Tuesday, March 7, 2017

विकसित देश पर नस्लवाद का साया

संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान की उद्देषिका में कहा गया है कि यह संविधान संयुक्त राज्य की जनता ने तैयार किया है। कमोबेष यह स्थिति भारत से हुबहू मिलती जुलती है पर एक चीज में फर्क है कि अमेरिका नस्लवाद से मुक्त नहीं है जबकि भारत नस्लीय हिंसा से कभी युक्त ही नहीं था। हालांकि औपनिवेषिक काल में अंग्रेजों के दमन के षिकार हम भारतीय जरूर थे पर स्वतंत्रता के बाद हर तरह से मुक्ति पा ली। 26 जनवरी, 1950 का भारतीय संविधान सभी की जवाबदेही न केवल तय किया बल्कि अधिकार और सत्ता के साथ हर नागरिक को मजबूती प्रदान की। देखा जाय तो अमेरिका और भारत दोनों गणतंत्रात्मक अवधारणा से युक्त हैं परन्तु जिस भांति अमेरिका में भाईचारा खतरे में जाता दिख रहा है उससे साफ है कि बहुत कुछ इस मामले में भारत उसको सिखा सकता है। विविधताओं से भरा भारत कैसे दुनिया के लिए एकता का मिसाल है इस पर भी अमेरिका के नस्लीय हिंसकों को एक बार गौर फरमा लेना चाहिए। फिलहाल 1789 में अमेरिकी संविधान की जब नींव डाली गयी तब अमेरिका विकास के पथ पर चल पड़ा और इसी संविधान से उसे सब कुछ प्राप्त करना था। इसीलिए अमेरिकी संविधान को एक आर्थिक दस्तावेज के रूप में भी पहचान मिली है। समय बदला, परिस्थितियां बदली और जाॅर्ज वांषिंगटन से लेकर डोनाल्ड ट्रंप तक कोई एक बार तो कोई दो बार सत्ता हांकते हुए 45 अमेरिकी नागरिक राश्ट्रपति बने। मौजूदा समय में डोनाल्ड ट्रंप बीते 20 जनवरी से व्हाइट हाऊस में निवास कर रहे हैं पर उनके ताबड़तोड़ फैसलों ने कईयों के लिए न केवल बेचैनी पैदा की है बल्कि भारतीयों के लिए तो अमेरिका जान लेवा साबित हो रहा है। पिछले एक पखवाड़े के अंदर भारतीयों पर तीन हमले हो चुके हैं। घटना के बाद भय होना लाज़मी है। ताजा घटना यह है कि एक सिक्ख युवक को 5 मार्च को न्यूयाॅर्क में गोली मारी गयी। गोली मारने से पहले यह कहना कि मेरा देष छोड़कर अपने देष चले जाओ। इस प्रकार की जोर जबरदस्ती से साफ है कि बरसों से नस्लवाद से जूझने वाला अमेरिका आज भी इस मनोविज्ञान से उबरा नहीं है। इसके पहले 22 फरवरी को भारतीय इंजीनियर श्रीनिवास की हत्या और साथी इंजीनियर आलोक मदसाणी पर जानलेवा हमला और इसी दिन न्यूयाॅर्क के मेट्रो ट्रेन में भारत की एक लड़की एकता देसाई को यह कहते हुए बदसलूकी करना कि अपने देष वापस जाओ। घटनाओं की फेहरिस्त और भी लम्बी है, भले ही इन घटनाओं को अमेरिकी राश्ट्रपति या वहां की वैधानिक सत्ता बहुत बड़े रूप में न देख रही हो पर इस पर लगाम न लगने की स्थिति में न केवल नस्लीय हिंसा को बढ़ावा मिल सकता है बल्कि अमेरिका की कानून-व्यवस्था को भी संघर्श करना पड़ सकता है। इसके अलावा भारत-अमेरिका सम्बंध भी उथल-पुथल के दौर में जा सकते हैं। 
भारत और अमेरिका दोनों एक ऐसे विष्व की परिकल्पना करते हैं जो आतंक और नस्लवाद विहीन हों पर हमले ऐसी सोच पर भी करारी चोट कर रहे हैं। डोनाल्ड ट्रंप का अमेरिकी राश्ट्रपति के तौर पर षपथ लेने के बाद सात मुस्लिम देषों पर प्रतिबंध और पाकिस्तान के मामले में सख्त रूख अख्तियार करना इस बात का संकेत है कि आतंक को उकसाने वाले या षरण देने वालों की खैर नहीं। गौरतलब है कि भारत-अमेरिका सम्बंधों में काफी प्रगाढ़ता इन दिनों देखी जा सकती है। वर्श 2015 के गणतंत्र दिवस पर पहली बार किसी अमेरिकी राश्ट्रपति का मुख्य अतिथि बनना सम्बंधों की मजबूती के लिहाज़ से एक परिपक्व कूटनीति कही जायेगी और जिस तर्ज पर बराक ओबामा और मोदी के बीच सम्बंध परवान चढ़े, अलग-अलग मंचों पर मुलाकातों का सिलसिला चला उससे भी वैष्विक परिदृष्य में भारत काफी उभार ले लिया। बावजूद इसके भारत को आतंक से जूझने से फुर्सत नहीं मिली। पड़ोसी पाकिस्तान और उससे आयातित आतंकियों ने भारत को दम नहीं लेने दिया। चीन से लेकर रूस तक भारत की कूटनीति बहुत संतुलित भी नहीं