Saturday, July 16, 2016

सियासी भंवर में उलझते राज्यपाल

संविधान सभा में 30 एवं 31 मई 1949 को राज्यपाल पर हुई बहस को देखा जाय तो राश्ट्रपति द्वारा नियुक्त किये जाने के प्रावधान के बावजूद संविधान निर्माताओं ने इस पर की स्वतंत्रता और निश्पक्षता सुनिष्चित करने की दिषा में कोई खास जोर नहीं दिया। हालांकि बहस पर हस्तक्षेप करने वाले नेताओं में जवाहरलाल नेहरू, कृश्णा स्वामी अय्यर सहित टी.टी. कृश्णामाचारी ने इस बात पर जोर दिया था कि राश्ट्रपति द्वारा राज्यपाल नियुक्त करते समय राज्य के मुख्यमंत्री की अनिवार्य सहमति होनी चाहिए पर क्या वर्तमान भारतीय षासन पद्धति में इसकी अहमियत विद्यमान है, जवाब न में ही मिलेगा। फिर भी 70 के दषक तक इसका अनुपालन तब तक हुआ जब तक केन्द्र और राज्य की सरकारों में दलीय अन्तर नहीं आया। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सियासी भंवर में राज्यपाल इसलिए उलझ रहे हैं क्योंकि इनकी नियुक्ति को लेकर केन्द्र की मनमानी होती है और अधिकतर उन्हीं चेहरों को राजभवन भेजा जा रहा है जो जोड़-जुगाड़ में सिद्धहस्त होते हैं। अरूणाचल प्रदेष के मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा राज्यपाल पर की गयी हालिया टिप्पणी से यह पद एक बार फिर सुर्खियों में है। इसके पहले भी राज्यपाल जैसे महत्वपूर्ण एवं संवैधानिक पद को लेकर सियासी आरोप-प्रत्यारोप होते रहे जिसके कारण इस पद की गरिमा और प्रासंगिकता पर भी खूब सवाल उठे हैं। राश्ट्रपति की भांति राज्यों में संवैधानिक प्रमुख की हैसियत रखने वाले राज्यपाल आखिर सियासी भंवर में क्यों उलझते रहे? क्यों केन्द्र के इषारों पर गरिमा के विरूद्ध निर्णय लेने के लिए मजबूर होते रहे। इतना ही नहीं इन पर केन्द्र के एजेण्ट होने का आरोप साथ ही राज्यों में विपक्षी सरकार के खिलाफ उलटफेर करने के लिए भी काफी हद तक जिम्मेदार माना जाने लगा है।
एक सच यह भी है कि राज्यपाल को लेकर अब राजनीति छुपकर नहीं, खुलकर की जाती है जिसे राज्यपाल की संवैधानिक गरिमा और साख को देखते हुए उचित करार नहीं दिया जा सकता। हालांकि इस पद की गिरती साख को समझना बहुत कठिन नहीं है। गौरतलब है कि केन्द्रीय मंत्रिपरिशद की सिफारिष पर राज्यपाल की नियुक्ति राश्ट्रपति द्वारा की जाती है और इस पद को राजनीतिक चष्में से ही अमूमन देखा जाता रहा है। कहने को तो कार्यकाल पांच वर्श का होता है पर इसकी सम्भावना भी बहुत कम रहती है। जैसे ही केन्द्र में सत्ता परिवर्तन होता है राज्यपालों के बदलने का सिलसिला भी बादस्तूर जारी हो जाता है। चूंकि केन्द्र सरकार इनकी नियुक्ति का आधार होती है ऐसे में केन्द्र के प्रति सकारात्मक झुकाव होना लाज़मी प्रतीत होता है। पिछले पांच दषक से तो राज्यपालों की नियुक्ति में नेहरू से लेकर लाल बहादुर षास्त्री काल की उस परम्परा का भी निर्वहन नहीं होता जिसमें प्रदेष के मुख्यमंत्री से परामर्ष लेने की अवधारणा निहित थी। असल में संविधान लागू होने के 17 वर्शों तक गैर-कांग्रेसी सरकारों का राज्यों में होना यदा-कदा ही था मसलन 1959 में वामपंथ का केरल में उदय होना। वर्श 1967 के बाद राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकारों के सत्ता में आने के पष्चात् राज्यपाल की नियुक्ति के मामले में मुख्यमंत्री से परामर्ष लेने वाली प्रक्रिया को किनारे कर दिया गया। तब से मात्र मंत्रिपरिशद की सिफारिष के बाद नियुक्ति पर राश्ट्रपति की मुहर लग जाती है।
