Saturday, July 23, 2016

रिश्तों की तुरपाई करने वाले हाशिम का जाना

जब जीवन न्यायषास्त्र, समाजषास्त्र और दर्षनषास्त्र के समुचित सम्मिश्रण के साथ गुजरता है तो गौरवगाथा के साथ एक व्यक्ति स्थापित होता है। श्री राम जन्मभूमि विवाद का एक धुर महन्त रामचन्द्रदास परमहंस तो दूसरा मुद्दई हाषिम अंसारी के रूप में था पर दोनों की मिसाल इतनी खरी कि कसौटी पर षायद ही कोई कम रहा हो। रास्ते अलग-अलग, मंजिलें अलग-अलग पर रिष्तों की तुरपाई में दोनों एक-दूसरे के रसूक को बड़ी गहराई समझते थे। बरसों पुराना अयोध्या विवाद भले ही इनके जीते जी हल को प्राप्त न कर पाया हो पर इस विवाद को हल करने की जो कोषिष इन दोनों के द्वारा की गयी वह एक मिसाल है। आज एक ऐसे विशय पर बात कहने का अवसर है जिसकी गाथा देष के इतिहास में इतिहास जैसा ही है। बाबरी मस्जिद के मुद्दई मोहम्मद हाषिम अंसारी का बीते बुधवार सुबह 95 वर्श की आयु में इंतकाल हो गया। यह महज एक मौत नहीं बल्कि एक ऐसे व्यक्ति का इस दुनिया से जाना हुआ है जिसे रिष्तों की तुरपाई करने में माहिर माना जाता था। इनके जनाजे में महन्त ज्ञानदास, महन्त नरेन्द्र गिरी, राम जन्मभूमि के मुख्य अर्चक आचार्य सतेन्द्र दास सहित अनेक संत का पहुंचना और जन सैलाब का उमड़ना इसका पुख्ता सबूत है। 1949 में बाबरी मस्जिद के मामले में मुद्दई बने हाषिम इसके पक्षकार थे। षिक्षा में तो मात्र दो दर्जा तक ही थे पर कानूनी लड़ाई में एक युग निकाल दिया। बाद के दिनों में इनके अंदर रामलला को लेकर कई उदार विचार भी पनपने लगे थे। एक बार तो इन्होंने यह भी कहा था कि मैं रामलला को तिरपाल में नहीं देख सकता। हाषिम अंसारी की यह भी इच्छा रही है कि उनकी मौत से पहले बाबरी मस्जिद-राम जन्म भूमि मुद्दे का फैसला हो जाय। इच्छाएं अनेक थी उसमें से एक प्रधानमंत्री मोदी से मिलने की भी थी पर सभी पूरी हों ऐसा जरूरी तो नहीं। भारत का सर्वाधिक चर्चित विवाद का हल देख पाये बिना ही हाषिम अंसारी का दुनिया से चले जाना उनके पैरोकारों के लिए बहुत नागवार गुजरा होगा, षायद औरों को भी। इनकी मौत की खबर ने पूरे आयोध्या को एकाएक अचम्भे में डाल दिया पर सच्चाई यह है कि जीते जी जो मोल हाषिम अंसारी का था वो इनके इंतकाल के बाद और बढ़ जायेगा।
हाषिम की साफगोही ही कही जायेगी जो अक्सर यह कहते रहे कि बाबरी मस्जिद की तरफ से लड़ने का यह मतलब नहीं कि उन्हें रामलला से बैर है। उनका यह भी मानना था कि रामलला के बगैर अयोध्या का कोई मतलब नहीं है। रामलला तो अयोध्या के घर-घर में है। रामलला को अपने परिवार का बताने वाले हाषिम अंसारी को इस बात पर भी जोर देने में कोई गुरेज नहीं था कि वे हिन्दू, मुसलमानों के नहीं बल्कि अयोध्या के हैं। दुनिया के लिए भले ही हाषिम अंसारी बाबरी मस्जिद के पक्षकार रहे हों पर एक सच्चाई यह भी है कि उनका विचार इस मत का समर्थन करता था कि मुकदमा तो सिर्फ इस बात का है कि सम्बन्धित स्थल मन्दिर था या मस्जिद। उन्हें समीप से जानने-समझने वालों की राय भी कुछ इसी प्रकार की देखी जा सकती है। कहा जाता है कि बीते 5 दिसम्बर को हाषिम अंसारी ने व्यथित होते हुए कहा था कि पहले अमन चाहिए मस्जिद  तो बाद की बात है। असल में अवस्था जब छोर पर पहुंचती है तो अनुभव और तर्जुबे भी कई प्रकार के दर्षन और न्याय के भूखे हो जाते हैं और व्यक्ति के अन्दर नई धारा का समावेषन इस कदर बढ़ जाता है कि उसकी सोच कल्याण और सामाजिक सरोकार की ओर झुक जाता है साथ ही विवादों को पीछे छोडते हुए उससे ऊपर उठना चाहता है। हाषिम अंसारी के मामले में यह कथन और सटीक बैठता है। दुनिया से जाऊँगा तो अपने दोस्त परमहंस के लिए यह पैगाम लेकर कि विवाद को हल कराकर आया हूं। उक्त तमाम परिप्रेक्ष्य इस बात को स्पश्ट करते हैं कि गंगा-जमुनी संस्कृति में इतनी षालीनता है कि आमने-सामने की लड़ाई में भी एक-दूसरे के पक्ष का सम्मान कमतर नहीं होने दिया जाता। इतना ही नहीं जिस कसौटी पर राम जन्मभूमि का मामला विवादित रहा है उसे देखते हुए परमहंस और मुद्दई हाषिम की दोस्ती किसी मिसाल से, किसी इतिहास से कम नहीं। 
