Friday, July 29, 2016

व्हाइट हाऊस की राह पर हिलेरी

व्हाइट हाऊस की राह पर हिलेरी
दुनिया के सर्वाधिक पुराने लोकतंत्र अमेरिका के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है जब व्हाइट हाऊस के लिए किसी महिला उम्मीदवार का चयन किया गया हो। 240 साल के इतिहास में और 44 राश्ट्रपति के चुनाव हो जाने तक अमेरिका में कोई महिला उम्मीदवार नहीं हो पाई पर हिलेरी क्लिंटन को उम्मीदवार बनाकर सैकड़ों बरस पुराने इस मिथक को अमेरिकियों ने तोड़ दिया है। निर्धारित तिथि के अनुसार इस वर्श के नवम्बर माह में राश्ट्रपति का चुनाव होना है जिसमें एक ओर रिपब्लिकन के डोनाल्ड ट्रंप तो दूसरी ओर डेमोक्रेटिक की ओर से हिलेरी क्लिंटन मैदान में होंगी। इस बार के चुनाव को काफी रोचक भी माना जा रहा है जिस प्रकार पिछले कुछ समय से उम्मीदवारी को लेकर दोनों की चर्चा है उसे देखते हुए साफ है कि सर्वाधिक षक्तिषाली देषों में षुमार अमेरिका पर दुनिया की नजर होगी। ग्रीस के नगर राज्यों से लेकर आज तक के प्रतिनिधियात्मक प्रजातंत्र ने एक लम्बा सफर तय किया है। षनैः षनैः इसी प्रजातंत्र ने एक व्यापक रूप भी धारण किया पर महिलाओं से युक्त आधी दुनिया प्रजातंत्र के इस खूबसूरत सफर में कम ही देखी गयी हैं। कार्यकारी प्रमुख के तौर पर महिला के मामले में अमेरिका में आज भी षून्यता बरकरार है पर इस बार इसकी भरपाई सम्भव दिखाई दे रही है। बता दें कि 2009 से 2013 तक अमेरिका की राज्य सचिव रह चुकी हिलेरी क्लिंटन बराक ओबामा के पहले कार्यकाल में विदेषी मंत्री भी रही हैं। अमेरिका के पूर्व राश्ट्रपति बिल क्लिंटन की पत्नी हिलेरी क्लिंटन उम्मीदवारी के दिनों से ही काफी मजबूती से आगे बढ़ रही थी। बीते 27 जुलाई को यह तय हो जाने के बाद कि डेमोक्रेटिक पार्टी की ओर से हिलेरी क्लिंटन उम्मीदवार होंगी अमेरिकी राश्ट्रपति के चुनाव की पूरी तस्वीर साफ हो गयी है। गौरतलब है कि वर्श 2008 में बराक ओबामा के पहली बार राश्ट्रपति बनने के दौर में भी इनकी उम्मीदवारी को लेकर महीनों तक चर्चा रही है। 
सब कुछ अनुकूल रहा तो सैकड़ों वर्श के लोकतंत्र को खर्च करने के बाद हिलेरी क्लिंटन के रूप में व्हाइट हाऊस को एक महिला राश्ट्रपति मिल सकता है। कहा जा रहा है कि हिलेरी षानदार राश्ट्रपति साबित होंगी। देष की पहली महिला राश्ट्रपति बनने की दावेदार हिलेरी का सामना 8 साल से सत्ता से विमुख रिपब्लिकन पार्टी के डोनाल्ड ट्रंप से होगा। अमेरिका एक विकसित देष है जिसकी ताकत विष्व भर में प्रबल मानी जाती है साथ ही तमाम बेहतरी के बावजूद महिला षासक देने से वह अभी तक चूकता रहा है। आने वाला चुनाव इस चूक से भी मुक्ति देने का काम कर सकता है। वर्श 1783 में औपनिवेषिक सत्ता से मुक्त होने वाले अमेरिका का संविधान 1789 में जब तैयार हुआ तो व्यस्क मताधिकार में महिलायें नहीं गिनी जाती थी। अमेरिका में 21 वर्श से ऊपर की महिलाओं को मत देने की अनुमति अमेरिकी संविधान के 19वें संषोधन (1920) द्वारा ही मिल पाई। देखा जाय तो इंग्लैण्ड में भी महिलाओं को मताधिकार से 1918 तक वंचित रखा गया था। फ्रांस की महिलाओं ने पहली बार 1945 में वोट दिया। इसके अलावा फिनलैण्ड, नार्वे, डेनमार्क समेत दुनिया के कई देष प्रजातंत्र की राह में महिलाओं के मामले में काफी संकुचित रहे हैं। करीब सौ साल के आस-पास में जो अमेरिका महिलाओं को मत देने से वंचित किया था वही आज सबसे षीर्श पद पर पहुंचाने के लिए व्याकुल है। इसे प्रजातंत्र की खूबसूरती ही कहा जायेगा और दौर का बदलाव भी। लोकतंत्र को बनाने में कूबत खर्च करनी पड़ती है, संवारने में लम्बा वक्त देना पड़ता है तब कहीं जाकर बेजोड़ प्रजातंत्र की अवधारणा मूर्त रूप लेती है। यदि 45वें राश्ट्रपति के तौर पर हिलेरी क्लिंटन व्हाइट हाऊस में प्रवेष करती हैं तो यह अमेरिकी लोकतंत्र के लिए नया इतिहास होगा। 
