Monday, February 20, 2017

प्रजातंत्र में प्रजा का प्रतिवाद

अगर हम लोग जनता में प्रजातांत्रिक भावना भरना चाहते हैं और अगर हम चाहते हैं कि अपने मामले का प्रबंध और आर्थिक जीवन को स्वयं व्यवस्थित करें तो हम पर ही यह निर्भर करता है कि हम उन्हें सरकार की आर्थिक नीतियों को अमल में लाने लायक बनायें। इस विचार में निहित भावना को परखें तो एक कठोर सच्चाई आंखों के सामने उतरा जाती है। उपरोक्त के प्रकाष में यह भी साफ है कि सरकार से पहले जनता को ताकतवर बनाया जाय तो मौजूदा तस्वीर बदल सकती है परन्तु सच्चाई यह है कि इसका जिम्मा भी सरकार के ऊपर ही है। वर्तमान में यह कहने का साहस कम ही लोगों में होगा कि सरकार जैसी व्यवस्था की जनता को आवष्यकता नहीं पड़नी चाहिए पर यह कहना आम है कि सरकार ही माई-बाप है परन्तु यह भी समझना सही होगा कि माई-बाप होने का हक उन्हें भूखी-प्यासी प्रजा ही देती है। दो टूक यह भी है कि सत्ता के झांसे में प्रजा हमेषा आती रही है पर कोई भी सरकार ईमानदारी से यह बात नहीं कह सकती कि जिस नाते उन्हें सरकार होने का गौरव मिला था उस पर वे सौ फीसदी खरे उतरे हैं। चुनावी वातावरण में सभी दल एक-दूसरे से बड़ी लकीर खींचने की होड़ में रहते हैं परन्तु जिस प्रजा से हाथ जोड़कर षालीनता से वोट मांगते हैं उनकी दुष्वारियां क्यों नहीं दूर हो रही है भला इसकी फिक्र आखिर किसे है। यह निष्चित बात है कि नीतियां समय के साथ उलटती-पलटती रहती हैं। तकलीफों को लेकर नित-नये नियोजन बनते बिगड़ते रहते हैं परन्तु किसी जिम्मेदार मंत्री या प्रधानमंत्री के लिए पूरा काम न कर पाना क्या किये गये वायदे की खिलाफी नहीं कही जानी चाहिए। जिस प्रजा से पांच साल के लिए सत्ता आती है उस प्रजा का प्रतिवाद कितना व्यापक और बड़ा होता है इसका पता सत्ताधारियों को चुनाव के समय ही चलता है। चुनाव के दौरान सब कहते हैं कि सरकार हमारी बनेगी। इससे बेखौफ कि सत्ता निर्माण करने वाली प्रजा ने ईवीएम का कौन सा बटन ज्यादा दबाया है। इसमें कोई दो राय नहीं कि कुछ राज्यों में प्रजा का प्रतिवाद ईवीएम के माध्यम से आ चुका है तो कुछ में आ रहा है जिसका खुलासा 11 मार्च को हो जायेगा। 
जैसा कि विदित है कि मौजूदा समय में उत्तर प्रदेष, उत्तराखण्ड तथा पंजाब समेत पांच राज्यों की विधानसभा चुनावी समर में है जिसमें उत्तराखण्ड, पंजाब और गोवा में मतदान सम्पन्न हो चुका हैं जबकि उत्तर प्रदेष में सात चरणों में सम्पन्न होने वाले मतदान का तीन चरण पूरा हो चुका है। कहा जाय तो यूपी भी सियासत का आधा रास्ता तय कर चुका है। इसके साथ ही दो चरणों में सम्पन्न होने वाले पूर्वोत्तर के एक मात्र राज्य मणिपुर में मतदान 4 और 8 मार्च को होगा। यहीं से सभी राज्यों की मतदान प्रक्रिया समाप्त हो जायेगी तत्पष्चात् 11 मार्च को नतीजे घोशित होंगे और जनता ने किसे अवसर दिया है और किसका मौका छीना है। इसका भी पता चल जायेगा। गौरतलब है कि उत्तर प्रदेष उपरोक्त चुनावी राज्यों में न केवल भारी-भरकम है बल्कि राजनीति का हर समझदार एवं गैर-समझदार व्यक्ति इस पर नजरें भी गड़ाये हुए है। अब तक हुए मतदान में वोट प्रतिषत 60 फीसदी से ऊपर ही रहा है। साफ है कि प्रजातंत्र में प्रजा का प्रतिवाद सत्ता निर्माण की दिषा में काफी आवेष लिये हुए है। हालांकि उत्तराखण्ड जैसे छोटे प्रान्त में वोट प्रतिषत 70 फीसदी के आस-पास रहा जबकि पंजाब और गोवा में वोट प्रतिषत तो इससे भी कहीं ऊपर उछाल मार रहा है। उत्तर प्रदेष का रोचक पहलू यह भी है कि भाजपा सत्ता हथियाने को लेकर निहायत आतुर है जबकि सपा और कांग्रेस का गठबंधन इन्हें चुनौती देने की पूरी जुगत भिड़ा रहा है। मायावती की बहुजन समाज पार्टी भी इस होड़ से बाहर नहीं कही जा सकती परन्तु पहले जैसी बात फिलहाल नहीं दिखाई