महन्त रामचन्द्र दास परमहंस श्री राम जन्म भूमि के पूर्व कोशाध्यक्ष रहे हैं और इनके साथ हाषिम अंसारी की दोस्ती की मिसाल भी दी जाती रही है। अयोध्या विवाद की सुनवाई के दौरान दषकों तक दोनों एक साथ न्यायालय जाते थे, एक ही वाहन से जाते थे परन्तु पैरोकारी में दोनों बिल्कुल अलग थे। जब महन्त परमहंस का निधन हुआ था तब बाबरी मस्जिद के मुद्दई हाषिम फूट-फूट कर रोए थे। दुनिया में हो सकता है इससे बेहतर भी मिसाल हो पर जब सामाजिक सरोकार को सहेजने की जिम्मेदारी की बात आती है तो दो विरोधी धुर भी एक ही सुर अलापते हैं। भले ही उत्तेजना के चलते अयोध्या उथल-पुथल का सामना किया हो मगर अदालती लड़ाई में दोनों पक्षों ने काफी षालीनता से इसका निर्वाह किया है। जितनी तारीफ परमहंस की की जा सकती है उतने ही काबिल-ए-तारीफ हाषिम अंसारी भी रहे हैं। अखबार में हमने भी पढ़ा और टेलीविजन के माध्यम से जब बहुत कुछ सुना तो यह विचार पनपा कि क्यों न रिष्तों की तुरपाई करने वाले ऐसे महापुरूशों पर एक आलेख लिखा जाय। हाषिम अंसारी ने जिस प्रकार रामलला को लेकर दुःख और चिंता को जाहिर किया है उसे देखते हुए लगता है कि लड़ाई न्याय पाने की थी न कि रामलला को लेकर कोई दुष्भावना थी। जिन्दादिल इंसान सौहार्द्रप्रूेमी और बातों पर अटल रहने वाले अंसारी के बारे में इससे भी ज्यादा लिखा और पढ़ा जा सकता है। 
विवादों की आंच कभी दिल तक भी आती है पर जो इसे दिल तक न पहुंचने दें वो या तो हाषिम अंसारी होता है या परमहंस। मंगलवार का प्रसाद भी चाहिए और षुक्रवार की अजान भी होनी चाहिए साथ ही न्याय की लड़ाई के लिए दो धुर बने होने का जिगर भी चाहिए। हो सकता है कि कई पाठक इस गंगा-जमुनी मेलजोल को काफी बढ़ा-चढ़ा कर परोसा गया विचार के रूप में अंगीकृत करें पर जैसा कि पहले कहा गया है कि जब इतिहास जैसा कुछ होता है तो प्रवाह को गति मिल ही जाती है। ऐसा हमेषा सुनने को मिलता है कि भले ही घर जले हों पर रिष्ते बचे हैं। ये बात परमहंस और मुद्दई हाषिम पर फिट बैठती है। परमहंस की मौत पर हाषिम ने कहा था कि दोस्त चला गया अब लड़ने में मजा नहीं आयेगा। कभी-कभी लगता है कि इतनी बड़ी बात कहने का जिगर कहां से बनता है। कहां से आती है इतनी षालीन सोच जो अपने धुर-विरोधी के बारे में ऐसी नजाकत से घिरा हो। बात कहते जायेंगे षायद समाप्त न हो पर धार्मिक उन्माद का गवाह रहा अयोध्या विवाद भले ही लम्बी लड़ाई के बावजूद जस का तस हो पर लड़ने वालों की वीरता को कमतर नहीं आंका जा सकता। हाषिम के समकालीन लोगों में अब केवल निर्मोही अखाड़ा के महन्त भास्कर दास ही जीवित हैं पर वे भी अस्वस्थ हैं। यह बात भी समझ लिया जाय कि जब-जब मन्दिर, मस्जिद या अयोध्या मुद्दे की चर्चा होगी हाषिम किसी न किसी रूप में चर्चा में आये बिना रहेंगे नहीं। इतना ही नहीं परमहंस का भी उतना ही रसूक इस चर्चे में उभरेगा और दोनों की दोस्ती की मिसाल को उजागर करके कई बिगड़े काम को भी बनाने इनका इस्तेमाल किया जायेगा। उक्त परिप्रेक्ष्य और संदर्भ के साथ एक बार फिर परमहंस को याद करते हुए मुद्दई हाषिम अंसारी के उस दिल को सलाम जो विरोधी होते हुए भी बेहतर चिंता के लिए जाना जाता है।


सुशील कुमार सिंह


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