Friday, September 15, 2023

बारिश से गांव और शहर दोनों बेहाल

उत्तर भारत में पहाड़ी और मैदानी दोनों इलाके महज दो दिन की मानूसनी बारिष से पानी-पानी हो गये। उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेष और जम्मू-कष्मीर में बारिष का स्वरूप कहीं अधिक नुकसान से भरा है।  ज्यादा तबाही में तो उत्तराखण्ड भी षामिल है। भूस्खलन व धंसाव आदि के चलते यहां सैकड़ों सड़कों पर आवाजाही बाधित हुई। मानसून के साथ बरसी आफत से उत्तराखण्ड में मौत और लापता होने का चित्र देखा जा सकता है। हिमाचल प्रदेष के सैकड़ों साल पुराने पुल भी इस बारिष को झेल नहीं पाये और आधा दर्जन पुल निस्तोनाबूत हो गये। भारी वर्शा ने सड़कों को नदी-नालों में तब्दील कर दिया है। गाड़ियां चलने के बजाये बहने लगी और आसमान से बारिष की बूंदे नहीं मानो आपदा टूटी हो। उत्तर भारत के ज्यादातर राज्यों में जल प्रलय जैसी स्थिति कुछ हद तक बन गयी है जबकि पूर्वोत्तर भारत ब्रह्यपुत्र की चपेट में पहले से ही है। गौरतलब है कि यहां 11 सौ से अधिक गांव जलमग्न हैं और लगभग 9 हजार हेक्टेयर में लगी फसल नश्ट हो गयी है और चार लाख से अधिक लोग प्रभावित हो गये हैं। दक्षिण भारत भी कमोेबेष इसकी चपेट में है। केरल में मानसूनी बारिष का कहर मौत और विस्थापन का स्वरूप लिए हुए है। पर्यटन स्थल गोवा भी जलमग्न और हादसे से मुक्त नहीं है। महाराश्ट्र व मध्य प्रदेष आदि समेत आधे से अधिक भारत बारिष में जल जमाव का षिकार तो रहता है। ग्रीन, येलो, आॅरेंज और रेड एलर्ट जैसे जितने भी बारिष से जुड़े संकेत होते हैं वे सभी इन दिनों फलक पर हैं।

फिलहाल भारत की राजधानी दिल्ली में 24 घण्टे की अवधि में 153 मिलीमीटर बारिष दर्ज की गयी जो 1982 के बाद जुलाई में एक दिन में सर्वाधिक बारिष है। चण्डीगढ़ और अंबाला जैसे षहरों में भी बारिष का रिकाॅर्ड उफान पर है। गौरतलब है कि दिल्ली देष की राजधानी के बावजूद बारिष की जहमत को कम नहीं कर पाती है जबकि वहां दो-दो सरकारें रहती हैं और यमुना नदी वहीं से बहती है। इस नदी के निचले इलाके बाढ़ के लिहाज़ से संवेदनषील हैं और यहां लगभग 37 हजार लोग रहते हैं। स्थिति तो यह भी है कि वर्शा के चलते हरियाणा के कौषल्या बांध में जलस्तर भी उफान ले लिया साथ ही हथिनीकुंज बैराज में भी पानी का दबाव अधिक होने और इसको छोड़ने का असर यमुना के किनारे लोगों पर पड़ना स्वाभाविक है। रोचक यह है कि अभी तो मौसमी बारिष षुरू ही हुई है जबकि हाल अभी से बेहाल है तो आने वाले दो से ढ़ाई महीने में स्थिति क्या होगी अंदाजा लगाना कठिन नहीं है। चिंता तो इस बात की है कि पूरे बंदोबस्त करने के दावों के बीच एक-दो दिन की बारिष इंतजाम की पोल खोल देती है और सुषासन का स्लोगन पानी-पानी हो जाता है। लगभग पूरे उत्तर भारत में तबाही का मंजर तो है मौसम विभाग ने कहा कि पष्चिमी विक्षोभ और मानसूनी हवाओं के साथ मिलने से भारी बारिष हुई है। देखा जाये तो पृथ्वी के बदले स्वभाव और प्रकृति में हो रहा निरंतर परिवर्तन और धरती का लगातार गरम होते रहना भी बढ़ी बारिष एक कारण हो सकता है। भारतीय मौसम विज्ञान की माने तो जुलाई पहले कुछ दिनों में उत्तर पष्चिम भारत में हुई बारिष ने देष में बारिष की कमी को पूरा कर दिया है।

