Monday, August 20, 2018

एक राजनेता जो राजधर्म सिखाता था

वाकई अटल बिहारी वाजपेयी का जाना सही मायने में एक युग का अन्त है। इसमें कोई दुविधा नहीं कि भारतीय लोकतंत्र नें गिने चुने कद्दावार नेता ही पैदा किये हैं जिसमें अटल जी को अव्वल दर्जे पर रखा जा सकता है। भारत रत्न और पूर्व प्रधानमंत्री तथा कवि हृदय अटल बिहारी वाजपेयी नहीं रहे यह बात भारत के जन-जन को बहुत अखरा है। पक्ष हो या विपक्ष सभी में वाजपेयी बेषुमार लोकप्रिय थे। पूरा देष उन्हें भावभीनी विदाई दे रहा है। कोई महान सपूत कह रहा है, कोई षानदार वक्ता तो कोई प्रतिद्वंदियों के मन को जीतने वाला योद्धा करार दे रहा है। भाजपा के षायद वह मात्र एक ऐसे नेता थे जिन्हें अजात षत्रु की संज्ञा दी जा सकती है। रोचक यह भी है कि उन्हें जितना सम्मान भाजपा से प्राप्त था उससे कही ज्यादा विरोधी दलों से मिला है। यही कारण है कि वाजपेयी का जाना हर किसी को नागवार गुजरा और सभी निःषब्द हैं। संसद में अपनी वाणी से सदन के सदस्यों के दिल को जीतने वाले वाजपेयी के बारे में साल 1957 में प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू ने कहा था कि मैं इस युवक में भारत का भविश्य देख रहा हूँ। जाहिर है वाजपेयी निहायत दूरदर्षी किस्म के महामानव सरीखे व्यक्ति थे। षायद उसी का तकाजा था कि विपक्ष में होते हुऐ भी उन्हें सरकारें विदेषों में भारत का प्रतिनिधत्व करने हेतु जिम्मेदारी देने से हिचकिचाती नहीं थीं। ये बात और है कि दूसरे देष ऐसा होते देख अचरज में जरूर पड़ जाते थे। संयुक्त राश्ट्र में हिन्दी में भाशण देने वाले पहले व्यक्ति अटल बिहारी वाजपेयी ही थे। चाहे राजनीतिक गलियारा हो, फिल्म जगत हो या फिर खेल जगत ही क्यों न हो आदि समेत पूरा भारत वाजपेयी के जाने से दुःखी है। इतना ही नहीं पड़ोसी समेत दुनिया के तमाम देष इस खबर से क्षुब्ध हैं। 
वाजपेयी तीन बार देष के प्रधानमंत्री बने तब दौर गठबंधन सरकारों का था। गौरतलब है 1989 से देष में इसका दौर षुरू हुआ और यह सिलसिला 2014 में आकर थमा। हालांकि गठबंधन की पहली बार सरकार मोरार जी देसाई के नेतृत्व में 1977 में बनी थी तब वाजपेयी को विदेष मंत्री का जिम्मा मिला था। 1996 के लोकसभा चुनाव में किसी भी दल को बहुमत न मिलने वाला सिलसिला बादस्तूर जारी रहा। चुनाव के नतीजे किसी के पक्ष में नहीं थे पर संकेत भाजपा के ओर झुके थे फलस्वरूप हाँ ना के बीच अटल जी ने प्रधानमंत्री पद की षपथ ली। 28 मई 1996 प्रधानमंत्री वाजपेयी को अपना बहुमत सिद्ध करना था हालांकि वक्त 31 मई तक के लिए मिला था। इस दौरान विपक्ष के सत्तालोभी आरोपों को जिस तरह उन्होंने खारिज करते हुऐ यह कहा कि जब तक वह राश्ट्रीय उद्देष्य पूुरा नहीं कर लेंगे तब तक विश्राम से नहीं बैठेंगे। अध्यक्ष महोदय में अपना त्याग पत्र राश्ट्रपति महोदय को देने जा रहा हूँ। सदन में इस तरह के हतप्रभ करने वाले भाशण सुनकर विरोधी भी असहज हो गये थे। यह अटल का दृढ़ निष्चय ही था कि राजनीति के पैंतरे को न कभी अपने लिए गलत तरीके से अपनाया और न ही दूसरों के खेमे में ऐसा होने दिया। अलबत्ता 13 दिन की सरकार गिर गई पर देष की जनता का निर्णय अभी भी वाजपेयी के पक्ष में था। यही कारण है कि 1998 के मध्यावधि चुनाव में एक बार फिर अटल जी प्रधानमंत्री बने यह भी अल्पमत की सरकार थी। गठबंधन 13 महीने तक चला आखिरकार 1999 में एक बार फिर देष चुनाव का सामना किया। यह तीसरा वाकया हुआ जब अटल जी एक बार फिर 23 दलों के सहयोग से देष की बागडोर संभाली। इस समय तक देष में यह बात आम हो गई थी कि गठबंधन की सरकारें भारत में सफल नहीं हो सकती और कभी भी अपना कार्यकाल षायद ही पूरा कर पायें मगर वाजपेयी ने इसे गलत सिद्ध कर दिया। उन्होंने न केवल 5 साल सरकार चलाई बल्कि बडे़-बडे़ निर्णय लेने में भी कोई कोताही नहीं बरती। आने वाले दिनों के लिए अटल जी ने यह भी उदाहरण पेष कर दिया कि भारत में गठबंधन की सरकार सफलता पूर्वक चलाई जा सकती है। इसका पुख्ता सबूत मनमोहन सिंह का दो कार्यकाल है।
