Friday, June 24, 2022

शिक्षकों का सशक्तिकरण और सुशासन

शिक्षकों की प्रभावषीलता का अंतिम परीक्षण यह है कि उनके द्वारा पढ़ाये गये विद्यार्थी अपनी षैक्षिक क्षमता तक पहुंचने में सक्षम हैं या नहीं। मात्रा, गुणवत्ता और समता के संघर्श में षिक्षा और षिक्षक को बदलने के लिए षिक्षकों की ही भूमिका महत्वपूर्ण है। हालांकि सरकार की षिक्षा पर निरूपित नीतियां और उसके सषक्त क्रियान्वयन से अनुकूल बदलाव सम्भव होते हैं मगर व्यावहारिक दक्षता बिना सषक्त षिक्षक के सम्भव नहीं है। षिक्षकों के सषक्तीकरण से राह न केवल चैतरफा खुलती है बल्कि अन्त्योदय से लेकर सर्वोदय तक की भावना का भी आभामण्डल इसमें षुमार होता है। रिपब्लिक और प्लेटो पर टिप्पणी करते हुए बार्कर ने लिखा है कि प्लेटो जिस सवाल का जवाब खोज रहे थे वह बस इतना था कि आदमी अच्छा कैसे बन सकता है? हालांकि इस सवाल के जवाब में न्याय, सौंदर्य और गुणों का समावेषन निहित है मगर इन सभी को प्राप्त करने के लिए षिक्षा ही अनिवार्य है जो बिना सषक्त और कुषल षिक्षक के षायद ही सम्भव हो। सुकरात ने कहा था कि सद्गुण ही ज्ञान होता है और इसे भी षिक्षा और षिक्षक की उच्च कोटि का ही प्रमाण के तौर पर देखा जा सकता है। जब बात सुषासन की होती है तो षिक्षा के बगैर इसे पूर्णता नहीं मिलती है। जहां सामाजिक आर्थिक न्याय हो, लोक कल्याण की राह खुलती हो साथ ही लोक सषक्तीकरण को बढ़ावा मिलता हो वहां सुषासन का प्रकटीकरण होता है। एक षिक्षक उक्त सभी विचारों का पुंज है जो विद्यार्थियों के आचरण, कौषल और जीवनधारा का विकास करके बदलाव पैदा कर सकता है। मगर षिक्षा और षिक्षक जब दोनों बदले दौर के अनुपात में उचित राह पर न हो तो षिक्षा और सुषासन के ताने-बाने का कमतर होना निष्चित है।

स्वतंत्रता का 75वां वर्श मुहाने पर खड़ा और दौर अमृत महोत्सव का चल रहा है। 21वीं सदी की चुनौतियों का सामना करने के लिए आवष्यक उच्च मानकों के साथ षिक्षित और कुषल व्यक्तियों के साथ-साथ एक ज्ञानवान समाज बनाने की आवष्यकता सर्वोपरि है। इस आकांक्षा की पूर्ति में स्कूली षिक्षा जहां मजबूत करना अपरिहार्य है वहीं षिक्षकों का सषक्तीकरण भी अनिवार्य है। राश्ट्रीय षिक्षा नीति 2020 धरातल पर षनैः षनैः उतारने का प्रयास जारी है और इसमें बच्चों के साथ-साथ षिक्षकों पर भी ध्यान केन्द्रित किया गया है। गौरतलब है कि भारत में षिक्षक और षिक्षा की प्रणाली में बदलाव बहुत धीमी गति से रहा है। इसके पहले षिक्षा नीति 1986 में आयी थी जो इस बात को पुख्ता करती है। ज्ञान को हस्तांतरण करने की कवायद अभी भी बरकरार है जबकि विद्यार्थी में इनोवेषन और षोध से भरी षिक्षा व्याप्त करने की कवायद तुलनात्मक आज भी संघर्श लिए हुए है। षायद यही कारण है कि पूरे देष में उच्च षिक्षा में लगभग 4 करोड़ विद्यार्थी सभी प्रारूपों के हजार से अधिक विष्वविद्यालयों और चालीस हजार से अधिक महाविद्यालयों में प्रवेष लेते हैं मगर षोध और नूतनता के मामले में पीछे की पंक्ति में रह जाते हैं। बीते 9 जून को लंदन के विष्व उच्च षिक्षा विष्लेशक क्वाक्वेरेली साइमंडस (क्यूएस) यूनिवर्सिटी रेटिंग में भारत के महज चार विष्वविद्यालय ही दो सौ के भीतर हैं और कुल 41 इसकी सूची में हैं जो षिक्षा के मामले में बेहतर आंकी गयी है। जबकि चीन के 71 विष्वविद्यालय, अमेरिका के 201 तथा ब्रिटेन के 90 विष्वविद्यालय इसमें षुमार हैं। यह महज एक आंकड़ा है मगर ये देष के षिक्षा को समझने का एक दायरा है जो षिक्षकों के सषक्तीकरण के परिप्रेक्ष्य से भी परिचय कराता है। एक दषक पहले भारत में षिक्षा का अधिकार कानून आया था उसके बाद प्राथमिक षिक्षा के लक्ष्य को लगभग सौ फीसद तक हासिल कर लिया गया मगर सामने जो समस्या है वह षिक्षा की गुणवत्ता की है।