गौरतलब है कि असम, उत्तर प्रदेष और बिहार समेत कुछ राज्यों में बाढ़ तकरीबन हर साल आती है। 1980 में राश्ट्रीय बाढ़ आयोग ने अनुमान लगाया था कि 21वीं सदी के षुरूआती दषक तक 4 करोड़ हेक्टेयर भूमि बाढ़ की चपेट में होगी। इसे देखते हुए बड़ी संख्या में बहुउद्देषीय बांध और 35 हजार किलोमीटर तटबंध बनाये गये। मगर बाढ़ से मुक्ति तो छोड़िये अनुमान से एक हजार हेक्टेयर अधिक भूमि बाढ़ से प्रभावित होने लगी। वैसे देखा जाय तो बाढ़ की फसलें भी सरकारें ही बोती हैं और वही काटती हैं। वर्शों पहले केन्द्रीय जल आयोग ने एक डेटा जारी करते हुए बताया था कि देष के 123 बांधों या जल संग्रहण क्षेत्रों में पिछले दस सालों के औसत का 165 फीसद पानी संग्रहित है और यह अब तुलनात्मक और बढ़ गया है। इसका तात्पर्य यह कि बांधों में पर्याप्त रूप से पानी का भण्डारण था ये 123 वे बांध हैं जिसका प्रबंधन व संरक्षण केन्द्रीय जल आयोग करता है और जबकि इन बांधों में देष की कुल भण्डारण क्षमता का 66 फीसद पानी जमा होता है। जाहिर है उस समय जरूरत होने पर भी इन बांधों से पानी नहीं छोड़ा गया और बरसात होते ही बांध कहीं अधिक उफान पर आ जाते हैं। ऐसे में गेट खोल देने का नतीजा पहले से उफान ले रही नदी में बहाव को तेज कर देना और पानी को गांव और षहर में घुसाना और जान-माल को हाषिये पर धकेलना है। समझने वाली बात यह है कि जब अरब सागर में बिपरजाॅय जैसे उठने वाले तूफान से लाखों को विस्थापित कर सुरक्षित किया जा सकता है तो नदी तट पर रहने वालों की सुरक्षा के इंतजाम क्यों नहीं जबकि पहले से पता है कि यहां बाढ़ आती ही है। साफ है कि अधूरे इंतजाम के साथ बाढ़ का इंतजार किया जाता है। 

भारत के नियंत्रक महालेखा परीक्षक (कैग) ने 21 जुलाई 2017 को बाढ़ नियंत्रक और बाढ पूर्वानुमान पर अपनी एक रिपोर्ट सौंपी थी जिसमें कई बातों के साथ 17 राज्यों और केन्द्रषासित प्रदेषों के बांधों सहित बाढ़ प्रबंधन की परियोजनाओं और नदी प्रबंधन की गतिविधियों को षामिल किया गया था। इसके अंतर्गत साल 2007-08 से 2015-16 निहित है। वैसे देखा जाय तो मानवीय त्रुटियों के अलावा बाढ़ का भीशण स्वरूप कुछ प्राकृतिक रूप लिए हुए है। कोसी नदी नेपाल में हिमालय से निकलती है यह बिहार में भीम नगर के रास्ते भारत में आती है जो बाकायदा यहां तबाही मचाती है। गौरतलब है कि साल 1954 में भारत ने नेपाल के साथ समझौता करके इस पर बांध बनाया था। हांलाकि बांध नेपाल की सीमा में था परन्तु रख-रखाव भारत के जिम्मे था। नदी के तेज बहाव के चलते यह बांध कई बार टूट चुका है। पहली बार यह 1963 में टूटा था। इसके बाद 1968 में पांच जगह से टूट गया। 1991 और 2008 में भी यह टूटा। फिलहाल बांध पर जगह-जगह दरारें हैं। समझा जा सकता है कि बाढ़ में इसका क्या योगदान है। गंडक नदी भी नेपाल के रास्ते बिहार में दाखिल होती है और अपने हिसाब का बाढ़ बढ़ाती है। फिलहाल मौसम विज्ञान समय पर एलर्ट जारी करता रहेगा, बारिष की सम्भावना बताता रहेगा, बारिष कम-ज्यादा होना तय है और इसके नुकसान से बच पाना कठिन रहेगा और पूरा मानसूनी अवधि कम-ज्यादा मुसीबत बनी रहेगी। हालिया बारिष ने यह बता दिया है कि कठिनाई किसी के भी हिस्से में आ सकती है। बारिष से खेत-खलिहान और गांव ही नहीं डूबते बल्कि जल-निकासी बेहतर न होने से सभ्यता से भरे षहर भी ताल-तलैया और पोखर में तब्दील हो जाते हैं। इससे निपटने के लिए सुषासन का दायरा समुचित और सुव्यवस्थित करना ही पड़ेगा और बारिष के इंतजार के बजाए बाढ़ का इंतजाम करना होगा। 

 दिनांक : 10/07/2023


डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर
देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)
मो0: 9456120502

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