विगत् कुछ महीनों से यह भी सुर्खियों में है कि डोनाल्ड ट्रंप और हिलेरी क्लिंटन में कौन बेहतर राश्ट्रपति होगा। ट्रंप हिलेरी को राश्ट्रपति बनने लायक नहीं समझते जबकि मौजूदा अमेरिकी राश्ट्रपति हिलेरी को सबसे योग्य मानते हैं। ओबामा ने साफ कहा है कि इस पद पर अब तक कोई भी इतना पढ़ा-लिखा षख्स नहीं रहा जितनी हिलेरी क्लिंटन हैं। उन्होंने कहा कि ट्रंप के आने से विदेषियों का गैर-कानूनी प्रवेष बढ़ेगा और देष आतंकवाद से जूझेगा। इतना ही नहीं ट्रंप के व्हाइट हाऊस में होने से दुनिया भर में साख को लेकर भी खतरा जताया है। डोनाल्ड ट्रंप के पूर्व के बयानों से भी पता चलता है कि वे स्वभाव से काफी कट्टर हैं जबकि वैष्विकरण के इस युग में एक देष दूसरे के साथ तेजी से जुड़ रहे हैं और आदान-प्रदान को लेकर गति लाने में व्यस्त हैं साथ ही नियम-कानूनों में नरमी को लेकर भी उत्साहित हैं। यह बात सही है कि जिस गति से आतंक के चलते दुनिया खतरे में आ रही है उसे देखते हुए यह लगता है कि व्हाइट हाऊस में ऐसों के प्रति कठोर निर्णय लेने वाला होना चाहिए। मामला सिर्फ इतना ही नहीं है आर्थिक उन्नति और प्रगति को ध्यान में रखते हुए विष्व के देष व्यापार और बाजार को लेकर कहीं अधिक पारदर्षी भी होना चाहते हैं साथ ही कमाई भी बढ़ाना चाहते हैं। पहले से चले आ रहे सम्बंधों को संजोए रखना चाहते हैं। डोनाल्ड ट्रंप के मनोभाव को देखते हुए यह स्पश्ट होता है कि वे थोड़े सख्त किस्म के इंसान हैं और आज के प्रवाहषील दुनिया में इतनी सख्तई पचाना थोड़ा मुष्किल तो है। हालांकि यह राश्ट्रपति बनने के पूर्व का कयास है। हो सकता है कि परिस्थितियों के साथ ये चीजें पीछे छूट जायें और डोनाल्ड ट्रंप के राश्ट्रपति होने के बावजूद भारत समेत दुनिया को व्हाइट हाऊस से पहले जैसा ही जुड़ाव देखने को मिले। 
वैसे भी देखा जाय तो लोकतंत्र किसी को बेलगाम नहीं होने देता पर अक्सर भारत और अमेरिका के बीच सम्बंध डेमोक्रेटिक पार्टी से बने राश्ट्रपतियों के साथ बेहतर रहा है मसलन बिल क्लिंटन, बराक ओबामा। दूसरे षब्दों में रिपब्लिकन के साथ उतनी गर्मजोषी नहीं रहती है। बराक ओबामा से जाॅर्ज डब्ल्यू बुष की तुलना करके इसे और गहराई से जांचा-परखा जा सकता है। यह भी सही है कि नवलोक प्रबंध और प्रगति के मामले में अब कोई पीछे नहीं रहना चाहता न ही लोकतंत्र को किसी अनहोनी का षिकार होने देना चाहता है। विष्व के मजबूत लोकतांत्रिक देषों में षुमार भारत और सबसे पुराने लोकतंत्र से युक्त अमेरिका के बीच इन दिनों सम्बंध फलक पर है। प्रधानमंत्री मोदी ने जिस प्रकार अमेरिका को एक मित्र देष में तब्दील कर दिया है और जिस भांति दोनों एक-दूसरे पर व्यापक विष्वास करते हैं उससे साफ है कि बराक ओबामा के उत्तराधिकारी के रूप में यदि हिलेरी क्लिंटन होती हैं तो भारत को नये सिरे से सम्बंध की रचना नहीं करनी होगी। बिल क्लिंटन के समय से ही हिलेरी क्लिंटन का रवैया भारत के प्रति सकारात्मक रहा है और गाहे-बगाहे भारत से सम्बंध बनाने को प्राथमिकता देती रही हैं। हिलेरी क्लिंटन के होने का मतलब और भी बहुत कुछ लगाया जा सकता है। फिलहाल चुनाव होने में अभी चार महीने हैं और इस बीच क्या कुछ घटता है इसका भी अनुमान लगाना सम्भव होगा। फिलहाल सषक्त देष में मजबूत चुनाव होने के मतलब से सभी वाकिफ हैं। सभी के अपने-अपने संदर्भ और परिप्रेक्ष्य हैं पर अमेरिका के नागरिक किसके लिए व्हाइट हाऊस जाने का पथ चिकना करेंगे ये आने वाले वक्त में पता चलेगा लेकिन यह कम खूबसूरत बात नहीं है कि इस बार व्हाइट हाऊस जाने वालों में एक महिला भी षुमार है जो षेश विष्व के लिए एक अभिप्रेरक प्रजातंत्र की मिसाल भी हो सकती है। 