देती। प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित षाह क्रमिक तौर पर चुनावी रैलियों में विरोधियों पर षब्दों का बाण चला रहे हैं और विरोधी भी नफे-नुकसान को माप-तौल कर अपने षब्दों का बाण छोड़ रहे हैं। चुनावी पचपच में विचार इतने पिलपिले हो गये हैं कि सारी मर्यादायें भी चकनाचूर हो रही हैं। मसलन रावण, आतंकवादी जैसे षब्द भी प्रयोग में देखे जा सकते हैं। हालांकि इस आरोप से प्रधानमंत्री मोदी को वाॅक ओवर नहीं दिया जा सकता कि उन्होंने प्रधानमंत्री की गरिमा को चुनाव में उसी भांति बरकरार रखा है जिस प्रकार राहुल गांधी, अखिलेष यादव और कुछ हद तक मायावती पर उनका तंज रहता है उससे साफ है कि सियासत के ऊंच-नीच से वे भी अन्यों की तरह दो-चार में फंसे हैं।
इस सच्चाई को भी समझना ठीक होगा कि धर्म और जाति की तुश्टिकरण वाली राजनीति से उत्तर प्रदेष कभी अछूता नहीं रहा। इस बार भी यहां यह मामला सर चढ़कर बोल रहा है। 97 मुस्लिम चेहरों को उतार कर बसपा ने मुस्लिम कार्ड खेला है तो भाजपा ने 403 विधानसभा सीटों के मुकाबले एक भी मुसलमान को टिकट न देकर यह जता दिया है कि वह फिलहाल मुस्लिम वोट की दरकार नहीं रखती जबकि प्रधानमंत्री मोदी सबका साथ, सबका विकास की बात दोहराने से नहीं चूकते हैं। उत्तर प्रदेष में ताजा सम्बोधन के तहत जिस प्रकार कब्रिस्तान और षमषान तथा ईद और दिवाली की तुलना मोदी ने किया और बिजली से जुड़े मुद्दे छेड़े उससे साफ है कि धार्मिक संवेदनायें उधेड़ कर वे भी मुसलमानों के हितैशी होने का सबूत देना चाहते हैं साथ ही इसे सत्ता हथियाने की जुगत के तौर पर भी देखा जा सकता है। गौरतलब है कि भले ही इस बार एक भी मुस्लिम चेहरा भाजपा में न हो परन्तु पिछले चुनाव में 11 फीसदी मुसलमानों का वोट इन्हें भी मिला था। जाहिर है कि समुदाय विषेश में कुछ वर्गों का मत भाजपा को जाता है। हालांकि इस बार सपा, कांग्रेस गठबंधन के साथ बसपा की तीक्ष्ण नजर मुस्लिम वोटों पर है। यह भी आम रहा है कि मुस्लिम मतदाताओं की ये दोनों तीनों पार्टियां हमेषा चहेती रही हैं पर इस बार इनका झुकाव किस ओर होगा राय बंटी हुई है। हालांकि यह माना जाता है कि जो भाजपा को हरायेगा मुस्लिम उसी को वोट दे देगा। इसे भाजपा के विरोध में माने या अन्य के पक्ष में परन्तु खास यह है कि मुस्लिम मतदाताओं का प्रतिवाद भाजपा के साथ हमेषा रहा है। 
बीते तीन दषकों के राजनीतिक इतिहास को उठा कर देखें तो कांग्रेस के अलावा उत्तर प्रदेष में सभी ने राज किया परन्तु इस प्रदेष की विडम्बना यह रही कि कानून और व्यवस्था हमेषा हाषिये पर रहा चाहे भाजपा की सरकार रही हो या सपा, बसपा की, किसी के पकड़ में इसकी नब्ज़ नहीं आयी। साफ है कि उत्तर प्रदेष की सियासत में केवल विकास ही मुद्दा नहीं है बल्कि जाति और धर्म के साथ कानून और व्यवस्था के चलते यहां वोट बंटे हुए दिखाई देते हैं। सत्ता के मद में कोई भी कैसा भी वाद तैयार क्यों न कर ले पर सच्चाई यह है कि जब चुनावी समर में जनता प्रतिवाद करती है और पलटवार करती है तो सूरमे भी धराषाही होते हैं। इसमें कोई षक नहीं कि अखिलेष यादव को अपनी सत्ता बचाने के लिए लड़ाई लड़नी है। राहुल गांधी को अपना वजूद बनाये रखने के लिए दो-दो हाथ करना है। मायावती को सत्ता की चाषनी का एक बार फिर स्वाद लेना है जबकि भाजपा को न केवल उत्तर प्रदेष की सत्ता चाहिए बल्कि इसके रास्ते उसे राज्यसभा में संख्याबल को मजबूत करने और आगामी जून-जुलाई में राश्ट्रपति और उपराश्ट्रपति पद पर मनचाही षख्सियत को पहुंचाने की जद्दोजहद दिखाई देती है। सबके बावजूद एक बड़ा सच यह भी है कि उत्तर प्रदेष की आड़ में हर पार्टी अपना भविश्य चमकाना चाहती है। 


सुशील कुमार सिंह


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