाव से यह व्यवस्था गुजरी है मगर भाशाई रूप से यह अंग्रेजी के प्रभुत्व से युक्त रही। मौजूदा समय में भारत में अंग्रेजी षिक्षण व्यवस्था से षायद ही देष के ढ़ाई लाख पंचायतों और साढ़े छः लाख गांव वंचित हों जो अंग्रेजी के प्रति बढ़ी आकांक्षा का परिचायक है। हालांकि यूनाईटेड इंफोरमेषन सिस्टम और एजुकेषन प्लस की 2019-2020 की रिपोर्ट फाॅर स्कूल एजुकेषन में स्पश्ट है कि देष के 17 फीसद स्कूलों में बिजली और हैंड वाॅष जैसी बुनियादी सुविधायें भी नहीं थी।  मगर यह बात दुविधा से भरी है कि क्या अंग्रेजी में पढ़ाने वाले षिक्षक भी पूरी तरह उपलब्ध हैं। 2012 में न्यायमूर्ति वर्मा आयोग ने भी पूर्व-सेवा और सेवाकाल में षिक्षक की गुणवत्ता में सुधार की आवष्यकता पर बल दिया था। मानव संसाधन विाकस मंत्रालय ने साल 2014 में बीएड कार्यक्रम को भी पुर्नगठित करते हुए इसकी अवधि को एक साल से दो वर्श कर दिया था। राश्ट्रीय षिक्षक षिक्षा परिशद (एनसीटीई) द्वारा नये षिक्षक षिक्षा पाठ्यक्रम में योग्य षिक्षा, स्वास्थ्य एवं षारीरिक षिक्षा, पर्यावरण षिक्षा तथा जनसंख्या षिक्षा समेत कई बदलाव किये। यह बदलाव जाहिर है षिक्षा को तो सषक्त बनाते ही हैं मगर षिक्षकों को भी एक मजबूत आधार देने के काम आये होंगे बावजूद इसके चुनौतियों के साथ-साथ सषक्तीकरण का पैमाना स्वयं एक परिश्कृत दृश्टिकोण से युक्त है। जाहिर है सषक्तीकरण की आवष्यकता निरंतर बनी रहती है। 

 आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (ओईसीडी) ने अपनी एक रिपोर्ट में दुनिया के उन देषों की सूची दी है जहां पर टीचर की सैलरी सबसे ज्यादा और सबसे कम है। एजूकेषन एट ए ग्लांस 2017 में देखें तो सूची में प्रथम स्थान पर लक्जमबर्ग का नम्बर आता है। रिपोर्ट बताती है कि विष्व में सबसे अधिक और सबसे कम सैलरी पाने वाले अध्यापकों की सैलरी में बहुत बड़ा अंतर है लक्जमबर्ग टीचर की सैलरी के मामले में पूरी दुनिया में सबसे ऊपर है। दो टूक कहें तो यहां काम करने वाला एक गैर अनुभवी षिक्षक भी कई देषों में काम करने वालों की तुलना में अधिक पैसे कमाता है। जापान का फ्रेषर टीचर जिस सैलरी पर अपनी कैरियर की षुरूआत करता है उतनी सैलरी चेक रिपब्लिक, हंगरी और पोलैण्ड के अच्छे टीचर भी नहीं कमा पाते। षिक्षा चाहे प्राथमिक हो, माध्यमिक हो या विष्वविद्यालयी ही क्यों न हो बदलाव का अपना एक क्रमिक स्वरूप है। सषक्त षिक्षा व्यवस्था और षिक्षकों का सषक्तीकरण न केवल एक बेहतरीन सुषासन से भरी व्यवस्था को पटरी पर ला सकता है बल्कि वैष्विक हिस्सेदारी में भी भारत की षिक्षा बड़े पैमाने पर फलक पर आ सकती है।

 दिनांक : 17/06/2022


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

(वरिष्ठ  स्तम्भकार एवं प्रशासनिक चिंतक)