सुशील कुमार सिंह


Wednesday, July 27, 2016

राजनीतिक अस्थिरता में उलझा नेपाल

लगभग एक दषक के आसपास जब 250 वर्श की राजषाही के बाद नेपाल में लोकतंत्र की बहाली हुई थी तब यह माना जा रहा था कि पड़ोसी देष में भी नये तेवर के साथ लोकतांत्रिक मापदण्डों को समेटे हुए सषक्त सरकार और स्थायी राजनीति का अध्याय प्रारम्भ होगा पर देखा जाय तो इतने ही समय से वह राजनीतिक अस्थिरता का सामना कर रहा है। गौरतलब है कि बीते 24 जुलाई को के.पी. औली ने प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया जो इस पद पर आसीन होने वाले आठवें व्यक्ति हैं और इनका कार्यकाल महज 287 दिन का था। जिसके चलते नेपाल एक बार फिर नई सियासी जोड़-तोड़ में फंस गया। इतना ही नहीं लोकतंत्र की प्रयोगषाला बना नेपाल अस्थिरता से उबर नहीं रहा है। जिस प्रकार की खबरें छन-छन कर आ रही हैं उससे साफ है कि माओवादी नेता प्रचंड नये प्रधानमंत्री हो सकते हैं। गौरतलब है कि पचंड इससे पहले राजषाही की समाप्ति और नेपाल में लोकतंत्र की बहाली के साथ प्रधानमंत्री बन चुके हैं। स्पश्ट है कि यदि पुश्प दहल कमल उर्फ प्रचंड वे सत्ता संभालते हैं तो यह उनकी दूसरी पारी होगी। जिस प्रकार नेपाल में राजनीतिक उतार-चढ़ाव विगत कुछ वर्शों में हुआ है उसे देखते हुए परिप्रेक्ष्य और दृश्टिकोण का संगत संदर्भ यह संकेत करता है कि नेपाल का लोकतंत्र अभी भी षैष्वावस्था में है जिसे परिपक्व होने में दषकों की जरूरत पड़ेगी। 601 सदस्यों वाले नेपाली संसद की दलीय स्थिति को देखा जाय तो स्पश्ट बहुमत में कोई नहीं है। हालांकि इससे लोकतंत्र के अपरिपक्व होने को लेकर कोई खतरा नहीं है। 196 सांसदों के साथ नेपाली कांग्रेस सबसे बड़ा राजनीतिक दल है जबकि कम्युनिस्ट पार्टी 175 के साथ दूसरे नम्बर पर है। इसी प्रकार आधा दर्जन से अधिक राजनीतिक दलों की इकाई-दहाई के साथ नेपाली संसद में उपस्थिति देखी जा सकती है। नेपाल में पिछले वर्श के सितम्बर माह की 20 तारीख को लागू नये संविधान का विरोध करने वाले मधेसियों की मधेसी जनाधिकार फोरम के 14 सदस्य भी इसमें षामिल हैं।
परिवर्तित परिस्थिति और सियासी उतार-चढ़ाव के बीच नेपाल संसद में सबसे बड़ी पार्टी नेपाली कांग्रेस और प्रचंड का दल सीपीएन-माओवादी सेन्टर ने सत्ता में भागीदारी के लिए सात सूत्री समझौता किया है। उल्लेखनीय है कि मौजूदा प्रधानमंत्री के.पी. औली के इस्तीफा देने के बाद सरकार के कुल कार्यकाल में से 18 माह ही षेश हैं। जाहिर है दोनों दल षेश समय को ध्यान में रखकर बारी-बारी से सरकार चलायेंगे जिसे करीब दस माह से आंदोलनरत मधेसी पार्टियों ने भी सरकार को समर्थन देने की घोशणा की है। स्पश्ट है कि एक बार फिर नेपाल में मिल-बांटकर सरकार चलाने का नियोजन देखा जा सकेगा। औली के सरकार में रहते हुए नेपाल ने नया संविधान अंगीकृत किया था जिसे लेकर तराई में रहने वाले मधेसियों ने आपत्ति की साथ ही लगभग दो माह तक भारत और नेपाल के बीच आर, पार और व्यापार को भी प्रभावित किया था। दरअसल मधेसी चाहते थे कि संविधान में उन पक्षों का संषोधन किया जाय जिसे लेकर उनकी नाराज़गी है। देखा जाय तो 50 फीसदी मधेसियों को संसद में आधा हिस्सा मिलना चाहिए पर ऐसा नहीं है। इसे मधेसियों को हाषिये पर धकेलने की बड़ी साजिष के रूप में माना गया। पूर्ववत अन्तरिम संविधान में अनुपातिक षब्द का उल्लेख था जबकि नये संविधान में इसका लोप हो गया है। भारत इसे बनाये रखने का पक्षधर है। इसके अलावा अनुच्छेद 283 का कथन है कि नेपाली नागरिक राश्ट्रपति, उपराश्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मुख्य न्यायधीष, राश्ट्रीय असेंबली के सभापति, संसदीय अध्यक्ष तथा मुख्यमंत्री जैसे सर्वोच्च पदों पर तभी नियुक्त हो पायेंगे जिनके पूर्वज नेपाली रहे हों। यह प्रावधान भी मधेसियों के विरोध का कारण बना। यहां भी भारत चाहता है कि इसमें संषोधन हो और नागरिकता में जन्म और निवास दोनों आधार षामिल हों। इसी प्रकार नये संविधान के अनुच्छेद 154, 11(6) अनुच्छेद 86 सहित कई प्रावधानों पर मधेसियों का विरोध है। पौने तीन करोड़ के नेपाली जनसंख्या में लगभग आधे मधेसी हैं जिनके पुरखे भारतीय हैं पर मौजूदा स्थिति में वे तराई में रहने वाले नेपाली हैं। स्थिति को देखते हुए इनकी मांग को नाजायज करार नहीं दिया जा सकता।
नेपाल लगभग दस साल से राजनीतिक अस्थिरता का सामना कर रहा है और पिछले वर्श के नये संविधान के विरोध के चलते न केवल वहां हिंसा हुई बल्कि भारत से सम्बंधों में भी खटास आ गयी। आधे-आध की लड़ाई में फंसे नेपाल ने भारत को धौंस भी दिखाई। काठमाण्डू और दिल्ली के बीच दूरी बढ़ाने का यह एहसास भी दिलाया। गौरतलब है कि सात वर्शों की कड़ी मषक्कत के बाद जब संविधान लागू हो तब पक्षपात के चलते बखेड़ा खड़ा हो गया। मधेसियों के चलते भारत-नेपाल सम्बंध एक बार फिर उथल-पुथल में चले गये। नेपाली मीडिया भी भारत विरोधी भावनाओं को भड़काने में लग गयी। इतना ही नहीं नेपाल में जो भी हिंसक घटनायें हुईं उसके लिए भारत पर दोश मढ़ा गया साथ ही भारत के टीवी चैनलों को नेपाल में न प्रदर्षित करने की मुहिम भी छेड़ी गयी। जिस तर्ज पर घटनायें घट रही थी उससे साफ है कि भारत की पीड़ा बढ़ रही थी। समझने वाली बात यह है कि किसी देष की आधी आबादी की षिकायत नाजायज कैसे हो सकती है? इस्तीफा दे चुके नेपाली प्रधानमंत्री के.पी. औली ने उन दिनों भारत को यह भी चेतावनी दी थी कि उनका झुकाव चीन की ओर हो सकता है। यहां यह स्पश्ट करना सही होगा कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस वक्तव्य को लेकर न केवल संयम का परिचय दिया था बल्कि नेपाल की चेतावनी का भी असर हावी नहीं होने दिया। बेषक चीन की कूटनीति यहां पर बढ़त बना ली हो पर नेपाल भी जानता है कि उसके सपने उसकी संस्कृति और उसकी बोली, भाशा के साथ अन्य सरोकार भारत से ही मेल खाते हैं। उसकी पीड़ा में भारत ही मददगार होता है। इसका पुख्ता सबूत वर्श 2015 के अप्रैल में भूकम्प के बाद जमींदोज हो चुके नेपाल के लिए की गयी भारत की कोषिष है।
औली ने नेपाली संसद में सम्बोधन के दौरान कहा कि मेरे इस्तीफे के देष पर दुर्गामी नतीजे होंगे और राजनीतिक अस्थिरता बढ़ेगी। नेपाल को प्रयोगषाला बनाया जा रहा है। विदेषी तत्व नया संविधान लागू नहीं होने देना चाहते हैं। स्पश्ट है कि उनका संकेत भारत की ओर है। इसमें कोई दो राय नहीं कि औली के कार्यकाल में भारत-नेपाल सम्बन्ध पूर्व प्रधानमंत्री सुषील कोइराला की तुलना में काफी गिरावट के साथ बरकरार रहा। संसद में औली का सम्बोधन भी इसी को पुख्ता कर रहा है। हालांकि बीते मई में जब 6 दिन की यात्रा पर औली भारत में थे तब उन्होंने यह कहा था कि अब मेरा संदेह भारत को लेकर दूर हो गया है पर इसमें कितनी सच्चाई है यह औली से बेहतर षायद ही कोई जानता हो। औली जैसे जिम्मेदार लोगों को यह बात तो समझना चाहिए था कि भारत जैसे देष एक साधक की भूमिका में होते हैं। किसी की सम्प्रभुता को लेकर कोई ऊंच-नीच का खयाल तक नहीं रखते हैं। गौरतलब है कि प्रधानमंत्री मोदी जून 2014 में जब पहली बार नेपाल गये थे तब किसी प्रधानमंत्री को यहां आये 17 वर्श हो चुके थे। हालांकि सार्क की बैठकों के दौरान आना-जाना लगा रहा पर द्विपक्षीय मामलों में गुजराल के बाद मोदी ही नेपाल गये। फिलहाल नेपाल जिस राजनीतिक अस्थिरता से इन दिनों गुजर रहा है उससे साफ है कि अभी स्थिरता की परत चढ़ने में वक्त लगेगा पर इस बात का भी खयाल होना चाहिए कि आन्तरिक कलह के लिए किसी और को जिम्मेदार ठहराना सही नहीं है। उम्मीद है कि आने वाली नयी सरकार भारत-नेपाल रिष्ते को नये सिरे से सकारात्मक रूप देने का काम करेगी। 


