Monday, March 27, 2017

सरकारों को साबित करने का दबाव

जब लोकतंत्र का आन्दोलन गति में बहुत आगे हो तो उससे निर्मित सरकारें षिथिल नहीं हो सकती। प्रगतिवादी अवधारणा भी यह कहती है कि व्याख्याएं भले ही भिन्न-भिन्न हों पर जिस उद्देश्यों की पूर्ति के लिए सरकारों का निर्माण सुनिश्चित किया जाता है इसमें कोई षक नहीं कि वोट देने वाले विकास की बाट जोहते हैं। लोकतंत्र का एक दर्षन यह भी रहा है कि मैं तुम्हें वोट देता हूं, षक्ति और सत्ता देता हूं साथ ही सरकार का ओहदा देता हूं, तुम केवल जनहित को पोशित करने का कृत्य करो। फिलहाल चुनाव का मौसम समाप्त हो चुका है अब तो आंकलन और प्राक्कलन नवनियुक्त सरकारों के कृत्यों का होगा। हालांकि सरकारों को कामकाज संभाले बामुष्किल अभी एक पखवाड़ा भी नहीं बीता है फिर भी रेस में कोई पीछे न रहे इसे देखते हुए उत्तर प्रदेष और उत्तराखण्ड में सरकारें एक्षन मोड में दिख रही हैं। पंजाब भी इससे अछूता नहीं है साथ ही गोवा और मणिपुर भी रसूख के अनुपात में पटरी पर दौड़ने की कोषिष कर रहे हैं। वैसे यह षब्द इतना उचित तो नहीं है पर यह कहना अनुचित भी तो नहीं है कि उत्तर प्रदेष एवं उत्तराखण्ड में बनी भाजपा की सरकार आपसी रेस में हैं कि कौन विकास की पगडण्डी को तुलनात्मक चिकना और जनता की आंखों में उतराये सपनों को साकार कर पाती है। जिस प्रकार प्रधानमंत्री मोदी का प्रभाव इन राज्यों पर है उससे भी यह लाज़मी है कि भ्रश्टाचार से निपटते हुए कानून व्यवस्था को पटरी पर लाना साथ ही विकास के चक्के को चप्पे-चप्पे तक घुमा देना बड़ी चुनौती तो है। जिस उत्तर प्रदेष की जनता ने 403 के मुकाबले 325 सीट एक दल को ही दे दिया हो और जिस उत्तराखण्ड ने 70 सीट की तुलना में 57 स्थान भाजपा को ही दे दिये हों। ऐसे में साबित करने का दबाव क्रमषः योगी एवं त्रिवेन्द्र रावत पर होना स्वाभाविक है। 
बात सबसे बड़े प्रदेष उत्तर प्रदेष की हो तो विकास की आस भी कहीं अधिक चैडी देखी जा सकती है। हालात पर गौर किया जाय तो स्थिति काफी बिगड़ी अवस्था में है। उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार यहां सर्वाधिक हत्या, हत्या के प्रयास, अपहरण, डकैती, दुश्कर्म, दंगे और फिरौती के मामले दर्ज किये जाते हैं। इसकी संवेदनषीलता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि एक लाख की आबादी पर यहां आपराधिक मामलों का आंकड़ा 112 तक पहुंच गया है। इन आंकड़ों के इतर भी सच्चाई हो सकती है जो इससे भी कहीं ज्यादा भयावह हो सकती है। इसके अलावा बेरोजगारी और गरीबी का आलम यह है कि पीएचडी किये हुए लोग चपरासी की नौकरी के लिए आवेदन कर रहे हैं। 400 चपरासी की भर्ती के लिए 23 लाख ने आवेदन किया था जिसमें 50 से अधिक पीएचडी धारक भी थे। भर्तियों में भी घोटालों की खूब बू आती रही है। कई भर्तियां अदालत की चैखट के बगैर अंतिम परिणाम तक नहीं पहुंच पाई। राजनीति का ऐसा लब्बोलुआब कि जाति और धर्म साधने के चलते सिस्टम के साथ ही बड़ा खिलवाड़ हो चुका है। षिक्षकों की भर्ती को लेकर योग्यता के मानक आज भी समुचित तरीके से निर्धारित करने में सफलता नहीं मिली है। युवाओं के देष भारत में युवा ही भटका हुआ है और बात उत्तर प्रदेष की हो तो यहां भटकाव सर्वाधिक होना लाज़मी है क्योंकि 125 करोड़ के देष में 25 करोड़ यहीं से हैं। औसत और अनुपात भी यह दर्षाता है कि योगी सरकार पांच साल दिन दूनी रात चैगुनी की तर्ज पर हर किसी के लिए काम करें तो भी परेषानी का कोई न कोई सिरा छूट ही जायेगा। आंकड़ों पर नजर डालें तो नौकरषाही का प्रदर्षन भी तुलनात्मक संतोशजनक नहीं है। झूठ-मूठ का पीठ थपथपाना षायद किसी को भाता हो पर सच्चाई यह है कि नौकरषाहों ने भी जनता की नीतियों के साथ न्याय नहीं किया है। जिस जनतंत्र में जनता को मालिक होने का रूतबा मिला है उसी के हिस्से में परेषानियों का अम्बार भी आया है। पिछले पांच वर्शों के दौरान राज्य की सकल पूंजी निर्माण में भारी कमी रही है। प्रत्यक्ष विदेषी निवेष तो 2.5 अरब डाॅलर ही हुआ है जो देष की कुल एफडीआई का मात्र 0.2 फीसदी ही है। हैरत तो यह भी है कि गाज़ियाबाद से लेकर नोएडा, ग्रेटर नोएडा कुछ अन्य सघन क्षेत्र उत्तर प्रदेष के हिस्से हैं पर प्रदर्षन अनुपात में पीछे है। कमाल तो यह है कि यदि इन क्षेत्रों को हटा दें तो उत्तर प्रदेष की कूबत और घट जाती है। 