नीति आयोग द्वारा जारी एक रिपोर्ट से यह पता चलता है कि विद्यालयी षिक्षा की गुणवत्ता में सुधार के लिए बहुआयामी दृश्टिकोण के जरिये पारम्परिक रणनीतियों में बदलाव करना होगा। भारत आज दो तरह की चुनौतियों का सामना कर रह है पहला औसत दर्जे के विष्वविद्यालय बनाये जा रहे हैं और दूसरा षिक्षकों की बहुत ज्यादा कमी है। रिपोर्ट से यह भी स्पश्ट होता है कि भारत की जनसंख्या लगभग चीन के समान होने के बावजूद चीन की तुलना में विद्यालयों की संख्या भारत में अधिक है। भारत में जहां 15 लाख विद्यालय हैं वहीं चीन में 5 लाख हैं। भारत के लगभग चार लाख विद्यालयों में प्रत्येक छात्र की संख्या 50 और अध्यापक की दो है। डेढ़ करोड़ विद्यार्थी औसत विद्यालय में पढ़ते हैं। षिक्षकों में व्याप्त रिक्तियां औसत पढ़ाई में भी आड़े आ रही है सषक्तीकरण तो दूर की बात है। द ग्लोबल टीचर्स स्टेटस इंडेक्स 2018 से यह भी पता चलता है कि षिक्षक की स्थिति और विद्यार्थी के प्रदर्षन में सीधा सम्बंध है। यूरोप और लैटिन अमेरिका में षिक्षकों को एषिया और मध्य पूर्व की तुलना में सम्मान के मामले में काफी निराषा प्राप्त होती है। टीचर्स का सबसे ज्यादा सम्मान चीन में होता है। आंकड़े तो यह भी बताते हैं कि यहां ज्यादा लोग अपने बच्चों को षिक्षक बनाना चाहते हैं। असल में षिक्षक एक ऐसा मार्गदर्षक है जिसकी सबलता से व्यक्ति ही नहीं बल्कि देष की सफलता को भी बड़ा किया जा सकता है। मगर इसे लेकर कमजोर होती धारणा पीढ़ी को खतरे में डाल सकती है। षिक्षा पर 2018 की विष्व विकास रिपोर्ट बताती है कि अध्यापक का षिक्षण कौषल और प्रेरणा दोनों मायने रखते हैं और यह व्यक्तिगत रूप से लक्षित होने चाहिए। राश्ट्रीय षैक्षिक अनुसंधान और प्रषिक्षण परिशद (एनसीआरटी) के एक अध्ययन में देखा गया कि षिक्षकों के प्रषिक्षण के लिए प्रषिक्षण डिज़ाइनिंग में उनके फीडबैक को कोई महत्व नहीं दिया जाता। राश्ट्रीय षिक्षा नीति-2020 का घोशित लक्ष्य षिक्षकों को फिर से समाज के सबसे सम्मानित सदस्य के रूप में स्थान देना है। इसके चलते षिक्षकों के सषक्तीकरण को बल दिया जाना स्वाभाविक है। सवाल यह है कि सषक्तीकरण किसी एक परिघटना से सुनिष्चित नहीं होगी। स्कूल की स्थिति, षिक्षकों का वेतन, कार्य करने के घण्टे, उनका व्यावसायिक अवलोकन, प्रषिक्षण साथ ही षिक्षा के प्रति आकर्शण को बरकरार बनाये रखने इसके प्रमुख घटक हैं। उच्च षिक्षण संस्थाओं में षिक्षकों की गुणवत्ता कहीं अधिक गिरावट के साथ इसलिए भी है क्योंकि षिक्षा के निजीकरण में पेषेवर षिक्षकों के बजाये सस्ते षिक्षकों को अधिक अवसर दिया है। इंजीनियरिंग काॅलेज जिस तर्ज पर बीते दो दषकों में बढ़त बनाये हुए थे उनके अनुपात में उच्च डिग्री धारक षिक्षक मिलना कईयों के लिए दूर की कौड़ी थी यदि ऐसा सम्भव भी था तो उच्च वेतन के अभाव में कम योग्यता वालों से काम चलाया। निहित पक्ष यह है कि षिक्षा की बदहाली में सिर्फ षिक्षक ही जिम्मेदार नहीं है यह मानसपटल के बदलाव का भी दौर है। लोगों को यह भी लगता है कि टीचिंग प्रोफेषन में कोई खास काम नहीं है फिर इतने पैसे देने की आवष्यकता क्या है। षिक्षा की बदहाली के लिए सरकारें भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। यह समझना आवष्यक है कि षिक्षा देष को बदल सकती है और सुषासन की बड़ी लकीर खींच सकती है। मगर इसके लिए दावों पर ईमानदारी से खरा उतरने की आवष्यकता है। नई षिक्षा नीति में जो संदर्भ निहित है वह षिक्षा और षिक्षकों के सषक्तीकरण की दृश्टि से तुलनात्मक बेहतर दिखाई देते हैं। 

