Friday, September 15, 2023

सुशासन के दौर में सुलगता मणिपुर

दो टूक कहें तो सुषासन का अभिप्राय षांति और खुषहाली है जो लोक सषक्तिकरण की अवधारणा पर टिकी है। मगर इन दिनों पूर्वोत्तर का मणिपुर जिस तरह हिंसा में झुलसा हुआ है उससे कई सवाल खड़े हो गये हैं। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि आखिर यह समस्या पनपी ही क्यों। विदित हो कि मणिपुर में मेइती और कूकी समुदाय के बीच मई के षुरूआती दिनों में भड़की हिंसा से सौ से अधिक मौत हो चुकी है। अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने की मेइती समुदाय की मांग के विरोध में 3 मई को पर्वतीय जिलों में आदिवासी एकजुटता मार्च के आयोजन के बाद यह घटना घटित हुई। गौरतलब है कि मणिपुर की 53 फीसदी आबादी इसी समुदाय की है जो मुख्य रूप से इम्फाल घाटी में प्रवास करती है जबकि नगा और कूकी की आबादी भी 40 फीसद है जिनका प्रवास पर्वतीय जिले हैं। घटना का स्वरूप कुछ भी हो पर लम्बे समय तक नियंत्रण का पूरी तरह न हो पाना सुषासनिक पहलू की कमजोरी को तो दर्षाता ही है। इतना ही नहीं सुलगते मणिपुर में इस बात को भी जता दिया है कि सरकार से भरोसा भी कम हुआ है। षायद यही कारण है कि जातीय हिंसा से निपटने में नाकाम रहे मुख्यमंत्री एन विरेन्द्र सिंह ने इस्तीफा देने का मन भी बना लिया था। हालांकि ऐसा कहा जा रहा है कि जनता के दबाव में उन्होंने अपना मन बदल लिया। महिलाएं नहीं चाहती थी कि वे इस्तीफा दें और त्यागपत्र की प्रति भी फाड़ दी गयी। यह घटनाक्रम भी मणिपुर की संवेदना को मुखर करता है और इस बात को इंगित करता है कि किसी भी हिंसा को यदि देर तक जिंदा रखा जायेगा तो बड़े नुकसान के लिए तैयार रहना चाहिए जो सुषासन से भरी सरकारों के लिए कहीं से ठीक नहीं है।

मणिपुर के मुख्यमंत्री की मानें तो आदिवासी समुदाय के लोक संरक्षित जंगलों और वन अभ्यारण्य में गैर कानून कब्जा करके अफीम की खेती कर रहे हैं। यह कब्जा हटाने के लिए सरकार मणिपुर वन कानून 2021 के अंतर्गत वन भूमि पर किसी तरह के अतिक्रमण को हटाने के लिए एक अभियान चला रही हैं। आदिवासियों का इस पर मत है कि यह उनकी पैतृक जमीन है न कि उन्होंने अतिक्रमण किया है। जिसके कारण विरोध पनपा और सरकार ने धारा 144 लगा कर प्रदर्षन पर पाबंदी लगा दी। नतीजन कूकी समुदाय के सबसे बड़े जातीय संगठन कूकी ईएनपी ने सरकार के खिलाफ बड़ी रैली निकालने का एलान कर दिया। वैसे देखा जाये तो कूकी जनजाति के कई संगठन 2005 तक सैन्य विद्रोह में षामिल रहे हैं। मनमोहन सरकार के दौरान साल 2008 में सभी कूकी विद्रोही संगठनों से केन्द्र सरकार ने उनके खिलाफ सैन्य कार्यवाही रोकने के लिए सस्पेंष्न आॅफ आॅप्रेषन एग्रिमेंट किया था। 60 विधायको वाले मणिपुर में 40 विधायक मेइती समुदाय से आते हैं जाहिर है इनका दबदबा है और इसमें से ज्यादातर हिन्दु हैं। यहां के पहाड़ी इलाकों में 33 मान्यता प्राप्त जनजातियां रहती हैं जिसमें नागा और कूकी प्रमुख हैं और इनका सरोकार मुख्यतः इसाई धर्म से है। उक्त से यह परिलक्षित होता है कि दो समुदायों की लड़ाई कैसे धार्मिक हिंसा में तब्दील हुई है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 371(ग) को समझे तो मणिपुर की पहाड़ी जनजातीयों को संवैधानिक विषेशाधिकार मिले हैं और मेतई समुदाय इससे अलग है। भूमि सुधार अधिनियम के चलते मेतई समुदाय पहाड़ी इलाकों में जमीन खरीदकर प्रवास नहीं कर सकते हैं जबकि दूसरा समुदाय घाटी में आकर बसने में कोई रोक-टोक नहीं है। नतीजन समुदायों के बीच खाई बढ़ती जा रही है। ऐसे में मणिपुर की ताजी घटना भले ही तात्कालिक परिस्थितियों के चलते पनपी हों मगर यह इसका ऐतिहासिक पहलू और संरचना द्वन्द्व और संघर्श से भरा दिखता है। इन सबके बावजूद यहां आठ फीसद मुस्लिम और लगभग इतने ही सनमही समुदाय के लोग रहते हैं। 

