Wednesday, August 29, 2018

आसान नहीं 2019 मे 2014 को दोहराना

बीते चार साल की मोदी सत्ता में विकास की कितनी बयार बही और जनमानस में उनकी साख कितनी बढ़ी यह पड़ताल का विशय है। सरकार जब अपना पांच साल का रिपोर्ट कार्ड प्रस्तुत करेगी तब यह संदर्भ कहीं अधिक फलक पर होगा कि वास्तव में सरकार ने क्या किया और जनता के बीच क्या परोसा गया। हालांकि समय-समय पर मोदी सरकार कहां, कितना और क्या-क्या किया का लेखा-जोखा देती रही है पर भरोसा षायद पूरी तरह इसलिये नहीं बन पाया क्योंकि सिद्धांत और व्यवहार एक से नहीं प्रतीत होते मसलन रोज़गार के मामले में सरकार के आंकड़े गले नहीं उतर रहे हैं। बीते 15 अगस्त को लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री ने मुद्रा योजना के तहत रोज़गार से जुड़ने वालों के आंकड़े 13 करोड़ बताये थे जिसे लेकर असमंजस बरकरार है। प्रति वर्श दो करोड़ रोज़गार देने का वायदा 2014 के चुनाव में किया गया था जिस पर सरकार खरी नहीं उतरी है। पिछले 1 फरवरी को पेष बजट में सरकार ने 70 लाख रोज़गार देने की बात कही है। अनमने ढंग से ही सही पर यहां यह कहना गैर वाजिब नहीं है कि प्रधानमंत्री मोदी पकौड़ा तलने वालों को भी रोज़गारयुक्त बता चुके हैं। फिलहाल 2019 में लोकसभा का चुनाव होना है साथ ही कयास यह भी है कि मध्य प्रदेष, राजस्थान और छत्तीसगढ़ का चुनाव भी इसी के साथ हो सकते है। खास यह भी है कि भाजपा पूरी तरह चुनावी मोड में आ चुकी है मगर यह तो नहीं कहा जा सकता कि विपक्ष इससे बेखबर है पर उसमें असमंजस बरकरार है। असमंजस इस बात का कि किस रणनीति से मोदी का सामना किया जाय और उन्हें सत्ता से बेदखल किया जाय।
 समय 2019 की ओर तेजी से बढ़ रहा है जिसे देखते हुए भाजपा को रणनीतिक तौर पर बड़े कदम उठाने जरूरी हैं। इसी को देखते हुए भाजपा के मुख्यमंत्री परिशद् की बैठक 28 अगस्त को दिल्ली में हुई जिसमें प्रधानमंत्री मोदी, भाजपा अध्यक्ष अमित षाह, गृह मंत्री राजनाथ सिंह समेत अरूण जेटली और नितिन गडकरी समेत 15 प्रदेषों के मुख्यमंत्री और कई उपमुख्यमंत्री षामिल थे। जाहिर है मुख्यमंत्रियों को एक बड़े रण में जाने का गुर सिखाया गया होगा। दावा किया जा रहा है कि आगामी लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में मौजूदा से ज्यादा सीटों पर भाजपा जीत हासिल करेगी। हालांकि पूरी रणनीति का खुलासा अभी हुआ नहीं है मगर जिस साहस और बल के साथ सत्ता से युक्त मोदी सरकार हुंकार भर रही है उससे लगता है कि चुनाव जीतने का कोई पुख्ता रास्ता उन्होंने खोज लिया है। यूपी, एमपी, राजस्थान, गुजरात और महाराश्ट्र के मुख्यमंत्रियों पर काफी भरोसा किया गया है। राजस्थान और मध्य प्रदेष के सामने फिलहाल दोहरी चुनौती है एक विधानसभा की जीत तो दूसरे 2019 के लोकसभा के मामले में पहली वाली स्थिति बनाये रखना। गौरतलब है कि मध्य प्रदेष के 29 लोकसभा सीट में 27 पर भाजपा काबिज है जबकि राजस्थान में सभी 25 सीटें भाजपा के हिस्से में है। इसी तर्ज पर देखें तो गुजरात की लोकसभा की सभी सीटें भाजपा के खाते में हैं जबकि महाराश्ट्र में 48 में 23 पर कब्जा है वहीं उत्तर प्रदेष में 80 के मुकाबले 71 पर भाजपा और गठबंधन सहित 73 पर जीत हासिल की थी। हालांकि उपचुनाव में गोरखपुर, फूलपुर और कैराना की हार से यह संख्या घट गयी है। 2014 की इतनी बड़ी जीत को एक बार फिर दोहराना लोहे के चने चबाना जैसा प्रतीत होता है। कोई भी राजनीतिक पण्डित षायद ही यकीन से कह पाये कि लगभग सभी सीटों पर काबिज भाजपा 2019 में इतिहास को दोहरा पायेगी।
मुख्यमंत्रियों की बैठक में जाहिर है चुनाव को ध्यान में रखकर कई निर्देष दिये गये होंगे। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री ने इसे लेकर कई बातें मीडिया के सामने कही भी हैं। फिलहाल सरकार के सामने पांच साल का लेखा-जोखा देने वाली चुनौती भी है। सरकार की नीतियों से जहां असंतोश व्याप्त है जाहिर है वहां सीटें कम होंगी। दो टूक यह भी है कि उपरोक्त पांचों राज्य भाजपा की दिल्ली की गद्दी तय करेंगे जिसमें उत्तर प्रदेष की अग्रणी भूमिका रहेगी पर यहां सपा, बसपा आदि के गठबंधन के बयार से भाजपा सकते में है। मुख्यमंत्रियों की बैठक इस बात का भी संकेत है कि चुनाव के लिये जो बन पड़े करने की आवष्यकता है साथ ही सरकार के उन तमाम नीतियों को जनता के बीच परोसने का राज्य सरकारें काम करें ताकि मोदी सरकार के प्रति जनता में यदि विष्वास कम हुआ है तो बढ़े, यदि खत्म हो गया है तो पनपाया जाय क्योंकि भाजपा जानती है कि कुछ भी हो 2014 की तरह 2019 का चेहरा भी मोदी का ही होगा और जितना अधिक प्रदेष के मुख्यमंत्री मोदी सरकार की सकारात्मकता को जनता के बीच पेष करेंगे वोट की खेती उतनी ही लहलहायेगी। कल्याण योजनाओं एवं क्रियान्वयन को लेकर समीक्षा बैठक भी इसमें षामिल है। राज्यों ने जो काम किये उनका लेखा-जोखा भी लिया गया। इसके अलावा मुख्यमंत्रियों की बैठक में किसानों के न्यनूतम समर्थन मूल्य में वृद्धि के सरकार के फैसले, एससी/एसटी का संदर्भ ओबीसी का संवैधानिक दर्जा देने वाला कदम आदि भी चर्चे में रहे।
बीजेपी अपने पक्ष में एक बार फिर मतदाताओं को करने की जुगत भिड़ा रही है जबकि विपक्ष मोदी की लोकप्रियता को देखते हुए तरकष से नये तीर खोज रही है। माना जा रहा है कि यदि सपा, बसपा व कांग्रेस समेत अन्य में महागठबंधन जैसी कोई व्यवस्था बनती है तो यूपी भाजपा को दिल्ली पहुंचने में कांटा बन सकता है। एमपी में षिवराज सिंह चैहान ताकत झोंके हुए हैं पर बिगड़े हालात पर उनका नियंत्रण नहीं है ऐसे में बहुत बड़ा धड़ा भाजपा विरोधी है जो विधानसभा व लोकसभा दोनों पर भारी पड़ सकता है। राजस्थान में वसुंधरा राजे सिंधिया से गुर्जर व जाट आरक्षण के चलते तथा किसान तथा अन्य विकास को लेकर कहीं अधिक खिलाफ हैं। यहां भी भाजपा की राह आसान नहीं दिखाई देती। गुजरात की स्थिति यह है कि बामुष्किल से भाजपा पिछले साल विधानसभा जीत पायी थी। लोकसभा में कांग्रेस कांटे की टक्कर दे सकती है। रही बात महाराश्ट्र की तो षिवसेना एनडीए में रहते हुए भी भाजपा के खिलाफ है। पालघाट का लोकसभा उपचुनाव इस बात को पुख्ता करता है। यहां दोनों दल आमने-सामने थे हालांकि जीत भाजपा के हिस्से आयी। यहां देवेन्द्र फण्डवीस के सामने 48 के मुकाबले 23 लोकसभा सीट को 2019 में दोहराना सबसे बड़ी चुनौती रहेगी। वैसे सच यह भी है कि चुनावी दिनों में परिदृष्य बदलते हैं और कयास भी चकनाचूर हो जाते हैं। हालांकि मोदी की लोकप्रियता से बीजेपी खूब फायदे में है। कांग्रेस समेत तमाम विरोधियों के पास 2019 में मोदी को सत्ता से बेदखल करने का कोई मास्टर प्लान भी नहीं है बस जुबानी जंग जारी है। माना भाजपा के लिये आगामी आम चुनाव की लड़ाई आसान नहीं है पर विपक्ष के लिये तो यह कहीं अधिक दुरूह भी है। मजबूत चुनौती पेष हुई तो मोदी की राह कठिन हो सकती है पर इसके आसार कम ही दिख रहे हैं। जिस तर्ज पर मोदी अपने चुनावी मोड में होते हैं उससे तो यही लगता है कि विपक्ष काफी वक्त असमंजस में बिता देता है और जब कुछ रास्ते समतल होते भी हैं तब तक काफी देर हो चुकी होती है। 2014 के चुनाव में ऐसा ही हुआ था। 13 सितम्बर 2013 को मोदी प्रधानमंत्री के उम्मीदवार घोशित किये गये थे तब भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह थे। तब से लेकर 12 मई 2014 के मतदान के अंतिम समय तक मोदी चुनावी मोड में ही रहे और जब 16 मई 2014 को नतीजे घोशित किये तो एक इतिहास बन गया यही इतिहास मोदी एक बार फिर 2019 में दोहराना चाहते हैं मगर तब मोदी सत्ता के विरूद्ध लड़ रहे थे मगर अब सत्ता के साथ चुनाव लड़ना है। जाहिर है कि परिस्थिति एक जैसी नहीं है इसलिए इतिहास एक जैसा होगा कहना सम्भव नहीं है।



सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

Thursday, August 23, 2018

किसानो की राह समतल नहीं बन पाई

यह चिंता का विषय है और गम्भीरता से विचार करने वाला भी कि देश की आबादी में सर्वाधिक स्थान घेरने वाले किसान अनगिनत समस्याओं से क्यों जूझ रहे हैं। हम लोकतंत्र से बंधे हैं अतः यह सर्वथा आवष्यक है कि मानवता का ध्यान रखा जाय और देहातों में लोगों की जो कठिनाईयां हैं उससे निपटा जाय। यह काम कौन करेगा जाहिर है इषारा सरकार की ओर है पर दो टूक सच्चाई यह है कि किसानों को लेकर सरकारें मजबूत नीति के बजाय वोट की राजनीति करती रहीं हैं। 70 साल बाद भी किसान न केवल कर्ज की समस्या से जूझ रहा है बल्कि आत्महत्या की दर को भी बढ़ा दिया है। भारत में किसानों की आत्महत्याएं कितना संगीन मामला है इस पर कौन समझ रखेगा। सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को जो आंकड़ा कुछ समय पहले उपलब्ध कराया था उससे यह पता चला कि हर साल 12 हजार किसान आत्महत्या कर रहे हैं। कर्ज में डूबे और खेती में हो रहे घाटे को किसान बर्दाष्त नहीं कर पा रहे हैं। हालांकि सरकार कुछ करती तो है पर उससे किसानों की राह समतल नहीं हो पा रही है इसके प्रमुख कारणों में दषकों से इनके जीवन को निहायत ऊबड़-खाबड़ बना दिया जाना है। मौजूदा सरकार 2013 से किसानों की आत्महत्या के आंकड़े जमा कर रही है। साल 2014 और 2015 में कृशि क्षेत्र से जुड़ 12 हजार से अधिक लोगों ने आत्महत्या की थी जबकि 2013 में आंकड़ा इससे थोड़ा कम था। हालांकि इस पर पूरा विष्वास षायद ही हो पाये। सबसे ज्यादा आत्महत्या महाराश्ट्र के किसानों ने किया जबकि इस मामले में कर्नाटक दूसरे नम्बर पर आता है। इसी क्रम में तेलंगाना, मध्य प्रदेष, छत्तीसगढ़ आदि को देखा जा सकता है। हालांकि आत्महत्या की सूचना से कोई राज्य वंचित नहीं है।
यह बात वाजिब ही कही जायेगी कि कृशि प्रधान भारत में कई सैद्धान्तिक और व्यावहारिक कठिनाईयों से किसान ही नहीं सरकारें भी जूझ रही हैं। अन्तर सिर्फ इतना है कि किसान मर रहा है और सरकारें मजा कर रही हैं। हाल ही में मोदी सरकार ने खरीफ की फसल में कुछ बढ़ोत्तरी की थी मसलन धान की फसल पर न्यूनतम समर्थन मूल्य 1550 से 1750 कर दिया। ऐसे दर्जनों फसलों में कमोबेष वृद्धि की गयी। 2014 की तुलना में इसे ड़ेढ़ गुना कहा जा रहा है जबकि मोदी सरकार 2014 के लोकसभा चुनाव में इस एजेण्डे के साथ उतरी थी कि सरकार की स्थिति में वह किसानों की फसलों की कीमत डेढ़ गुना करेगी। चार साल बीतने के बाद कमोबेष इस स्थिति में आने के पष्चात् सरकार अपनी पीठ थपथपा रही है कि उसने किसानों का भला कर दिया जबकि डेढ़ गुना उस दौर के तय मूल्य के अनुपात में करना था न कि चार साल की बढ़त को डेढ़ गुना में बदलना था। वैसे स्वामीनाथन रिपोर्ट को देखें तो उसमें भी एमएसपी को डेढ़ गुने की बात कही गयी है। मगर जैसे सरकार ने किया है वैसे नहीं। यदि मोदी सरकार ने वाकई में किसानों की फसल का डेढ़ गुना एमएसपी किया है तो इसे स्वामीनाथन रिपोर्ट को लागू करना क्यों नहीं कहती। जाहिर है यहां सरकार की नीति राजनीति से प्रेरित है। पिछले साल 15 अगस्त को लाल किले से देष को सम्बोधन करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने किसानों की जिन्दगी बदलने के लिये जिस रास्ते का उल्लेख किया था वह कृशि संसाधनों से ताल्लुक रखता है जिसमें उत्तम बीज, पानी, बिजली की बेहतर उपलब्धता के साथ बाजार व्यवस्था को दुरूस्त करना षामिल था। सप्ताह भर पहले 2018 का 15 अगस्त भी बीता है पर रास्ते तो अभी भी समतल नहीं हुए हैं। इस बार भी लाल किले से खूब बातें कही गयी हैं पर मार्ग किसानों के जीवन में परिवर्तन लाये तब बात बने। 
किसानों से उपजी समस्याओं को लेकर संवेदना भी इधर-उधर होती है और दिमाग भी उथल-पुथल में जाता है। प्रधानमंत्री मोदी 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने की बात कह रहे हैं। इस हकीकत पर 2022 में ही विचार होगा। दिन बदलेंगे, बदल रहे हैं पर किसान कहां खड़ा है। 90 के दषक से मुफलिसी के चलते आत्महत्या के मार्ग को अपना चुका किसान उसी पर सरपट क्यों दौड़ रहा है। देष की 60 फीसदी आबादी किसानों की है। बहुतायत में नेता, मंत्री व प्रषासनिक अमला समेत कई सामाजिक चिंतक इस बात को कहने से कोई गुरेज नहीं करते कि उनके पुरखे भी किसान और मजदूर थे पर जब इन्हीं की जिन्दगी में थोड़ी रोषनी भरने की बात हो तो इनकी नीतियां और सोच या तो सीमित हो जाती है या बौनी पड़ जाती हैं। भारत में किसान आत्महत्या क्यों कर रहे हैं। यह लाख टके का नहीं अरब टके का सवाल है और इनकी संख्या लगातार क्यों बढ़ रही है। इतना ही नहीं आत्महत्या से जो राज्य या इलाके अछूते थे वे भी इसकी चपेट में आ रहे हैं। इस सवाल की तह तक जाने के बजाय सरकारें बचाव की नीति पर काम करने लगती हैं। मर्ज का इलाज नहीं बल्कि उसे टालने की कोषिष में लग जाती है। दुख इस बात का है कि सत्ता में आने से पहले यही सभी के जीवन के मार्ग को समुचित और समतल बनाने के वायदे करती है और जब इनके मतों को हथिया कर सत्तासीन हो जाते हैं तो ना जाने इनके विजन को क्या हो जाता है।
आत्महत्या की वजह क्या है, किसानों की स्थिति लगातार क्यों बिगड़ रही है। सरकारों से उनका भरोसा क्यों उठ रहा है और उनकी मुष्किलें कम होने के बजाय क्यों बढ़ रही हैं ये सभी सवाल फलक पर तैर रहे हैं। किसान अपना खून-पसीना बहाकर अनाज पैदा करते हैं और बाकी उन्हीं अनाज से अपनी सेहत ठीक कर रहे हैं इस चिंता से परे कि वे किस हाल में है। पूरे देष के किसानों पर तीन लाख करोड़ से अधिक का कर्ज है। समय-समय पर कुछ सरकारों ने इसे लेकर माफी वाला कदम भी उठाया। चुनाव से पहले कर्ज माफी का वादा तो होता है पर सत्तासीन होने के बाद कोश की सुरक्षा सरकारों को सताती है नतीजन कर्ज माफ नहीं होता यहां सरकार चालाकी दिखाती है और किसान ठगा जाता है। ज्यादा किसान साहूकार और आढ़तियों से कर्ज लेने को मजबूर है ये किसानों के लिये घातक साबित हो रहा है। गौरतलब है कि जब किसान अनपढ़ थे बैंकों के खाताधारक नहीं थे, न तो किसान क्रेडिट कार्ड था और न ही कर्ज को लेकर किसी प्रकार की निर्भरता। तब षायद किसान ज्यादा सुखी था। हालांकि साहूकारों के कर्ज से एक तबका दबा रहता है जिसके चलते ऋण ग्रस्तता का बोझ तत्पष्चात् बंधुआ मजदूरी का दौर भी देखने को मिला है। यह बात सही है कि कठिनाई उस दौर में भी थी और इस दौर में भी इससे वह बचा नहीं है पर आत्महत्या इतनी नहीं होती थी। आन्ध्र प्रदेष से लेकर महाराश्ट्र और तेलंगाना राजनीतिक दल इसकी वकालत कर रहे हैं कि कर्ज माफी कोई इलाज नहीं है और न ही यह स्थायी उपाय है यदि ऐसा होता तो 2008 में डाॅ0 मनमोहन सिंह सरकार द्वारा 60 हजार करोड़ रूपये से ज्यादा की कर्जमाफी के बाद आत्महत्याएं बंद हो जानी चाहिए थी पर ऐसे विचारधारकों को यह समझना होगा कि किसान कुछ तो राहत पाये होंगे और उनके रास्ते कुछ तो समतल हुए होंगे। मनमोहन सिंह ने जो जोखिम लिया उसे आगे की सरकारें बढ़े रूप में लेकर किसानों को कर्ज मुक्त क्यों नहीं करती। किसानों पर लगा कर्ज उनकी उम्र को घटा रहा है और जीवन के रास्ते में बड़े-बड़े गढ़ढ़े बना रहा है। वाकई में कर्ज माफी पूरा समाधान नहीं है। पूरा समाधान तभी होगा जब उनके जीवन के रास्ते समतल होंगे ताकि वे आत्महत्या की डगर पर नहीं बल्कि टनों अनाज गाड़ियों पर लाध कर बाजार के मार्ग पर हों।