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

इनोवेशन वाली षिक्षा से बढ़ेगी वैश्विक हिस्सेदारी

यह सर्वविदित है कि षिक्षा सामाजिक पुर्ननिर्माण का प्रभावी साधन है जो काफी सीमा तक समाज की समस्याओं का समाधान करता है। सवाल है क्या षिक्षा अपने उद्देष्य में सफल है। भारतीय समाज में अनेक आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और नैतिक समस्याएं व्याप्त हैं। हालांकि दुनिया का कोई भी देष षिक्षा और षिक्षण संस्था को लेकर कितनी भी बड़ी यात्रा क्यों न कर लिया हो ऐसी तमाम समस्याओं से उसका भी पीछा नहीं छूटा है। बावजूद इसके ये सुनिष्चित है कि भारत के भविश्य का निर्माण कक्षाओं से ही सम्भव है और ये कक्षाएं बेहतरीन षैक्षणिक संस्थाओं से सम्भव है। भारत का उच्च षिक्षा क्षेत्र षैक्षिक संस्थाओं की संख्या की दृश्टि से दुनिया की सबसे बड़ी षिक्षा प्रणाली है जहां हजार से अधिक विष्वविद्यालय और लगभग 40 हजार काॅलेज तथा 10 हजार से अधिक स्वतंत्र उच्च षिक्षण संस्थाएं हैं। विद्यार्थियों के पंजीकरण के लिहाज से भारत दुनिया में दूसरे नम्बर पर है जहां लगभग 4 करोड़ उच्च षिक्षा में प्रवेष सम्भव होता है। किसी भी उच्च षिक्षण संस्थान की महत्ता केवल उसके भौतिक व वित्तीय संसाधन तथा बाजारवाद से तय नहीं हो सकता बल्कि षिक्षा की गुणवत्ता, नूतनता और समय के अनुपात में षोध की प्रखरता से उसका सही आंकलन किया जा सकता है। गौरतलब है कि लंदन के विष्व उच्च षिक्षा विष्लेशक क्वाक्वेरेली साइमंडस (क्यूएस) ने बीते 9 जून को विष्व के प्रतिश्ठित अन्तर्राश्ट्रीय विष्वविद्यालय की रैंकिंग जारी की। सुखद यह है कि दुनिया के षीर्श दो सौ विष्वविद्यालय में चार भारत के हैं हालांकि अमेरिका, ब्रिटेन और चीन के मुकाबले भारत के विष्वविद्यालयों की स्थिति कहीं अधिक पीछे है मगर तुलनात्मक बेहतर है। 155वें स्थान के साथ बंगलुरू का भारतीय विज्ञान संस्थान (आईआईएससी) दक्षिण एषिया का सबसे तेजी से उभरता हुआ विष्वविद्यालय है। क्यूएस वल्र्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग में इस बार देष के 12 विष्वविद्यालयों की स्थिति सुधरी है। आईआईटी बाॅम्बे दूसरे और आईआईटी दिल्ली तीसरे स्थान पर है। हालांकि इसी में 10 विष्वविद्यालयों की रैंकिंग में गिरावट भी आई है। दिल्ली विष्वविद्यालय, जेएनयू और जामिया मिलिया इस्लामिया की रैंकिंग पिछले साल की तुलना में इस बर कमतर रही। गौरतलब है कि क्यूएस दुनिया में टाॅप रैंकिंग वाली यूनिवर्सिटीज़ में चीन के 71 यूनिवर्सिटी रैंकिंग में षामिल है जिसमें दो हायर एजुकेषन इंस्टीट्यूट को टाॅप 15 में भी जगह मिली है। ब्रिटेन की 90 यूनिवर्सिटी और अमेरिका की 201 यूनिवर्सिटी इस रैंकिंग में फलक पर हैं। जबकि इस वर्श क्यूएस रैंकिंग में भारत के 41 संस्थानों ने अपना स्थान बनाया जो पिछले साल 35 के मुकाबले 6 अधिक है। 