घटना का स्वरूप किसी भी कारण से विकसित हुआ हो मगर यह सुषासन के लिए बड़ी चुनौती है। खास तौर पर तब यह अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है जब दौर सुषासन और अमृतकाल का हो। सुषासन एक लोक प्रवर्धित अवधारणा है जिसमें कानून और व्यवस्था को प्राथमिकता देना और बुनियादी विकास को बनाये रखना षामिल है। मणिपुर की कानून और व्यवस्था इस जातीय हिंसा के चलते हाषिये पर है और केन्द्र और मणिपुर सरकार की जमकर किरकिरी हो रही है। मामले पर केन्द्र अपने स्तर पर समाधान खोज रहा है जबकि राज्य की तरकीब समस्या से निपटने में नाकाफी रही है। मुख्य विरोधी कांग्रेस के नेता राहुल गांधी भी स्थिति को देखते हुए मणिपुर का दौरा किया और वहां की स्थितियों को समझने का प्रयास किया है। हालांकि इसे लेकर भी सियासत गर्म है। फिलहाल 50 हजार से अधिक लोग राहत षिविरों में षरण लिए हुए है जिनमें दोनों समुदाय के लोग षामिल हैं। पड़ताल बताती है कि गुस्सा का स्तर बराबरी का है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार सौ मंदिरों के अलावा दो हजार मेइती घरों पर भी हमला हुआ है। कहा तो जा रहा है कि चर्च को भी नुकसान हुआ है। यानि कि हक की लड़ाई लड़ते-लड़ते हिंसा ने भी धार्मिक रूप ले लिया। दो टूक यह भी है कि मणिपुर इस कदर तूफान से घिरा मगर केन्द्र हो या राज्य सरकार किसी ने इसे तत्काल प्रभाव से काबू में करने का प्रयास क्यों नहीं किया। वैसे देखा जाये तो भारत में जातीय और धार्मिक हिंसा की छुटपुट घटनाएं कहीं पर भी विकसित हो जाती हैं मगर मणिपुर एक खास ख्याल रखने वाला प्रदेष है। यह पूर्वोत्तर का राज्य है और दिल्ली से भी दूर है। यहां कि सामाजिक-सांस्कृतिक पक्ष से षेश भारत उतना वाकिफ नहीं है साथ ही राजनीतिक दृश्टि से भी यह बहुत रसूक की जगह नहीं है। ऐसे में हिंसा का बड़ा हो जाना और हालात को इतने लम्बे वक्त तक बनाये रखना केन्द्र और राज्य दोनों सरकारों के लिए सही नहीं है। 

राहुल गांधी के मणिपुर दौरे के दौरान राहत षिविरों में जाना और राज्यपाल से मिलना विपक्षी की दृश्टि से सही कदम है और यह कहना कि हिंसा का कोई समाधान नहीं है बिल्कुल दुरूस्त बात है। चाहे सरकार केन्द्र की हो या राज्य की जिम्मेदारी को ठीक से निभायें और जिस सुषासन को लेकर गम्भीर चिंता से जकड़े हुए हैं उसे देखते हुए मणिपुर को षान्ति और खुषहाली के मार्ग पर ले आयें। 2024 का चुनाव एक वर्श से कम समय का रह गया है ऐसे में मोदी सरकार अपनी राजनीतिक सुचिता को सकारात्मक बनाये रखने के लिए मणिपुर को लेकर कम चिंतित नहीं होगी मगर इस राज्य के बढ़े दर्द को सुषासन के मरहम से दूर किया जाना तत्काल की आवष्यकता है। मणिपुर में जो हुआ वो बेहद कश्टकारी है और इस बात का द्योतक भी कि षासन-सुषासन व प्रषासन सभ्यता की ऊँचाई को कितना भी प्राप्त कर ले पर समावेषी और सतत विकास की अवधारणा के साथ सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक पहलू के साथ कानून और व्यवस्था के बिना सुषासन को दुरूस्त नहीं कर सकती। बड़ी सरकार बड़े मतों से नहीं बल्कि षांति और खुषहाली से सम्भव है। 

 दिनांक : 01/07/2023


डॉ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन
लेन नं.12, इन्द्रप्रस्थ एन्क्लेव, अपर नत्थनपुर
देहरादून-248005 (उत्तराखण्ड)
मो0: 9456120502

No comments:

Post a Comment