सुशील कुमार सिंह
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Monday, August 20, 2018

इमरान की व्यूह रचना पर भारत की नज़र

सभी यह देखने के लिये उत्सुक हैं कि भूतपूर्व क्रिकेटर राजनीति की पिच पर क्या खेल दिखाते हैं। जाहिर है इनकी व्यूह रचना पर भारत समेत दुनिया की नजर रहेगी। इमरान खान 22वें प्रधानमंत्री के तौर पर बीते 18 अगस्त को पाकिस्तान की बागडौर संभाल ली है। ढ़ाई दषक से अधिक के सियासी सफर के साथ आखिरकार पाकिस्तान की सबसे बड़ी कुर्सी पर इमरान को विराजमान होने का अवसर मिल गया है। जिस दौर में पाकिस्तान में नई सरकार का उदय हो रहा है उसमें भारत एवं पाकिस्तान के सम्बंध बेहद नाजुक दौर से गुजर रहे हैं। भारत-पाक सीमा पर सीज़ फायर का बेहिसाब उल्लंघन जारी है और पाक अधिकृत कष्मीर आतंकियों से पटी है जो भारत के लिये कहीं अधिक मुसीबत बनी हुई है। दूसरे षब्दों में कहें तो सीमा के पार और सीमा के भीतर भारत इन दिनों पाक प्रायोजित आतंक से जूझ रहा है। अमेरिका से आर्थिक प्रतिबंध और आतंकवाद को लेकर लगातार मिल रही धौंस से पाकिस्तान फिलहाल बिलबिलाया भी है और आतंक के चलते ही वह ग्रे लिस्ट में षामिल किया गया है। सार्क देषों के सदस्यों के साथ भी उसका गठजोड़ भारत सहित कईयों के साथ पटरी पर नहीं है। चीन की सरपरस्ती में अपना भविश्य झांकने वाला पाकिस्तान अपने देष के भीतर ही कई संकटों को जन्म दे चुका है। ये कुछ बानगी हैं जो इमरान खान की नई सरकार का जिनसे तत्काल सामना होगा। वैसे भविश्य में क्या होगा यह तो आने वाला वक्त ही बतायेगा। यहां यह उल्लेख करना जरूरी है कि इमरान खान चुनाव जीतने के तुरन्त बाद ही चीन की ओर अपना झुकाव और कष्मीर मुद्दे को लेकर अपनी राय व्यक्त कर चुके हैं। कहना यह भी जरूरी है कि पाकिस्तान के साथ समस्या केवल कष्मीर में नहीं बल्कि पाकिस्तान के भीतर मौजूद विविध षक्ति केन्द्रों में है। ताकतवर सेना, प्रभावषाली आईएसआई, कट्टरपंथी ताकतें और गुट तथा पाकिस्तान में लोकतांत्रिक तरीके से निर्वाचित लेकिन कमजोर सरकारें पाकिस्तान की तबाही का कारण रही है। जब तब इन षक्ति केन्द्रों के बीच भारत से रिष्ते सुधारने को लेकर सर्वसम्मति नहीं बनेगी इस बारे में कोई भी ठोस पहल महज ख्याली पुलाव ही रहेगी। यदि इमरान खान भारत से रिष्ता सुधारना चाहते हैं तो कष्मीर का राग अलापने के बजाय विकास के मार्ग पर उन्हें कदमताल करना होगा और यहां पर फैली षक्तियों के दबाव और प्रभाव में नहीं बल्कि सरकार के बूते आगे बढ़ना होगा। 
फिलहाल सरकार बनते ही यह चित्र भी साफ हो गया कि इमरान क्या करेंगे? 21 सदस्यों वाली कैबिनेट में 12 ऐसे सदस्य षामिल हैं जो पूर्व राश्ट्रपति और तानाषाह परवेज मुर्षरफ के समय में अहम जिम्मेदारियां संभाल चुके हैं। ये वही परवेज मुषर्रफ हैं जिन्होंने 1999 में नवाज़ षरीफ की सरकार तख्ता पलट कर अपनी ताकत का पाकिस्तान में प्रदर्षन किया था और दषकों तक सत्ता का स्वाद चखा, राश्ट्रपति बने और अब दुबई में तड़ी पार जिन्दगी काट रहे हैं। साफ है कि सेना के प्रभाव वाली इमरान खान सरकार वहां के षक्तियों के बगैर अपनी ताकत का प्रयोग षायद ही कर पायें। पाकिस्तान में जो हो रहा है वो भारत के लिये सिर्फ एक राजनीतिक घटना है। इमरान खान के पीएम रहते भारत-पाकिस्तान में रिष्तों को लेकर कोई खास प्रभाव पड़ने वाला तो नहीं है। ऐसा देखा गया है कि भारत को लेकर इमरान खान का रवैया अक्सर आक्रामक रहा है। चुनाव के दिनों में भी वे इस स्थिति में देखे गये हैं। ऐसा करने के पीछे वोट हथियाना भी एक वजह रहा होगा। जिस तरह सेना की सरपरस्ती में इमरान की सरकार पाकिस्तान की जमीन पर सांस लेगी उससे भारत के रिष्ते सुधरेंगे यह सपना मात्र है पर सम्बंध खराब होने की स्थिति में प्रधानमंत्री मोदी को जिम्मेदार ठहराने में वे पीछे भी नहीं रहेंगे। पाकिस्तान में जो चुनाव हुआ वह भी फुल प्रूफ नहीं था। इस सियासी जंग में सेना भी षामिल थी। इमरान खान को पाकिस्तान की सेना का मुखौटा कहने में