Monday, March 27, 2017

सरकारों को साबित करने का दबाव

जब लोकतंत्र का आन्दोलन गति में बहुत आगे हो तो उससे निर्मित सरकारें षिथिल नहीं हो सकती। प्रगतिवादी अवधारणा भी यह कहती है कि व्याख्याएं भले ही भिन्न-भिन्न हों पर जिस उद्देश्यों की पूर्ति के लिए सरकारों का निर्माण सुनिश्चित किया जाता है इसमें कोई षक नहीं कि वोट देने वाले विकास की बाट जोहते हैं। लोकतंत्र का एक दर्षन यह भी रहा है कि मैं तुम्हें वोट देता हूं, षक्ति और सत्ता देता हूं साथ ही सरकार का ओहदा देता हूं, तुम केवल जनहित को पोशित करने का कृत्य करो। फिलहाल चुनाव का मौसम समाप्त हो चुका है अब तो आंकलन और प्राक्कलन नवनियुक्त सरकारों के कृत्यों का होगा। हालांकि सरकारों को कामकाज संभाले बामुष्किल अभी एक पखवाड़ा भी नहीं बीता है फिर भी रेस में कोई पीछे न रहे इसे देखते हुए उत्तर प्रदेष और उत्तराखण्ड में सरकारें एक्षन मोड में दिख रही हैं। पंजाब भी इससे अछूता नहीं है साथ ही गोवा और मणिपुर भी रसूख के अनुपात में पटरी पर दौड़ने की कोषिष कर रहे हैं। वैसे यह षब्द इतना उचित तो नहीं है पर यह कहना अनुचित भी तो नहीं है कि उत्तर प्रदेष एवं उत्तराखण्ड में बनी भाजपा की सरकार आपसी रेस में हैं कि कौन विकास की पगडण्डी को तुलनात्मक चिकना और जनता की आंखों में उतराये सपनों को साकार कर पाती है। जिस प्रकार प्रधानमंत्री मोदी का प्रभाव इन राज्यों पर है उससे भी यह लाज़मी है कि भ्रश्टाचार से निपटते हुए कानून व्यवस्था को पटरी पर लाना साथ ही विकास के चक्के को चप्पे-चप्पे तक घुमा देना बड़ी चुनौती तो है। जिस उत्तर प्रदेष की जनता ने 403 के मुकाबले 325 सीट एक दल को ही दे दिया हो और जिस उत्तराखण्ड ने 70 सीट की तुलना में 57 स्थान भाजपा को ही दे दिये हों। ऐसे में साबित करने का दबाव क्रमषः योगी एवं त्रिवेन्द्र रावत पर होना स्वाभाविक है। 
बात सबसे बड़े प्रदेष उत्तर प्रदेष की हो तो विकास की आस भी कहीं अधिक चैडी देखी जा सकती है। हालात पर गौर किया जाय तो स्थिति काफी बिगड़ी अवस्था में है। उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार यहां सर्वाधिक हत्या, हत्या के प्रयास, अपहरण, डकैती, दुश्कर्म, दंगे और फिरौती के मामले दर्ज किये जाते हैं। इसकी संवेदनषीलता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि एक लाख की आबादी पर यहां आपराधिक मामलों का आंकड़ा 112 तक पहुंच गया है। इन आंकड़ों के इतर भी सच्चाई हो सकती है जो इससे भी कहीं ज्यादा भयावह हो सकती है। इसके अलावा बेरोजगारी और गरीबी का आलम यह है कि पीएचडी किये हुए लोग चपरासी की नौकरी के लिए आवेदन कर रहे हैं। 400 चपरासी की भर्ती के लिए 23 लाख ने आवेदन किया था जिसमें 50 से अधिक पीएचडी धारक भी थे। भर्तियों में भी घोटालों की खूब बू आती रही है। कई भर्तियां अदालत की चैखट के बगैर अंतिम परिणाम तक नहीं पहुंच पाई। राजनीति का ऐसा लब्बोलुआब कि जाति और धर्म साधने के चलते सिस्टम के साथ ही बड़ा खिलवाड़ हो चुका है। षिक्षकों की भर्ती को लेकर योग्यता के मानक आज भी समुचित तरीके से निर्धारित करने में सफलता नहीं मिली है। युवाओं के देष भारत में युवा ही भटका हुआ है और बात उत्तर प्रदेष की हो तो यहां भटकाव सर्वाधिक होना लाज़मी है क्योंकि 125 करोड़ के देष में 25 करोड़ यहीं से हैं। औसत और अनुपात भी यह दर्षाता है कि योगी सरकार पांच साल दिन दूनी रात चैगुनी की तर्ज पर हर किसी के लिए काम करें तो भी परेषानी का कोई न कोई सिरा छूट ही जायेगा। आंकड़ों पर नजर डालें तो नौकरषाही का प्रदर्षन भी तुलनात्मक संतोशजनक नहीं है। झूठ-मूठ का पीठ थपथपाना षायद किसी को भाता हो पर सच्चाई यह है कि नौकरषाहों ने भी जनता की नीतियों के साथ न्याय नहीं किया है। जिस जनतंत्र में जनता को मालिक होने का रूतबा मिला है उसी के हिस्से में परेषानियों का अम्बार भी आया है। पिछले पांच वर्शों के दौरान राज्य की सकल पूंजी निर्माण में भारी कमी रही है। प्रत्यक्ष विदेषी निवेष तो 2.5 अरब डाॅलर ही हुआ है जो देष की कुल एफडीआई का मात्र 0.2 फीसदी ही है। हैरत तो यह भी है कि गाज़ियाबाद से लेकर नोएडा, ग्रेटर नोएडा कुछ अन्य सघन क्षेत्र उत्तर प्रदेष के हिस्से हैं पर प्रदर्षन अनुपात में पीछे है। कमाल तो यह है कि यदि इन क्षेत्रों को हटा दें तो उत्तर प्रदेष की कूबत और घट जाती है। 
माफियाओं का अम्बार होना यहां अब हैरत में नहीं डालता है। बेषक योगी एक दबंग मुख्यमंत्री के तौर पर स्वयं को पेष कर रहे हैं और उनका दबाव भी देखा जा रहा है। उन्होंने कहा है कि अपराधी उत्तर प्रदेष छोड़कर चले जायें चेतावनी कड़ी है पर नतीजों पर नज़र रहेगी। बरसों पहले कहीं पढ़ने को मिला है कि जब समाज चैतरफा मुसीबत से गुजरता है तो संत ही सत्ता पर काबिज होकर व्याप्त समस्याओं से छुटकारा दिलाता है तो क्या यह मान लिया जाय कि उत्तर प्रदेष इसी दौर से गुजर रहा है और योगी वही संत हैं जो सब कुछ पटरी पर ला देंगे। इसमें कोई दो राय नहीं कि केन्द्रीय नेतृत्व ने योगी को बागडोर देकर दूर की चाल चली है। सियासत का यह भी मजनून रहा है कि पूरे दम से प्रहार करो ताकि उसका स्पर्ष अन्तिम व्यक्ति तक पहुंचे। अगर राज्य में आर्थिक गतिविधियों पर नजर डालें तो काफी निराषाजनक प्रतिबिंब उभरता है। बात केवल कानून व्यवस्था, अपराध को रोकने, भ्रश्टाचार को समाप्त करने या फिर बेलगाम व्यवस्था को पटरी पर लाना मात्र ही नहीं है। इतनी भारी-भरकम सरकार को जनता के लिए सुगम रास्ते और उनके जीवन को कठिनाईयों से बाहर निकालना बड़ी चुनौती है। जाहिर है इसके लिए बहुतायत में संसाधनों की आवष्यकता पड़ेगी पर उत्तर प्रदेष में इसका घोर आभाव है। पांच वर्शों में जीडीपी की वृद्धि केवल 5.9 रही है। एक तरह से यह अवलोकन इषारा करता है कि अर्थव्यवस्था व्याधि से जकड़ी हुई है। रही बात विकास की तो यह बुनियादी समस्याओं को हल करने के मामले में निहायत कमजोर है। 22 करोड़ से अधिक आबादी वाले उत्तर प्रदेष में तरक्की का कीर्तिमान तो अब योगी को ही हासिल करना है। विजन डाॅक्यूमेंट से लेकर चुनावी एजेण्डे में जो-जो वायदे किये गये हैं उन सभी का हिसाब देने की उल्टी गिनती षुरू हो गयी है। 
उत्तराखण्ड में त्रिवेन्द्र रावत ने सत्ता संभालते ही जिस तरह हाईवे के लिए भूमि अधिग्रहण के मसले में मुआवज़े के घपले को देखते हुए फटाफट कदम उठाये हैं उससे इस छोटे से पहाड़ी प्रान्त में कुछ होने की उम्मीद तो जगी है। इस मामले को सीबीआई के हवाले कर दिया गया है और राज्य में कार्यरत छः अधिकारियों पर निलंबन की गाज भी गिरी है। ऐसा उत्तराखण्ड के सोलह साल के इतिहास में कभी नहीं हुआ। इससे यह भी पता चलता है कि इतने ही सालों में प्रदेष खोखला भी हुआ है। 13 जिलों वाले इस प्रदेष में 9 जिले बिल्कुल पहाड़ी हैं जहां का जीवन कठिनाईयों से भरा है और समस्याओं का तो यहां अम्बार है। षिक्षा, चिकित्सा, परिवहन, संचार तथा अन्य बुनियादी समस्याएं यहां की नियती में षामिल हैं। जाहिर है कि अब तक के चार चुनावों में इतना बम्पर सीटों के साथ पहली बार सरकार बनी है। उम्मीदों पर खरा भी उतरना है और मजबूत सरकार होने का दावा भी साबित करना है। फिलहाल जिस तर्ज पर उत्तर प्रदेष और उत्तराखण्ड में कार्य को लेकर कदम उठाये जा रहे हैं उससे यह संकेत तो है कि भ्रश्टाचार को लेकर ज़ीरो टाॅलरेंस की कसम खाने वाली भाजपा सौ फीसदी विकास को भी मुकाम देगी पर इसकी पड़ताल तो आने वाले दिनों में ही सम्भव हो पायेगी और यह भी साफ हो जायेगा कि अकूत बहुमत वाली सरकारों के पास मतदाताओं को देने के लिए क्या होता है।