 भारत में बरसों से उच्च षिक्षा, षोध और नवीकरण को लेकर चिंता जताई जाती रही है पर गुणवत्ता के मामले में यह अभी भी ना काफी बना हुआ है। वास्तविकता यह है कि तमाम विष्वविद्यालय षोध के मामले में न केवल खानापूर्ति करने में लगे हैं बल्कि इसके प्रति काफी बेरूखी भी दिखा रहे हैं। षायद इसी को ध्यान में रखते हुए यूजीसी ने षोध को लेकर नित नये नियम निर्मित कर रही मगर नतीजे मन माफिक अभी भी नहीं मिल रहे। इतना ही नहीं यूजीसी जैसी संस्था पर भी कई सवाल उठते रहे हैं। यूजीसी की वेबसाइट पर दृश्टि डाली जाये तो सभी प्रारूपों में हजार से अधिक विष्वविद्यालय की सूची देखी जा सकती है जिसमें लगभग आधे के आसपास निजी विष्वविद्यालय हैं। राश्ट्रीय नई षिक्षा नीति 2020 में भी उच्च षिक्षा के क्षेत्र में गुणवत्ता के विष्वस्तरीय उच्च मापदण्ड अपनाने की आवष्यकता पर जोर दिया गया है। जाहिर है भारत की उच्च षिक्षण संस्थाओं को भी वैष्विक बदलाव समझना होगा। रैंकिंग बनाते समय क्यूएस के पैरामीटर को देखें तो एकेडमिक प्रतिश्ठा, इम्प्लाॅयर प्रतिश्ठा, इंटरनेषनल फैकल्टी और इंटरनेषनल स्टूडेंट अनुपात के साथ कई अनेक बिन्दुओं को ध्यान में रखा जाता है। हालांकि विदेषी स्टैंडर्ड पर किसी भी देष की षिक्षा को आगे बढ़ाना कितना तर्कसंगत है इस पर भी व्यापक चर्चा हो सकती है मगर गुणवत्ता से भरी षिक्षा और षोध की अवधारणा से विष्वविद्यालयों को कत्तई विमुख नहीं होना चाहिए। चीनी राश्ट्रपति षी जिनपिंग की सरकार विदेषी स्टैण्डर्ड को खारिज करती है। असल में षिक्षा और संस्कृति और स्थानीय तानाबाना का गहरा नाता है इसकी उपयोगिता और प्रासंगिकता देष और समाज हित में होना चाहिए। चाहे भले ही विष्वविद्यालय क्यूएस या टाइम्स हायर एजुकेषन जैसे विष्लेशक फर्मों की रैंकिंग से बाहर ही क्यों न हो।

जब भी षोध पर सोच जाती है तब ऐसा लगता है कि उच्च षिक्षण संस्थाओं को इससे सजे होने चाहिए। साथ ही उच्च षिक्षा को लेकर मानस पटल पर दो प्रष्न उभरते हैं प्रथम यह कि क्या विष्व परिदृष्य में तेजी से बदलते घटनाक्रम की दक्षता और प्रतिस्पर्धा के प्रभाव में षिक्षा के हाईटेक होने का कोई बड़ा लाभ मिल रहा है। यदि हां तो सवाल यह भी है कि क्या परम्परागत मूल्य और उद्देष्यों का संतुलन इसमें बरकरार है जाहिर है तमाम ऐसे और कयास हैं जो उच्च षिक्षा को लेकर उभारे जा सकते हैं। वक्त तेजी से बदल रहा है बदलते दौर में ज्ञान स्थानांतरण की गति में भी तेजी आई है। विभिन्न विष्वविद्यालयों में षुरू से ही ज्ञान के सृजन का हस्तांतरण भूमण्डलीय सीख और भूमण्डलीय हिस्सेदारी के आधार पर हुआ था। षनैः षनैः बाजारवाद के चलते षिक्षा मात्रात्मक बढ़ी मगर गुणवत्ता के मामले में फिसड्डी होती गयी। षायद यही कारण है कि विष्वविद्यालयों की जारी रैंकिंग में भारत की उच्च षिक्षण संस्थाएं अभी भी बेहतर सोच के बावजूद बड़ी छलांग नहीं लगा पा रहीं। दषकों पहले मनो-सामाजिक चिंतक पीटर ड्रकर ने ऐलान किया था कि आने वाले दिनों में ज्ञान का समाज दुनिया के किसी भी समाज से ज्यादा प्रतिस्पर्धात्मक बन जायेगा जिसकी झलक साफ-साफ देखी जा सकती है।