भी गुरेज नहीं है। जाहिर है जो सेना चाहेगी वही होगा। ऐसे में भारत को केवल सतर्क रहने की जरूरत होगी। भारत के खिलाफ जहर उगलने वाले इमरान कट्टरपंथियों के भी समर्थक रहे हैं और चीन को तुलनात्मक तवज्जो देने वालों में षुमार है। हालांकि इसके पहले के षासक भी दूध के धुले नहीं थे। विडम्बना यह है कि पाकिस्तान में लोकतंत्र एक खिलौना रहा है जिसे सेना समय-समय पर अपने तरीके से खेलती रही और यदि कोई कमी कसर रही तो आतंकवादियों ने इसे पूरा किया। नवाज़ षरीफ की सरकार भी इस खेल में थी। सच्चाई यह है कि इमरान खान पर पूरा भरोसा नहीं किया जा सकता बस उन पर नजर रखी जा सकती है। 
देखा जाय तो भारत और पाकिस्तान के बीच रिष्ते 1947 के देष के विभाजन के बाद से ही सामान्य नहीं रहे। दोनों देषों ने 1948, 1965, 1971 में युद्ध लड़े हैं और 1999 में कारगिल घटना को अंजाम देने वाला पाक चैथी बार मुंह की खा चुका है। बावजूद इसके भारत के खिलाफ आतंक का युद्ध सरहद पार से बादस्तूर जारी किये हुए है। भारत की ओर से सम्बंध सामान्य बनाने को लेकर कोषिषें होती रही हैं लेकिन हर बार नतीजा ढाक के तीन पात वाला ही रहा है। 25 दिसम्बर, 2015 को प्रधानमंत्री मोदी की अचानक लाहौर यात्रा भले ही देष दुनिया के सियासतदानों को चकित कर दिया हो और कूटनीतिज्ञ इसे षानदार पहल मान रहे हों पर पाकिस्तान से रिष्ते टस से मस नहीं हुए और ठीक एक सप्ताह के भीतर 1 जनवरी 2016 को पठानकोट पर हमला किया गया जो भारत के लिये हतप्रभ करने वाली घटना थी। वैसे पाकिस्तान कभी सीधी लड़ाई नहीं कर सकता पर घुसपैठ करता रहता है। इमरान सरकार की लगाम क्योंकि सेना के हाथ में रहेगी ऐसे में द्विपक्षीय समझौता यदि होता भी है तो टिकाऊ होगा भरोसा कम ही है। पाकिस्तान की गुटों में बंटी ताकतों को इमरान खुष करना चाहेंगे और उसका तरीका भारत की लानत-मलानत है। दो टूक यह भी है कि बीते 70 सालों में पाकिस्तान में कई सत्तायें आयीं और गयीं पर जिन्होंने भारत से रिष्ते सुधारने का जोखिम लिया उन पर यहां की तथाकथित ताकतों ने कब्जा करने की कोषिष की। यही कारण है कि यहां लोकतंत्र हमेषा पंगु और सेना ताकतवर रही। बीते चार दषकों से तो आतंकवाद भी इस देष में सरपट दौड़ रहा है और भारत को लहुलुहान कर रहा है और इस मामले को लेकर जब भारत संयुक्त राश्ट्र सुरक्षा परिशद् में इन्हें अन्तर्राश्ट्रीय आतंकी घोशित कराने का मसला उठाता है तो चीन इनके बचाव में वीटो का उपयोग करता है। कूटनीति सिद्धांतों से चलते हैं जबकि पाकिस्तान इससे बेफिक्र है। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जी का बीते 16 अगस्त को देहांत हुआ उन्हें स्मरण करते हुए उनका यह वक्तव्य कि मित्र बदल सकते हैं पड़ोसी नहीं। वाजपेयी प्रधानमंत्री रहते हुए आगरा षिखर वार्ता के माध्यम से द्विपक्षीय सम्बंध सुधारने की कोषिष की पर यदि पड़ोसी सिद्धांत विहीन हो तो दूसरा पड़ोसी कुछ कर नहीं सकता। कूटनीतिक हल के लिये दो सिद्धांत होते हैं पहला सभी मामले षान्तिपूर्ण वार्ता के जरिये सुलझाये जाने चाहिये, दूसरा द्विपक्षीय मामले में किसी तीसरे को षामिल करने से बाज आना चाहिए पाकिस्तान ने हमेषा इन दोनों सिद्धांतों का उल्लंघन किया है। इमरान से पहले भी 21 सत्ताधारी आ चुके हैं और हर बार उम्मीद जगी है पर दो ही कदम पर सभी से भारत को निराषा ही मिली है। यहां यह उल्लेख सही रहेगा कि 26 मई 2014 को प्रधानमंत्री अपने षपथ समारोह में सार्क के सभी देषों को आमंत्रित किया था जिसमें पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज़ षरीफ भी षामिल थे। षुरू में जोष दिखाया पर बाद में पाक की आंतरिक गुटों सेना, आतंक और आईएसआई के दबाव में वे भी धराषाही हो गये। अन्ततः कह सकते हैं कि इमरान की व्यूह रचना पर भारत की नजर रहेगी कि पाक की सत्ता की पिच पर कैसा खेल खेलते हैं। 
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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एक राजनेता जो राजधर्म सिखाता था