सुशील कुमार सिंह


Monday, March 20, 2017

सत्ता का त्रिकोण और दृष्टिकोण

फिलहाल पांच विधानसभा चुनाव के बाद उभरे चित्र को देखते हुए वर्श 2017 को नई व्यवस्था से युक्त साल भी कहा जा सकता है। मौजूदा लोकतंत्र में जिस प्रकार के समीकरण इन दिनों उभरे हैं और जिस भांति सत्ता की रोपाई में भाजपा आगे निकलती जा रही है इससे संकेत मिलता है कि भारत की दिषा और दषा में अब गहरे परिवर्तन सम्भव हैं। जाहिर है जब दिल्ली अर्थात् केन्द्र में भाजपा की लगभग तीन बरस पुरानी मोदी सरकार हो और ताजे प्रकरण में देहरादून में भी त्रिवेंद्र सिंह रावत के नेतृत्व में भाजपा की उपस्थिति हो गयी हो साथ ही लोकतंत्र के इतिहास को बदलते हुए डेढ़ दषक का वनवास काटते हुए लखनऊ में भी भाजपा गद्दी पर विराजमान हो गयी हो तो उक्त बात को पुख्ता करार देना कहीं से असंगत नहीं है। संदर्भ और परिप्रेक्ष्य यह भी इषारा करते हैं कि जिस तर्ज पर दिल्ली, देहरादून और लखनऊ में भाजपा ने सत्ता पोशण में कामयाब हुई है और जिस प्रकार सत्ता का त्रिकोण उभरा है इससे कई और दृश्टिकोणों का उभरना लाज़मी है। जिस समृद्धि और सामाजिक उत्कर्श की नीति अपनाकर भाजपा ने इस मुकाम को हासिल किया है उससे यह भी साफ है कि लोकतंत्र में अब उसकी जड़ें औरों की तुलना में बहुत गहरी हो गयी हैं। उत्तर प्रदेष में योगी आदित्यनाथ को नेतृत्व सौंप कर कोई चैंकाने वाली बात तो नहीं हुई है पर सियासत की जिस पौध को उगाने की यहां कोषिष इनके माध्यम से की जायेगी उससे षायद ही कोई अनजान हो। योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री के तौर पर बदले हुए उत्तर प्रदेष को आने वाले दिनों में देखा और परखा जायेगा साथ ही अन्वेशण का विशय यह रहेगा कि ट्रिपल इंजन से युक्त भाजपा केन्द्र समेत उत्तर प्रदेष और उत्तराखण्ड में विकास को लेकर कौन से दरिया बनाती है और कितना पानी बहाती है।
मोदी सरकार की महत्वाकांक्षा को बीते 26 मई 2014 से कई बार देखा गया है पर खरे कितने थे ये सवाल भी उभरे हैं। जिन वायदों को उन्होंने धरातल पर उतारने की कोषिष की उनके नतीजे उनके पक्ष में गये हैं यह पूरा सच नहीं है। काले धन पर किये गये वायदे पर कोषिष तो की गयी पर सफलता अभी भी नहीं मिली है और नोटबंदी के चलते भी वार तो काले धन पर किया गया पर परिणाम यहां भी घालमेल वाला ही रहा। सैकड़ों नीतियों और योजनाओं को केन्द्र सरकार ने समाप्त कर दिया है मसलन योजना आयोग और कई नई व्यवस्थाओं को विकसित करने का काम किया है मसलन नीति आयोग परन्तु उनके मुनाफे दीर्घकालीन बताये जा रहे हैं। जाहिर है पूरी पड़ताल अभी सम्भव नहीं है। देखा जाय तो स्टार्टअप इण्डिया, स्टैंडअप इण्डिया, डिजीटल इण्डिया और क्लीन इण्डिया जैसे तमाम योजनाएं मुखर तो हुई हैं पर मन माफिक परिणाम देने में पीछे हैं। कैषलेस को लेकर भी कोषिष अच्छी है पर नतीजे अधकचरे हैं। इसकी एक वजह बिना तैयारी के इसे लागू करना माना जा रहा है। सबके बावजूद एक सच तो यह है कि जिस तीव्रता से भाजपा राज्यों में सरकार बना रही है उससे यह साफ है कि जनता का भरोसा जीतने में वह मीलों आगे है। राज्यों को इस बात का भी सुकून है कि मोदी सरकार उनके लिए एक बेहतर ताकत के तौर पर उपलब्ध है। पिछले तीन दषकों से देखें तो उत्तर प्रदेष के साथ केन्द्र में एक ही दल की प्रचण्ड बहुमत की सरकार नहीं देखी गयी। यदि साथ रहे भी तो मिलीजुली स्थिति कहीं न कहीं रही ही है। अब स्थिति बिल्कुल उलट है। दोनों स्थानों पर बहुमत और उत्तर प्रदेष में तो प्रचण्ड और ऐतिहासिक बहुमत के साथ योगी सरकार उदित हो गयी है। यहां उत्तराखण्ड का भी जिक्र करना सही होगा कि त्रिवेन्द्र रावत के नेतृत्व में ठीक वैसा ही ऐतिहासिक एवं प्रचण्ड बहुमत वाली सरकार कामकाज में आगे बढ़ गयी है। दिषा कहां से तय होगी, कितनी तय होगी और जनता की उम्मीदों पर कितनी समुचित होगी यह आने वाले दिनों में पता चलेगा।
उत्तर प्रदेष की नई सरकार से सूबे की तस्वीर बदलने की उम्मीद जताई जा रही है। भाजपा को विकास के मुद्दे पर विराट जीत मिली है। विरोधियों को उसी अनुपात में हार। लिहाज़ा जनता वोट के बदले विकास की तूफानी दरिया तो चाहेगी। उत्तर प्रदेष विगत् वर्शों से आर्थिक विकास के मामले में असंतुलित रहा है। देष के सबसे बड़े राज्य की सबसे बड़ी कमजोरी लचर कानूनी व्यवस्था रही है। बुनियादी समस्याओं का यहां अम्बार है। महिला सुरक्षा को लेकर स्थिति काफी हद तक पटरी से उतरी हुई है। चोरी, डकैती, गुण्डागर्दी, बलात्कार समेत दर्जनों विभिन्न प्रकार की घटनायें यहां की फिजा में अक्सर तैरती रहती हैं। यदि 125 करोड़ का देष भारत है तो इसमें से 25 करोड़ उत्तर प्रदेष से ही है। धर्म और जाति के नाम पर सियासत का खेल भी यहां बरसों पुराना है पर इस बार का चुनाव इनसे ऊपर था। मोदी सरकार उत्तर प्रदेष में हर सूरत में अपना रसूख जमाना चाहती थी, योगी के माध्यम से यह सम्भव भी हो गया है लिहाज़ा सहयोग और तालमेल की कमी से उत्तर प्रदेष और उत्तराखण्ड नहीं जूझेगा। ऐसे में उम्मीदों का परवान चढ़ना और विकास को अंजाम तक पहुंचाना सहज माना जा रहा है। योगी की छवि प्रखर हिन्दुत्ववादी है पर उन्होंने षपथ के बाद भरोसा दिया कि सबको साथ लेकर चलेंगे। जिस तर्ज पर मंत्रिपरिशद् को निर्मित किया गया है उससे भी सबको साथ ले चलने की बात प्रस्फुटित होती है। एक भी मुस्लिम चेहरा चुनाव में न उतारने वाली बीजेपी की मंत्रिपरिशद् में एक मुस्लिम मंत्री बनाया गया है। यह भी उक्त कथन का समर्थन करता है। रही बात विकास की तो चुनौतियों का यहां ढेर है। किसानों की समस्या वैसे तो पूरे देष में है पर अनुपात में उत्तर प्रदेष अव्वल है। बुंदेलखण्ड सूखा पड़ा है। आत्महत्या और पलायन से भी प्रदेष खाली नहीं है और यह हर षासनकाल में रहा है। 
युवाओं का विकास, महिलाओं का विकास, षिक्षा, चिकित्सा एवं रोजगार समेत कर्ज माफी और सुविधाओं को आसान बनाने और अनेक सुविधाओं से युक्त करने के वायदे और इरादे भाजपा ने अपने चुनावी दौर में खूब जताये हैं। विज़न डाॅक्यूमेन्ट से लेकर घोशणापत्र तक में ऐसे दर्जनों बातें पढ़ी जा सकती हैं। लिहाजा सरकार को इस दिषा में तो सोचना ही होगा जिन किसानों ने घरों से निकलकर भाजपा को इतने बड़े स्थान पर बिठाया है उनकी समस्याओं को स्थायी समाधान देना इनकी नैतिकता है। बिजली आपूर्ति और कानून व्यवस्था यहां की जड़ समस्या है जिस पर बड़े कदम उठाने ही होंगे। क्षेत्रफल के लिहाज़ से इसके कई हिस्से हैं और हर हिस्से की अपनी बुलन्द आवाज़ है सबको सुनना भी सरकार की बड़ी जिम्मेदारी है। देहरादून में मोदी ने 28 दिसम्बर के भाशण में कहा था कि उत्तराखण्ड गहरे खड्डे में है इसे बाहर निकालने के लिए डबल इंजन की जरूरत है। एक दिल्ली का और एक देहरादून का। उत्तर प्रदेष समेत अब इंजन भी ट्रिपल हो गया है। उत्तराखण्ड अपने निर्माणकाल वर्श 2000 से ही परसम्पत्तियों के बंटवारे में फंसा है जिसका निपटान अभी तक नहीं हुआ है। रामपुर तिराहा काण्ड पर उत्तराखण्ड आन्दोलनकारियों के साथ हुई घटना को लेकर भी इंसाफ की मांग अभी भी यहां उठती रहती है। गाज़ियाबाद से लेकर हरिद्वार तक नहर के किनारे मैट्रो चलाने की बात काफी आगे बढ़ चुकी थी। लाज़मी है कि अब दोनों प्रदेषों में छोटे भाई और बड़े भाई की सरकार के मौजूद होने के चलते उक्त समस्याएं न केवल निदान तक पहुंचेगी बल्कि केन्द्र से मोदी के सुपरविज़न में दोनों विकास की पटरी पर जनता के मन माफिक दौड़ भी लगायेंगे। इस बात का ध्यान रखते हुए कि 2019 में उसी जनता से लोकसभा में वोट लेना है और डेढ़ दषक से बिछुड़ी सत्ता को प्राप्त करने के बाद 2022 में फिसलने से भी इसे रोकना है। 
सुशील कुमार सिंह