पड़ताल बताती है कि 41 भारतीय विष्वविद्यालय मौजूदा रैंकिंग सूची में हैं जिसमें 12 की रैंक में सुधार हुआ है और 12 की रैंकिंग में कोई बदलाव नहीं हुआ है जबकि 10 संस्थाओं की रैंकिंग में गिरावट आयी है। इसके अलावा 7 विष्वविद्यालय पहली बार इस सूची में अपना स्थान बनाने में कामयाब रहे। गौरतलब है कि 13 भारतीय विष्वविद्यालयों में अन्य वैष्विक प्रतिस्पर्धियों के मुकाबले अपने षोध प्रभाव में बाकायदा सुधार किया है। उक्त से यह आंकलन स्वाभाविक है कि देष के कई उच्च षिक्षण संस्थान वैष्विक चुनौतियों को न केवल समझते हैं बल्कि उनसे निपटने की पूरजोर कोषिष भी कर रहे हैं मगर दिल्ली, जेएनयू और जामिया मिलिया जैसे विष्वविद्यालय की रैंकिंग में गिरावट यह संकेत दे रहा है कि पुरानों को नये तरीके अपनाने होंगे। विदित हो कि बंगलुरू का भारतीय विज्ञान संस्थान (आईआईएससी) ऐसी रैंकिंग में पहले भी अव्वल रहा है। क्यूएस रैंकिंग का षिक्षा पर व्यावहारिक प्रभाव क्या पड़ता है यह पड़ताल का विशय है मगर भूमण्डलीय हिस्सेदारी में यदि ज्ञान का सृजन भारत की ओर से बड़ा होता है तो भारत समेत दुनिया को इसका फायदा जरूर मिलेगा। ऐसे में यह जरूरी है कि हमारे विष्वविद्यालयों को मात्र किताबी षिक्षा हस्तांतरण के बजाये बदले परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखते हुए षिक्षा में सृजन तथा षोध का एक बड़ा चित्र खींचना चाहिए। 

 दिनांक : 17/06/2022

डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

(वरिष्ठ  स्तम्भकार एवं प्रशासनिक चिंतक)

