Monday, August 20, 2018

इमरान की व्यूह रचना पर भारत की नज़र

सभी यह देखने के लिये उत्सुक हैं कि भूतपूर्व क्रिकेटर राजनीति की पिच पर क्या खेल दिखाते हैं। जाहिर है इनकी व्यूह रचना पर भारत समेत दुनिया की नजर रहेगी। इमरान खान 22वें प्रधानमंत्री के तौर पर बीते 18 अगस्त को पाकिस्तान की बागडौर संभाल ली है। ढ़ाई दषक से अधिक के सियासी सफर के साथ आखिरकार पाकिस्तान की सबसे बड़ी कुर्सी पर इमरान को विराजमान होने का अवसर मिल गया है। जिस दौर में पाकिस्तान में नई सरकार का उदय हो रहा है उसमें भारत एवं पाकिस्तान के सम्बंध बेहद नाजुक दौर से गुजर रहे हैं। भारत-पाक सीमा पर सीज़ फायर का बेहिसाब उल्लंघन जारी है और पाक अधिकृत कष्मीर आतंकियों से पटी है जो भारत के लिये कहीं अधिक मुसीबत बनी हुई है। दूसरे षब्दों में कहें तो सीमा के पार और सीमा के भीतर भारत इन दिनों पाक प्रायोजित आतंक से जूझ रहा है। अमेरिका से आर्थिक प्रतिबंध और आतंकवाद को लेकर लगातार मिल रही धौंस से पाकिस्तान फिलहाल बिलबिलाया भी है और आतंक के चलते ही वह ग्रे लिस्ट में षामिल किया गया है। सार्क देषों के सदस्यों के साथ भी उसका गठजोड़ भारत सहित कईयों के साथ पटरी पर नहीं है। चीन की सरपरस्ती में अपना भविश्य झांकने वाला पाकिस्तान अपने देष के भीतर ही कई संकटों को जन्म दे चुका है। ये कुछ बानगी हैं जो इमरान खान की नई सरकार का जिनसे तत्काल सामना होगा। वैसे भविश्य में क्या होगा यह तो आने वाला वक्त ही बतायेगा। यहां यह उल्लेख करना जरूरी है कि इमरान खान चुनाव जीतने के तुरन्त बाद ही चीन की ओर अपना झुकाव और कष्मीर मुद्दे को लेकर अपनी राय व्यक्त कर चुके हैं। कहना यह भी जरूरी है कि पाकिस्तान के साथ समस्या केवल कष्मीर में नहीं बल्कि पाकिस्तान के भीतर मौजूद विविध षक्ति केन्द्रों में है। ताकतवर सेना, प्रभावषाली आईएसआई, कट्टरपंथी ताकतें और गुट तथा पाकिस्तान में लोकतांत्रिक तरीके से निर्वाचित लेकिन कमजोर सरकारें पाकिस्तान की तबाही का कारण रही है। जब तब इन षक्ति केन्द्रों के बीच भारत से रिष्ते सुधारने को लेकर सर्वसम्मति नहीं बनेगी इस बारे में कोई भी ठोस पहल महज ख्याली पुलाव ही रहेगी। यदि इमरान खान भारत से रिष्ता सुधारना चाहते हैं तो कष्मीर का राग अलापने के बजाय विकास के मार्ग पर उन्हें कदमताल करना होगा और यहां पर फैली षक्तियों के दबाव और प्रभाव में नहीं बल्कि सरकार के बूते आगे बढ़ना होगा। 
फिलहाल सरकार बनते ही यह चित्र भी साफ हो गया कि इमरान क्या करेंगे? 21 सदस्यों वाली कैबिनेट में 12 ऐसे सदस्य षामिल हैं जो पूर्व राश्ट्रपति और तानाषाह परवेज मुर्षरफ के समय में अहम जिम्मेदारियां संभाल चुके हैं। ये वही परवेज मुषर्रफ हैं जिन्होंने 1999 में नवाज़ षरीफ की सरकार तख्ता पलट कर अपनी ताकत का पाकिस्तान में प्रदर्षन किया था और दषकों तक सत्ता का स्वाद चखा, राश्ट्रपति बने और अब दुबई में तड़ी पार जिन्दगी काट रहे हैं। साफ है कि सेना के प्रभाव वाली इमरान खान सरकार वहां के षक्तियों के बगैर अपनी ताकत का प्रयोग षायद ही कर पायें। पाकिस्तान में जो हो रहा है वो भारत के लिये सिर्फ एक राजनीतिक घटना है। इमरान खान के पीएम रहते भारत-पाकिस्तान में रिष्तों को लेकर कोई खास प्रभाव पड़ने वाला तो नहीं है। ऐसा देखा गया है कि भारत को लेकर इमरान खान का रवैया अक्सर आक्रामक रहा है। चुनाव के दिनों में भी वे इस स्थिति में देखे गये हैं। ऐसा करने के पीछे वोट हथियाना भी एक वजह रहा होगा। जिस तरह सेना की सरपरस्ती में इमरान की सरकार पाकिस्तान की जमीन पर सांस लेगी उससे भारत के रिष्ते सुधरेंगे यह सपना मात्र है पर सम्बंध खराब होने की स्थिति में प्रधानमंत्री मोदी को जिम्मेदार ठहराने में वे पीछे भी नहीं रहेंगे। पाकिस्तान में जो चुनाव हुआ वह भी फुल प्रूफ नहीं था। इस सियासी जंग में सेना भी षामिल थी। इमरान खान को पाकिस्तान की सेना का मुखौटा कहने में भी गुरेज नहीं है। जाहिर