रही। वक्त के साथ रूस का झुकाव पाक की ओर भी हुआ पर एक सच्चाई यह भी है कि अमेरिका का धुर विरोधी रूस भारत का स्वाभाविक मित्र है और दोनों के बीच संयमित दोस्ती बनाना भारत की बड़ी योग्यता रही है। फिलहाल जिस नक्षे कदम पर ट्रंप चहल-कदमी कर रहे हैं उससे तो यही लगता है कि भारत को नये सिरे से अमेरिकी सम्बंधों को फिर से खंगालना पड़ सकता है। यह बात तब और महत्वपूर्ण हो जाती है जब अमेरिका में भारतीय नस्लभेद ही नहीं मौत से भरी हिंसा झेल रहे हों। विदेष सचिव एस. जयषंकर का यह कहना कि ट्रंप प्रषासन का भारत-अमेरिकी सम्बंधों को लेकर काफी सकारात्मक दृश्टिकोण है और सम्बंधों को आगे ले जाने में काफी रूचि है। इतना अखरने वाला बयान तो नहीं है पर ट्रंप के क्रियाकलाप पर ही बहुत कुछ निर्भर करेगा।
अमेरिका में राश्ट्रपति चुनाव के दौरान भी ट्रंप प्रधानमंत्री मोदी से प्रभावित दिख रहे थे। उन्होंने मोदी की कुछ नीतियों को अमेरिका में लागू करने की बात भी कही थी पर यह बात चुनावी जुमला भी हो सकता है। असल बात तो यह है कि विज्ञान, तकनीक, षिक्षा और रोज़गार समेत अन्यों के मामले में जो आदान-प्रदान दोनों देषों के बीच होता रहा है क्या अब वह पहले जैसा रहेगा। आतंकी देषों पर प्रतिबंध और आईएसआईएस जैसे आतंकी संगठन को उखाड़ फेंकने का मनसूबा रखना अच्छा है। रूस को इस मामले में साथ लेना भी अच्छा है परन्तु देष के अन्दर नस्लवाद को अवसर देना कत्तई अच्छा नहीं कहा जायेगा। चीन की नीतियों को भी ट्रंप अधमने ढंग से मानो सहमति दे रहे हों। रूस से दोस्ती का हाथ तो लगभग वे बढ़ा ही चुके हैं। जाहिर है कि दषकों से एक-दूसरे को फूटी आंख न भाने वाले देष समीप आ रहे हैं। ऐसा होना ठीक भी है पर कूटनीति कहती है कि राजनीति को व्यापार की तरह नहीं हांकना चाहिए बल्कि व्यापार की आड़ में कूटनीति को चलाया जाता है। इस फर्क को भी षायद डोनाल्ड ट्रंप को बेहतरी से समझना होगा। अब तक के राश्ट्रपतियों में सबसे उम्रदराज डोनाल्ड ट्रंप कितने सक्रिय हैं तथा कितने आवेष से भरे हैं इसकी पूरी पड़ताल करना अभी सम्भव नहीं है पर नीतियों के आगाज़ से यह धारणा आम होने लगी है कि विष्व का परिदृष्य अलग रूख जरूर अख्तियार करेगा। देखा जाय तो भारत और चीन के बीच लगभग छः दषकों से कभी भी आपसी विष्वास पैदा नहीं हुआ। उसकी बड़ी वजह 1962 में चीन का विष्वासघात और विष्व में पसरी कूटनीति ही रही है। इतना ही नहीं आतंकियों का षरणगाह पाक के साथ उसकी दोस्ती और आतंकियों को उसके द्वारा दिये जाने वाली सुरक्षा  भी एक वजह है। लखवी से लेकर अज़हर मसूद तक को उसने राश्ट्रीय सुरक्षा परिशद् में वीटो करके बचाने का काम किया है। 
एमटीसीआर में सदस्य बनने वाला भारत और एनएसजी को लेकर अमेरिका के पूर्व राश्ट्रपति बराक ओबामा द्वारा जी-तोड़ कोषिष करना दोनों देषों की फलक की कूटनीति का उदाहरण है। ऐसा भी रहा है कि भारत का अमेरिका से सम्बंध डेमोक्रेटिक पार्टियों के राश्ट्रपतियों से रिपब्लिकन पार्टियों की तुलना में अधिक सहज रहा है। बिल क्लिंटन (डेमोक्रेटिक) और जाॅर्ज डब्ल्यू बुष (रिपब्लिकन) से अंदाजा लगाना आसान है। यही बराक ओबामा (डेमोक्रेटिक) के मामले में भी देखा जा सकता है। इस समय डोनाल्ड ट्रंप रिपब्लिकन पार्टी से हैं साफ है कि बात षायद वैसी न रह पाये। हालांकि यह पूरा सच नहीं है परन्तु इतिहास कुछ इस तरह से इषारा करते हैं। भारत सरकार की ओर से भारतीयों पर अमेरिका में हो रहे हमले को लेकर अभी कोई ठोस कदम उठते हुए नहीं दिख रहा है। उसके पीछे भारत की विधानसभा में प्रधानमंत्री समेत कईयों का व्यस्त होना भी हो सकता है परन्तु ध्यान रहे कि नस्लीय हिंसा से दषकों की कूटनीति को कीमत चुकानी पड़ती है। अमेरिका को यह तसल्ली से समझ लेना चाहिए कि अपने देष में जो मर्जी हो करें पर उसकी कीमत भारतीय क्यों चुकायें। 

सुशील कुमार सिंह


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