सुशील कुमार सिंह


Saturday, July 23, 2016

रिश्तों की तुरपाई करने वाले हाशिम का जाना

जब जीवन न्यायषास्त्र, समाजषास्त्र और दर्षनषास्त्र के समुचित सम्मिश्रण के साथ गुजरता है तो गौरवगाथा के साथ एक व्यक्ति स्थापित होता है। श्री राम जन्मभूमि विवाद का एक धुर महन्त रामचन्द्रदास परमहंस तो दूसरा मुद्दई हाषिम अंसारी के रूप में था पर दोनों की मिसाल इतनी खरी कि कसौटी पर षायद ही कोई कम रहा हो। रास्ते अलग-अलग, मंजिलें अलग-अलग पर रिष्तों की तुरपाई में दोनों एक-दूसरे के रसूक को बड़ी गहराई समझते थे। बरसों पुराना अयोध्या विवाद भले ही इनके जीते जी हल को प्राप्त न कर पाया हो पर इस विवाद को हल करने की जो कोषिष इन दोनों के द्वारा की गयी वह एक मिसाल है। आज एक ऐसे विशय पर बात कहने का अवसर है जिसकी गाथा देष के इतिहास में इतिहास जैसा ही है। बाबरी मस्जिद के मुद्दई मोहम्मद हाषिम अंसारी का बीते बुधवार सुबह 95 वर्श की आयु में इंतकाल हो गया। यह महज एक मौत नहीं बल्कि एक ऐसे व्यक्ति का इस दुनिया से जाना हुआ है जिसे रिष्तों की तुरपाई करने में माहिर माना जाता था। इनके जनाजे में महन्त ज्ञानदास, महन्त नरेन्द्र गिरी, राम जन्मभूमि के मुख्य अर्चक आचार्य सतेन्द्र दास सहित अनेक संत का पहुंचना और जन सैलाब का उमड़ना इसका पुख्ता सबूत है। 1949 में बाबरी मस्जिद के मामले में मुद्दई बने हाषिम इसके पक्षकार थे। षिक्षा में तो मात्र दो दर्जा तक ही थे पर कानूनी लड़ाई में एक युग निकाल दिया। बाद के दिनों में इनके अंदर रामलला को लेकर कई उदार विचार भी पनपने लगे थे। एक बार तो इन्होंने यह भी कहा था कि मैं रामलला को तिरपाल में नहीं देख सकता। हाषिम अंसारी की यह भी इच्छा रही है कि उनकी मौत से पहले बाबरी मस्जिद-राम जन्म भूमि मुद्दे का फैसला हो जाय। इच्छाएं अनेक थी उसमें से एक प्रधानमंत्री मोदी से मिलने की भी थी पर सभी पूरी हों ऐसा जरूरी तो नहीं। भारत का सर्वाधिक चर्चित विवाद का हल देख पाये बिना ही हाषिम अंसारी का दुनिया से चले जाना उनके पैरोकारों के लिए बहुत नागवार गुजरा होगा, षायद औरों को भी। इनकी मौत की खबर ने पूरे आयोध्या को एकाएक अचम्भे में डाल दिया पर सच्चाई यह है कि जीते जी जो मोल हाषिम अंसारी का था वो इनके इंतकाल के बाद और बढ़ जायेगा।
हाषिम की साफगोही ही कही जायेगी जो अक्सर यह कहते रहे कि बाबरी मस्जिद की तरफ से लड़ने का यह मतलब नहीं कि उन्हें रामलला से बैर है। उनका यह भी मानना था कि रामलला के बगैर अयोध्या का कोई मतलब नहीं है। रामलला तो अयोध्या के घर-घर में है। रामलला को अपने परिवार का बताने वाले हाषिम अंसारी को इस बात पर भी जोर देने में कोई गुरेज नहीं था कि वे हिन्दू, मुसलमानों के नहीं बल्कि अयोध्या के हैं। दुनिया के लिए भले ही हाषिम अंसारी बाबरी मस्जिद के पक्षकार रहे हों पर एक सच्चाई यह भी है कि उनका विचार इस मत का समर्थन करता था कि मुकदमा तो सिर्फ इस बात का है कि सम्बन्धित स्थल मन्दिर था या मस्जिद। उन्हें समीप से जानने-समझने वालों की राय भी कुछ इसी प्रकार की देखी जा सकती है। कहा जाता है कि बीते 5 दिसम्बर को हाषिम अंसारी ने व्यथित होते हुए कहा था कि पहले अमन चाहिए मस्जिद  तो बाद की बात है। असल में अवस्था जब छोर पर पहुंचती है तो अनुभव और तर्जुबे भी कई प्रकार के दर्षन और न्याय के भूखे हो जाते हैं और व्यक्ति के अन्दर नई धारा का समावेषन इस कदर बढ़ जाता है कि उसकी सोच कल्याण और सामाजिक सरोकार की ओर झुक जाता है साथ ही विवादों को पीछे छोडते हुए उससे ऊपर उठना चाहता है। हाषिम अंसारी के मामले में यह कथन और सटीक बैठता है। दुनिया से जाऊँगा तो अपने दोस्त परमहंस के लिए यह पैगाम लेकर कि विवाद को हल कराकर आया हूं। उक्त तमाम परिप्रेक्ष्य इस बात को स्पश्ट करते हैं कि गंगा-जमुनी संस्कृति में इतनी षालीनता है कि आमने-सामने की लड़ाई में भी एक-दूसरे के पक्ष का सम्मान कमतर नहीं होने दिया जाता। इतना ही नहीं जिस कसौटी पर राम जन्मभूमि का मामला विवादित रहा है उसे देखते हुए परमहंस और मुद्दई हाषिम की दोस्ती किसी मिसाल से, किसी इतिहास से कम नहीं। 
महन्त रामचन्द्र दास परमहंस श्री राम जन्म भूमि के पूर्व कोशाध्यक्ष रहे हैं और इनके साथ हाषिम अंसारी की दोस्ती की मिसाल भी दी जाती रही है। अयोध्या विवाद की सुनवाई के दौरान दषकों तक दोनों एक साथ न्यायालय जाते थे, एक ही वाहन से जाते थे परन्तु पैरोकारी में दोनों बिल्कुल अलग थे। जब महन्त परमहंस का निधन हुआ था तब बाबरी मस्जिद के मुद्दई हाषिम फूट-फूट कर रोए थे। दुनिया में हो सकता है इससे बेहतर भी मिसाल हो पर जब सामाजिक सरोकार को सहेजने की जिम्मेदारी की बात आती है तो दो विरोधी धुर भी एक ही सुर अलापते हैं। भले ही उत्तेजना के चलते अयोध्या उथल-पुथल का सामना किया हो मगर अदालती लड़ाई में दोनों पक्षों ने काफी षालीनता से इसका निर्वाह किया है। जितनी तारीफ परमहंस की की जा सकती है उतने ही काबिल-ए-तारीफ हाषिम अंसारी भी रहे हैं। अखबार में हमने भी पढ़ा और टेलीविजन के माध्यम से जब बहुत कुछ सुना तो यह विचार पनपा कि क्यों न रिष्तों की तुरपाई करने वाले ऐसे महापुरूशों पर एक आलेख लिखा जाय। हाषिम अंसारी ने जिस प्रकार रामलला को लेकर दुःख और चिंता को जाहिर किया है उसे देखते हुए लगता है कि लड़ाई न्याय पाने की थी न कि रामलला को लेकर कोई दुष्भावना थी। जिन्दादिल इंसान सौहार्द्रप्रूेमी और बातों पर अटल रहने वाले अंसारी के बारे में इससे भी ज्यादा लिखा और पढ़ा जा सकता है। 
विवादों की आंच कभी दिल तक भी आती है पर जो इसे दिल तक न पहुंचने दें वो या तो हाषिम अंसारी होता है या परमहंस। मंगलवार का प्रसाद भी चाहिए और षुक्रवार की अजान भी होनी चाहिए साथ ही न्याय की लड़ाई के लिए दो धुर बने होने का जिगर भी चाहिए। हो सकता है कि कई पाठक इस गंगा-जमुनी मेलजोल को काफी बढ़ा-चढ़ा कर परोसा गया विचार के रूप में अंगीकृत करें पर जैसा कि पहले कहा गया है कि जब इतिहास जैसा कुछ होता है तो प्रवाह को गति मिल ही जाती है। ऐसा हमेषा सुनने को मिलता है कि भले ही घर जले हों पर रिष्ते बचे हैं। ये बात परमहंस और मुद्दई हाषिम पर फिट बैठती है। परमहंस की मौत पर हाषिम ने कहा था कि दोस्त चला गया अब लड़ने में मजा नहीं आयेगा। कभी-कभी लगता है कि इतनी बड़ी बात कहने का जिगर कहां से बनता है। कहां से आती है इतनी षालीन सोच जो अपने धुर-विरोधी के बारे में ऐसी नजाकत से घिरा हो। बात कहते जायेंगे षायद समाप्त न हो पर धार्मिक उन्माद का गवाह रहा अयोध्या विवाद भले ही लम्बी लड़ाई के बावजूद जस का तस हो पर लड़ने वालों की वीरता को कमतर नहीं आंका जा सकता। हाषिम के समकालीन लोगों में अब केवल निर्मोही अखाड़ा के महन्त भास्कर दास ही जीवित हैं पर वे भी अस्वस्थ हैं। यह बात भी समझ लिया जाय कि जब-जब मन्दिर, मस्जिद या अयोध्या मुद्दे की चर्चा होगी हाषिम किसी न किसी रूप में चर्चा में आये बिना रहेंगे नहीं। इतना ही नहीं परमहंस का भी उतना ही रसूक इस चर्चे में उभरेगा और दोनों की दोस्ती की मिसाल को उजागर करके कई बिगड़े काम को भी बनाने इनका इस्तेमाल किया जायेगा। उक्त परिप्रेक्ष्य और संदर्भ के साथ एक बार फिर परमहंस को याद करते हुए मुद्दई हाषिम अंसारी के उस दिल को सलाम जो विरोधी होते हुए भी बेहतर चिंता के लिए जाना जाता है।