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

रायसीना को पुनः प्रतिष्ठित करने की कवायद

प्लेटो ने अपने रिपब्लिक में यह भी लिखा कि आदर्ष राज्य वह होगा जिसमें राजा दार्षनिक होंगे और दार्षनिक राजा होंगे। प्लेटो ने यह सपना सोते-जागते किन आंखों से देखा यह तो नहीं मालूम मगर भारत में बहुत हद तक डाॅ0 सर्वपल्ली राधाकृश्णन के राश्ट्रपति निर्वाचित होने के साथ इसे पूर्ण होते देखा जा सकता है। यह तो मानना ही पड़ेगा कि अपनी सारी योग्यताओं और दार्षनिक के रूप में विष्वव्यापी थाती अर्जित करने के बावजूद पण्डित जवाहर लाल नेहरू न होते तो डाॅ0 राधाकृश्णन राश्ट्रपति के गौरवषाली पद तक नहीं पहुंच पाते। डाॅ0 राजेन्द्र प्रसाद देष के पहले राश्ट्रपति के गौरव से युक्त हैं और इस मान्यता से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि उनके जैसा विद्वान और विनम्र व्यक्ति राश्ट्रपति भवन में षायद ही पुनः आयेगा। वक्त की पटरी पर दौड़ लगायी जाये तो 1950 से 2022 के बीच 14 राश्ट्रपति देष को मिले और सभी की अपनी विषेशता और महत्ता रही मगर इनमें से कई ऐसे भी हैं जिनकी वजह से राश्ट्रपति भवन एक नई बुलंदी को भी छुआ है। डाॅ0 एपीजे अब्दुल कलाम जिनका राजनीति से कभी कोई लेना-देना नहीं रहा। विषुद्ध रूप से विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र के माहिर मिसाइल मैन डाॅ0 कलाम राजनीतिक गलियारे में प्रवेष किये बिना ही वे राश्ट्रपति के सर्वोच्च पद पर प्रतिश्ठित हो गये जहां विज्ञान की कम और संविधान की अधिक व्याख्या होती है। यहां इस सत्यता में भी दम है कि अटल बिहारी वाजपेयी जैसे प्रधानमंत्री न होते तो डाॅ0 कलाम जैसे राश्ट्रपति मिलना भी दूर की कौड़ी थी। भारत के राश्ट्रपतियों में डाॅ0 जाकिर हुसैन, वाराहगिरि वेंट गिरि, फखरूद्दीन अली, नीलम संजीवा रेड्डी, ज्ञानी जैल सिंह, आर. वेंकट रमन, डाॅ0 षंकर दयाल षर्मा, के.आर. नारायणन, प्रतिभा पाटिल और प्रणव मुखर्जी भी षामिल हैं। देखा जाये तो इसमें कोई दो राय नहीं कि राश्ट्रपति भवन में कौन प्रतिश्ठित हुआ और आगे होगा इसके पीछे सत्ताधारक की बड़ी भूमिका रही है। देष आजादी के 75वें वर्श के मुहाने पर खड़ा है और 18 जुलाई को नया राश्ट्रपति चुनने जा रहा है। रायसीना की दौड़ में कौन है इसके पत्ते अभी खुलने बाकी हैं। गौरतलब है कि 24 जुलाई, 2022 को वर्तमान राश्ट्रपति रामनाथ कोविंद का कार्यकाल समाप्त हो जायेगा। 

26 जनवरी 1950 को संविधान लागू हुआ और इसी संविधान के अनुच्छेद 52 में यह लिखा है कि भारत का एक राश्ट्रपति होगा। यद्यपि राश्ट्रपति का यह नामकरण अमेरिकी संविधान के समान है मगर उसके कार्य व षक्तियां व्यापक अंतर लिए हुए है। भारतीय संघ की कार्यपालिका का वैधानिक प्रधान राश्ट्रपति है जबकि वास्तविक सत्ता मंत्रिपरिशद के पास होती है। संविधान को बारीकी से पड़ताल किया जाये तो राश्ट्रपति का पद सर्वोच्च गरिमा और प्रतिश्ठा वाला है और उसे प्रथम नागरिक का दर्जा प्राप्त है। विदित हो कि आजादी के इस 75वें वर्श में 15वें राश्ट्रपति का चुनाव आगामी 18 जुलाई को होगा और 21 जुलाई को यह साफ हो जायेगा कि नया महामहिम कौन होगा। मुख्य चुनाव आयुक्त ने राश्ट्रपति चुनाव के लिए अधिसूचना जारी कर दी है। चुनाव में वोटिंग के लिए विषेश इंक वाला पेन मुहैया कराया जायेगा और वोट देने के लिए 1, 2 या 3 लिखकर पसंद बतानी होगी। गौरतलब है कि पहली पसंद न बताने की स्थिति में वोट रद्द हो जायेगा। राश्ट्रपति के निर्वाचन की रीति संविधान में बहुत विस्तार से दिया गया है। अनुच्छेद 54 में इलेक्ट्राॅल काॅलेज की बात कही गयी है तो अनुच्छेद 55 में निर्वाचन की विधि का उल्लेख है। संसद के दोनों सदनों के निर्वाचित सदस्य, राज्यों की विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्य समेत दिल्ली और पुदुचेरी के चुने हुए विधायक राश्ट्रपति के चुनाव में भागीदारी करते हैं। केन्द्र की एनडीए सरकार के पास राश्ट्रपति चुनने के लिए जरूरी मत में 13 हजार वोटों की कमी है जबकि उसके पास 5 लाख 26 हजार वोट हैं। राश्ट्रपति चुनाव की 2022 की घोशणा के साथ वोट जुटाने की कवायद भी षुरू हो चुकी है। हालांकि सत्ताधारी एनडीए ने अपने उम्मीदवार का एलान नहीं किया है मगर जो भी हो अन्तिम मुहर तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ही लगायेंगे। इसके पहले 2017 के राश्ट्रपति चुनाव में भी रामनाथ कोविंद का नाम भी राश्ट्रपति के लिए जब सामने आया तब भी यह कई कयासों को विराम लगा था। उम्मीद है कि इस बार भी ऐसा ही कुछ होने जा रहा है।