वाकई अटल बिहारी वाजपेयी का जाना सही मायने में एक युग का अन्त है। इसमें कोई दुविधा नहीं कि भारतीय लोकतंत्र नें गिने चुने कद्दावार नेता ही पैदा किये हैं जिसमें अटल जी को अव्वल दर्जे पर रखा जा सकता है। भारत रत्न और पूर्व प्रधानमंत्री तथा कवि हृदय अटल बिहारी वाजपेयी नहीं रहे यह बात भारत के जन-जन को बहुत अखरा है। पक्ष हो या विपक्ष सभी में वाजपेयी बेषुमार लोकप्रिय थे। पूरा देष उन्हें भावभीनी विदाई दे रहा है। कोई महान सपूत कह रहा है, कोई षानदार वक्ता तो कोई प्रतिद्वंदियों के मन को जीतने वाला योद्धा करार दे रहा है। भाजपा के षायद वह मात्र एक ऐसे नेता थे जिन्हें अजात षत्रु की संज्ञा दी जा सकती है। रोचक यह भी है कि उन्हें जितना सम्मान भाजपा से प्राप्त था उससे कही ज्यादा विरोधी दलों से मिला है। यही कारण है कि वाजपेयी का जाना हर किसी को नागवार गुजरा और सभी निःषब्द हैं। संसद में अपनी वाणी से सदन के सदस्यों के दिल को जीतने वाले वाजपेयी के बारे में साल 1957 में प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू ने कहा था कि मैं इस युवक में भारत का भविश्य देख रहा हूँ। जाहिर है वाजपेयी निहायत दूरदर्षी किस्म के महामानव सरीखे व्यक्ति थे। षायद उसी का तकाजा था कि विपक्ष में होते हुऐ भी उन्हें सरकारें विदेषों में भारत का प्रतिनिधत्व करने हेतु जिम्मेदारी देने से हिचकिचाती नहीं थीं। ये बात और है कि दूसरे देष ऐसा होते देख अचरज में जरूर पड़ जाते थे। संयुक्त राश्ट्र में हिन्दी में भाशण देने वाले पहले व्यक्ति अटल बिहारी वाजपेयी ही थे। चाहे राजनीतिक गलियारा हो, फिल्म जगत हो या फिर खेल जगत ही क्यों न हो आदि समेत पूरा भारत वाजपेयी के जाने से दुःखी है। इतना ही नहीं पड़ोसी समेत दुनिया के तमाम देष इस खबर से क्षुब्ध हैं। 
वाजपेयी तीन बार देष के प्रधानमंत्री बने तब दौर गठबंधन सरकारों का था। गौरतलब है 1989 से देष में इसका दौर षुरू हुआ और यह सिलसिला 2014 में आकर थमा। हालांकि गठबंधन की पहली बार सरकार मोरार जी देसाई के नेतृत्व में 1977 में बनी थी तब वाजपेयी को विदेष मंत्री का जिम्मा मिला था। 1996 के लोकसभा चुनाव में किसी भी दल को बहुमत न मिलने वाला सिलसिला बादस्तूर जारी रहा। चुनाव के नतीजे किसी के पक्ष में नहीं थे पर संकेत भाजपा के ओर झुके थे फलस्वरूप हाँ ना के बीच अटल जी ने प्रधानमंत्री पद की षपथ ली। 28 मई 1996 प्रधानमंत्री वाजपेयी को अपना बहुमत सिद्ध करना था हालांकि वक्त 31 मई तक के लिए मिला था। इस दौरान विपक्ष के सत्तालोभी आरोपों को जिस तरह उन्होंने खारिज करते हुऐ यह कहा कि जब तक वह राश्ट्रीय उद्देष्य पूुरा नहीं कर लेंगे तब तक विश्राम से नहीं बैठेंगे। अध्यक्ष महोदय में अपना त्याग पत्र राश्ट्रपति महोदय को देने जा रहा हूँ। सदन में इस तरह के हतप्रभ करने वाले भाशण सुनकर विरोधी भी असहज हो गये थे। यह अटल का दृढ़ निष्चय ही था कि राजनीति के पैंतरे को न कभी अपने लिए गलत तरीके से अपनाया और न ही दूसरों के खेमे में ऐसा होने दिया। अलबत्ता 13 दिन की सरकार गिर गई पर देष की जनता का निर्णय अभी भी वाजपेयी के पक्ष में था। यही कारण है कि 1998 के मध्यावधि चुनाव में एक बार फिर अटल जी प्रधानमंत्री बने यह भी अल्पमत की सरकार थी। गठबंधन 13 महीने तक चला आखिरकार 1999 में एक बार फिर देष चुनाव का सामना किया। यह तीसरा वाकया हुआ जब अटल जी एक बार फिर 23 दलों के सहयोग से देष की बागडोर संभाली। इस समय तक देष में यह बात आम हो गई थी कि गठबंधन की सरकारें भारत में सफल नहीं हो सकती और कभी भी अपना कार्यकाल षायद ही पूरा कर पायें मगर वाजपेयी ने इसे गलत सिद्ध कर दिया। उन्होंने न केवल 5 साल सरकार चलाई बल्कि बडे़-बडे़ निर्णय लेने में भी कोई कोताही नहीं बरती। आने वाले दिनों के लिए अटल जी ने यह भी उदाहरण पेष कर दिया कि भारत में गठबंधन की सरकार सफलता पूर्वक चलाई जा सकती है। इसका पुख्ता सबूत मनमोहन सिंह का दो कार्यकाल है।
कार्यकाल छोटे थे परंतु कारनामे अत्यन्त बड़े। साल 1998 के 11 और 13 मई को पोखरण में 5 परमाणु परीक्षण हुऐ तत्पष्चात पूरी दुनियाँ भारत की दुष्मन बन गई। पूरब से लेकर पष्चिम, और अमेरिका से लेकर आस्ट्रेलिया सभी ने भारत से रिष्त-नाते तोड़ लिये। भारत दुनियां में अकेला हो गया हांलाकि इस दौर में इजराइल ने भारत का सर्मथन किया जो अपने आप में बड़ी महत्वपूर्ण बात है। अमेरिका के खुफिया सैटलाइट के नीचे जिस प्रकार परमाणु परीक्षण को अंजाम दिया गया वह भी काबिल-ए-तारीफ थी। जाहिर है दुनिया के इस कदम से भारत की अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा और देष कठिनाई की ओर गया मगर दुनियां यह जान गई थी कि भारत एक परमाणु सम्पन्न राश्ट्र हो गया है। ऐसा वाजपेयी के अटल इरादों के चलते ही सम्भव हुआ। हांलाकि 1974 में पहला पोखरण परीक्षण किया जा चुका था। बाद में 2006 में अमेरिका ने भारत से प्रतिबंध हटा लिया मगर आस्ट्रेलिया फिर भी नहीं माना। खराब सम्बन्धों के चलते आस्ट्रेलिया से यूरेनियम न मिल पाना एक बड़ा करण था। मनमोहन सिंह की सरकार ने इस पर कड़े अभ्यास किये अन्ततः 2014 में ब्रिसबेन में हुऐ जी-20 के बैठक में आस्ट्रेलिया के साथ सहमति बन गई।  करगिल के चलते पाकिस्तान को घूल चटाने का काम अटल बिहारी वाजपेयी ने ही किया। पाकिस्तान की नवाज षरीफ सरकार का तख्ता पलटने वाले परवेज मुषरर्फ को कभी तव्वजो ही नहीं दिया। जब 2001 में आगरा षिखर वार्ता का मसौदा तैयार हुआ और यह तय किया गया कि मुषरर्फ और वाजपेयी एक टेबल पर होंगे तब दौर बदल चुका था मगर तानषाह मुषरर्फ वाजपेयी के सामने कैसे टिक सकता था वह बिना किसी वार्ता के इस्लामाबाद चला गया। ऐसे तमाम उदाहरण हैं जिससेे अटल के व्यक्तित्व को जांचने परखने के काम में लिया जा सकता है।  
अटल जी बीते 9 साल से सार्वजनिक जीवन में नहीं हैं इस बीच उनकी एक बार सार्वजनिक तस्वीर 27 मार्च 2015 को तब प्रकाषित हुई जब उन्हें तत्कालीन राश्ट्रपति प्रणव मुखर्जी भारत रत्न प्रदान कर रहे थे। वे एक लम्बी बीमारी से जूझ रहे थे और एक लम्बी लड़ाई के पष्चात इस जगत को विदा करके चले गये। अनायास ही सही पर ऐसा लगता है कि जैसे उन्होंने अपने तमाम राजनीतिक सिद्धांतों के साथ कई मान्यताओं और लोकतंत्र की थाती यहीं छोड़ गये हैं। अटल जी बहुत कुछ छोड़ गये हैं जो जिस भी हिस्से में बांटा जाय आसानी से वितरित हो जायेगा। कवि थे, राजनेता थे, कठोर निर्णय व नरम हृदय रखने वाले राजधर्म के प्रणेता थे, संवाद और हाजिर जवाब के मामले में कहीं अधिक अव्वल थे। विराधियों को कैसे दोस्त बनाना है इस हुनर से भी ओतप्रोत थे, सच्चे देषभक्त थे सब के असल मायने में जननायक थे। मौजूदा प्रधानमंत्री मोदी जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे तब गोदरा में हुई घटना के बाद उन्हें राजधर्म सिखाने का काम वाजपेयी ने ही किया था। हम सब के लिए यह एक युग पुरूश थे। आने वाली पीढ़ियाँ अटल को अपना आदर्ष जरूर बनायेंगी। मिली-जुली सरकार कैसे चलती है, उदार दृश्टिकोण कैसा होता है और भारत की विविधता व अक्षुण्णता कैसे बनी रहती है इसे अटल जी सिखा गये। कष्मीर से कन्याकुमारी और गुजरात से अरूणाचल तक सड़कों का जाल बिछाने वाले वे विकास पुरूश थे। बाते बहुत हैं पर सब की अपनी सीमायें हैं अन्ततः कह सकते है कि अटल जी की दूरदर्षिता के सब कायल थे। बात अनुचित हो तो साफ कहना और सुखी रहना उनकी आदत थी यही कारण था कि अपने दल के विरूद्ध भी जाने से भी हिचकिचाते नहीं थे। इसमें कोई षक नहीं कि आने वाली पीढ़ियां राजधर्म निर्वहन को ले कर अटल जी को बहुत याद करेंगी।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
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Thursday, August 16, 2018