कार्यकाल छोटे थे परंतु कारनामे अत्यन्त बड़े। साल 1998 के 11 और 13 मई को पोखरण में 5 परमाणु परीक्षण हुऐ तत्पष्चात पूरी दुनियाँ भारत की दुष्मन बन गई। पूरब से लेकर पष्चिम, और अमेरिका से लेकर आस्ट्रेलिया सभी ने भारत से रिष्त-नाते तोड़ लिये। भारत दुनियां में अकेला हो गया हांलाकि इस दौर में इजराइल ने भारत का सर्मथन किया जो अपने आप में बड़ी महत्वपूर्ण बात है। अमेरिका के खुफिया सैटलाइट के नीचे जिस प्रकार परमाणु परीक्षण को अंजाम दिया गया वह भी काबिल-ए-तारीफ थी। जाहिर है दुनिया के इस कदम से भारत की अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा और देष कठिनाई की ओर गया मगर दुनियां यह जान गई थी कि भारत एक परमाणु सम्पन्न राश्ट्र हो गया है। ऐसा वाजपेयी के अटल इरादों के चलते ही सम्भव हुआ। हांलाकि 1974 में पहला पोखरण परीक्षण किया जा चुका था। बाद में 2006 में अमेरिका ने भारत से प्रतिबंध हटा लिया मगर आस्ट्रेलिया फिर भी नहीं माना। खराब सम्बन्धों के चलते आस्ट्रेलिया से यूरेनियम न मिल पाना एक बड़ा करण था। मनमोहन सिंह की सरकार ने इस पर कड़े अभ्यास किये अन्ततः 2014 में ब्रिसबेन में हुऐ जी-20 के बैठक में आस्ट्रेलिया के साथ सहमति बन गई।  करगिल के चलते पाकिस्तान को घूल चटाने का काम अटल बिहारी वाजपेयी ने ही किया। पाकिस्तान की नवाज षरीफ सरकार का तख्ता पलटने वाले परवेज मुषरर्फ को कभी तव्वजो ही नहीं दिया। जब 2001 में आगरा षिखर वार्ता का मसौदा तैयार हुआ और यह तय किया गया कि मुषरर्फ और वाजपेयी एक टेबल पर होंगे तब दौर बदल चुका था मगर तानषाह मुषरर्फ वाजपेयी के सामने कैसे टिक सकता था वह बिना किसी वार्ता के इस्लामाबाद चला गया। ऐसे तमाम उदाहरण हैं जिससेे अटल के व्यक्तित्व को जांचने परखने के काम में लिया जा सकता है।  
अटल जी बीते 9 साल से सार्वजनिक जीवन में नहीं हैं इस बीच उनकी एक बार सार्वजनिक तस्वीर 27 मार्च 2015 को तब प्रकाषित हुई जब उन्हें तत्कालीन राश्ट्रपति प्रणव मुखर्जी भारत रत्न प्रदान कर रहे थे। वे एक लम्बी बीमारी से जूझ रहे थे और एक लम्बी लड़ाई के पष्चात इस जगत को विदा करके चले गये। अनायास ही सही पर ऐसा लगता है कि जैसे उन्होंने अपने तमाम राजनीतिक सिद्धांतों के साथ कई मान्यताओं और लोकतंत्र की थाती यहीं छोड़ गये हैं। अटल जी बहुत कुछ छोड़ गये हैं जो जिस भी हिस्से में बांटा जाय आसानी से वितरित हो जायेगा। कवि थे, राजनेता थे, कठोर निर्णय व नरम हृदय रखने वाले राजधर्म के प्रणेता थे, संवाद और हाजिर जवाब के मामले में कहीं अधिक अव्वल थे। विराधियों को कैसे दोस्त बनाना है इस हुनर से भी ओतप्रोत थे, सच्चे देषभक्त थे सब के असल मायने में जननायक थे। मौजूदा प्रधानमंत्री मोदी जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे तब गोदरा में हुई घटना के बाद उन्हें राजधर्म सिखाने का काम वाजपेयी ने ही किया था। हम सब के लिए यह एक युग पुरूश थे। आने वाली पीढ़ियाँ अटल को अपना आदर्ष जरूर बनायेंगी। मिली-जुली सरकार कैसे चलती है, उदार दृश्टिकोण कैसा होता है और भारत की विविधता व अक्षुण्णता कैसे बनी रहती है इसे अटल जी सिखा गये। कष्मीर से कन्याकुमारी और गुजरात से अरूणाचल तक सड़कों का जाल बिछाने वाले वे विकास पुरूश थे। बाते बहुत हैं पर सब की अपनी सीमायें हैं अन्ततः कह सकते है कि अटल जी की दूरदर्षिता के सब कायल थे। बात अनुचित हो तो साफ कहना और सुखी रहना उनकी आदत थी यही कारण था कि अपने दल के विरूद्ध भी जाने से भी हिचकिचाते नहीं थे। इसमें कोई षक नहीं कि आने वाली पीढ़ियां राजधर्म निर्वहन को ले कर अटल जी को बहुत याद करेंगी।

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

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