Wednesday, March 15, 2017

ईवीएम पर सवाल कितना वाजिब !

जिस ईवीएम को केरल के एक विधानसभा क्षेत्र से 1982 में और वर्श 2004 के 14वीं लोकसभा से पूरे देष में लोकतंत्र का सबसे बड़ा तकनीकी हथियार बनाया गया आज वह विवादों के घेरे में है। गौरतलब है कि पांच राज्यों के चुनाव के नतीजे से भारतीय जनता पार्टी को बेषुमार सीटें मिली हैं। उत्तर प्रदेष और उत्तराखण्ड में तो भाजपा 80 फीसदी से ज्यादा स्थानों पर जीत हासिल की है जबकि सपा, बसपा तथा कांग्रेस समेत सभी को करारी षिकस्त मिली है। नतीजे को देखते हुए बसपा की मुखिया मायावती ने ईवीएम पर ही सवाल खड़े कर दिये हैं। उनका आरोप है कि ईवीएम को मैनेज किया गया है। इस आरोप में कितनी सच्चाई है अभी इसका खुलासा सम्भव नहीं है पर ऐसे बयान के बाद भारत की सियासत में चर्चा जोर पकड़ ली है। परिप्रेक्ष्य और दृश्टिकोण यह भी है कि भाजपा की विरोधी मायावती के सुर में सुर मिला रहे हैं और यह राय भी आम है कि ईवीएम के साथ कोई अनहोनी होना हैरत की बाद नहीं है। ध्यानतव्य हो कि उत्तर प्रदेष में मायावती की बुरी हार और उत्तराखण्ड से सफाया हो गया है। ऐसे में उनका झल्लाना या आरोप लगाना सम्भव हो सकता है पर बात केवल मायावती तक ही नहीं है ईवीएम को लेकर मसले 2009 से ही उठते रहे हैं। भाजपा के वयोवृद्ध नेता लालकृश्ण अडवाणी और सुब्रमण्यम स्वामी ने 2009 लोकसभा चुनाव के बाद ईवीएम के जरिये चुनाव में धांधली का आरोप लगाया था और ऐसा पहला मौका था जब ईवीएम विवादों में आई थी। यही सुब्रमण्यम स्वामी गुजरात विधानसभा चुनाव को लेकर ईवीएम पर सवाल उठा चुके हैं और उनका मानना था कांग्रेस ने यदि इसमें छेड़छाड़ न की होती तो भाजपा वर्तमान की तुलना में 35 सीट अधिक जीतती। ईवीएम के विवाद में आते ही सुप्रीम कोर्ट में याचिका भी दाखिल की गयी थी। षीर्श अदालत ने चुनाव आयोग को निर्देष जारी किया था कि मतदाताओं का इस पर भरोसा बनाये रखने के लिए कदम उठाये। 
ईवीएम पर उठे सवाल के बीच में यह प्रष्न भी वाजिब है कि ईवीएम के क्या-क्या खतरे हो सकते हैं। ईवीएम मषीनें हैक की जा सकती हैं यह बात भी कही जा रही है। ईवीएम मषीनों के जरिये वोटरों की पूरी जानकारी भी निकाली जा सकती है। इसके अलावा चुनावी नतीजों में फेरबदल किया जा सकता है। गौरतलब है कि इसे हैक करने को लेकर कई बार धमकी भी देने की बात कही गई है ऐसा विदेषों में भी हुआ है। सुरक्षा के लिए ईवीएम का इलेक्षन साॅफ्टवेयर के साथ भी छेड़छाड़ वाली बात आसान मानी जा रही है। यह भी समझ लेना सही होगा कि दुनिया के विकसित देषों ने ईवीएम को लोकतंत्र का बेहतरीन हथियार नहीं माना है। अमेरिका और जापान जैसे देष इसका प्रयोग करने से आज भी कतराते हैं। नीदरलैण्ड ने पारदर्षिता के अभाव में इसे बैन किया हुआ है। आयरलैण्ड ने तो करोड़ों खर्च करने के बाद और तीन साल के रिसर्च के बावजूद सुरक्षा और पारदर्षिता को देखते हुए ईवीएम को प्रतिबंधित कर दिया। जर्मनी ने तो ई-वोटिंग को तो असंवैधानिक तक करार दे दिया है इसकी भी वजह पारदर्षिता ही है। इटली ने भी इसे खारिज किया है। खास यह भी है कि इंग्लैण्ड और फ्रांस ने तो इसका उपयोग ही नहीं किया। अमेरिका के मिषिगन विष्वविद्यालय के प्रोफेसर और छात्रों का षोध यह इषारा करता है कि ईवीएम संदेह से परे नहीं है। ऐसे में दो सवाल उठते हैं एक यह कि भारत में ईवीएम को अपनाने से पहले क्या सभी प्रकार के सुरक्षा उपायों पर विचार किया गया था। दूसरा यह कि यदि यह इतना सुरक्षित है तो दुनिया के अमीर देषों ने इससे मुंह क्यों मोड़ा है? दो टूक यह भी है कि मौजूदा सियासत में यदि ईवीएम चर्चे में आ ही गयी है तो इसका पोस्टमार्टम करने में किसी को आखिर गुरेज क्यों होगा? जाहिर है तकनीक है एक सीमा तक निर्भरता हो सकती है पर गैर सीमित तो नहीं हुआ जा सकता। दूध का दूध और पानी का पानी हो जाय तो ईवीएम पर डगमगाता विष्वास ही बढ़ेगा जो आगे की राजनीति और लोकतंत्र दोनों को मुनाफे में ले जायेगा।
ऐसा नहीं है कि ईवीएम केवल फंसाद की जड़ है। देखा जाय तो ईवीएम के चलते चुनाव की प्रक्रिया आसान हुई है। गौरतलब है कि ईवीएम भारत इलैक्ट्राॅनिक लिमिटेड बंगलुरू और इलैक्ट्राॅनिक काॅरपोरेषन और इण्डिया लिमिटेड हैदराबाद द्वारा विनिर्मित 6 बोल्ट की एल्कलाइन बैटरी पर चलती है। इसका उपयोग वहां भी सम्भव है जहां बिजली का कनेक्षन न भी हो। इसके होने से लाखों-करोड़ों की संख्या में मतपत्रों की छपाई से मुक्ति मिल जाती है जिसके चलते कागज, मुद्रण, परिवहन, भण्डारण, वितरण यहां तक कि बड़ी लागत की भी बचत होती है साथ ही मतगणना भी तेजी से होती है। जहां मतगणना करने में 30 से 40 घण्टे लगते हों वहां ईवीएम के माध्यम से मतगणना मात्र दो-तीन घण्टे में ही सम्भव है। तमाम फायदों के बावजूद इस बात को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि यह तकनीक हर लिहाज़ से दुरूस्त है। ऐसा भी नहीं है कि आरोप एकतरफा है। लालकृश्ण अडवाणी से लेकर सुब्रमण्यम स्वामी तक इस पर संदेह जता चुके हैं। फर्क यह है कि उस समय उनका दल चुनाव हारा था, आज मायावती इसी मुकाम पर है। माना हारने वालों ने ही ईवीएम पर सवाल खड़े किये हैं पर इसे हल्के में नहीं लिया जा सकता। मायावती ने प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित षाह को चुनौती दी है कि यदि उनमें हिम्मत है तो चुनाव रद्द कर फिर से चुनाव करायें। यह भी कहा है कि चुनाव बैलेट पेपर पर करवायें। इतना ही नहीं मायावती ने चुनाव आयोग को भी पत्र लिखा है कि ईवीएम पर लोगों का भरोसा नहीं है। देष की षीर्श अदालत ने ऐसे ही निर्देष निर्वाचन आयोग को पहले भी दिया था पर ठोस कार्यवाही किस पैमाने तक हुई बता पाना मुष्किल है। 
पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव में हार-जीत की चर्चा के बाद अब ईवीएम पर परिचर्चा छिड़ गयी है। जिस तर्ज पर भाजपा ने उत्तर प्रदेष और उत्तराखण्ड में वोटों के कारोबार में अव्वल रही है और जिस तरह विपक्षी धराषाही हुए हैं उसे देखते हुए उनका आरोप लगाना कोई हैरत की बात नहीं है पर यह मात्र गड़बड़ी के चलते ही जीत हुई है ऐसा सोचना सही नहीं होगा। मायावती के सुर में कई विरोधी समेत उत्तराखण्ड के हरीष रावत एकमत राय रख रहे हैं। असल सच्चाई यह है कि ये सभी लोकतंत्र के हाषिये पर इन दिनों फेंके जा चुके हैं। बावजूद इसके जिस सवाल को मायावती ने खड़ा किया है उसका समाधान खोजा ही जाना चाहिए। केजरीवाल भी दिल्ली में होने वाले स्थानीय निकाय के चुनाव में ईवीएम को लेकर असंतोश जता रहे हैं। फिलहाल हल्के अंदाज में उठा ईवीएम विवाद अब तूल पकड़ रहा है। यहां एक घटना का जिक्र करना ठीक होगा कि बीएमसी के चुनाव में ईवीएम पर एक निर्दलीय प्रत्याषी श्रीकांत षिरसत ने तब सवाल उठाया जब उसके दिये गये वोट का पता ही नहीं चला। उसका कहना था कि परिवार के सदस्यों ने वोट दिया और उसका वोट वहां पर षून्य दिखाया गया। यदि इस बात में सच्चाई है तो ईवीएम में गड़बड़ी समझी जा सकती है। यदि इस प्रकार की गड़बड़ी से ईवीएम परे नहीं है तो देष में इतने बड़े चुनाव में कहीं भी इस पर सवाल न उठे यह सम्भव नहीं है। इससे बचने का एक ही रास्ता है कि इसकी तकनीक की पड़ताल हो और वास्तुस्थिति को जनता के समक्ष रखा जाय ताकि ईवीएम पर डगमगाते विष्वास को फिर से लोकतांत्रिक बनाया जा सके। इस बात की चिन्ता किये बगैर किये सवाल किसने उठाये हैं बल्कि इस बात की चिंता करके कि सवाल कितने वाजिब हैं। 