लाल किले से पीएम का 2019 पर निशाना

फिलहाल 15 अगस्त 2018 को लाल किले के प्राचीर से प्रधानमंत्री मोदी के दिये गये भाशण को एक लेख में समेटना सम्भव नहीं है और इसकी व्याख्या भिन्न-भिन्न रूपों में हो सकती है। गरीब, किसान, कृशि, काला धन जैसे विशयों पर भाशण कहीं ज्यादा केन्द्रित था। 82 मिनट के भाशण में सबसे ज्यादा 39 बार गरीब षब्द का प्रयोग हुआ, 14 बार किसान, 22 बार गांव का जिक्र था जबकि भाशण में 11 बार स्वच्छता और इतनी बार ही कृशि का जिक्र आया साथ ही 4 बार रोज़गार षब्द भी इसमें षुमार है। जैसा कि कयास था इस साल का 72वां स्वतंत्रता दिवस कुछ सौगातों और उम्मीदों की भरपाई करेगा और प्रधानमंत्री मोदी अपने अब तक के किये गये कार्यों के लिये अपनी पीठ भी थपथपायेंगे ठीक वैसा हुआ भी है। लाल किले की प्राचीर से मोदी ने कहा कि यदि हम साल 2013 की रफ्तार से चलते तो कई काम करने में दषकों लग जाते मगर बीते चार सालों में बहुत कुछ बदला और देष आज बदलाव महसूस कर रहा है। तरह-तरह की उपमा के साथ मोदी ने अपने विचारों को स्वतंत्रता दिवस के इस पावन अवसर पर परोसा और यह समझाने का प्रयास किया सब कुछ पहले जैसा है लेकिन अब देष बदल रहा है और ऐसा होने के पीछे उनकी अब तक की मेहनत है। यही बात थोड़ी नागवार गुजरती है कि 70 साल से अधिक आजादी प्राप्त भारत का सारा विकास केवल चार सालों में कैसे हो गया। मैं बेसब्र हूं क्योंकि जो देष हमसे आगे निकल चुके हैं हमें उनसे भी आगे जाना है। मैं बेचैन हूं हमारे बच्चों के विकास में बाधा बने कुपोशण से देष को मुक्त कराने के लिये और मैं व्याकुल हूं हर गरीब तक समुचित हैल्थ कवर पहुंचाने के लिये। कह सकते हैं कि आयुश्मान योजना इसी व्याकुलता का नतीजा है जिसे फरवरी के बजट में लाया गया और अब क्रियान्वित करने की बारी है। बेषक प्रधानमंत्री बेसब्री और बेचैनी की बात कर रहे हैं पर यह नहीं भूलना चाहिए कि 14 साल से अधिक गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने यदि यही बेचैनी और व्याकुलता दिखाई होती तो कुपोशण समेत अनेक बुनियादी समस्याओं से गुजरात आज मुक्त होता। जिस गुजरात माॅडल को केन्द्र में रखकर दिल्ली की गद्दी हथियाई गयी थी अब उस पर कोई चर्चा नहीं होती क्योंकि अब वह पुराना माॅडल हो गया और उसके इस्तेमाल से अब राजनीति को फायदा नहीं होता है। 
रोचक यह भी है कि मार्च 2015 में जम्मू-कष्मीर की अलगाववादियों की समर्थन करने वाली पीडीपी के साथ मिलकर भाजपा ने सरकार बनायी। बाकायदा तीन साल सरकार चली और जब गठबंधन टूटा तो कष्मीर की घाटी तबाही के मंजर से दो-चार हो रही थी। लाल किले की प्राचीर से मोदी अब जम्मू-कष्मीर में अमन-चैन के लिये अटल जी का फाॅर्मूला अपनाने की बात कर रहे हैं जिसमें इंसानियत, कष्मीरियत औ जम्मूरियत षामिल है। बीते 10 अगस्त को मानसून सत्र समाप्त हुआ पड़ताल बताती है कि बीते 18 वर्शों में यह सर्वाधिक सफल सत्र था। इसी सत्र में राज्यसभा के उपसभापति के चुनाव में जबरदस्त जोड़-तोड़ के चलते सरकार ने 126 के मुकाबले विपक्ष को 111 पर धराषाही करते हुए विजय प्राप्त की जबकि लाल किले से मोदी जी कह रहे हैं कि तीन तलाक पर हमने संसद में बिल लाया लेकिन कुछ लोग इसे पास नहीं होने दिये। जब सरकार को मुनाफा लेना होता है तो अपना काम किसी तरह कर लेते हैं और जिसे लेकर स्वयं इच्छाषक्ति का आभाव है उसका ठीकरा विपक्ष पर फोड़ देते हैं। सच्चाई यह है कि तीन तलाक के मामले में मोदी सरकार स्वयं चुनाव तक कुछ करना नहीं चाहती। इसके लटकाने में इन्हें राजनीतिक फायदा मिलेगा। इसमें कोई दुविधा नहीं कि आगामी लोकसभा के 2019 के चुनावी फिजा में तीन तलाक को भुनाना चाहेंगे और मुस्लिम महिलायें एक बार फिर भावनात्मक राजनीति की षिकार होंगी। किसानों की फसल का एमएसपी कुछ महीने पहले डेढ़ गुना कहा जा रहा था अब कुछ हद तक दोगुना भी कहा जा रहा है। यह बात समझ के परे है कि जब एमएसपी डेढ़ गुना हो गया है तो सरकार खुलकर क्यों नहीं बोलती कि उसने स्वामीनाथन रिपोर्ट को लागू कर दिया है। साल 2022 तक किसानों की आय दोगुना कहे जाने वाली बात एक बरस पुरानी हो गयी 2019 में यह सभी बातें जोर पकड़ेंगी। भारत के घर में षौचालय हो, अच्छी और सस्ती स्वास्थ सुविधा सुलभ हो साथ ही हर भारतीय को बीमा का सुरक्षा कवच मिले। ये सभी लाल किले से भरी हुई हुंकार है जो चुनाव के गलियारे में भी षोर मचायेगी। 
इन्हीं सबके बीच भारतीय सषस्त्र सेना में नियुक्त महिला अधिकारियों में पुरूश के समकक्ष पारदर्षी चयन प्रक्रिया द्वारा स्थायी कमीषन की प्रधानमंत्री ने बात कही जो वाकई में तारीफ के काबिल है। पीएम ने वर्श 2014 के पहले दुनिया की कई मान्य संस्थाओं और अर्थषास्त्रियों का हवाला देते हुए कहा कि वे कहते थे कि भारत की अर्थव्यवस्था में बहुत जोखिम है अब वही लोग सुधारों की तारीफ कर रहे हैं। यह सही है कि विष्व बैंक से लेकर अन्तर्राश्ट्रीय मुद्रा कोश, मुडी रिपोर्ट आदि भारत की अर्थव्यवस्था को सकारात्मक मानते हैं। इतना ही नहीं फ्रांस को पीछे छोड़ते हुए भारत इंग्लैण्ड की अर्थव्यवस्था के समीप है। बावजूद इसके बड़ा सवाल यह है कि मानव विकास सूचकांक में हम बहुत उम्दा नहीं हैं। हालांकि मोदी प्रधानमंत्री की ंिचंता इन सबको लेकर देखी जा सकती है। एक खास बात यह भी है कि जब मोदी ने कहा कि एक समय था जब पूर्वोत्तर भारत को लगता था कि दिल्ली बहुत दूर है लेकिन हमने दिल्ली को पूर्वोत्तर के दरवाजे पर खड़ा कर दिया। जिस तर्ज पर मोदी ने पूर्वोत्तर के लोगों की तारीफ की वाकई में उसकी जरूरत थी यह संदेष अच्छा है। बुनियादी विकास के साथ विकास के वर्चस्व की भी लाल किले से आवाज सुनायी दी। जहां गरीबी, बीमारी, बेरोज़गारी, किसानों को लेकर चिंता और महिला सुरक्षा की गूंज लाल किले की प्राचीर से आयी वहीं 2022 तक देष का कोई बेटा-बेटी अंतरिक्ष तक पहुंच सकता है इसे लेकर भी उत्साह भरे लव्ज़ मोदी ने कहे। 
प्रधानमंत्री मोदी ने कई ऐसी घोशणायें भी की जिनका सीधा सम्बंध बीते मानसून सत्र में किये गये कार्यों से है और कई ऐसी बातें कहीं जो तमाम चुनावी सभाओं में कहते रहे हैं। मोदी के भाशण में नया और पुराना दोनों का मिश्रण था। जब पहली बार 2014 के 15 अगस्त में प्रधानमंत्री मोदी ने अपने भाशण में कई उत्साहवर्धक विचारों के साथ कई घोशणायें की थी तभी से यह लगा था कि नई सरकार नई सोच के साथ बहुत कुछ नया करेगी मगर वक्त निकलता गया और मोदी भी अन्य सरकारों की तरह वायदे करते गये पर खरे नहीं उतरे। काला धन का मामला आज भी खटायी में है। नवम्बर 2016 में नोटबंदी के बाद देष में कितना काला धन है इसकी भी जानकारी देने में सरकार विफल रही। केषलैस की बात करने वाली सरकार अब न केवल इस पर चुप रहती है बल्कि लेषकैष से जूझ रही है और बैंकिंग सेक्टर अभी भी नोटबंदी के साइड इफैक्ट से जूझ रहे हैं। समय के साथ यह सवाल गहराता गया कि स्वच्छ भारत अभियान कितना सफल है और नमामि गंगे को सबसे ऊपर रखने वाली सरकार इतनी ढ़ीली क्यों हुई कि गंगा की सौगंध लेने वाले पीएम मोदी के कार्यकाल में सफाई छोड़िये गंगा और मैली हुई है। सर्वोच्च न्यायालय ने डांट लगायी पर कुछ हासिल नहीं हुआ। निवेषक देष पर पूरा भरोसा नहीं कर पाये। मेक इन इण्डिया, डिजिटल इण्डिया, स्टार्टअप एण्ड स्टैण्डअप इण्डिया सरपट दौड़ नहीं लगा पाये। देष कई अनचाही समस्याओं में जूझने लगा जैसे माॅब लिंचिंग जैसी समस्या। फिलहाल मौजूदा सरकार का यह अंतिम 15 अगस्त था जिसमें भारत बदलने की बात भी है और 2019 पर निषाना भी।
सुशील कुमार सिंह
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Monday, August 13, 2018

