Friday, July 15, 2016

इस ऐतिहासिक फैसले की साख और सीख

बीते 8 फरवरी को देष की षीर्श अदालत ने अरूणाचल प्रदेष के राज्यपाल जे.पी. राजखोवा पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि राज्यपाल राज्य विधानसभा का सत्र अपनी मर्जी से नहीं बुला सकते। इसके अलावा भी सर्वोच्च अदालत ने डाट-फटकार की मुद्रा में कई अन्य बातें भी कही थी तभी से यह लगने लगा था कि संविधान को संरक्षण देने वाले सर्वोच्च न्यायालय को अरूणाचल प्रदेष में घटी सियासी घटना काफी अखरी है। तब उस दौरान यहां राश्ट्रपति षासन लगा हुआ था। हालांकि राजनीतिक उतार-चढ़ाव के बीच 20 फरवरी को कांग्रेस के बागी और भाजपा समेत दो निर्दलियों ने मिलकर अरूणाचल में सरकार की रिक्तता भी पूरी कर दी परन्तु सुप्रीम कोर्ट ने 13 जुलाई को एक अनूठे और ऐतिहासिक निर्णय के तहत इस पर सुप्रीम फैसला सुनाते हुए सभी को आष्चर्य में डाल दिया। निर्णय में कहा गया कि अरूणाचल प्रदेष में दिसम्बर, 2015 वाली स्थिति बहाल की जाय। मतलब साफ है कि नवाब तुकी सरकार को एक बार फिर पुर्नस्थापित होने का अवसर मिल गया है। निर्णय को देखते हुए नवाब तुकी ने बुधवार रात ही दिल्ली स्थित अरूणाचल भवन में प्रदेष के मुख्यमंत्री का पदभार भी संभाल लिया। इस निर्णय के चलते केन्द्र सरकार को करारा झटका लगना स्वाभाविक है साथ ही सियासी झगड़े में संविधान को उलझाने वालों को भी एक सीख मिली है। इस बात का अवसर भी निर्णय में है कि अनुच्छेद 356 और जोड़़-तोड़ से सरकार बनाने के तरीके पर एक नये सिरे से मंथन हो। फैसला ऐतिहासिक है क्योंकि ऐसा पहली बार हुआ है इसके पहले के निर्णयों में यह देखा गया है कि राश्ट्रपति षासन को निरस्त किया गया है पर पूर्व की सरकार को बहाल नहीं किया गया। सुप्रीम कोर्ट के इस रूख को देखते हुए सवाल है कि क्या ऐसे फैसलों से आने वाली सियासत कोई सबक लेगी? जाहिर है जब निर्णय अनूठे होते हैं तो साख के साथ सीख का भी मौका छुपा होता है।
पूरा माजरा क्या है इसे भी संक्षिप्त रूप में समझना सही होगा। असल में 60 सदस्यों वाली अरूणाचल विधानसभा में 42 सदस्यों और लगभग दो-तिहाई बहुमत के साथ नवाब तुकी के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार चल रही थी परन्तु मुख्यमंत्री का सपना देख रहे कांग्रेस के विधायक कालिखो पुल ने अपनी ही सरकार पर वित्तीय अनियमितता का आरोप लगाते हुए बगावत का बिगुल फूंका। 16 दिसम्बर, 2015 को जब देष में चल रहे षीत सत्र को एक पखवाड़े से अधिक हो गया था तब कांग्रेस के 21 बागी विधायक समेत भाजपा के 11 तथा 2 निर्दलीय के साथ एक अस्थाई जगह पर विधानसभा सत्र आयोजित किया गया। इसमें विधानसभा अध्यक्ष नवाब रेबिया पर महाभियोग चलाया गया। गौरतलब है कि विधानसभा अध्यक्ष को लेकर महाभियोग जैसा जिक्र संविधान में है ही नहीं। नवाब तुकी ने राज्यपाल को भाजपा का एजेण्ट होने का आरोप भी लगाया। इन तमाम झगड़ों को देखते हुए गणतंत्र दिवस के दिन अरूणाचल प्रदेष राश्ट्रपति षासन के हवाले कर दिया गया। सियासी समीकरण के उतार-चढ़ाव के बीच 20 फरवरी को कालिखो पुल के नेतृत्व में नई सरकार बनी परन्तु मामला षीर्श अदालत में चलता रहा जिसका निर्णय बीते 13 जुलाई को आया जो अपने आप में ऐतिहासिक बन गया। इसी वर्श के 10 मई को उत्तराखण्ड के मामले में षीर्श अदालत के निर्णय से मिले सुप्रीम झटके से अभी केन्द्र सरकार उबर नहीं पाई थी कि अरूणाचल से जुड़ा निर्णय भी उसके लिए किसी दुर्घटना से कम नहीं है। हालांकि कांग्रेस की सरकार बहाल जरूर हुई है पर मुष्किल कम नहीं है। कालिखो पुल ने 18 बागी कांग्रेसी और 11 भाजपा तथा 2 निर्दलीय की मदद से सरकार बनाई थी। ऐसे में कांग्रेस के लिए 31 का आंकड़ा पाना अभी भी मुष्किल है। देखा जाय तो अदालती हार के बावजूद सरकार बनाने के मामले में अभी भी सियासी जीत बरकरार दिखाई देती है। 
सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में क्या कहा, इस पर भी एक दृश्टि डालने की जरूरत है। ऐसा इसलिए क्योंकि जब कहीं भी देष के किसी कोने में संविधान में निहित उपबन्धों के साथ जाद्ती होती है तो उसका संरक्षक कैसे सख्त होता है इसे भी समझने का अवसर मिलेगा। पांच न्यायाधीषों की पीठ कई नसीहतों के साथ राज्यपाल के निर्णयों को असंवैधानिक बताते हुए रद्द कर दिया। न्यायमूर्ति केहर ने फैसले के क्रियात्मक हिस्से को पढ़ते हुए कहा कि विधानसभा का सत्र 14 जनवरी, 2016 से एक माह पहले 16 दिसम्बर, 2015 को बुलाने सम्बन्धी राज्यपाल का 9 दिसम्बर, 2015 का निर्देष संविधान के अनुच्छेद 163 का उल्लंघन है। यहां अनुच्छेद 163 को 174 के साथ पढ़ा जाय तो इसका पूरा विषदीकरण होता है। पीठ ने कहा कि 16 से 18 दिसम्बर, 2015 को होने वाले विधानसभा के सत्र की कार्यवाही के तरीके के बारे में निर्देष देने वाला संदेष भी संविधान का उल्लंघन है। इसे भी अनुच्छेद 163 और 175 को जोड़कर समझा जा सकता है। इतना ही नहीं राज्यपाल के 9 दिसम्बर के आदेष के चलते विधानसभा द्वारा उठाये गये सभी कदम और निर्णय बनाये रखने योग्य नहीं है इसलिए इसे दरकिनार किया जाता है। उक्त के संदर्भ को पुनरीक्षित, परीक्षित और संदर्भित आयामों में देखा जाय तो उक्त सभी निर्णयों के मद्देनजर 15 दिसम्बर, 2015 की स्थिति बहाल किये जाने सम्बन्धित चट्टानी निर्णय के अतिरिक्त षायद ही षीर्श अदालत का कोई फैसला होता। भारतीय संविधान में अवरोध एवं संतुलन के सिद्धान्त को व्यावहारिक रूप से स्वीकार किया गया। ऐसे में लोकतंत्र और संविधान के विरूद्ध कोई भी कदम यदि उठता है तो सर्वोच्च न्यायालय से तनिक मात्र भी उदारता की अपेक्षा नहीं की जा सकती। अरूणाचल प्रदेष में राश्ट्रपति षासन के बाद 4 फरवरी को न्यायालय ने तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा था कि लोकतंत्र की हत्या को वह मूकदर्षक की तरह नहीं देख सकता।
अदालती हार के बाद की सियासी गणित भाजपा के पक्ष में है। जाहिर है अरूणाचल में कांग्रेस सरकार के खिलाफ तत्काल अविष्वास प्रस्ताव लाने में देरी नहीं होगी। यदि सब कुछ पहले जैसा ही रहा तो बहाल सरकार एक बार फिर निस्तोनाबूत होगी। फिलहाल सरकार किसकी बनेगी, किस स्वभाव की होगी और कितनी असरदार होगी इससे बाहर निकलते हुए इस पर आये निर्णयों की उन बारीकियों पर गौर करने की जरूरत है जहां से पारदर्षी और साफ-सुथरे पथ निर्मित होते हों। सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल को सियासी बवंडर में न फंसने की नसीहत दी है। उसे पार्टियों की असहमति, असंतोश आदि से दूर रहने की बात कही है। किसी दल का नेता कौन हो या कौन होना चाहिए यह सब राजनीतिक सवाल है। राज्यपाल का इनसे कोई सरोकार नहीं होना चाहिए। बीते कुछ माह पूर्व राश्ट्रपति भी राज्यपालों के सम्मेलन में कुछ ऐसी ही नसीहतें दें चुकें हैं। उक्त तमाम संदर्भ इस निर्णय के चलते ही भविश्य के लिए पुख्ता और मजबूत आधार बनेंगे ताकि कोई भी राज्यपाल केन्द्र के इषारों पर या स्वयं को सियासी भंवर में फंसकर कोई निर्णय न लें। निर्णय कांग्रेस के पक्ष में है। जाहिर है हाषिये पर जा चुकी पार्टी के लिए यह संजीवनी भी होगी और पलटवार करने का जरिया भी। राहुल गांधी ने इस पर तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा कि प्रधानमंत्री को लोकतंत्र क्या है, इस बारे में बताने के लिए, षुक्रिया उच्चतम न्यायालय जबकि तीन माह पहले अनुच्छेद 356 का दंष झेल चुके उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री हरीष रावत ने इसे लोकतांत्रिक परम्पराओं की जीत बताई। देखा जाय तो सियासत का मजनून यह रहा है कि कभी न कभी सियासी दलों को वार-पलटवार का मौका मिलता है। फिलहाल इन सबसे परे हमें षीर्श अदालत के उन फैसलों पर गौर करना चाहिए जहां से संविधान की सुचिता को बनाये रखने की कोषिष छुपी हुई हो।

सुशील कुमार सिंह


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