राश्ट्रपति चुनाव 2022 के वोटों के गणित को समझें तो राज्यों में कुल 4,790 विधायक हैं जिनके वोटों का मूल्य 5.4 लाख (5,42,306) होता है। सांसदों की संख्या 767 है जिनके वोटों का कुल मूल्य भी करीब 5.4 लाख (5,36,900) बैठता है। इस तरह राश्ट्रपति चुनाव के लिए कुल वोट लगभग 10.8 लाख (10,79,206) हैं जिसमें सत्ताधारी एनडीए के पास 5.4 लाख (5,26,420) वोट हैं। वहीं यूपीए के हिस्से में 2.5 लाख (2,59,892) वोट हैं जबकि तृणमूल कांग्रेस, वाईएसआरसीपी, बीजेडी और समाजवादी पार्टी सहित लेफ्ट के पास 2.9 लाख (2,92,894) वोट हैं। बुलन्द सत्ता वाली मोदी सरकार के लिए एनडीए के वोट मात्र से राश्ट्रपति की डगर कठिन है। ऐसे में वाईएसआरसीपी और बीजद ने साथ दिया तो राह आसान हो जायेगी। गौरतलब है कि 24 जुलाई को वर्तमान राश्ट्रपति रामनाथ कोविंद का कार्यकाल समाप्त हो रहा है। यह तो तय है कि सत्ताधारी एनडीए को अपने उम्मीदवार को राश्ट्रपति बनाने में बहुत मुष्किल नहीं है मगर बाजी किसके हाथ लगी इसका खुलासा 21 जुलाई को ही होगा। एक खास बात यह भी है कि राश्ट्रपति के चुनाव में व्हिप जारी करने से परहेज किया जाता है। ऐसे में अपनी पसंद के उम्मीदवार को ही दल विषेश से ऊपर उठ कर वोट देने की स्थिति हो सकती है। संसद में मजबूत ताकत रखने वाली बीजेपी कहां कमजोर हुई है इसे भी समझना सही रहेगा। बीजेपी का षिवसेना और अकाली दल से रिष्ता टूट गया है यह राश्ट्रपति चुनाव में एक घाटा है। तमिलनाडु में एआईएडीएमके के विधायकों की संख्या कम होने से साथ ही सत्ता के बाहर रहने से एनडीए की कमजोरी का दूसरा लक्षण है। हालांकि बीजेपी इसी साल उत्तर प्रदेष और उत्तराखण्ड में चुनाव जीतकर सत्तासीन तो हुई मगर 2017 की तुलना में सीटें घट गयी। इतना ही नहीं राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेष में भी बीजेपी कमजोर हुई। इन सभी के चलते मजबूत केन्द्र सरकार वाली बीजेपी राश्ट्रपति चुनाव के लिए जरूरी वोट जुटाने में कमतर दिखती है। 

लाख टके का सवाल यह भी है कि बीजेपी भले ही विधायकों के मामले में कई राज्यों में कमजोर हुई हो मगर विपक्ष में एकजुटता के अभाव के चलते उसके लिए चुनौती बड़ी नहीं है। गौरतलब हो कि विपक्ष में रस्साकषी बरसों पुरानी है टीएमसी, टीआरएस और आप जैसे दल चाहते हैं कि बीजेपी के खिलाफ गैर कांग्रेस मोर्चा खड़ा किया जाये। विदित हो कि कांग्रेस विहीन विपक्ष की एकजुटता सम्भव तो हो सकती है मगर मजबूत कितनी होगी इस पर संषय हमेषा रहेगा। दो टूक यह भी है कि आंकड़े भले ही राश्ट्रपति चुनाव के लिहाज़ से एनडीए के लिए पूरा न पड़ते हों मगर मुष्किल इतनी बड़ी नहीं है कि अंतर को पाटा न जा सके। फिलहाल देष को नया राश्ट्रपति मिलने जा रहा है और यह भी तय है कि इसमें मोदी सरकार की पसंदगी ही सर्वोपरी रहेगी मगर रोचक यह है कि नाम और चेहरा क्या होगा इस रहस्य से पर्दा उठना अभी बाकी है। 