सुशील कुमार सिंह


Saturday, March 11, 2017

लोकतंत्र के इतिहास में 11 मार्च

किसके सिर पर ताज होगा, कौन परास्त होगा और कौन भारतीय सियासत के ध्रुवीकरण में चतुर राजनेता के तौर पर उभरेगा ये तमाम संदर्भ बीते दो महीने की सियाासत में उबाल लिये हुए थी जिसका पटाक्षेप 11 मार्च के नतीजे में हो गया है और इस नतीजे से यह भी स्पष्ट हुआ है कि कौन, किस कद-काठी के साथ कहां है। पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में उत्तराखण्ड, पंजाब और गोवा में एक चरण में होने वाला मतदान 15 फरवरी से ईवीएम में कैद था जबकि 60 विधानसभा वाले मणिपुर में दो चरण में यह सम्पन्न हुआ। भारी-भरकम जनसंख्या और मतदाता से भरा उत्तर प्रदेश जहां 403 विधायकों को चुना जाना था सात चरणों में मतदान चलते हुए 8 मार्च को इतिश्री को प्राप्त किया। उत्तराखण्ड के कर्णप्रयाग के विधानसभा का चुनाव बसपा के प्रत्याषी के मृत्यु के चलते 9 मार्च को सम्पन्न हुआ। चुनावी समर में सभी दलों ने अपनी कूबत झोंकी, जीत के दावे और इरादे जताये गये और यह भी बताया कि जनता ने उन्हें बहुमत देने का इरादा क्यों किया है पर क्या ये सब धरातल पर सही उतरे। परिणाम के खुलासे कईयों की सियासत को न केवल हाषिये पर फेंक दिया बल्कि उन्हें राजनीति का नासमझ भी घोशित कर दिया है। 9 मार्च की षाम को जब एक्ज़िट पोल के नतीजे सामने आये तब कयासों का बाजार एक बार फिर गर्म हुआ। इक्का-दुक्का को छोड़ दिया जाय तो सभी एक्ज़िट पोलों ने पंजाब को छोड़ अन्य सभी चार प्रान्तों में भाजपा के परचम लहराने की बात कही। राजनेता वही जो अपने मन की बात के सिवा न कुछ सुने न देखे। इसी तर्ज पर जिसके पक्ष में एक्ज़िट पोल हार का संकेत था वे इसे झुठलाने में लगे रहे परन्तु उन्हें क्या मालूम कि 11 मार्च को सुबह 8 बजे से जब वोटों की गिनती षुरू होगी तो कई दलों के चुल्हे हिल जायेंगे। उत्तर प्रदेष और उत्तराखण्ड में जिस कदर भाजपा ने विरोधियों को मीलों पीछे छोड़ते हुए कोहराम मचाया है उससे यह बात पुख्ता होती है। 
बहुमत का दावा करने वाले सपा और कांग्रेस का गठबंधन फिलहाल औंधे मुंह गिरा है। बसपा बिन पानी मछली की तरह तड़पन महसूस कर सकती है जबकि पूरे चुनावी सागर में भाजपा का कमल खिला हुआ है। हैरत भी है और रोचक से भरा हुआ भी कि जो भाजपा दषकों से उत्तर प्रदेष में तीसरे-चैथे नम्बर की पार्टी रही हो और इतने ही दिनों से सरकार के लिए तरस रही हो। आज वह न केवल अव्वल है बल्कि विरोधियों को निस्तोनाबूत भी कर दिया है। 403 सीटों के मुकाबले 325 से अधिक पर जीत हासिल करना किसी नजीर से कम नहीं है। चुनाव से पहले फिजा में ये भी बातें तैर रही थीं कि उत्तर प्रदेष में एंटी इनकम्बेंसी का स्वरूप फिलहाल तो नहीं है पर यहां तो मौजूदा सरकार के विरूद्ध आंधी चल रही थी। राजनीतिक पण्डित साथ ही दल भी इस कयास से दूर रहे कि करीब तीन बरस से दिल्ली की गद्दी पर बैठे नरेन्द्र मोदी का जादू अभी भी सर चढ़ कर बोल रहा है। क्या नरेन्द्र मोदी एक जिताऊ नेता हैं, चतुर राजनीतिज्ञ हैं और देष के मर्म को समझने वाले मर्मज्ञ, षासक व प्रषासक हैं। इन कसीदों को परिणामों के दायरे में देखा जाय तो झुठलाना सम्भव नहीं है। बेषक मोदी की हवा बही है, लहर चली है, विरोधी धराषाही हुए हैं और कमल खिला है पर हारने वाले भी अपनी जीत के रास्ते बंद करने में पीछे नहीं रहे। फिलहाल इससे न केवल मोदी के सपने पूरे हुए हैं बल्कि उन लोगों को एक मजबूत जवाब भी मिला है जो मोदी करिष्मे को कमजोर आंक रहे थे। सियासत का ऐसा भी रूख होता है इसका अंदाजा सभी को तो न रहा होगा। एक्ज़िट पोल के नतीजो में टुडे चाणक्य जो बिहार में बुरी तरह विफल था। उत्तर प्रदेष और उत्तराखण्ड में षत् प्रतिषत सही साबित हुआ है। साफ है कि सर्वे करने वाले टुडे चाणक्य की भी षान बढ़ी है। कई और एक्ज़िट पोल हैं पर वे भी दलों की तरह कोसों पीछे छूट गये। सरकार बनने-बिगड़ने का खेल तो बरसों पुराना है पर इतिहास लिखने का वक्त तो कभी-कभी आता है जो 11 मार्च को खुली आंखों से देखा गया है।
उत्तराखण्ड में कांग्रेस जिस कदर करवट ली है और जिस भांति भाजपा की तूती बोली है उसमें कांग्रेस 70 के मुकाबले 11 पर ही सिमट गयी। निर्वतमान मुख्यमंत्री हरीष रावत दो विधानसभा क्षेत्र किच्छा, हरिद्वार (ग्रामीण) से जिस तरह करारी षिकस्त पाई है उससे यह भी साफ हो गया है कि हरीष रावत समेत यहां के स्थानीय कद्दावर नेताओं का पाॅलिटिकल कैरियर के खात्मे में 11 मार्च मानो एक इतिहास लिख रहा हो। राहत कहां मिलेगी, कांग्रेस कैसे उभरेगी ये सब सवाल मीलों दूर खड़े हैं। कांग्रेस का उत्तराखण्ड में चेहरा बने हरीष रावत जिस कदर मात खाये हैं ऐसा सियासत में षायद ही पहले कभी हुआ हो। जिस प्रदेष में पिछले चुनाव की तुलना में वोट प्रतिषत डेढ़ फीसदी से ज्यादा घटा हो। जहां मोदी लहर को नकारा जा रहा हो और राश्ट्रपति षासन के साथ दल-बदल और बगावत एवं तोड़-फोड़ की राजनीति हुई हो साथ ही भाजपा को कोसने वालों की संख्या में कमी न हो वहां 70 के मुकाबले 56 से अधिक सीटों पर भाजपा जीत दर्ज करती है तो इसे क्या कहेंगे। इसे कांग्रेस की एकतरफा हार और मोदी द्वारा किया गया उसका सफाया ही कह सकते हैं। हालांकि भाजपा के प्रदेष अध्यक्ष और विपक्ष के नेता अजय भट्ट रानीखेत से अपनी सीट गंवा चुके हैं। देखा जाय तो इसके पहले भी मुख्यमंत्री रहते हुए खण्डूरी भी चुनाव हार चुके हैं पर फर्क यह है कि हरीष रावत तो दो जगह से हारे हैं।
पंजाब में भाजपा और अकाली दल के गठबंधन को मतदाताओं ने हाषिये पर फेंक दिया है परन्तु सुखद यह है कि प्रत्येक स्थानों से उजड़ रही कांग्रेस ने यहां वापसी करके अस्तित्व में बने रहने का रास्ता खोले हुए है। षायद भाजपाई जानते थे कि पंजाब अब उनकी पकड़ में नहीं है इसलिए उन्हें उम्मीद भी कुछ ऐसी ही थी। यह बात इसलिए पुख्ता है क्योंकि यूपी, उत्तराखण्ड की तर्ज पर यहां मोदी ने कूबत नहीं झोंकी थी। दूसरे नम्बर की पार्टी यहां आप है जाहिर है कि भाजपा गठबंधन यहां तीसरे नम्बर पर है। ऐसा झटका उन्हें क्यों मिला इसे भाजपा से बेहतर षायद ही कोई जानता हो। मणिपुर पूर्वोत्तर का दूसरा ऐसा प्रान्त होगा जहां असम के बाद भाजपा सीधे सत्ता हथियाने की फिराक में है। हालत बहुत अच्छी है 60 सीटों के मुकाबले जो बढ़त उसे मिली है उसका सियासी तूफान हाई वोल्टेज पर जाता दिखाई देता है। गोवा पहले से ही भाजपा की सत्ता के रडार पर रहा है। यहां यदि पहली बार कुछ है तो आम आदमी पार्टी का दखल है पर स्थिति इतनी बुरी नहीं है कि भाजपा को कोसा जाय लेकिन यहां के निर्वतमान मुख्यमंत्री भी सीट गंवाने में पीछे नहीं रहे। यह भी समझना सही होगा कि उत्तर प्रदेष को जिस पैमाने पर भाजपा ने विजित किया है उससे उसके सभी बन्द रास्ते भी खुल जायेंगे और उत्तराखण्ड में जिस कदर तबाही मचायी है उससे सियासत की चमक पहले की तुलना में बेइन्तहा बढ़ जायेगी। मसलन राज्यसभा में बहुमत का सुनिष्चित होना। आगामी जून-जुलाई में राश्ट्रपति और उपराश्ट्रपति के चुनाव में मन माफिक उम्मीदवार को जीत दिलाने में सफल होना। इतना ही नहीं नोटबंदी किसके पक्ष में है इसका भी परिणाम इसमें खंगाला जा सकता है। राजनीति का सिक्का ऐसे भी चलता है और ऐसे भी दौड़ता है पहले भी रहा होगा पर सियासत वक्त पर काम आये ऐसा कम ही रहा है। इस मामले में यह कहना प्रासंगिक होगा कि मोदी लहर न केवल जिन्दा है बल्कि अभी भी मतदाता चमत्कार को नमस्कार कर रहा है यही वजह है कि 11 मार्च लोकतंत्र के इतिहास में मजबूत तारीख के रूप में दर्ज हो रही है। 
सुशील कुमार सिंह
निदेशक