माफियाओं का अम्बार होना यहां अब हैरत में नहीं डालता है। बेषक योगी एक दबंग मुख्यमंत्री के तौर पर स्वयं को पेष कर रहे हैं और उनका दबाव भी देखा जा रहा है। उन्होंने कहा है कि अपराधी उत्तर प्रदेष छोड़कर चले जायें चेतावनी कड़ी है पर नतीजों पर नज़र रहेगी। बरसों पहले कहीं पढ़ने को मिला है कि जब समाज चैतरफा मुसीबत से गुजरता है तो संत ही सत्ता पर काबिज होकर व्याप्त समस्याओं से छुटकारा दिलाता है तो क्या यह मान लिया जाय कि उत्तर प्रदेष इसी दौर से गुजर रहा है और योगी वही संत हैं जो सब कुछ पटरी पर ला देंगे। इसमें कोई दो राय नहीं कि केन्द्रीय नेतृत्व ने योगी को बागडोर देकर दूर की चाल चली है। सियासत का यह भी मजनून रहा है कि पूरे दम से प्रहार करो ताकि उसका स्पर्ष अन्तिम व्यक्ति तक पहुंचे। अगर राज्य में आर्थिक गतिविधियों पर नजर डालें तो काफी निराषाजनक प्रतिबिंब उभरता है। बात केवल कानून व्यवस्था, अपराध को रोकने, भ्रश्टाचार को समाप्त करने या फिर बेलगाम व्यवस्था को पटरी पर लाना मात्र ही नहीं है। इतनी भारी-भरकम सरकार को जनता के लिए सुगम रास्ते और उनके जीवन को कठिनाईयों से बाहर निकालना बड़ी चुनौती है। जाहिर है इसके लिए बहुतायत में संसाधनों की आवष्यकता पड़ेगी पर उत्तर प्रदेष में इसका घोर आभाव है। पांच वर्शों में जीडीपी की वृद्धि केवल 5.9 रही है। एक तरह से यह अवलोकन इषारा करता है कि अर्थव्यवस्था व्याधि से जकड़ी हुई है। रही बात विकास की तो यह बुनियादी समस्याओं को हल करने के मामले में निहायत कमजोर है। 22 करोड़ से अधिक आबादी वाले उत्तर प्रदेष में तरक्की का कीर्तिमान तो अब योगी को ही हासिल करना है। विजन डाॅक्यूमेंट से लेकर चुनावी एजेण्डे में जो-जो वायदे किये गये हैं उन सभी का हिसाब देने की उल्टी गिनती षुरू हो गयी है। 
उत्तराखण्ड में त्रिवेन्द्र रावत ने सत्ता संभालते ही जिस तरह हाईवे के लिए भूमि अधिग्रहण के मसले में मुआवज़े के घपले को देखते हुए फटाफट कदम उठाये हैं उससे इस छोटे से पहाड़ी प्रान्त में कुछ होने की उम्मीद तो जगी है। इस मामले को सीबीआई के हवाले कर दिया गया है और राज्य में कार्यरत छः अधिकारियों पर निलंबन की गाज भी गिरी है। ऐसा उत्तराखण्ड के सोलह साल के इतिहास में कभी नहीं हुआ। इससे यह भी पता चलता है कि इतने ही सालों में प्रदेष खोखला भी हुआ है। 13 जिलों वाले इस प्रदेष में 9 जिले बिल्कुल पहाड़ी हैं जहां का जीवन कठिनाईयों से भरा है और समस्याओं का तो यहां अम्बार है। षिक्षा, चिकित्सा, परिवहन, संचार तथा अन्य बुनियादी समस्याएं यहां की नियती में षामिल हैं। जाहिर है कि अब तक के चार चुनावों में इतना बम्पर सीटों के साथ पहली बार सरकार बनी है। उम्मीदों पर खरा भी उतरना है और मजबूत सरकार होने का दावा भी साबित करना है। फिलहाल जिस तर्ज पर उत्तर प्रदेष और उत्तराखण्ड में कार्य को लेकर कदम उठाये जा रहे हैं उससे यह संकेत तो है कि भ्रश्टाचार को लेकर ज़ीरो टाॅलरेंस की कसम खाने वाली भाजपा सौ फीसदी विकास को भी मुकाम देगी पर इसकी पड़ताल तो आने वाले दिनों में ही सम्भव हो पायेगी और यह भी साफ हो जायेगा कि अकूत बहुमत वाली सरकारों के पास मतदाताओं को देने के लिए क्या होता है।

सुशील कुमार सिंह


No comments:

Post a Comment