मौजूदा सत्ता का अंतिम 15 अगस्त

कयास यह है कि इस साल देश  का 72वां स्वतंत्रता दिवस कुछ सौगातों और उम्मीदों की भरपायी कर सकता है। ऐसे दिनों में देष की जनता लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री के सम्बोधन में अपने लिये कुछ नया जरूर ढूंढती है। 2014 से लेकर 2018 के बीच यह पांचवां मौका होगा जब प्रधानमंत्री मोदी लाल किले से बोलेंगे। इस बार का सम्बोधन इस लिहाज़ से भी महत्वपूर्ण है क्योंकि आगामी अप्रैल-मई में 17वीं लोकसभा का गठन होना है। ऐसे में जनता को लुभाने वाले कई इरादे मोदी द्वारा व्यक्त किये जा सकते हैं। वैसे तो पीएम मोदी हर बार के स्वतंत्रता दिवस पर दिये गये अपने भाशण में नई बात करते हैं पर इस बार क्या कहेंगे इसकी उत्सुकता तो होगी। माना जा रहा है कि जनधन योजना के तहत खाताधारकों के लिये ओवर ड्राफ्ट सुविधा दोगुनी कर 10 हजार की जा सकती है। ये सरकार का उन लोगों को कोश उपलब्ध कराने का प्रयास है जो इससे वंचित है। स्थिति को समझते हुए आकर्शण सूक्ष्म बीमा योजना की घोशणा की जा सकती है। रूपे कार्ड धारकों के लिये मुक्त दुर्घटना बीमा में भी बढ़ोत्तरी हो सकती है। सभी जानते हैं कि स्वतंत्रता दिवस का मौका प्रधानमंत्री के लिये ऐसी तमाम घोशणाओं के लिये एक बेहतर मंच होता है जिससे जनता लम्बे समय तक फील गुड में रहती है। प्रधानमंत्री मोदी लुभावने भाशण के लिये जाने भी जाते हैं। इसका यह तात्पर्य नहीं कि मात्र रिझाने का काम करते हैं बल्कि पूरा करने की कोषिष भी रही है। मगर पड़ताल बताती है कि घोशणाओं की फहरिस्त लम्बी है और अनेकों का जमीन पर उतरना अभी बाकी है। 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले मोदी का यह आखरी भाशण होगा। सभी जानते हैं इसी दिन जियो की सेवा गीगा फाइबर ब्राॅडबैंड के लिये रजिस्ट्रेषन षुरू होगा। रेलवे का नया टाइम टेबल भी इसी दिन लागू होने वाला है। जाहिर है देष में कई ट्रेनों का समय बदल जायेगा। 15 अगस्त को ही रेलवे के डेडीकेटेड फ्रेड काॅरिडोर की षुरूआत होगी जिसका पहला ट्रायल 192 किमी के अटेली से फुलेरा सेक्षन में होगा। यह प्रोजेक्ट 81 हजार करोड़ रूपये से अधिक का है। 
प्रधानमंत्री मोदी को यह पता है कि कब, किस तरह का बयान देना है। 15 अगस्त के भाशण में सरकारी कर्मचारियों के लिये भी बड़ा ऐलान हो सकता है। सरकार कर्मचारियों की न्यूनतम सैलरी 18 हजार के बजाय 26 हजार करने पर राजी हो सकती है। कई सामाजिक, आर्थिक और बुनियादी महत्व के मुद्दों को मोदी जनता के सामने परोस कर बेहतर सरकार का खिताब भी हासिल करना चाहेंगे। गौरतलब है कि पिछले स्वतंत्रता दिवस के दिन प्रधानमंत्री ने यह स्पश्ट किया था कि 2022 तक न्यू इण्डिया बनाने का आह्वान करते हुए नोटबंदी, सर्जिकल स्ट्राइक, कष्मीर समस्या, भारत-चीन विवाद, आस्था के नाम पर हिंसा, तीन तलाक जैसे कई मुद्दों का जिक्र किया था। जिसमें से कई मुद्दों को अपने भाशण का एक बार फिर हिस्सा बना सकते हैं। खास यह भी है कि बीते 18 सालों में पिछला बजट सत्र जहां सबसे खराब रहा वहीं बीते 10 अगस्त को समाप्त मानसून सत्र कहीं अधिक सार्थक सिद्ध हुआ है। कामकाज के लिहाज़ से बीते मानसून सत्र महत्वपूर्ण रहा है। सत्र के दौरान कुल 17 बैठकें हुई। कुल लाये गये 17 विधेयकों में 12 पारित किये गये। राज्यसभा में 74 फीसदी से अधिक कामकाज हुआ जो पिछले की तुलना में 25 फीसदी अधिक है। यहां 14 विधेयक पारित किये गये जबकि पिछली बार मात्र दो ही विधेयक पारित हो पायेे थे। पिछले दो सत्रों के मुकाबले यह 140 फीसदी अधिक रहा। सम्भव है ओबीसी आयोग को संवैधानिक दर्जा और एससी/एसटी एक्ट में किये गये संषोधन पर मोदी सरकार की वाहवाही लूटने वाला प्रसंग भी भाशण में षामिल हो सकता है। 
जब पहली बार 2014 में 15 अगस्त से प्रधानमंत्री मोदी ने अपने भाशण में कई उत्साहवर्धक विचार व्यक्त किये थे और कई घोशणायें भी की थी तभी से यह लगा था कि नई सरकार नई सोच के साथ बहुत कुछ नया करेगी मगर वक्त निकलता गया और मोदी वायदे पर कितने खरे रहे इस पर सवाल गहराता गया। स्वच्छ भारत अभियान, मेक इन इण्डिया, डिजिटल इण्डिया, स्टार्टअप एण्ड स्टैण्डअप इण्डिया समेत स्मार्ट सिटी जैसे कई महत्वपूर्ण काज करने का प्रयास मौजूदा सरकार के व्यवस्था में षामिल था। इसमें कोई दो राय नहीं कि सरकार ने जनता में विष्वास जगाने का काम किया है परन्तु रोजगार और बुनियादी विकास की बढ़ी मांग को पूरा करने में कहीं अधिक पीछे रही है। दो करोड़ प्रति वर्श रोज़गार देने का वायदा आज भी जस का तस है। बीते फरवरी के बजट में 70 लाख रोज़गार की बात कही गयी। काले धन पर सरकार को किसी भी प्रकार की सफलता मिली है ऐसा कह पाना कठिन है। देष में महिलाओं और बच्चियों की सुरक्षा भी बहुत बिगड़ी अवस्था में है। कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच भी काफी गहमागहमी देखने को मिलती रही है। फिलहाल कई बुनियादी तथ्य जो 15 अगस्त को पहले भी उभारे गये उन्हें पूरा होने का इंतजार जनता आज भी कर रही है। गरीबों को मुफ्त रसोई गैस तो बांटे गये परन्तु आमदनी के आभाव में आज भी उनके घरों में सलेण्डर किसी कोने में पड़े हुए है। सरकार की वैदेषिक नीति अच्छी कही जा सकती है। अमेरिका द्वारा हाल ही में बिना एनएसजी में सदस्यता के ही एसटीए-1 में षामिल करते हुए भारत को वह दर्जा दे दिया है जिसमें एनएसजी की जरूरत ही नहीं है। गौरतलब है कि 48 देषों का न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप (एनएसजी) का सदस्य चीन है जो भारत के लिये कहीं न कहीं रोड़ा था। 15 अगस्त के भाशण में इस उपलब्धि का बखान भी हो सकता है। राफेल खरीद के मामले में भ्रश्टाचार का आरोप विपक्ष लगा रहा है। हालांकि सरकार ने इस पर अपनी सफाई दे दी है। बीते चार सालों में मोदी चार बार रूस तो चार बार रूस की यात्रा कर चुके हैं। अमेरिका से लेकर यूरोप तक वैदेषिक नीति का प्रसार करने में सफल करार किये जा सकते हैं। मगर पाकिस्तान के मामले में दो कदम आगे और तीन कदम पीछे जैसी स्थिति रही है जबकि चीन के मसले में बात संतुलित कही जा सकती है न कि अच्छे सम्बंध का परिप्रेक्ष्य निहित है। 
प्रधानमंत्री मोदी कई ऐसी घोशणायें भी की हैं जिन्हें लेकर अब षायद चर्चा भी नहीं होती जिसमें सांसद अदर्ष ग्राम योजना षामिल है। आतंकवाद, साम्प्रदायिकता और जातिवाद से मुक्त भारत का संकल्प पिछले साल की 15 अगस्त के भाशण में था जो कहीं से कमतर दिखायी नहीं देता। बदला है बदल रहा है और बदल सकता है यह बात भी लाल किले से बोली गयी है। उम्मीद है कि इस बार भी कई बदलाव के साथ बातें की जायेंगी। पूरे देष में किसानों की भलायी को लेकर कषीदे गढ़े गये हैं परन्तु मात्र तीन लाख करोड़ के कर्ज से दबे किसानों को सरकार ने अभी तक मुक्ति नहीं दी है। सरकार का दावा है कि उसने फसलों का समर्थन मूल्य डेढ़ गुना कर दिया है मगर यह बात नहीं कहती कि उसने स्वामीनाथन रिपोर्ट लागू कर दिया। 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने, दो करोड़ घर देने और घर-घर बिजली पहुंचाने का वायदा भी लाल किले से किया जा चुका है। जाहिर है इस पर भी देष की जनता दृश्टि गड़ाये हुए है। कुल मिलाकर निहित भाव यह भी है कि सरकार सरकार की तरह ही काम करेगी जादूगर की तरह नहीं। जिस उम्मीद के साथ मोदी ने सत्ता संभाली उस पर कितना खरा उतरी इस पर भी सरकार और जनता के बीच राय अलग-अलग है। फिलहाल इस बार की 15 अगस्त के भाशण में इस बात का पूरा ध्यान रहेगा कि कोई कमी कसर न रह जाये। जाहिर है सरकार का होमवर्क अच्छा होगा पर देखना यह है कि लालकिले की प्राचीर से प्रधानमंत्री मोदी के इस बार के भाशण पर जनता कितनी सहज होती है। 