Tuesday, March 7, 2017

विकसित देश पर नस्लवाद का साया

संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान की उद्देषिका में कहा गया है कि यह संविधान संयुक्त राज्य की जनता ने तैयार किया है। कमोबेष यह स्थिति भारत से हुबहू मिलती जुलती है पर एक चीज में फर्क है कि अमेरिका नस्लवाद से मुक्त नहीं है जबकि भारत नस्लीय हिंसा से कभी युक्त ही नहीं था। हालांकि औपनिवेषिक काल में अंग्रेजों के दमन के षिकार हम भारतीय जरूर थे पर स्वतंत्रता के बाद हर तरह से मुक्ति पा ली। 26 जनवरी, 1950 का भारतीय संविधान सभी की जवाबदेही न केवल तय किया बल्कि अधिकार और सत्ता के साथ हर नागरिक को मजबूती प्रदान की। देखा जाय तो अमेरिका और भारत दोनों गणतंत्रात्मक अवधारणा से युक्त हैं परन्तु जिस भांति अमेरिका में भाईचारा खतरे में जाता दिख रहा है उससे साफ है कि बहुत कुछ इस मामले में भारत उसको सिखा सकता है। विविधताओं से भरा भारत कैसे दुनिया के लिए एकता का मिसाल है इस पर भी अमेरिका के नस्लीय हिंसकों को एक बार गौर फरमा लेना चाहिए। फिलहाल 1789 में अमेरिकी संविधान की जब नींव डाली गयी तब अमेरिका विकास के पथ पर चल पड़ा और इसी संविधान से उसे सब कुछ प्राप्त करना था। इसीलिए अमेरिकी संविधान को एक आर्थिक दस्तावेज के रूप में भी पहचान मिली है। समय बदला, परिस्थितियां बदली और जाॅर्ज वांषिंगटन से लेकर डोनाल्ड ट्रंप तक कोई एक बार तो कोई दो बार सत्ता हांकते हुए 45 अमेरिकी नागरिक राश्ट्रपति बने। मौजूदा समय में डोनाल्ड ट्रंप बीते 20 जनवरी से व्हाइट हाऊस में निवास कर रहे हैं पर उनके ताबड़तोड़ फैसलों ने कईयों के लिए न केवल बेचैनी पैदा की है बल्कि भारतीयों के लिए तो अमेरिका जान लेवा साबित हो रहा है। पिछले एक पखवाड़े के अंदर भारतीयों पर तीन हमले हो चुके हैं। घटना के बाद भय होना लाज़मी है। ताजा घटना यह है कि एक सिक्ख युवक को 5 मार्च को न्यूयाॅर्क में गोली मारी गयी। गोली मारने से पहले यह कहना कि मेरा देष छोड़कर अपने देष चले जाओ। इस प्रकार की जोर जबरदस्ती से साफ है कि बरसों से नस्लवाद से जूझने वाला अमेरिका आज भी इस मनोविज्ञान से उबरा नहीं है। इसके पहले 22 फरवरी को भारतीय इंजीनियर श्रीनिवास की हत्या और साथी इंजीनियर आलोक मदसाणी पर जानलेवा हमला और इसी दिन न्यूयाॅर्क के मेट्रो ट्रेन में भारत की एक लड़की एकता देसाई को यह कहते हुए बदसलूकी करना कि अपने देष वापस जाओ। घटनाओं की फेहरिस्त और भी लम्बी है, भले ही इन घटनाओं को अमेरिकी राश्ट्रपति या वहां की वैधानिक सत्ता बहुत बड़े रूप में न देख रही हो पर इस पर लगाम न लगने की स्थिति में न केवल नस्लीय हिंसा को बढ़ावा मिल सकता है बल्कि अमेरिका की कानून-व्यवस्था को भी संघर्श करना पड़ सकता है। इसके अलावा भारत-अमेरिका सम्बंध भी उथल-पुथल के दौर में जा सकते हैं। 
भारत और अमेरिका दोनों एक ऐसे विष्व की परिकल्पना करते हैं जो आतंक और नस्लवाद विहीन हों पर हमले ऐसी सोच पर भी करारी चोट कर रहे हैं। डोनाल्ड ट्रंप का अमेरिकी राश्ट्रपति के तौर पर षपथ लेने के बाद सात मुस्लिम देषों पर प्रतिबंध और पाकिस्तान के मामले में सख्त रूख अख्तियार करना इस बात का संकेत है कि आतंक को उकसाने वाले या षरण देने वालों की खैर नहीं। गौरतलब है कि भारत-अमेरिका सम्बंधों में काफी प्रगाढ़ता इन दिनों देखी जा सकती है। वर्श 2015 के गणतंत्र दिवस पर पहली बार किसी अमेरिकी राश्ट्रपति का मुख्य अतिथि बनना सम्बंधों की मजबूती के लिहाज़ से एक परिपक्व कूटनीति कही जायेगी और जिस तर्ज पर बराक ओबामा और मोदी के बीच सम्बंध परवान चढ़े, अलग-अलग मंचों पर मुलाकातों का सिलसिला चला उससे भी वैष्विक परिदृष्य में भारत काफी उभार ले लिया। बावजूद इसके भारत को आतंक से जूझने से फुर्सत नहीं मिली। पड़ोसी पाकिस्तान और उससे आयातित आतंकियों ने भारत को दम नहीं लेने दिया। चीन से लेकर रूस तक