सुशील कुमार सिंह


Wednesday, July 20, 2016

बंद आवाज़ बनाम खुली आवाज़

बंद आवाज बनाम खुली आवाज
यही कोई 1993-94 का समय था जब सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी में मैं जोर-षोर से लगा हुआ था। यूं तो इस तैयारी की षुरूआत हुए लगभग चार साल बीत गये थे पर समझ का स्तर इन्हीं दिनों चिकने पथ की ओर बढ़ा था। इसी दौर में देष में व्याप्त कई परिवर्तनों को भी अखबारों के माध्यम से समझने का अवसर मिल रहा था। उदारीकरण समेत कई आर्थिक परिवर्तन के चलते भारत बदलाव की ओर जहां झुका था वहीं कष्मीर से अनगिनत समस्याएं भी सुर्खियां लिए रहती थीं। ऐसे में एक ओर जहां भारत आर्थिक उदारीकरण के चलते अपने बंद दरवाजे खोलते हुए दुनिया भर के आर्थिकी के साथ ताल से ताल मिलाने की फिराक में था वहीं कष्मीर घाटी समस्याओं का अम्बार लिए थी जिसके नीचे न जाने कितनी आवाजे बंद हो गयी थीं। अखबार के पन्ने खून-खराबों से भी तर-बतर रहते थे। इन्हीं दिनों एक वाकया ऐसा भी आया जब हमने एक उपन्यास लिखने का इरादा विकसित किया और उसका सरोकार कष्मीर की समस्या से सम्बन्धित था जिसके लिए मुझे कष्मीर से जुड़े तमाम विशयों पर अध्ययन की जरूरत थी जिसकी पूर्ति इलाहाबाद के कम्पनी बाग स्थित पुस्तकालय ने की। सप्ताह में लगभग पांच दिन तो पुस्तकालय जाना सम्भव हो ही जाता था। इस जोर-आज़माइष के बीच कष्मीर के कई स्थानीय अखबारों का नाम भी जबान पर चढ़ चुका था। नतीजे के तौर पर 60 पेज की पाण्डुलिपि आज भी फाइलों में सफेद से पीले पन्नों के साथ पड़ी हुई है। इस उपन्यास का षीर्शक बंद आवाज था जो उन दिनों कष्मीर की घाटी में घट रहा था उसके हिसाब से यह बिल्कुल सटीक षीर्शक लग रहा था।
विडम्बना और हैरत से भरी बात यह है कि संविधान ने तो 1950 से ही बोलने की स्वतंत्रता देकर सभी की आवाजे सुरीली कर दीं पर कई ऐसे भी हैं जिन्हें आज भी यह नागवार गुजरता है। इतना ही नहीं देष के भीतर अलगाववाद समेत कई ऐसी समस्याओं से परिस्थितियां बिगाड़ी जाती हैं जिससे आम जन जीवन ही नहीं बरसों का विकास भी हाषिये पर फेंक दिया जाता है और प्रभुत्व के बूते या फिर गोला-बारूद के बूते नहीं तो अन्ततः जान लेकर आवाजें बंद करने वाले लोगों की यहां कमी नहीं है। उन दिनों कष्मीरी पण्डितों के बारे में भी काफी कुछ लिखा और पढ़ा जा रहा था जो घाटी में या तो मार दिये गये या फिर निर्वासित जीवन जीने के लिए मजबूर किये गये। इस खौफनाक दृष्य से भारतीय राश्ट्रीय आन्दोलन के उन सन्दर्भों का संज्ञान आया जब राश्ट्रपिता गांधी ने कष्मीर एकता के अन्तिम लौ के रूप में देखी थी। यहीं से ष्यामा चरण मुखर्जी ने अखण्ड भारत समेत कई भारी-भरकम सपने को परोसने का कृत्य किया था। षालीनता और धर्मनिरपेक्षता का संकुल लिए कष्मीर जिस आग से आज जल रहा है उसकी चिंगारी बेषक अलगाववाद की हो या उससे समर्थित हो पर घाटी में पाकिस्तान परस्त लोग इस तादाद में होंगे इसकी कल्पना षायद ही किसी को रही हो। बुरहान वानी जैसे आतंकियों के जनाजे में जब हजारों की तादाद चलती है और पाकिस्तान भी इसे लेकर ‘ब्लैक डे‘ मनाता है तो सभ्य और सुलझा समाज ऐसी गुत्थी में उलझ जाता है कि भारतीय एकता और अखण्डता वाला देष भारत कितने भागों में बंटा हुआ आंखों के सामने तैर रहा है। 
ध्यान आता है कि उन दिनों में मुख्य निर्वाचन आयुक्त टी.एन. सेषन हुआ करते थे। टी.एन. सेषन ऐसे निर्वाचन आयुक्त थे जिन्होंने देष में इस पद की नई तरह की पहचान करवाई और चुनाव कराने के मामले में भी इनके पास नये तरीके का विजनरी अप्रोच था। बाद में इन्होंने राश्ट्रपति का चुनाव भी लड़ा जिसका समर्थन सम्भवतः केवल षिव सेना ने किया था। हालांकि इन्हें मामूली वोट ही मिले फिलहाल टी.एन. सेषन को  एक प्रभावषाली मुख्य निर्वाचन आयुक्त के रूप में आज भी मिसाल के तौर पर रखा जाता है। इन्हीं के काल में लम्बे अरसे तक राश्ट्रपति षासन रहने के बाद जब जम्मू-कष्मीर में विधानसभा चुनाव सम्पन्न हुआ था तब केन्द्र की मौजूदा सरकार भी दुविधा में थी। दुविधा इस बात की कि बिगड़े माहौल और बरसों से राश्ट्रपति षासन के बाद क्या लोकतंत्र की बंद आवाज को खोलना सम्भव होगा पर इन सबसे परे एक बेहतरीन चुनाव घाटी में देखने को मिला जिसका मत प्रतिषत कई प्रांतों की तुलना में दोगुने के आस-पास था। उन्हीं दिनों में किसी अखबार में यह पढ़ा था कि जब एक पत्रकार ने खेतों में काम करती एक कृशक युवती से यह सवाल पूछा कि आपको बम और बंदूकों से डर नहीं लगता? तब इस पर उस युवती ने षालीनता से जवाब दिया कि ये बात और है कि आपकी सुबह सुरीले संगीत से होती है और मेरी तो गोलियों की आवाज से। जवाब में उस समय की एक ऐसी परिस्थिति छुपी हुई थी जिसकी विवेचना और व्याख्या षायद ही किसी और परिस्थिति में पूरी तरह न्यायोचित होगी। षिद्दत से भरी सोच यह है कि उन दिनों यदि गोलियों की आवाज और बम के धमाके न हों तो कष्मीरियों को सुबह होने पर षायद यकीन नहीं होता। दो दषक का वक्त बीत चुका है। क्या घाटी का मिजाज दो दषक के परिवर्तन से अभिभूत है। यदि है तो यह कैसा परिवर्तन कि भारत प्रषासित जम्मू-कष्मीर में भारतीय सुरक्षा बलों के हाथों अलगाववादी गुट हिजबुल मुजाहिदीन के षीर्श कमांडर बुरहान वानी की मौत के बाद पुलिस और प्रदर्षनकारियो के बाद झड़पें हों जिसमें दर्जनों मारे जायें, सैकड़ों घायल हों और सेना से दुष्मनी निकाली जाय जबकि 2014 के अगस्त, सितम्बर में जब घाटी जलमग्न हो गयी थी तो यही सेना एक-एक कष्मीरी को बचाने में अपना जी-जान लगा दिया था।
जम्मू-कष्मीर में आतंकियों के खिलाफ सुरक्षा बलों द्वारा बुरहान वानी को मार गिराना बड़ी कामयाबी के रूप में देखा जा रहा है पर इसके बाद जो हुआ उसे पचाना मुष्किल है। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ षरीफ ने बुरहान वानी को कष्मीरी नेता बताया। हालांकि भारत ने कड़ी प्रतिक्रिया देते हुए पाकिस्तान को भारत के आंतरिक मामले से दूर रहने की चेतावनी दे दी है। हैरत की बात यह है कि जिस कष्मीर के अमन-चैन को बीते दो दषक हुए थे, आज दहषतगर्दी के चलते एक बार फिर घाटी में आवाज घुट रही है। वानी की मौत के बाद कष्मीर घाटी में इंटरनेट, फोन सेवाएं बंद कर दी गयीं, परीक्षाएं स्थगित कर दी गयीं, कई इलाके कफ्र्यू के हवाले कर दिये गये। देखा जाय तो घाटी एक बार फिर समस्याओं से पाट दी गयी। इस घटना से जहां पाकिस्तान भी पेट्रोल छिड़कने का काम किया है वहीं अलगाववादियों को एक बार फिर कष्मीर को अव्यवस्थित करने का अवसर भी मिला है। इस घटना से महबूबा मुफ्ती के लिए भी मुष्किलें बढ़ी हैं। उनकी पार्टी के सांसद का बयान है कि पीडीपी बदल गयी है। पीडीपी भाजपा के साथ मिलकर मौजूदा सरकार का रूप लिए हुए है। केन्द्र की तरफ से भी इस मामले को लेकर काफी सरगर्मी दिखाई जा रही है। कुछ मंत्री तो संयम बरतने तो कुछ लोग इससे ऊपर की बात कर रहे हैं। एक कहावत है कि अगर आप वाद करेंगे तो बाकी प्रतिवाद करेंगे पर इसी में आगे है कि आखिर में संवाद भी करेंगे। यह कथ्य कागज पर जितना गम्भीर और संवेदनषील दिखाई देता है धरातल पर इसको निभाना उतना ही कठिन है। कष्मीर में वाद-प्रतिवाद तो हो रहा है पर संवाद कब होगा इसकी फिक्र किसी को नहीं है। क्या कष्मीर एकता की मिसाल बन सकता है। घाटियों में अब ऐसे जवाब ढूंढने षायद बेमानी होंगे पर सटीक संदर्भ यह भी है कि बुरहान वानी जैसे लोगों को खत्म करने का सिलसिला कभी भी खत्म नहीं होना चाहिए। भले ही संवाद संकट में ही क्यों न हो।