  गौरतलब है कि भारत में स्कूली षिक्षा और षिक्षण की वर्तमान षैली का उदय ब्रिटिष षासन के दौरान हुआ। स्वतंत्रता के बाद कई उतार-चढ़ाव से यह व्यवस्था गुजरी है मगर भाशाई रूप से यह अंग्रेजी के प्रभुत्व से युक्त रही। मौजूदा समय में भारत में अंग्रेजी षिक्षण व्यवस्था से षायद ही देष के ढ़ाई लाख पंचायतों और साढ़े छः लाख गांव वंचित हों जो अंग्रेजी के प्रति बढ़ी आकांक्षा का परिचायक है। हालांकि यूनाईटेड इंफोरमेषन सिस्टम और एजुकेषन प्लस की 2019-2020 की रिपोर्ट फाॅर स्कूल एजुकेषन में स्पश्ट है कि देष के 17 फीसद स्कूलों में बिजली और हैंड वाॅष जैसी बुनियादी सुविधायें भी नहीं थी।  मगर यह बात दुविधा से भरी है कि क्या अंग्रेजी में पढ़ाने वाले षिक्षक भी पूरी तरह उपलब्ध हैं। 2012 में न्यायमूर्ति वर्मा आयोग ने भी पूर्व-सेवा और सेवाकाल में षिक्षक की गुणवत्ता में सुधार की आवष्यकता पर बल दिया था। मानव संसाधन विाकस मंत्रालय ने साल 2014 में बीएड कार्यक्रम को भी पुर्नगठित करते हुए इसकी अवधि को एक साल से दो वर्श कर दिया था। राश्ट्रीय षिक्षक षिक्षा परिशद (एनसीटीई) द्वारा नये षिक्षक षिक्षा पाठ्यक्रम में योग्य षिक्षा, स्वास्थ्य एवं षारीरिक षिक्षा, पर्यावरण षिक्षा तथा जनसंख्या षिक्षा समेत कई बदलाव किये। यह बदलाव जाहिर है षिक्षा को तो सषक्त बनाते ही हैं मगर षिक्षकों को भी एक मजबूत आधार देने के काम आये होंगे बावजूद इसके चुनौतियों के साथ-साथ सषक्तीकरण का पैमाना स्वयं एक परिश्कृत दृश्टिकोण से युक्त है। जाहिर है सषक्तीकरण की आवष्यकता निरंतर बनी रहती है। 

 आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (ओईसीडी) ने अपनी एक रिपोर्ट में दुनिया के उन देषों की सूची दी है जहां पर टीचर की सैलरी सबसे ज्यादा और सबसे कम है। एजूकेषन एट ए ग्लांस 2017 में देखें तो सूची में प्रथम स्थान पर लक्जमबर्ग का नम्बर आता है। रिपोर्ट बताती है कि विष्व में सबसे अधिक और सबसे कम सैलरी पाने वाले अध्यापकों की सैलरी में बहुत बड़ा अंतर है लक्जमबर्ग टीचर की सैलरी के मामले में पूरी दुनिया में सबसे ऊपर है। दो टूक कहें तो यहां काम करने वाला एक गैर अनुभवी षिक्षक भी कई देषों में काम करने वालों की तुलना में अधिक पैसे कमाता है। जापान का फ्रेषर टीचर जिस सैलरी पर अपनी कैरियर की षुरूआत करता है उतनी सैलरी चेक रिपब्लिक, हंगरी और पोलैण्ड के अच्छे टीचर भी नहीं कमा पाते। षिक्षा चाहे प्राथमिक हो, माध्यमिक हो या विष्वविद्यालयी ही क्यों न हो बदलाव का अपना एक क्रमिक स्वरूप है। सषक्त षिक्षा व्यवस्था और षिक्षकों का सषक्तीकरण न केवल एक बेहतरीन सुषासन से भरी व्यवस्था को पटरी पर ला सकता है बल्कि वैष्विक हिस्सेदारी में भी भारत की षिक्षा बड़े पैमाने पर फलक पर आ सकती है।

 दिनांक : 17/06/2022


डाॅ0 सुशील कुमार सिंह

(वरिष्ठ  स्तम्भकार एवं प्रशासनिक चिंतक)

निदेशक

वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ  पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन 

लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर

देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)

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