भारत की कूटनीति बहुत संतुलित भी नहीं रही। वक्त के साथ रूस का झुकाव पाक की ओर भी हुआ पर एक सच्चाई यह भी है कि अमेरिका का धुर विरोधी रूस भारत का स्वाभाविक मित्र है और दोनों के बीच संयमित दोस्ती बनाना भारत की बड़ी योग्यता रही है। फिलहाल जिस नक्षे कदम पर ट्रंप चहल-कदमी कर रहे हैं उससे तो यही लगता है कि भारत को नये सिरे से अमेरिकी सम्बंधों को फिर से खंगालना पड़ सकता है। यह बात तब और महत्वपूर्ण हो जाती है जब अमेरिका में भारतीय नस्लभेद ही नहीं मौत से भरी हिंसा झेल रहे हों। विदेष सचिव एस. जयषंकर का यह कहना कि ट्रंप प्रषासन का भारत-अमेरिकी सम्बंधों को लेकर काफी सकारात्मक दृश्टिकोण है और सम्बंधों को आगे ले जाने में काफी रूचि है। इतना अखरने वाला बयान तो नहीं है पर ट्रंप के क्रियाकलाप पर ही बहुत कुछ निर्भर करेगा।
अमेरिका में राश्ट्रपति चुनाव के दौरान भी ट्रंप प्रधानमंत्री मोदी से प्रभावित दिख रहे थे। उन्होंने मोदी की कुछ नीतियों को अमेरिका में लागू करने की बात भी कही थी पर यह बात चुनावी जुमला भी हो सकता है। असल बात तो यह है कि विज्ञान, तकनीक, षिक्षा और रोज़गार समेत अन्यों के मामले में जो आदान-प्रदान दोनों देषों के बीच होता रहा है क्या अब वह पहले जैसा रहेगा। आतंकी देषों पर प्रतिबंध और आईएसआईएस जैसे आतंकी संगठन को उखाड़ फेंकने का मनसूबा रखना अच्छा है। रूस को इस मामले में साथ लेना भी अच्छा है परन्तु देष के अन्दर नस्लवाद को अवसर देना कत्तई अच्छा नहीं कहा जायेगा। चीन की नीतियों को भी ट्रंप अधमने ढंग से मानो सहमति दे रहे हों। रूस से दोस्ती का हाथ तो लगभग वे बढ़ा ही चुके हैं। जाहिर है कि दषकों से एक-दूसरे को फूटी आंख न भाने वाले देष समीप आ रहे हैं। ऐसा होना ठीक भी है पर कूटनीति कहती है कि राजनीति को व्यापार की तरह नहीं हांकना चाहिए बल्कि व्यापार की आड़ में कूटनीति को चलाया जाता है। इस फर्क को भी षायद डोनाल्ड ट्रंप को बेहतरी से समझना होगा। अब तक के राश्ट्रपतियों में सबसे उम्रदराज डोनाल्ड ट्रंप कितने सक्रिय हैं तथा कितने आवेष से भरे हैं इसकी पूरी पड़ताल करना अभी सम्भव नहीं है पर नीतियों के आगाज़ से यह धारणा आम होने लगी है कि विष्व का परिदृष्य अलग रूख जरूर अख्तियार करेगा। देखा जाय तो भारत और चीन के बीच लगभग छः दषकों से कभी भी आपसी विष्वास पैदा नहीं हुआ। उसकी बड़ी वजह 1962 में चीन का विष्वासघात और विष्व में पसरी कूटनीति ही रही है। इतना ही नहीं आतंकियों का षरणगाह पाक के साथ उसकी दोस्ती और आतंकियों को उसके द्वारा दिये जाने वाली सुरक्षा  भी एक वजह है। लखवी से लेकर अज़हर मसूद तक को उसने राश्ट्रीय सुरक्षा परिशद् में वीटो करके बचाने का काम किया है। 
एमटीसीआर में सदस्य बनने वाला भारत और एनएसजी को लेकर अमेरिका के पूर्व राश्ट्रपति बराक ओबामा द्वारा जी-तोड़ कोषिष करना दोनों देषों की फलक की कूटनीति का उदाहरण है। ऐसा भी रहा है कि भारत का अमेरिका से सम्बंध डेमोक्रेटिक पार्टियों के राश्ट्रपतियों से रिपब्लिकन पार्टियों की तुलना में अधिक सहज रहा है। बिल क्लिंटन (डेमोक्रेटिक) और जाॅर्ज डब्ल्यू बुष (रिपब्लिकन) से अंदाजा लगाना आसान है। यही बराक ओबामा (डेमोक्रेटिक) के मामले में भी देखा जा सकता है। इस समय डोनाल्ड ट्रंप रिपब्लिकन पार्टी से हैं साफ है कि बात षायद वैसी न रह पाये। हालांकि यह पूरा सच नहीं है परन्तु इतिहास कुछ इस तरह से इषारा करते हैं। भारत सरकार की ओर से भारतीयों पर अमेरिका में हो रहे हमले को लेकर अभी कोई ठोस कदम उठते हुए नहीं दिख रहा है। उसके पीछे भारत की विधानसभा में प्रधानमंत्री समेत कईयों का व्यस्त होना भी हो सकता है परन्तु ध्यान रहे कि नस्लीय हिंसा से दषकों की कूटनीति को कीमत चुकानी पड़ती है। अमेरिका को यह तसल्ली से समझ लेना चाहिए कि अपने देष में जो मर्जी हो करें पर उसकी कीमत भारतीय क्यों चुकायें। 

