Tuesday, February 28, 2017

संविधान की आवाज़ और हमारे बोल

पुस्तक पढ़ने के शौक के चलते नये विचारों से टकराहट होना लाज़मी है और जब किताबें पढ़ना शौक  हो तो विमर्श और विशदीकरण  मन में मन भर-भर के आते हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय  के रामजस काॅलेज में इन दिनों जो विमर्श फूटा वह भी मन के रडार पर आया। असल में कुछ समय पहले की बात है एक पुस्तक जिसका शीर्षक देश की बात है के अध्ययन के दौरान एक अध्याय पढ़ने को मिला जो निहायत रोचक था जिसका षीर्शक मानसिक अवनति है। पुस्तक को नेषनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाषित किया गया है एवं इसके लेखक सखाराम गणेष देउस्कर हैं। चैप्टर की षुरूआत में लिखा है कि भारतवासी दिन-दिन कंगाल हुए जाते हैं। खराब पदार्थ खाने और अति परिश्रम करने के कारण वे एकदम दुबले-पतले और हीन बुद्धि के हो जाते हैं। ऐसे समय में इस बात की आषा करना की धर्मनीति के सम्बंध में उनकी उन्नति हो रही है तो यह केवल पागलपन है। जब मैं दिल्ली में रामजस काॅलेज की घटना को षिद्दत से पड़ताल की तो यह समझने की कोषिष की कि क्या उक्त पुस्तक में लिखी बात और मौजूदा घटना का कोई सम्बंध है। बेषक बातें हू-ब-हू नहीं हैं पर बहुत इतर भी नहीं प्रतीत हुई। देष के नामचीन विष्वविद्यालय या उनके महाविद्यालय इन दिनों किस दौर से गुजर रहे हैं या षिक्षा ग्रहण कर रही पीढ़ियां किस विमर्ष के साथ आगे बढ़ रही हैं इस पर मंथन तो जरूरी है साथ ही संविधान की आवाज़ को भी यहां जोड़ दें तो स्वतंत्रता की सीमा नहीं है। यहां तक कि बोलने के मामले में तो यह आर-पार की बात करता है पर क्या यह बेलगाम है। ऐसा समझने वाले या तो संविधान को ठीक से नहीं जानते या जान-बूझकर अबूझ बनते हैं। 
 इस बात पर भी गौर कर लेना ठीक रहेगा कि संविधान बड़े खुले मन का है और सबको जगह देता है पर इस बात से भी परहेज नहीं किया जा सकता कि स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति के बेजा होने से न केवल परिणाम खराब होंगे बल्कि लोग भी अनुत्पादक कहे जायेंगे। वे चाहे किसी भी विष्वविद्यालय के छात्र हों, प्रोफेसर हों या फिर बौद्धिक सम्पदा ही क्यों न हो। इतना ही नहीं असहिश्णुता का अलग से एक वातारण भी समय के साथ विकसित हो जाता है जैसा कि बीते कुछ समय से देष में आये दिन व्याप्त हो जाता है। इस बात को भी नहीं भूलना चाहिए कि यदि हम ज्ञान के क्षेत्र में आगे रहना चाहते हैं तो छोटी-छोटी बातों को तिल का ताड़ न बनायें और इसे किसी बवंडर का षिकार न होने दें मगर जवाहर लाल नेहरू विष्वविद्यालय जैसे बौद्धिक सम्पदा से युक्त प्रांगण में यदि देष की एकता और अखण्डता को बेजार करने की कोषिष की जायेगी तो इसे मानसिक अवनति का षिकार ही माना जायेगा और यदि ऐसा बढ़ता गया तो देष के लिए किसी अनहोनी से कम नहीं होगा। इस बात को षिद्दत से समझना और नतीजे तक पहुंचना कि रामजस काॅलेज में जो कुछ हुआ वह कितना प्रभावषाली कहा जायेगा समय पर छोड़ दें तो बेहतर होगा पर इस बात पर भी अमल होना चाहिए कि किसी संगठन विषेश को प्रांगण में उत्पात मचाने का कोई लाइसेंस नहीं मिला है और न ही उन्हें राश्ट्रवाद की कताई-बुनाई की ड्यूटी दी गयी है बावजूद इसके ऐसे संगठनों के चलते ही अच्छे और बुरे के बीच हो रहे विमर्ष संज्ञान में तो आते ही हैं। जाहिर है कि चेहरे पर लगा दाग हर सूरत में छुपाया नहीं जा सकता। उमर खालिद का आमंत्रण रद्द करना गैर वाजिब कहना तो मुष्किल है। गौरतलब है कि बीते वर्श जवाहर लाल नेहरू विष्वविद्यालय के छात्र उमर खालिद उस मामले का आरोपी माना जाता है जिसने भारत के हजार टुकड़े और कष्मीर की आजादी के नारों में अपनी आवाज़ बुलन्द करने के साथ ही संसद हमले के दोशी आतंकी अफज़ल गुरू के समर्थन में एक कार्यक्रम आयोजित करने का आरोप है जिसने बाद में आत्म समर्पण किया था। इसी इतिहास को देखते हुए उमर खालिद की उपस्थिति को रामजस काॅलेज ने खारिज कर दिया जो एक सेमिनार में सम्बोधन करने वाला था। खास यह भी है कि एबीवीपी और छात्रसंघ के हिंसक विरोध के चलते यह आमंत्रण रद्द हुआ था।