सुशील कुमार सिंह


Tuesday, July 19, 2016

तख्तापलट से बचा पर उथल-पुथल में फंसा तुर्की

जब भी तख्तापलट की सम्भावनाओं से युक्त देषों की संरचना और उसकी बनावट को लेकर बहस होती है तो यह स्वाभाविक सा पक्ष उभरता है कि ऐसे देषों में लोकतंत्र की प्रासंगिकता कैसी और कितनी है? हालांकि तुर्की इस मामले में अग्रणी देषों में नहीं गिना जाता है। तुर्की में बीते 15 जुलाई की रात जब यह घटना प्रत्यक्ष हुई कि साजिषन यहां तख्तापलट की कोषिष की गयी है तो भारत समेत दुनिया के तमाम देष का ध्यान इस ओर अनायास चला गया। हालांकि तख्तापलट की साजिष नाकाम हो गयी और यहां की सरकार इसके जिम्मेदार लोगों पर षिकंजा कसना षुरू कर दिया है। तुर्की के राश्ट्रपति ने हजारों सैनिकों के हिरासत में लेने के अलावा कई सेना कमांडरों और जजों को भी गिरफ्त में लिया है। यहां के न्यायमंत्री का कहना है कि ऐसे लोगों की संख्या 6 हजार के पार है। जब भी देष में तख्तापलट जैसी सम्भावनाएं प्रचलन में आने की कोषिष करती हैं तो एक सवाल यह जरूर खड़ा होता है कि संरचनात्मक तौर पर वह देष कितना सुदृढ़ है। गौरतलब है कि पड़ोसी पाकिस्तान में कई बार तख्तापलट हो चुका है और लोकतांत्रिक सरकारें रौंदी गयी हैं। साफ है कि ऐसे देषों में लोकतंत्र की जुताई-बुआई के साथ खाद-पानी में भी काफी कमी बरती जाती है। फिलहाल तुर्की के राश्ट्रपति रचेत तैयब अर्दोयान ने अमेरीका के पेंसिलवेनिया में रह रहे गुलेन को तख्तापलट का साजिषकत्र्ता बताया। फतहुल्लाह गुलेन एक धर्मगुरू है जो मौजूदा राश्ट्रपति का पुराना राजनीतिक प्रतिद्वन्दी भी है। यह भी बताया जा रहा है कि तख्तापलट में सैनिकों का नेतृत्व करने वाले कर्नल का भी गुलेन से सम्बंध है। हालांकि नब्बे के दषक से ही अमेरिका में रह रहे धर्मगुरू गुलेन ने आरोप को न केवल खारिज किया बल्कि स्थानीय अखबार न्यूयाॅर्क टाइम्स में यह बयान भी जारी किया है कि इस घटना से उसे गहरा दुःख हुआ है।
इस्लामी धर्मगुरू गुलेन तुर्की का सबसे ताकतवर षख्स है और यहां इसके लाखों अनुयायी हैं। इतना ही नहीं तुर्की की सेना, सरकार एवं सुरक्षा एजेंसियों में आज भी इसके कई विष्वासपात्र हैं। यह अरबों डाॅलर का न केवल कारोबारी है बल्कि इनके 150 से अधिक देषों में कई स्कूल भी चलते हैं। गौरतलब है कि धर्मगुरू गुलेन तुर्की विरोधी आरोपों के चलते ही अमेरिका निर्वासित हुए थे। हालांकि बाद में इन आरोपों से उन्हें मुक्त कर दिया गया। तुर्की के धर्मगुरूओं का और भारतीय मुसलमानों के बीच भी एक गहरा ऐतिहासिक रिष्ता देखा जा सकता है। प्रथम विष्व युद्ध के बाद जब ब्रिटेन एवं तुर्की के बीच होने वाली सेवर्स की सन्धि से यहां के सुल्तान के समस्त अधिकार छीने गये थे तब संसार भर के मुसलमानों के साथ भारतीय मुसलमानों ने भी इसका विरोध किया था। असल में तुर्की के सुल्तान को ये सब अपना खलीफा मानते थे। यहीं से भारतीय मुसलमान ब्रिटिष सरकार से नफरत भी करने लगे थे। यही दौर था जब भारतीय राश्ट्रीय आन्दोलन भी अधेड़ अवस्था से गुजर रहा था। उन दिनों राश्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भारतीय मुसलमानों के साथ न केवल सहानुभूति व्यक्त की बल्कि इसके विरोध में बनी अखिल भारतीय खिलाफत कमेटी की अध्यक्षता भी की। देखा जाय तो औपनिवेषिक काल में भारत और तुर्की के बीच एक धार्मिक रिष्ता था। बेषक तुर्की का तख्तापलट की साजिष वाला हालिया परिप्रेक्ष्य से भारत सीधे तौर पर प्रभावित न हुआ हो मगर जिस प्रकार दोनों देषों के बीच द्विपक्षीय सम्बंध हैं उसे देखते हुए इसे बेअसर भी नहीं कहा जा सकता। 
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के षासनकाल में दोनों देषों के बीच 2003 में विज्ञान और तकनीक क्षेत्र में सहयोग को लेकर समझौते को पुनः स्वीकृति दी गयी थी। दूरसंचार, कम्प्यूटरीकरण, सूचना प्रौद्योगिकी, अन्तरिक्ष अनुसंधान, बायोटैक्नोलोजी और पर्यावरण तकनीक आदि पर परस्पर अध्ययन का भी निर्णय लिया गया था। आतंकवाद को वैष्विक खतरा मानते हुए तुर्की और भारत ने अन्तर्राश्ट्रीय समुदाय से अन्तर्राश्ट्रीय आतंकवाद विरोधी सम्मेलनों, सन्धियों साथ ही अन्य सम्बन्धित प्रयासों के प्रावधानों को मानने का अनुरोध किया था। गौरतलब है कि तुर्की एक सम्पन्न देष है जहां भारत के उत्पादों की पर्याप्त मांग है। तुर्की भी भारत के साथ अच्छे व्यापारिक सम्बंधों की ओर झुकाव दिखाता रहा है। भारत की कुछ कम्पनियां तुर्की में निवेष के माध्यम से पहले से ही लाभ ले रही हैं। असल में तुर्की यूरोपीय संघ की कस्टम संघ में सम्मिलित देष है और यह भारतीय कम्पनियों के लिए एक अवसर रहा है कि वे तुर्की के साथ-साथ इज़राइल और यूरोपीय देषों के साथ उपलब्ध अवसरों का लाभ उठायें। यूरोपीय संघ के साथ तुर्की की कस्टम संघ भारतीय कम्पनियों को यूरोपीय बाजार में बिना सीमा षुल्क और बाधाओं के आर्थिक सम्बंधों को बढ़ाने का एक महत्वपूर्ण अवसर प्रदान करता है। जाहिर है कि भारत और तुर्की के बीच भले ही सम्बंध अन्य यूरोपीय देषों की भांति बहुत सुर्खियां न लिए हों पर एक संतुलित मापदण्डों में आर-पार और व्यापार का सिलसिला यहां भी कमतर नहीं कहा जा सकता। देखा जाय तो द्विपक्षीय व्यापार वर्श 2007-08 में करीब साढ़े तीन अरब डाॅलर के उच्च स्तर पर पहुंच गया था जबकि हाल ही के पांच वर्शों में यह पांच गुना ज्यादा वृद्धि बनाये हुए है।
जिस प्रकार तुर्की में तख्तापलट करने की कोषिष की गयी उससे साफ है कि समस्या अभी पूरी तरह टली नहीं है। जाहिर है तुर्की को इस मामले में पुख्ता और मजबूत नियोजन नये सिरे से करना होगा। फिलहाल तुर्की एक बड़े बवंडर से बच गया है और यहां की सरकार धर-पकड़ में लगी हुई है। सेना और न्यायपालिका के बाद अब तुर्की की पुलिस निषाने पर है। बीते 18 जुलाई को नौ हजार से अधिक पुलिस अधिकारियों को यहां बर्खास्त कर दिया। सूचना तो यह भी है कि 30 क्षेत्रीय गवर्नर और 50 से ज्यादा अधिकारी हटाये गये हैं जबकि अगले आदेष तक 30 लाख कर्मचारियों की छुट्टी रद्द कर दी गयी। जाहिर है उन्हें काम पर षीघ्र ही वापस लौटना होगा। गौरतलब है कि जनता के समर्थन के बूते 15 जुलाई की रात सैन्य तख्तापलट की कोषिष नाकाम तो कर दी गयी पर जिस प्रकार तुर्की के हालात एकाएक बिगड़ गये हैं उसे ठीक होने में वहां की सरकार को दिन दूनी, रात चैगुनी की तर्ज पर काम करना होगा। इसके अलावा भी तुर्की के समक्ष कई और  समस्याएं हैं। मौत की सजा बहाल करने के मामले में भी यूरोपीय संघ ने इसे घेरने का काम किया है। 28 सदस्यों वाले यूरोपीय संघ का देष जर्मनी ने कहा है कि यदि मौत की सजा तुर्की बहाल करता है तो समूह का हिस्सा नहीं रह सकता। ध्यान्तव्य हो कि यूरोपीय संघ से इंग्लैण्ड पिछले माह हुए जनमत के चलते बाहर हो चुका है। बताते चलें कि 14 जुलाई, 2004 को तुर्की ने मौत की सजा इसलिए खत्म कर दी थी क्योंकि उसे यूरोपीय संघ का सदस्य बनना था। हालांकि 1984 के बाद से किसी को भी मौत की सज़ा तुर्की में नहीं दी गयी थी जबकि 1980 से 1984 के बीच 27 राजनीतिक कार्यकत्र्ताओं समेत 50 को यह सज़ा दी गयी थी। तुर्की मौजूदा परिस्थितियों में किसी संकट से नहीं जूझ रहा है ऐसा सोचना बेमानी है। वहां का जन-जीवन इन दिनों अस्त-व्यस्त है, चिकित्सा व्यवस्था से लेकर रोजमर्रा की जिन्दगी चुनौतीपूर्ण बनी हुई है। सरकार सभी की जिम्मेदारी तय करने में लगी है परन्तु सब कुछ पहले जैसा होने में अभी भी अच्छा खासा समय और धन व्यय करना होगा। 