सुशील कुमार सिंह


Tuesday, February 28, 2017

संविधान की आवाज़ और हमारे बोल

पुस्तक पढ़ने के शौक के चलते नये विचारों से टकराहट होना लाज़मी है और जब किताबें पढ़ना शौक  हो तो विमर्श और विशदीकरण  मन में मन भर-भर के आते हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय  के रामजस काॅलेज में इन दिनों जो विमर्श फूटा वह भी मन के रडार पर आया। असल में कुछ समय पहले की बात है एक पुस्तक जिसका शीर्षक देश की बात है के अध्ययन के दौरान एक अध्याय पढ़ने को मिला जो निहायत रोचक था जिसका षीर्शक मानसिक अवनति है। पुस्तक को नेषनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाषित किया गया है एवं इसके लेखक सखाराम गणेष देउस्कर हैं। चैप्टर की षुरूआत में लिखा है कि भारतवासी दिन-दिन कंगाल हुए जाते हैं। खराब पदार्थ खाने और अति परिश्रम करने के कारण वे एकदम दुबले-पतले और हीन बुद्धि के हो जाते हैं। ऐसे समय में इस बात की आषा करना की धर्मनीति के सम्बंध में उनकी उन्नति हो रही है तो यह केवल पागलपन है। जब मैं दिल्ली में रामजस काॅलेज की घटना को षिद्दत से पड़ताल की तो यह समझने की कोषिष की कि क्या उक्त पुस्तक में लिखी बात और मौजूदा घटना का कोई सम्बंध है। बेषक बातें हू-ब-हू नहीं हैं पर बहुत इतर भी नहीं प्रतीत हुई। देष के नामचीन विष्वविद्यालय या उनके महाविद्यालय इन दिनों किस दौर से गुजर रहे हैं या षिक्षा ग्रहण कर रही पीढ़ियां किस विमर्ष के साथ आगे बढ़ रही हैं इस पर मंथन तो जरूरी है साथ ही संविधान की आवाज़ को भी यहां जोड़ दें तो स्वतंत्रता की सीमा नहीं है। यहां तक कि बोलने के मामले में तो यह आर-पार की बात करता है पर क्या यह बेलगाम है। ऐसा समझने वाले या तो संविधान को ठीक से नहीं जानते या जान-बूझकर अबूझ बनते हैं। 
 इस बात पर भी गौर कर लेना ठीक रहेगा कि संविधान बड़े खुले मन का है और सबको जगह देता है पर इस बात से भी परहेज नहीं किया जा सकता कि स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति के बेजा होने से न केवल परिणाम खराब होंगे बल्कि लोग भी अनुत्पादक कहे जायेंगे। वे चाहे किसी भी विष्वविद्यालय के छात्र हों, प्रोफेसर हों या फिर बौद्धिक सम्पदा ही क्यों न हो। इतना ही नहीं असहिश्णुता का अलग से एक वातारण भी समय के साथ विकसित हो जाता है जैसा कि बीते कुछ समय से देष में आये दिन व्याप्त हो जाता है। इस बात को भी नहीं भूलना चाहिए कि यदि हम ज्ञान के क्षेत्र में आगे रहना चाहते हैं तो छोटी-छोटी बातों को तिल का ताड़ न बनायें और इसे किसी बवंडर का षिकार न होने दें मगर जवाहर लाल नेहरू विष्वविद्यालय जैसे बौद्धिक सम्पदा से युक्त प्रांगण में यदि देष की एकता और अखण्डता को बेजार करने की कोषिष की जायेगी तो इसे मानसिक अवनति का षिकार ही माना जायेगा और यदि ऐसा बढ़ता गया तो देष के लिए किसी अनहोनी से कम नहीं होगा। इस बात को षिद्दत से समझना और नतीजे तक पहुंचना कि रामजस काॅलेज में जो कुछ हुआ वह कितना प्रभावषाली कहा जायेगा समय पर छोड़ दें तो बेहतर होगा पर इस बात पर भी अमल होना चाहिए कि किसी संगठन विषेश को प्रांगण में उत्पात मचाने का कोई लाइसेंस नहीं मिला है और न ही उन्हें राश्ट्रवाद की कताई-बुनाई की ड्यूटी दी गयी है बावजूद इसके ऐसे संगठनों के चलते ही अच्छे और बुरे के बीच हो रहे विमर्ष संज्ञान में तो आते ही हैं। जाहिर है कि चेहरे पर लगा दाग हर सूरत में छुपाया नहीं जा सकता। उमर खालिद का आमंत्रण रद्द करना गैर वाजिब कहना तो मुष्किल है। गौरतलब है कि बीते वर्श जवाहर लाल नेहरू विष्वविद्यालय के छात्र उमर खालिद उस मामले का आरोपी माना जाता है जिसने भारत के हजार टुकड़े और कष्मीर की आजादी के नारों में अपनी आवाज़ बुलन्द करने के साथ ही संसद हमले के दोशी आतंकी अफज़ल गुरू के समर्थन में एक कार्यक्रम आयोजित करने का आरोप है जिसने बाद में आत्म समर्पण किया था। इसी इतिहास को देखते हुए उमर खालिद की उपस्थिति को रामजस काॅलेज ने खारिज कर दिया जो एक सेमिनार में सम्बोधन करने वाला था। खास यह भी है कि एबीवीपी और छात्रसंघ के हिंसक विरोध के चलते यह आमंत्रण रद्द हुआ था।
बीते कुछ वर्शों से देखा जा रहा है कि देष के बौद्धिक सम्पदा केन्द्र मसलन विष्वविद्यालय, महाविद्यालय आदि में विमर्ष की दिषा और दषा उत्तर और दक्षिण को अख्तियार करती जा रही है। ऐसे में प्रांगण के अंदर क्या पक रहा है, कितना पक रहा है और क्या ऐसे खतरनाक पदार्थों को पकना चाहिए इस पर भी गौर करना तर्कसंगत कहा जायेगा। वामपंथ और दक्षिणपंथ की विचारधारा की टकराहट से भी प्रांगण अब खाली नहीं है। समझने वाली बात यह भी है कि जेएनयू के घटनाक्रम का अहम किरदार उमर खालिद को आखिर रामजस काॅलेज के सेमिनार में निमंत्रित ही क्यों किया गया। सूझबूझ से भरे लोगों का यह मानना रहा है कि इतिहास से हम सबक लेते हैं फिर उस व्यक्ति को यहां क्यों आमंत्रित किया गया जो अफज़ल के कातिलों के जिंदा होने पर षर्मिन्दगी महसूस करता है जिसे भारत के टुकड़े होना पसंद है। क्या बुलाने वाले मानसिक अवनति के षिकार कहे जायेंगे। स्थिति को देखते हुए काॅलेज ने मामले से पल्ला झाड़ने के लिए भले ही आमंत्रण रद्द कर दिया हो पर कैम्पस के अन्दर जो आग लगी उसका क्या! जिस विचारों से परिसर बनते हैं और जिनसे बिगड़ते हैं उसके फर्क को समझने में इतनी देर क्यों लगी। देखा जाय तो छात्र संगठन भी कई विचारधाराओं में बंटे हैं। वामपंथ और दक्षिणपंथ की अवधारणा से ये भी अछूते नहीं। हाल यहां तक बिगड़ गया है कि बुद्धिमानों की बुद्धि को लेकर चिंता बढ़ गयी है। जब भी हम राश्ट्रवाद को नया रंग-रूप देने की कोषिष करते हैं तो कईयों की छाती पर सांप इसलिए लोटता है कि उन्हें खराब इतिहास खाने-पचाने की आदत है। स्वतंत्रता के पहले भी अच्छे और खराब इतिहास का वर्णन देखा जा सकता है। उन दिनों के इतिहास को पढ़ने से बुखार आज भी कम ज्यादा होता है पर यह बात भी क्यों नहीं समझी जाती कि देष इतिहास से नहीं संविधान से चलता है और अगर अभिव्यक्ति की आजादी है तो बेतुकी होने पर उसके निर्बन्धन का भी प्रावधान उसी संविधान में निहित है। इतना ही नहीं भारतीय दण्ड संहिता में निहित धाराओं के तहत आपराधिक संदर्भों के अन्तर्गत आने पर जेल में भी डालने का प्रावधान है। 
संविधान एक रास्ता है, मंजिल तो नागरिकों को खुद-ब-खुद बनाना है पर कई हैं कि भटके रास्ते से मंजिल अख्तियार करना चाहते हैं। एक षहीद की बेटी का यह कहना कि उसके पिता को युद्ध ने मारा है काफी अखरता है। सैनिक की पुत्री होने के नाते सम्मान में कोई कमी नहीं हो सकती पर इसका यह भी मतलब नहीं कि बेतुकी बातों को हम मान लें। प्रतिरोध की संस्कृति में कई अपनी लकीर बड़ी करने की फिराक में हैं पर वे ये भूल गये हैं कि सीमाओं में रहने की संस्कृति भी इसी देष की धरोहर है। विष्वविद्यालयों की जिस छात्र सक्रियता को राजनीति की पाठषाला होनी चाहिए थी वहां इन दिनों अषालीनता के बड़े-बड़े वृक्ष तैयार हो रहे हैं जो कहीं से वाजिब नहीं है। दुर्भाग्य है कि षैक्षिक परिसरों में चलने वाले वाद-विवाद अब सियासी झंझवातों में उलझते जा रहे हैं। हैदराबाद विष्वविद्यालय हो या जेएनयू या फिर मौजूदा समय में दिल्ली विष्वविद्यालय का रामजस काॅलेज ही क्यों न हो। सभी में उठे विवादों को राजनीतिक रंग भी खूब दिया गया। मौका परस्ती देख कर कोई समर्थन में तो कोई विरोध में खड़ा भी हुआ और सियासत के ऐसे मंचों से आदर्ष और आचरण की लड़ाई करने वाले राजनेता कब प्रतिरोध की नई संस्कृति की जमात में षामिल हो जाते हैं पता ही नहीं चलता।