बीते कुछ वर्शों से देखा जा रहा है कि देष के बौद्धिक सम्पदा केन्द्र मसलन विष्वविद्यालय, महाविद्यालय आदि में विमर्ष की दिषा और दषा उत्तर और दक्षिण को अख्तियार करती जा रही है। ऐसे में प्रांगण के अंदर क्या पक रहा है, कितना पक रहा है और क्या ऐसे खतरनाक पदार्थों को पकना चाहिए इस पर भी गौर करना तर्कसंगत कहा जायेगा। वामपंथ और दक्षिणपंथ की विचारधारा की टकराहट से भी प्रांगण अब खाली नहीं है। समझने वाली बात यह भी है कि जेएनयू के घटनाक्रम का अहम किरदार उमर खालिद को आखिर रामजस काॅलेज के सेमिनार में निमंत्रित ही क्यों किया गया। सूझबूझ से भरे लोगों का यह मानना रहा है कि इतिहास से हम सबक लेते हैं फिर उस व्यक्ति को यहां क्यों आमंत्रित किया गया जो अफज़ल के कातिलों के जिंदा होने पर षर्मिन्दगी महसूस करता है जिसे भारत के टुकड़े होना पसंद है। क्या बुलाने वाले मानसिक अवनति के षिकार कहे जायेंगे। स्थिति को देखते हुए काॅलेज ने मामले से पल्ला झाड़ने के लिए भले ही आमंत्रण रद्द कर दिया हो पर कैम्पस के अन्दर जो आग लगी उसका क्या! जिस विचारों से परिसर बनते हैं और जिनसे बिगड़ते हैं उसके फर्क को समझने में इतनी देर क्यों लगी। देखा जाय तो छात्र संगठन भी कई विचारधाराओं में बंटे हैं। वामपंथ और दक्षिणपंथ की अवधारणा से ये भी अछूते नहीं। हाल यहां तक बिगड़ गया है कि बुद्धिमानों की बुद्धि को लेकर चिंता बढ़ गयी है। जब भी हम राश्ट्रवाद को नया रंग-रूप देने की कोषिष करते हैं तो कईयों की छाती पर सांप इसलिए लोटता है कि उन्हें खराब इतिहास खाने-पचाने की आदत है। स्वतंत्रता के पहले भी अच्छे और खराब इतिहास का वर्णन देखा जा सकता है। उन दिनों के इतिहास को पढ़ने से बुखार आज भी कम ज्यादा होता है पर यह बात भी क्यों नहीं समझी जाती कि देष इतिहास से नहीं संविधान से चलता है और अगर अभिव्यक्ति की आजादी है तो बेतुकी होने पर उसके निर्बन्धन का भी प्रावधान उसी संविधान में निहित है। इतना ही नहीं भारतीय दण्ड संहिता में निहित धाराओं के तहत आपराधिक संदर्भों के अन्तर्गत आने पर जेल में भी डालने का प्रावधान है। 
संविधान एक रास्ता है, मंजिल तो नागरिकों को खुद-ब-खुद बनाना है पर कई हैं कि भटके रास्ते से मंजिल अख्तियार करना चाहते हैं। एक षहीद की बेटी का यह कहना कि उसके पिता को युद्ध ने मारा है काफी अखरता है। सैनिक की पुत्री होने के नाते सम्मान में कोई कमी नहीं हो सकती पर इसका यह भी मतलब नहीं कि बेतुकी बातों को हम मान लें। प्रतिरोध की संस्कृति में कई अपनी लकीर बड़ी करने की फिराक में हैं पर वे ये भूल गये हैं कि सीमाओं में रहने की संस्कृति भी इसी देष की धरोहर है। विष्वविद्यालयों की जिस छात्र सक्रियता को राजनीति की पाठषाला होनी चाहिए थी वहां इन दिनों अषालीनता के बड़े-बड़े वृक्ष तैयार हो रहे हैं जो कहीं से वाजिब नहीं है। दुर्भाग्य है कि षैक्षिक परिसरों में चलने वाले वाद-विवाद अब सियासी झंझवातों में उलझते जा रहे हैं। हैदराबाद विष्वविद्यालय हो या जेएनयू या फिर मौजूदा समय में दिल्ली विष्वविद्यालय का रामजस काॅलेज ही क्यों न हो। सभी में उठे विवादों को राजनीतिक रंग भी खूब दिया गया। मौका परस्ती देख कर कोई समर्थन में तो कोई विरोध में खड़ा भी हुआ और सियासत के ऐसे मंचों से आदर्ष और आचरण की लड़ाई करने वाले राजनेता कब प्रतिरोध की नई संस्कृति की जमात में षामिल हो जाते हैं पता ही नहीं चलता।

सुशील कुमार सिंह

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