सुशील कुमार सिंह
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सियासत नहीं सही सोच की ज़रूरत

ममता बनर्जी के गढ़ पश्चिम बंगाल में बीते 11 अगस्त को भाजपा अध्यक्ष अमित शाह इस धमक के साथ अपनी बात कह रहे थे कि तृणमूल कांग्रेस का वोट बैंक बंग्लादेषी घुसपैठिये हैं। उन्होंने यह भी कहा कि देष की सुरक्षा अहम है या वोट बैंक ममता बनर्जी को यह भी स्पश्ट करना चाहिये। अमित षाह मोदी की अगुवायी में पष्चिम बंगाल के विकास और भ्रश्टाचार से मुक्ति की बात कह रहे हैं साथ ही यह भी कह रहे हैं कि 19 राज्यों में भाजपा की सरकार का तब तक कोई मतलब नहीं जब तक पार्टी बंगाल की सत्ता पर काबिज नहीं होती। स्पश्ट है कि पष्चिम बंगाल भाजपा के लिये नाक की लड़ाई बन गयी है। कुछ राज्यों को छोड़कर पूरे भारत की सत्ता पर काबिज भाजपा बिना बंगाल के बाकियों की सत्ता को गौण मान रही है। यह उनका कौन सा सियासी स्वरूप है कि बंगाल का आभाव बाकी राज्यों पर भारी पड़ रहा है। भाजपा अध्यक्ष ने कहा कि बंग्लादेषी घुसपैठियों को ममता बनर्जी संरक्षण दे रही है। दरअसल पष्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री असम में राश्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) का विरोध कर रही है। इसी विरोध के चलते तृणमूल ने एनआरसी के विरोध में अमित षाह के भाशण के दिन कलकत्ता को छोड़कर पूरे राज्य में रेली आयोजित की। सियासी लड़ाई में राजनीतिक दल अपने रसूख को जिस तरह देष से ऊपर रख देते हैं यह बात किसी के दिमाग को दुविधा में डाल सकती है। 
अब यह समझना जरूरी है कि आखिरकार मामला क्या है। असम देष का एकलौता ऐसा राज्य है जिसमें 1951 से राश्ट्रीय नागरिक रजिस्टर बनाने की प्रक्रिया है। दरअसल जब 1947 में देष आजाद हुआ तभी से असम में पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेष) के नागरिक और असम से बांग्लादेष की आवाजाही हजारों की संख्या में होती थी। इसी को देखते हुए 8 अक्टूबर 1950 को तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू और पाकिस्तान के पीएम लियाकत अली में एक समझौता हुआ। यह उस समय की बड़ी मांग भी थी क्योंकि उस दौर में बंटवारे से प्रभावित इलाके के नागरिक अपने पुस्तैनी घरों को छोड़कर देष बदल रहे थे। हालात और परिस्थितियों ने पूर्वी पाकिस्तान को बांग्लादेष बना दिया। 1985 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने असम समझौता किया जिसमें यह स्पश्ट था कि असम में रह रहे नागरिकों को भारत का नागरिक माने जाने की दो षर्तों में पहला जिनका पूर्वज का नाम 1951 राश्ट्रीय नागरिक रजिस्टर में चढ़े हुए थे, दूसरे 24 मार्च 1971 की तारीख तक या उससे पहले नागरिकों के पास अपने परिवार के असम में होने के सबूत मौजूद हों। दो दषक बाद साल 2005 में मनमोहन सरकार ने असम गणपरिशद के साथ मिलकर एनआरसी को दुरूस्त करने की प्रक्रिया षुरू की मगर मामला न्यायालय में चला गया और रजिस्टर के नवीनीकरण हेतु अदालत ने संयोजक नियुक्त किया और सूची छापने की अंतिम तिथि 30 जुलाई 2018 थी जिसकी अवधि पिछले माह समाप्त हो गयी। तत्पष्चात् रजिस्टर तो छापा गया जिसके तहत 3 करोड़ 29 लाख प्रार्थना पत्रों में से 2 करोड़ 85 लाख को वैध पाया गया। इस तरह असम में रह रहे बाकी बचे 40 लाख का भविश्य अधर में लटक गया जिसे लेकर सभी अपने-अपने हिस्से की सियासत कर रहे हैं। 
बीजेपी कह रही है कि यदि बंगाल में सरकार बनी तो एनआरसी पष्चिम बंगाल में भी जारी किया जायेगा। गौरतलब है कि सबसे बड़ी तादाद में बांग्लादेष से आये लोग पष्चिम बंगाल में बसे हैं। अमित षाह के बंगाल का ताजा भाशण मोदी के 2014 के सीरमपुर भाशण का दोहराव है। 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा के प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के रूप में मोदी ने कहा था कि यदि उनकी सरकार बनी तो बांग्लादेषियों का बोरिया बिस्तरा बंगाल से उठ जायेगा। सरकार को 4 साल से अधिक समय हो गया। 2019 में 17वीं लोकसभा का चुनाव होना है परिस्थिति को देखते हुए भाजपा ने बांग्लादेषी घुसपैठियों को देखते हुए एक बार फिर सियासत की डगर पर है। हालांकि असम के मामले में एनआरसी से छूटे लोगों को एक मौका देने की बात कही गयी है। मोदी ने किसी भी नागरिक को देष नहीं छोड़ना होगा की बात भी कही है। विपक्ष भी एनआरसी के मामले में बंटी हुई राय दे रहा है। ममता बनर्जी यह नहीं चाहती कि केन्द्र सरकार घुसपैठियों को लेकर कोई कठोर कदम उठाये। रिपोर्ट यह बताती है कि असम के अलावा त्रिपुरा, मेघालय, नागालैण्ड में भी अवैध रूप से बांग्लादेषी रह रहे हैं। इतना ही नहीं उड़ीसा और छत्तीसगढ़ में भी इनकी बसावट कही जा रही है जबकि बाॅर्डर मैनेजमेंट टास्क फोर्स 2000 की रिपोर्ट कहती है कि डेढ़ करोड़ बांग्लादेषी घुसपैठ कर चुके हैं और लगभग 3 लाख प्रति वर्श घुसपैठ करते हैं। ताजा अनुमान तो यह है कि अब घुसपैठियों की संख्या 4 करोड़ के आसपास है। साल 2016 में असम में भाजपा की सरकार आने के बाद एनआरसी को सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में अपडेट किया गया था जिसका आखरी ड्राफ्ट बीते दिनों जारी हुआ जिसके चलते देष की सियासत में भूचाल आ गया।
देष में घुसपैठियों को लेकर सियासत हिन्दू, मुस्लिम में भी बंटी हुई है। पष्चिम बंगाल में 27 फीसदी मुस्लिम हैं। जाहिर है ये भाजपा के वोटर तो नहीं है इस बात से वे अनभिज्ञ नहीं है। तमाम घुसपैठियों के आधार और वोटर कार्ड बने हुए हैं। केन्द्र के मोदी सरकार से ममता बनर्जी का छत्तीस का आंकड़ा है। नारद, षारदा चिट फण्ड घोटाला के साथ ही सिंडिकेट जैसे मामले उनकी सत्ता में भूचाल ला चुके हैं। कई मंत्री और नेता को जेल जाना पड़ा। देखा जाय तो ममता बनर्जी का कार्यकाल तितर-बितर ही रहा है। दो टूक यह है कि एनआरसी के मामले में सियासत से ऊपर उठ कर देष की सुरक्षा भी सोचनी है। जाहिर है घुसपैठियों पर कठोर निर्णय लेना ही होगा। पष्चिम बंगाल कई कठिनाईयों से जूझ रहा है मानव तस्करी के मामले में यह सबसे आगे है, युवाओं के आत्महत्या के मामले में भी अव्वल राज्य है। पूरे देष में सबसे अधिक कल-कारखाने यहीं बंद हुए हैं और सबसे ज्यादा घुसपैठ भी यहीं हुआ है। हाल के दिनों में बंगाल के कई इलाकों में हिन्दू-मुस्लिम राॅयट भी हुए। कहा जाता है कि हिन्दुओं के ऊपर साम्प्रदायिक हमले में बांग्लादेषी घुसपैठियों को हाथ रहा है। अब तो वे जोर-जबरदस्ती से यहां के बंगाली बाषिन्दों की जमीन भी हड़प रहे हैं और हिंसा का सहारा ले रहे हैं। फिलहाल घुसपैठ का मामला निहायत संवेदनषील है इसे सियासत से नहीं राश्ट्रीय सुरक्षा की सही सोच विकसित करके हल करना हेगा।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
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