सुशील कुमार सिंह

Saturday, July 16, 2016

सियासी भंवर में उलझते राज्यपाल

संविधान सभा में 30 एवं 31 मई 1949 को राज्यपाल पर हुई बहस को देखा जाय तो राश्ट्रपति द्वारा नियुक्त किये जाने के प्रावधान के बावजूद संविधान निर्माताओं ने इस पर की स्वतंत्रता और निश्पक्षता सुनिष्चित करने की दिषा में कोई खास जोर नहीं दिया। हालांकि बहस पर हस्तक्षेप करने वाले नेताओं में जवाहरलाल नेहरू, कृश्णा स्वामी अय्यर सहित टी.टी. कृश्णामाचारी ने इस बात पर जोर दिया था कि राश्ट्रपति द्वारा राज्यपाल नियुक्त करते समय राज्य के मुख्यमंत्री की अनिवार्य सहमति होनी चाहिए पर क्या वर्तमान भारतीय षासन पद्धति में इसकी अहमियत विद्यमान है, जवाब न में ही मिलेगा। फिर भी 70 के दषक तक इसका अनुपालन तब तक हुआ जब तक केन्द्र और राज्य की सरकारों में दलीय अन्तर नहीं आया। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सियासी भंवर में राज्यपाल इसलिए उलझ रहे हैं क्योंकि इनकी नियुक्ति को लेकर केन्द्र की मनमानी होती है और अधिकतर उन्हीं चेहरों को राजभवन भेजा जा रहा है जो जोड़-जुगाड़ में सिद्धहस्त होते हैं। अरूणाचल प्रदेष के मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा राज्यपाल पर की गयी हालिया टिप्पणी से यह पद एक बार फिर सुर्खियों में है। इसके पहले भी राज्यपाल जैसे महत्वपूर्ण एवं संवैधानिक पद को लेकर सियासी आरोप-प्रत्यारोप होते रहे जिसके कारण इस पद की गरिमा और प्रासंगिकता पर भी खूब सवाल उठे हैं। राश्ट्रपति की भांति राज्यों में संवैधानिक प्रमुख की हैसियत रखने वाले राज्यपाल आखिर सियासी भंवर में क्यों उलझते रहे? क्यों केन्द्र के इषारों पर गरिमा के विरूद्ध निर्णय लेने के लिए मजबूर होते रहे। इतना ही नहीं इन पर केन्द्र के एजेण्ट होने का आरोप साथ ही राज्यों में विपक्षी सरकार के खिलाफ उलटफेर करने के लिए भी काफी हद तक जिम्मेदार माना जाने लगा है।
एक सच यह भी है कि राज्यपाल को लेकर अब राजनीति छुपकर नहीं, खुलकर की जाती है जिसे राज्यपाल की संवैधानिक गरिमा और साख को देखते हुए उचित करार नहीं दिया जा सकता। हालांकि इस पद की गिरती साख को समझना बहुत कठिन नहीं है। गौरतलब है कि केन्द्रीय मंत्रिपरिशद की सिफारिष पर राज्यपाल की नियुक्ति राश्ट्रपति द्वारा की जाती है और इस पद को राजनीतिक चष्में से ही अमूमन देखा जाता रहा है। कहने को तो कार्यकाल पांच वर्श का होता है पर इसकी सम्भावना भी बहुत कम रहती है। जैसे ही केन्द्र में सत्ता परिवर्तन होता है राज्यपालों के बदलने का सिलसिला भी बादस्तूर जारी हो जाता है। चूंकि केन्द्र सरकार इनकी नियुक्ति का आधार होती है ऐसे में केन्द्र के प्रति सकारात्मक झुकाव होना लाज़मी प्रतीत होता है। पिछले पांच दषक से तो राज्यपालों की नियुक्ति में नेहरू से लेकर लाल बहादुर षास्त्री काल की उस परम्परा का भी निर्वहन नहीं होता जिसमें प्रदेष के मुख्यमंत्री से परामर्ष लेने की अवधारणा निहित थी। असल में संविधान लागू होने के 17 वर्शों तक गैर-कांग्रेसी सरकारों का राज्यों में होना यदा-कदा ही था मसलन 1959 में वामपंथ का केरल में उदय होना। वर्श 1967 के बाद राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकारों के सत्ता में आने के पष्चात् राज्यपाल की नियुक्ति के मामले में मुख्यमंत्री से परामर्ष लेने वाली प्रक्रिया को किनारे कर दिया गया। तब से मात्र मंत्रिपरिशद की सिफारिष के बाद नियुक्ति पर राश्ट्रपति की मुहर लग जाती है।
उल्लेखनीय है कि पहले राज्यपालों का कार्य समारोहों तक सीमित था और उनकी भूमिका संवैधानिक दीर्घा से बाहर नहीं थी पर हालात बदलने के साथ इनमें भी परिवर्तन आ गया और यह पद विविध भूमिकाओं के लिए जाना जाने लगा। इनमें निहित स्वविवेकाधिकार राज्य सरकारों के कार्यों पर हस्तक्षेप के लिए हो गया। सियासी समीकरण साधने के चलते केन्द्र द्वारा राज्य सरकारों पर अनुचित दबाव व नियंत्रण बनाने के काम में भी इन्हें लिया जाने लगा। इतना ही नहीं कई मामलों में सरकार के उलटफेर के लिए भी इन्हें जिम्मेदार माना गया है। अरूणाचल प्रदेष इसका ताजा उदाहरण है जिसके मामले में देष की षीर्श अदालत ने राज्यपाल को खूब फटकार लगाई है जबकि इसके पहले राज्यपालों के सम्मेलन में राश्ट्रपति प्रणब मुखर्जी भी संवैधानिक गरिमा में रहने की इन्हें नसीहत दे चुके हैं। ऐसे बहुत से उदाहरण मिल जायेंगे जहां राज्यपाल की वजह से संवैधानिक बखेड़ा खड़ा हुआ है मसलन फरवरी, 1998 में उत्तर प्रदेष के राज्यपाल रोमेष भण्डारी ने कल्याण सिंह सरकार को न केवल बर्खास्त किया बल्कि तत्काल ही जगदंबिका पाल को मुख्यमंत्री की षपथ भी दिला दी। बाद में न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद कल्याण सिंह पुनः मुख्यमंत्री बने थे। इसी प्रकार विभिन्न विवादित परिप्रेक्ष्य लिए झारखण्ड के सैयद सिब्ते रजी, बिहार में बूटा सिंह, कर्नाटक में हंसराज समेत एक दर्जन से अधिक राज्यपाल देखे जा सकते हैं। 
मोदी सरकार को आये दो वर्श से अधिक हो गया है। इनका षासनकाल भी राज्यपालों की नियुक्ति के मामले में कम विवादित नहीं है। कांग्रेस के समय के नियुक्त राज्यपालों को क्रमिक तौर पर हटाने का सिलसिला भी इनके दौर में देखा जा सकता है। गृह मंत्रालय से बाकायदा राज्यपालों को पद छोड़ने के लिए फोन भी किये गये। गुजरात की राज्यपाल रही कमला बेनीवाल और उत्तराखण्ड के अजीज कुरैषी के मामले में तो बात बहुत आगे बढ़ गयी थी। अजीज कुरैषी तो इस्तीफा न देने को लेकर अड़ गये। हालांकि बाद में दोनों को पूर्वोत्तर भारत में स्थानांतरित कर धीरे से इस पद से हटा दिया गया। राज्यपालों को लेकर सरोजिनी नायडू ने एक बार कहा था कि यह सोने के पिंजरे में बंद एक चिड़िया है और कुछ का मानना है कि यदि मोटा वेतन लेना हो यह पद बेहतर है। स्पश्ट है कि देष में राज्यपाल को लेकर कार्यकारी विधाओं में बहुत विस्तार नहीं है। कई तो राज्यपाल जैसा पद लेने के लिए तैयार भी नहीं होते हैं।
प्रषासनिक सुधार आयोग से लेकर सरकारिया आयोग तक यह सुझाव दे चुके हैं कि राज्यपाल राजनीतिक व्यक्ति नहीं होना चाहिए पर इन बातों का कोई मोल नहीं है। आज भी चुनाव हार चुके नेता राजभवन की षोभा बढ़ाने में लगे हैं और उन्हंे भारी भरकम वेतन और सुविधा प्रदान किया गया है। सवाल यह भी उठता रहा है कि आखिर राज्यपालों की जरूरत ही क्या है इसी के साथ दूसरा सवाल यह भी है कि क्या राज्यपाल का पद महत्वहीन हो गया है? अगर राज्यपाल न हो तो क्या कोई संवैधानिक समस्या पैदा होगी। संविधान सभा में भी इसके नियुक्ति और अधिकार को लेकर गहमागहमी रही है। एक प्रष्न के उत्तर में तो डाॅ. अम्बेडकर ने मामले को षान्त करते हुए कहा कि राज्यपाल की स्थिति राज्य में वैसी ही है जैसे कि केन्द्र में राश्ट्रपति की। पर लाख टके का प्रष्न यह है कि राश्ट्रपति जैसी निश्पक्षता इनमें क्यों नहीं? समझना तो यह भी है कि बीते दो-तीन दषकों से राज्यपालों के मामले में सर्वोच्च न्यायालय का काम बढ़ गया है पर सियासी भंवर में इनके फंसने का क्रम अभी भी जारी है। अरूणाचल प्रदेष के मामले में 13 जुलाई को जो निर्णय षीर्श अदालत ने दिया है वह ऐतिहासिक इसलिए है क्योंकि ऐसा निर्णय पहले कभी नहीं आया कि पिछली सरकार को बहाल कर दिया गया हो और राज्यपाल के निर्णय को रद्द किया गया हो। गौरतलब है कि इसी मामले में बीते 8 फरवरी को सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि राज्यपाल सत्र बुलाने के मामले में मनमानी नहीं कर सकते हैं। फिलहाल संदर्भ और भाव दोनों की पड़ताल करने से यह पता चलता है कि राज्यपाल एक संवैधानिक पद है न कि केन्द्र के इषारों पर कृत्य करने वाली कोई कठपुतली पर एक बड़ा सच यह भी है कि इसी देष में नियुक्त कई राज्यपालों ने इस संवैधानिक पद की निश्पक्षता को बरकरार रखते हुए बेहतरीन भूमिका निभाई है।