उल्लेखनीय है कि पहले राज्यपालों का कार्य समारोहों तक सीमित था और उनकी भूमिका संवैधानिक दीर्घा से बाहर नहीं थी पर हालात बदलने के साथ इनमें भी परिवर्तन आ गया और यह पद विविध भूमिकाओं के लिए जाना जाने लगा। इनमें निहित स्वविवेकाधिकार राज्य सरकारों के कार्यों पर हस्तक्षेप के लिए हो गया। सियासी समीकरण साधने के चलते केन्द्र द्वारा राज्य सरकारों पर अनुचित दबाव व नियंत्रण बनाने के काम में भी इन्हें लिया जाने लगा। इतना ही नहीं कई मामलों में सरकार के उलटफेर के लिए भी इन्हें जिम्मेदार माना गया है। अरूणाचल प्रदेष इसका ताजा उदाहरण है जिसके मामले में देष की षीर्श अदालत ने राज्यपाल को खूब फटकार लगाई है जबकि इसके पहले राज्यपालों के सम्मेलन में राश्ट्रपति प्रणब मुखर्जी भी संवैधानिक गरिमा में रहने की इन्हें नसीहत दे चुके हैं। ऐसे बहुत से उदाहरण मिल जायेंगे जहां राज्यपाल की वजह से संवैधानिक बखेड़ा खड़ा हुआ है मसलन फरवरी, 1998 में उत्तर प्रदेष के राज्यपाल रोमेष भण्डारी ने कल्याण सिंह सरकार को न केवल बर्खास्त किया बल्कि तत्काल ही जगदंबिका पाल को मुख्यमंत्री की षपथ भी दिला दी। बाद में न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद कल्याण सिंह पुनः मुख्यमंत्री बने थे। इसी प्रकार विभिन्न विवादित परिप्रेक्ष्य लिए झारखण्ड के सैयद सिब्ते रजी, बिहार में बूटा सिंह, कर्नाटक में हंसराज समेत एक दर्जन से अधिक राज्यपाल देखे जा सकते हैं। 
मोदी सरकार को आये दो वर्श से अधिक हो गया है। इनका षासनकाल भी राज्यपालों की नियुक्ति के मामले में कम विवादित नहीं है। कांग्रेस के समय के नियुक्त राज्यपालों को क्रमिक तौर पर हटाने का सिलसिला भी इनके दौर में देखा जा सकता है। गृह मंत्रालय से बाकायदा राज्यपालों को पद छोड़ने के लिए फोन भी किये गये। गुजरात की राज्यपाल रही कमला बेनीवाल और उत्तराखण्ड के अजीज कुरैषी के मामले में तो बात बहुत आगे बढ़ गयी थी। अजीज कुरैषी तो इस्तीफा न देने को लेकर अड़ गये। हालांकि बाद में दोनों को पूर्वोत्तर भारत में स्थानांतरित कर धीरे से इस पद से हटा दिया गया। राज्यपालों को लेकर सरोजिनी नायडू ने एक बार कहा था कि यह सोने के पिंजरे में बंद एक चिड़िया है और कुछ का मानना है कि यदि मोटा वेतन लेना हो यह पद बेहतर है। स्पश्ट है कि देष में राज्यपाल को लेकर कार्यकारी विधाओं में बहुत विस्तार नहीं है। कई तो राज्यपाल जैसा पद लेने के लिए तैयार भी नहीं होते हैं।
प्रषासनिक सुधार आयोग से लेकर सरकारिया आयोग तक यह सुझाव दे चुके हैं कि राज्यपाल राजनीतिक व्यक्ति नहीं होना चाहिए पर इन बातों का कोई मोल नहीं है। आज भी चुनाव हार चुके नेता राजभवन की षोभा बढ़ाने में लगे हैं और उन्हंे भारी भरकम वेतन और सुविधा प्रदान किया गया है। सवाल यह भी उठता रहा है कि आखिर राज्यपालों की जरूरत ही क्या है इसी के साथ दूसरा सवाल यह भी है कि क्या राज्यपाल का पद महत्वहीन हो गया है? अगर राज्यपाल न हो तो क्या कोई संवैधानिक समस्या पैदा होगी। संविधान सभा में भी इसके नियुक्ति और अधिकार को लेकर गहमागहमी रही है। एक प्रष्न के उत्तर में तो डाॅ. अम्बेडकर ने मामले को षान्त करते हुए कहा कि राज्यपाल की स्थिति राज्य में वैसी ही है जैसे कि केन्द्र में राश्ट्रपति की। पर लाख टके का प्रष्न यह है कि राश्ट्रपति जैसी निश्पक्षता इनमें क्यों नहीं? समझना तो यह भी है कि बीते दो-तीन दषकों से राज्यपालों के मामले में सर्वोच्च न्यायालय का काम बढ़ गया है पर सियासी भंवर में इनके फंसने का क्रम अभी भी जारी है। अरूणाचल प्रदेष के मामले में 13 जुलाई को जो निर्णय षीर्श अदालत ने दिया है वह ऐतिहासिक इसलिए है क्योंकि ऐसा निर्णय पहले कभी नहीं आया कि पिछली सरकार को बहाल कर दिया गया हो और राज्यपाल के निर्णय को रद्द किया गया हो। गौरतलब है कि इसी मामले में बीते 8 फरवरी को सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि राज्यपाल सत्र बुलाने के मामले में मनमानी नहीं कर सकते हैं। फिलहाल संदर्भ और भाव दोनों की पड़ताल करने से यह पता चलता है कि राज्यपाल एक संवैधानिक पद है न कि केन्द्र के इषारों पर कृत्य करने वाली कोई कठपुतली पर एक बड़ा सच यह भी है कि इसी देष में नियुक्त कई राज्यपालों ने इस संवैधानिक पद की निश्पक्षता को बरकरार रखते हुए बेहतरीन भूमिका निभाई है।


सुशील कुमार सिंह


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