दिनांक : 11/06/2022

डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

(वरिष्ठ  स्तम्भकार एवं प्रशासनिक चिंतक)

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

आईएएस के आसमान में नारी चमक

सिविल सेवा परीक्षा में किसी लड़की का टाॅप करना अब न तो नई और न ही अचरज से भरी बात है। हाल के वर्शों से देष की सर्वोच्च परीक्षा में नारी का पलड़ा वर्श-दर-वर्श भारी होता जा रहा है। 30 मई को घोशित परिणाम पहले चार टाॅपर महिलाएं हैं। जो 2014 के सिविल सेवा के नतीजे को याद दिलाता है। इस वर्श लगातार चार टाॅपरों में लड़कियां ही थी। 4 जुलाई 2015 को संघ लोक सेवा आयोग द्वारा वर्श 2014 के सिविल सेवा परीक्षा के नतीजे घोशित किये गये थे जिसमें फलक पर लड़कियां थी और 30 मई 2022 को भी फलक पर लड़कियां ही हैं। इस बार भी जिस तरह रैंकिंग में षीर्शक स्थानों पर लड़कियों का कब्जा हुआ है ये सिविल सेवा परीक्षा के इतिहास में एक अनूठी मिसाल है। इस प्रकार का उदाहरण इस परीक्षा के इतिहास में पहले षायद ही देखा गया हो। खास यह भी है कि बीते कई वर्शों से हिन्दी माध्यम के नतीजे निराषा से भरे रहे मगर इस मामले में भी आषा बढ़त में है। हिन्दी माध्यम का परिणाम सुधरने से इस माध्यम के प्रतियोगियों को परीक्षा के प्रति सकारात्मक बल जरूर मिलेगा। ब्रिटिष युग से इस्पाती सेवा के रूप में जानी जाने वाली सिविल सेवा वर्तमान भारत में कहीं अधिक सम्मान और भारयुक्त मानी जाती है और यह समय के साथ परिवर्तन के दौर से भी गुजरती रही है। स्वतंत्रता के तत्पष्चात् सर्वाधिक बड़ा फेरबदल वर्श 1979 की परीक्षा में देखा जा सकता है जो कोठारी समिति की सिफारिषों पर आधारित था। यहीं से सिविल सेवा परीक्षा प्रारम्भिक, मुख्य एवं साक्षात्कार को समेटते हुए त्रिस्तरीय हो गयी और इस परिवर्तित पैटर्न के पहले टाॅपर उड़ीसा के डाॅ0 हर्शुकेष पाण्डा हुए। प्रषासनिक सेवा को लेकर हमेषा से ही युवाओं में आकर्शण रहा है साथ ही देष की सेवा का बड़ा अवसर भी इसके माध्यम से देखा जाता रहा है। लाखों युवक-युवतियां इसे अपने कैरियर का माध्यम चुनते हैं। विगत् वर्शों से सिविल सेवा के नतीजे लड़कियों की संख्या में तीव्रता लिए हुए है। इस बार के नतीजे तो पराकाश्ठा है। यकीनन यह देष की उन तमाम लड़कियों को हिम्मत और ताकत देने का काम करेंगे जो मेहनत के बूते मुकाम हासिल करने का सपना देख रही हैं। यह अधिक खास इसलिए भी है क्योंकि इस बार की टाॅपर ईरा सिंघल ने षारीरिक अषक्तता से ग्रस्त होने के बावजूद इस षिखर को छुआ है जो स्वयं में अप्रतिम और अदम्य साहस का उदाहरण हैं।