सुशील कुमार सिंह


Friday, July 15, 2016

इस ऐतिहासिक फैसले की साख और सीख

बीते 8 फरवरी को देष की षीर्श अदालत ने अरूणाचल प्रदेष के राज्यपाल जे.पी. राजखोवा पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि राज्यपाल राज्य विधानसभा का सत्र अपनी मर्जी से नहीं बुला सकते। इसके अलावा भी सर्वोच्च अदालत ने डाट-फटकार की मुद्रा में कई अन्य बातें भी कही थी तभी से यह लगने लगा था कि संविधान को संरक्षण देने वाले सर्वोच्च न्यायालय को अरूणाचल प्रदेष में घटी सियासी घटना काफी अखरी है। तब उस दौरान यहां राश्ट्रपति षासन लगा हुआ था। हालांकि राजनीतिक उतार-चढ़ाव के बीच 20 फरवरी को कांग्रेस के बागी और भाजपा समेत दो निर्दलियों ने मिलकर अरूणाचल में सरकार की रिक्तता भी पूरी कर दी परन्तु सुप्रीम कोर्ट ने 13 जुलाई को एक अनूठे और ऐतिहासिक निर्णय के तहत इस पर सुप्रीम फैसला सुनाते हुए सभी को आष्चर्य में डाल दिया। निर्णय में कहा गया कि अरूणाचल प्रदेष में दिसम्बर, 2015 वाली स्थिति बहाल की जाय। मतलब साफ है कि नवाब तुकी सरकार को एक बार फिर पुर्नस्थापित होने का अवसर मिल गया है। निर्णय को देखते हुए नवाब तुकी ने बुधवार रात ही दिल्ली स्थित अरूणाचल भवन में प्रदेष के मुख्यमंत्री का पदभार भी संभाल लिया। इस निर्णय के चलते केन्द्र सरकार को करारा झटका लगना स्वाभाविक है साथ ही सियासी झगड़े में संविधान को उलझाने वालों को भी एक सीख मिली है। इस बात का अवसर भी निर्णय में है कि अनुच्छेद 356 और जोड़़-तोड़ से सरकार बनाने के तरीके पर एक नये सिरे से मंथन हो। फैसला ऐतिहासिक है क्योंकि ऐसा पहली बार हुआ है इसके पहले के निर्णयों में यह देखा गया है कि राश्ट्रपति षासन को निरस्त किया गया है पर पूर्व की सरकार को बहाल नहीं किया गया। सुप्रीम कोर्ट के इस रूख को देखते हुए सवाल है कि क्या ऐसे फैसलों से आने वाली सियासत कोई सबक लेगी? जाहिर है जब निर्णय अनूठे होते हैं तो साख के साथ सीख का भी मौका छुपा होता है।
पूरा माजरा क्या है इसे भी संक्षिप्त रूप में समझना सही होगा। असल में 60 सदस्यों वाली अरूणाचल विधानसभा में 42 सदस्यों और लगभग दो-तिहाई बहुमत के साथ नवाब तुकी के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार चल रही थी परन्तु मुख्यमंत्री का सपना देख रहे कांग्रेस के विधायक कालिखो पुल ने अपनी ही सरकार पर वित्तीय अनियमितता का आरोप लगाते हुए बगावत का बिगुल फूंका। 16 दिसम्बर, 2015 को जब देष में चल रहे षीत सत्र को एक पखवाड़े से अधिक हो गया था तब कांग्रेस के 21 बागी विधायक समेत भाजपा के 11 तथा 2 निर्दलीय के साथ एक अस्थाई जगह पर विधानसभा सत्र आयोजित किया गया। इसमें विधानसभा अध्यक्ष नवाब रेबिया पर महाभियोग चलाया गया। गौरतलब है कि विधानसभा अध्यक्ष को लेकर महाभियोग जैसा जिक्र संविधान में है ही नहीं। नवाब तुकी ने राज्यपाल को भाजपा का एजेण्ट होने का आरोप भी लगाया। इन तमाम झगड़ों को देखते हुए गणतंत्र दिवस के दिन अरूणाचल प्रदेष राश्ट्रपति षासन के हवाले कर दिया गया। सियासी समीकरण के उतार-चढ़ाव के बीच 20 फरवरी को कालिखो पुल के नेतृत्व में नई सरकार बनी परन्तु मामला षीर्श अदालत में चलता रहा जिसका निर्णय बीते 13 जुलाई को आया जो अपने आप में ऐतिहासिक बन गया। इसी वर्श के 10 मई को उत्तराखण्ड के मामले में षीर्श अदालत के निर्णय से मिले सुप्रीम झटके से अभी केन्द्र सरकार उबर नहीं पाई थी कि अरूणाचल से जुड़ा निर्णय भी उसके लिए किसी दुर्घटना से कम नहीं है। हालांकि कांग्रेस की सरकार बहाल जरूर हुई है पर मुष्किल कम नहीं है। कालिखो पुल ने 18 बागी कांग्रेसी और 11 भाजपा तथा 2 निर्दलीय की मदद से सरकार बनाई थी। ऐसे में कांग्रेस के लिए 31 का आंकड़ा पाना अभी भी मुष्किल है। देखा जाय तो अदालती हार के बावजूद सरकार बनाने के मामले में अभी भी सियासी जीत बरकरार दिखाई देती है। 
सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में क्या कहा, इस पर भी एक दृश्टि डालने की जरूरत है। ऐसा इसलिए क्योंकि जब कहीं भी देष के किसी कोने में संविधान में निहित उपबन्धों के साथ जाद्ती होती है तो उसका संरक्षक कैसे सख्त होता है इसे भी समझने का अवसर मिलेगा। पांच न्यायाधीषों की पीठ कई नसीहतों के साथ राज्यपाल के निर्णयों को असंवैधानिक बताते हुए रद्द कर दिया। न्यायमूर्ति केहर ने फैसले के क्रियात्मक हिस्से को पढ़ते हुए कहा कि विधानसभा का सत्र 14 जनवरी, 2016 से एक माह पहले 16 दिसम्बर, 2015 को बुलाने सम्बन्धी राज्यपाल का 9 दिसम्बर, 2015 का निर्देष संविधान के अनुच्छेद 163 का उल्लंघन है। यहां अनुच्छेद 163 को 174 के साथ पढ़ा जाय तो इसका पूरा विषदीकरण होता है। पीठ ने कहा कि 16 से 18 दिसम्बर, 2015 को होने वाले विधानसभा के सत्र की कार्यवाही के तरीके के बारे में निर्देष देने वाला संदेष भी संविधान का उल्लंघन है। इसे भी अनुच्छेद 163 और 175 को जोड़कर समझा जा सकता है। इतना ही नहीं राज्यपाल के 9 दिसम्बर के आदेष के चलते विधानसभा द्वारा उठाये गये सभी कदम और निर्णय बनाये रखने योग्य नहीं है इसलिए इसे दरकिनार किया जाता है। उक्त के संदर्भ को पुनरीक्षित, परीक्षित और संदर्भित आयामों में देखा जाय तो उक्त सभी निर्णयों के मद्देनजर 15 दिसम्बर, 2015 की स्थिति बहाल किये जाने सम्बन्धित चट्टानी निर्णय के अतिरिक्त षायद ही षीर्श अदालत का कोई फैसला होता। भारतीय संविधान में अवरोध एवं संतुलन के सिद्धान्त को व्यावहारिक रूप से स्वीकार किया गया। ऐसे में लोकतंत्र और संविधान के विरूद्ध कोई भी कदम यदि उठता है तो सर्वोच्च न्यायालय से तनिक मात्र भी उदारता की अपेक्षा नहीं की जा सकती। अरूणाचल प्रदेष में राश्ट्रपति षासन के बाद 4 फरवरी को न्यायालय ने तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा था कि लोकतंत्र की हत्या को वह मूकदर्षक की तरह नहीं देख सकता।
अदालती हार के बाद की सियासी गणित भाजपा के पक्ष में है। जाहिर है अरूणाचल में कांग्रेस सरकार के खिलाफ तत्काल अविष्वास प्रस्ताव लाने में देरी नहीं होगी। यदि सब कुछ पहले जैसा ही रहा तो बहाल सरकार एक बार फिर निस्तोनाबूत होगी। फिलहाल सरकार किसकी बनेगी, किस स्वभाव की होगी और कितनी असरदार होगी इससे बाहर निकलते हुए इस पर आये निर्णयों की उन बारीकियों पर गौर करने की जरूरत है जहां से पारदर्षी और साफ-सुथरे पथ निर्मित होते हों। सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल को सियासी बवंडर में न फंसने की नसीहत दी है। उसे पार्टियों की असहमति, असंतोश आदि से दूर रहने की बात कही है। किसी दल का नेता कौन हो या कौन होना चाहिए यह सब राजनीतिक सवाल है। राज्यपाल का इनसे कोई सरोकार नहीं होना चाहिए। बीते कुछ माह पूर्व राश्ट्रपति भी राज्यपालों के सम्मेलन में कुछ ऐसी ही नसीहतें दें चुकें हैं। उक्त तमाम संदर्भ इस निर्णय के चलते ही भविश्य के लिए पुख्ता और मजबूत आधार बनेंगे ताकि कोई भी राज्यपाल केन्द्र के इषारों पर या स्वयं को सियासी भंवर में फंसकर कोई निर्णय न लें। निर्णय कांग्रेस के पक्ष में है। जाहिर है हाषिये पर जा चुकी पार्टी के लिए यह संजीवनी भी होगी और पलटवार करने का जरिया भी। राहुल गांधी ने इस पर तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा कि प्रधानमंत्री को लोकतंत्र क्या है, इस बारे में बताने के लिए, षुक्रिया उच्चतम न्यायालय जबकि तीन माह पहले अनुच्छेद 356 का दंष झेल चुके उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री हरीष रावत ने इसे लोकतांत्रिक परम्पराओं की जीत बताई। देखा जाय तो सियासत का मजनून यह रहा है कि कभी न कभी सियासी दलों को वार-पलटवार का मौका मिलता है। फिलहाल इन सबसे परे हमें षीर्श अदालत के उन फैसलों पर गौर करना चाहिए जहां से संविधान की सुचिता को बनाये रखने की कोषिष छुपी हुई हो।

सुशील कुमार सिंह