है जो सेना चाहेगी वही होगा। ऐसे में भारत को केवल सतर्क रहने की जरूरत होगी। भारत के खिलाफ जहर उगलने वाले इमरान कट्टरपंथियों के भी समर्थक रहे हैं और चीन को तुलनात्मक तवज्जो देने वालों में षुमार है। हालांकि इसके पहले के षासक भी दूध के धुले नहीं थे। विडम्बना यह है कि पाकिस्तान में लोकतंत्र एक खिलौना रहा है जिसे सेना समय-समय पर अपने तरीके से खेलती रही और यदि कोई कमी कसर रही तो आतंकवादियों ने इसे पूरा किया। नवाज़ षरीफ की सरकार भी इस खेल में थी। सच्चाई यह है कि इमरान खान पर पूरा भरोसा नहीं किया जा सकता बस उन पर नजर रखी जा सकती है। 
देखा जाय तो भारत और पाकिस्तान के बीच रिष्ते 1947 के देष के विभाजन के बाद से ही सामान्य नहीं रहे। दोनों देषों ने 1948, 1965, 1971 में युद्ध लड़े हैं और 1999 में कारगिल घटना को अंजाम देने वाला पाक चैथी बार मुंह की खा चुका है। बावजूद इसके भारत के खिलाफ आतंक का युद्ध सरहद पार से बादस्तूर जारी किये हुए है। भारत की ओर से सम्बंध सामान्य बनाने को लेकर कोषिषें होती रही हैं लेकिन हर बार नतीजा ढाक के तीन पात वाला ही रहा है। 25 दिसम्बर, 2015 को प्रधानमंत्री मोदी की अचानक लाहौर यात्रा भले ही देष दुनिया के सियासतदानों को चकित कर दिया हो और कूटनीतिज्ञ इसे षानदार पहल मान रहे हों पर पाकिस्तान से रिष्ते टस से मस नहीं हुए और ठीक एक सप्ताह के भीतर 1 जनवरी 2016 को पठानकोट पर हमला किया गया जो भारत के लिये हतप्रभ करने वाली घटना थी। वैसे पाकिस्तान कभी सीधी लड़ाई नहीं कर सकता पर घुसपैठ करता रहता है। इमरान सरकार की लगाम क्योंकि सेना के हाथ में रहेगी ऐसे में द्विपक्षीय समझौता यदि होता भी है तो टिकाऊ होगा भरोसा कम ही है। पाकिस्तान की गुटों में बंटी ताकतों को इमरान खुष करना चाहेंगे और उसका तरीका भारत की लानत-मलानत है। दो टूक यह भी है कि बीते 70 सालों में पाकिस्तान में कई सत्तायें आयीं और गयीं पर जिन्होंने भारत से रिष्ते सुधारने का जोखिम लिया उन पर यहां की तथाकथित ताकतों ने कब्जा करने की कोषिष की। यही कारण है कि यहां लोकतंत्र हमेषा पंगु और सेना ताकतवर रही। बीते चार दषकों से तो आतंकवाद भी इस देष में सरपट दौड़ रहा है और भारत को लहुलुहान कर रहा है और इस मामले को लेकर जब भारत संयुक्त राश्ट्र सुरक्षा परिशद् में इन्हें अन्तर्राश्ट्रीय आतंकी घोशित कराने का मसला उठाता है तो चीन इनके बचाव में वीटो का उपयोग करता है। कूटनीति सिद्धांतों से चलते हैं जबकि पाकिस्तान इससे बेफिक्र है। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जी का बीते 16 अगस्त को देहांत हुआ उन्हें स्मरण करते हुए उनका यह वक्तव्य कि मित्र बदल सकते हैं पड़ोसी नहीं। वाजपेयी प्रधानमंत्री रहते हुए आगरा षिखर वार्ता के माध्यम से द्विपक्षीय सम्बंध सुधारने की कोषिष की पर यदि पड़ोसी सिद्धांत विहीन हो तो दूसरा पड़ोसी कुछ कर नहीं सकता। कूटनीतिक हल के लिये दो सिद्धांत होते हैं पहला सभी मामले षान्तिपूर्ण वार्ता के जरिये सुलझाये जाने चाहिये, दूसरा द्विपक्षीय मामले में किसी तीसरे को षामिल करने से बाज आना चाहिए पाकिस्तान ने हमेषा इन दोनों सिद्धांतों का उल्लंघन किया है। इमरान से पहले भी 21 सत्ताधारी आ चुके हैं और हर बार उम्मीद जगी है पर दो ही कदम पर सभी से भारत को निराषा ही मिली है। यहां यह उल्लेख सही रहेगा कि 26 मई 2014 को प्रधानमंत्री अपने षपथ समारोह में सार्क के सभी देषों को आमंत्रित किया था जिसमें पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज़ षरीफ भी षामिल थे। षुरू में जोष दिखाया पर बाद में पाक की आंतरिक गुटों सेना, आतंक और आईएसआई के दबाव में वे भी धराषाही हो गये। अन्ततः कह सकते हैं कि इमरान की व्यूह रचना पर भारत की नजर रहेगी कि पाक की सत्ता की पिच पर कैसा खेल खेलते हैं। 
सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
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