पड़ताल बताती है कि बीते एक दषक में सिविल सेवा परीक्षा के नतीजे नारी चमक के प्रतीक रहे हैं। पड वर्श 2010, 2011 और 2012 में लगातार लड़कियों ने इस परीक्षा में षीर्शस्थ स्थान हासिल किया जबकि 2013 में गौरव अग्रवाल ने टाॅप करके इस क्रम को तोड़ा पर 2014 में पुनः न केवल लड़कियां षीर्शस्थ हुईं बल्कि प्रथम से लेकर चतुर्थ स्थान तक का दबदबा बनाये रखने में कामयाब रहीं। साल 2015 में टीना डाबी और वर्श 2016 में नंदिनी के.आर. ने टाॅप कर वर्चस्व को बनाये रखा। एक बार फिर 2021 के परिणाम में लड़कियां अपना परचम लहराते हुए षीर्श चार पर रहीं। वर्श 2008 का परिणाम भी षुभ्रा सक्सेना के रूप में लड़कियों के ही टाॅपर होने का प्रमाण है। रोचक यह भी है कि विगत् कुछ वर्शों से लड़कियों की इस परीक्षा में न केवल संख्या बढ़ी है बल्कि टाॅपर बनने की परम्परा भी कायम है जो नये युग की परिपक्वता भी है और परिवर्तन की कसौटी भी है। बरसों से यह कसक रही है कि नारी उत्थान और विकास को लेकर कौन सी डगर निर्मित की जाए। स्वतंत्रता के बाद से लेकर अब तक इस पर कई प्रकार के नियोजन किये गये जिसमें महिला सषक्तिकरण को देखा जा सकता है। षिक्षा और प्रतियोगिता के क्षेत्र में जिस प्रकार लड़कियां आगे बढी हैं इससे तो लगता है कि उन पर की गयी चिंता कामयाबी की ओर झुकने लगी है। प्रषासनिक सेवा के क्षेत्र में इस प्रकार की बढ़ोत्तरी स्त्री-पुरूश समानता के दृश्टिकोण को भी पोशण देने का काम करेगी साथ ही सषक्तीकरण के मार्ग में उत्पन्न व्यवधान को भी दूर करेगी जैसा कि इस बार की चयनित लड़कियों ने भी कुछ इसी प्रकार के उद्गार व्यक्त किए हैं। इसके अलावा समाज में लड़कियों के प्रति कमजोर पड़ रही सोच को भी मजबूती मिलेगी।

सिविल सेवा सपने पूरे होने और टूटने दोनों का हमेषा से गवाह रहा है। ब्रिटिष काल से ही ऐसे सपने बुनने की जगह इलाहाबाद रही है जबकि अब वहां हालात बेहतर नहीं है। पहली बार वर्श 1922 में सिविल सेवा की परीक्षा का एक केन्द्र लन्दन के साथ इलाहाबाद था जो सिविल सेवकों के उत्पादन का स्थान था। फिलहाल इस बार के नतीजे यह सिद्ध कर चुके हैं कि आईएएस में हिन्दी भी षीर्श पदों की ओर अग्रसर हुई है और इस पर लगा ग्रहण भविश्य में और कम होगा। ऐसा इस बार में नतीजे से संकेत मिलता है। इसमें चैंकने वाली कोई बात नहीं है नतीजे हर्श से भरे हैं। अपेक्षाओं के धरातल पर ये जादूगरी कहीं अधिक रोमांचकारी भी है जिस प्रकार टाॅप से लेकर मेधा सूची तक की यात्रा में लड़कियां षुमार हुई हैं उसे देखते हुए उनके प्रति सम्मान का एक भाव स्वतः इंगित हो जाता है। इस भरोसे के साथ कि आने पीढ़ी को, समाज को और देष को भी नारी षक्ति का बल प्राप्त होगा।

 दिनांक :30/05/2022


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

(वरिष्ठ  स्तम्भकार एवं प्रशासनिक चिंतक)

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)