सुशील कुमार सिंह

Monday, February 20, 2017

प्रजातंत्र में प्रजा का प्रतिवाद

अगर हम लोग जनता में प्रजातांत्रिक भावना भरना चाहते हैं और अगर हम चाहते हैं कि अपने मामले का प्रबंध और आर्थिक जीवन को स्वयं व्यवस्थित करें तो हम पर ही यह निर्भर करता है कि हम उन्हें सरकार की आर्थिक नीतियों को अमल में लाने लायक बनायें। इस विचार में निहित भावना को परखें तो एक कठोर सच्चाई आंखों के सामने उतरा जाती है। उपरोक्त के प्रकाष में यह भी साफ है कि सरकार से पहले जनता को ताकतवर बनाया जाय तो मौजूदा तस्वीर बदल सकती है परन्तु सच्चाई यह है कि इसका जिम्मा भी सरकार के ऊपर ही है। वर्तमान में यह कहने का साहस कम ही लोगों में होगा कि सरकार जैसी व्यवस्था की जनता को आवष्यकता नहीं पड़नी चाहिए पर यह कहना आम है कि सरकार ही माई-बाप है परन्तु यह भी समझना सही होगा कि माई-बाप होने का हक उन्हें भूखी-प्यासी प्रजा ही देती है। दो टूक यह भी है कि सत्ता के झांसे में प्रजा हमेषा आती रही है पर कोई भी सरकार ईमानदारी से यह बात नहीं कह सकती कि जिस नाते उन्हें सरकार होने का गौरव मिला था उस पर वे सौ फीसदी खरे उतरे हैं। चुनावी वातावरण में सभी दल एक-दूसरे से बड़ी लकीर खींचने की होड़ में रहते हैं परन्तु जिस प्रजा से हाथ जोड़कर षालीनता से वोट मांगते हैं उनकी दुष्वारियां क्यों नहीं दूर हो रही है भला इसकी फिक्र आखिर किसे है। यह निष्चित बात है कि नीतियां समय के साथ उलटती-पलटती रहती हैं। तकलीफों को लेकर नित-नये नियोजन बनते बिगड़ते रहते हैं परन्तु किसी जिम्मेदार मंत्री या प्रधानमंत्री के लिए पूरा काम न कर पाना क्या किये गये वायदे की खिलाफी नहीं कही जानी चाहिए। जिस प्रजा से पांच साल के लिए सत्ता आती है उस प्रजा का प्रतिवाद कितना व्यापक और बड़ा होता है इसका पता सत्ताधारियों को चुनाव के समय ही चलता है। चुनाव के दौरान सब कहते हैं कि सरकार हमारी बनेगी। इससे बेखौफ कि सत्ता निर्माण करने वाली प्रजा ने ईवीएम का कौन सा बटन ज्यादा दबाया है। इसमें कोई दो राय नहीं कि कुछ राज्यों में प्रजा का प्रतिवाद ईवीएम के माध्यम से आ चुका है तो कुछ में आ रहा है जिसका खुलासा 11 मार्च को हो जायेगा। 
जैसा कि विदित है कि मौजूदा समय में उत्तर प्रदेष, उत्तराखण्ड तथा पंजाब समेत पांच राज्यों की विधानसभा चुनावी समर में है जिसमें उत्तराखण्ड, पंजाब और गोवा में मतदान सम्पन्न हो चुका हैं जबकि उत्तर प्रदेष में सात चरणों में सम्पन्न होने वाले मतदान का तीन चरण पूरा हो चुका है। कहा जाय तो यूपी भी सियासत का आधा रास्ता तय कर चुका है। इसके साथ ही दो चरणों में सम्पन्न होने वाले पूर्वोत्तर के एक मात्र राज्य मणिपुर में मतदान 4 और 8 मार्च को होगा। यहीं से सभी राज्यों की मतदान प्रक्रिया समाप्त हो जायेगी तत्पष्चात् 11 मार्च को नतीजे घोशित होंगे और जनता ने किसे अवसर दिया है और किसका मौका छीना है। इसका भी पता चल जायेगा। गौरतलब है कि उत्तर प्रदेष उपरोक्त चुनावी राज्यों में न केवल भारी-भरकम है बल्कि राजनीति का हर समझदार एवं गैर-समझदार व्यक्ति इस पर नजरें भी गड़ाये हुए है। अब तक हुए मतदान में वोट प्रतिषत 60 फीसदी से ऊपर ही रहा है। साफ है कि प्रजातंत्र में प्रजा का प्रतिवाद सत्ता निर्माण की दिषा में काफी आवेष लिये हुए है। हालांकि उत्तराखण्ड जैसे छोटे प्रान्त में वोट प्रतिषत 70 फीसदी के आस-पास रहा जबकि पंजाब और गोवा में वोट प्रतिषत तो इससे भी कहीं ऊपर उछाल मार रहा है। उत्तर प्रदेष का रोचक पहलू यह भी है कि भाजपा सत्ता हथियाने को लेकर निहायत आतुर है जबकि सपा और कांग्रेस का गठबंधन इन्हें चुनौती देने की पूरी जुगत भिड़ा रहा है। मायावती की बहुजन समाज पार्टी भी इस होड़ से बाहर नहीं कही जा सकती परन्तु पहले जैसी बात फिलहाल नहीं दिखाई देती। प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित षाह क्रमिक तौर पर चुनावी रैलियों में विरोधियों पर षब्दों का बाण चला रहे हैं और विरोधी भी नफे-नुकसान को माप-तौल कर अपने षब्दों का बाण छोड़ रहे हैं। चुनावी पचपच में विचार इतने पिलपिले हो गये हैं कि सारी मर्यादायें भी चकनाचूर हो रही हैं। मसलन रावण, आतंकवादी जैसे षब्द भी प्रयोग में देखे जा सकते हैं। हालांकि इस आरोप से प्रधानमंत्री मोदी को वाॅक ओवर नहीं दिया जा सकता कि उन्होंने प्रधानमंत्री की गरिमा को चुनाव में उसी भांति बरकरार रखा है जिस प्रकार राहुल गांधी, अखिलेष यादव और कुछ हद तक मायावती पर उनका तंज रहता है उससे साफ है कि सियासत के ऊंच-नीच से वे भी अन्यों की तरह दो-चार में फंसे हैं।
इस सच्चाई को भी समझना ठीक होगा कि धर्म और जाति की तुश्टिकरण वाली राजनीति से उत्तर प्रदेष कभी अछूता नहीं रहा। इस बार भी यहां यह मामला सर चढ़कर बोल रहा है। 97 मुस्लिम चेहरों को उतार कर बसपा ने मुस्लिम कार्ड खेला है तो भाजपा ने 403 विधानसभा सीटों के मुकाबले एक भी मुसलमान को टिकट न देकर यह जता दिया है कि वह फिलहाल मुस्लिम वोट की दरकार नहीं रखती जबकि प्रधानमंत्री मोदी सबका साथ, सबका विकास की बात दोहराने से नहीं चूकते हैं। उत्तर प्रदेष में ताजा सम्बोधन के तहत जिस प्रकार कब्रिस्तान और षमषान तथा ईद और दिवाली की तुलना मोदी ने किया और बिजली से जुड़े मुद्दे छेड़े उससे साफ है कि धार्मिक संवेदनायें उधेड़ कर वे भी मुसलमानों के हितैशी होने का सबूत देना चाहते हैं साथ ही इसे सत्ता हथियाने की जुगत के तौर पर भी देखा जा सकता है। गौरतलब है कि भले ही इस बार एक भी मुस्लिम चेहरा भाजपा में न हो परन्तु पिछले चुनाव में 11 फीसदी मुसलमानों का वोट इन्हें भी मिला था। जाहिर है कि समुदाय विषेश में कुछ वर्गों का मत भाजपा को जाता है। हालांकि इस बार सपा, कांग्रेस गठबंधन के साथ बसपा की तीक्ष्ण नजर मुस्लिम वोटों पर है। यह भी आम रहा है कि मुस्लिम मतदाताओं की ये दोनों तीनों पार्टियां हमेषा चहेती रही हैं पर इस बार इनका झुकाव किस ओर होगा राय बंटी हुई है। हालांकि यह माना जाता है कि जो भाजपा को हरायेगा मुस्लिम उसी को वोट दे देगा। इसे भाजपा के विरोध में माने या अन्य के पक्ष में परन्तु खास यह है कि मुस्लिम मतदाताओं का प्रतिवाद भाजपा के साथ हमेषा रहा है। 
बीते तीन दषकों के राजनीतिक इतिहास को उठा कर देखें तो कांग्रेस के अलावा उत्तर प्रदेष में सभी ने राज किया परन्तु इस प्रदेष की विडम्बना यह रही कि कानून और व्यवस्था हमेषा हाषिये पर रहा चाहे भाजपा की सरकार रही हो या सपा, बसपा की, किसी के पकड़ में इसकी नब्ज़ नहीं आयी। साफ है कि उत्तर प्रदेष की सियासत में केवल विकास ही मुद्दा नहीं है बल्कि जाति और धर्म के साथ कानून और व्यवस्था के चलते यहां वोट बंटे हुए दिखाई देते हैं। सत्ता के मद में कोई भी कैसा भी वाद तैयार क्यों न कर ले पर सच्चाई यह है कि जब चुनावी समर में जनता प्रतिवाद करती है और पलटवार करती है तो सूरमे भी धराषाही होते हैं। इसमें कोई षक नहीं कि अखिलेष यादव को अपनी सत्ता बचाने के लिए लड़ाई लड़नी है। राहुल गांधी को अपना वजूद बनाये रखने के लिए दो-दो हाथ करना है। मायावती को सत्ता की चाषनी का एक बार फिर स्वाद लेना है जबकि भाजपा को न केवल उत्तर प्रदेष की सत्ता चाहिए बल्कि इसके रास्ते उसे राज्यसभा में संख्याबल को मजबूत करने और आगामी जून-जुलाई में राश्ट्रपति और उपराश्ट्रपति पद पर मनचाही षख्सियत को पहुंचाने की जद्दोजहद दिखाई देती है। सबके बावजूद एक बड़ा सच यह भी है कि उत्तर प्रदेष की आड़ में हर पार्टी अपना भविश्य चमकाना चाहती है। 


सुशील कुमार सिंह