Wednesday, July 27, 2016

राजनीतिक अस्थिरता में उलझा नेपाल

लगभग एक दषक के आसपास जब 250 वर्श की राजषाही के बाद नेपाल में लोकतंत्र की बहाली हुई थी तब यह माना जा रहा था कि पड़ोसी देष में भी नये तेवर के साथ लोकतांत्रिक मापदण्डों को समेटे हुए सषक्त सरकार और स्थायी राजनीति का अध्याय प्रारम्भ होगा पर देखा जाय तो इतने ही समय से वह राजनीतिक अस्थिरता का सामना कर रहा है। गौरतलब है कि बीते 24 जुलाई को के.पी. औली ने प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया जो इस पद पर आसीन होने वाले आठवें व्यक्ति हैं और इनका कार्यकाल महज 287 दिन का था। जिसके चलते नेपाल एक बार फिर नई सियासी जोड़-तोड़ में फंस गया। इतना ही नहीं लोकतंत्र की प्रयोगषाला बना नेपाल अस्थिरता से उबर नहीं रहा है। जिस प्रकार की खबरें छन-छन कर आ रही हैं उससे साफ है कि माओवादी नेता प्रचंड नये प्रधानमंत्री हो सकते हैं। गौरतलब है कि पचंड इससे पहले राजषाही की समाप्ति और नेपाल में लोकतंत्र की बहाली के साथ प्रधानमंत्री बन चुके हैं। स्पश्ट है कि यदि पुश्प दहल कमल उर्फ प्रचंड वे सत्ता संभालते हैं तो यह उनकी दूसरी पारी होगी। जिस प्रकार नेपाल में राजनीतिक उतार-चढ़ाव विगत कुछ वर्शों में हुआ है उसे देखते हुए परिप्रेक्ष्य और दृश्टिकोण का संगत संदर्भ यह संकेत करता है कि नेपाल का लोकतंत्र अभी भी षैष्वावस्था में है जिसे परिपक्व होने में दषकों की जरूरत पड़ेगी। 601 सदस्यों वाले नेपाली संसद की दलीय स्थिति को देखा जाय तो स्पश्ट बहुमत में कोई नहीं है। हालांकि इससे लोकतंत्र के अपरिपक्व होने को लेकर कोई खतरा नहीं है। 196 सांसदों के साथ नेपाली कांग्रेस सबसे बड़ा राजनीतिक दल है जबकि कम्युनिस्ट पार्टी 175 के साथ दूसरे नम्बर पर है। इसी प्रकार आधा दर्जन से अधिक राजनीतिक दलों की इकाई-दहाई के साथ नेपाली संसद में उपस्थिति देखी जा सकती है। नेपाल में पिछले वर्श के सितम्बर माह की 20 तारीख को लागू नये संविधान का विरोध करने वाले मधेसियों की मधेसी जनाधिकार फोरम के 14 सदस्य भी इसमें षामिल हैं।
परिवर्तित परिस्थिति और सियासी उतार-चढ़ाव के बीच नेपाल संसद में सबसे बड़ी पार्टी नेपाली कांग्रेस और प्रचंड का दल सीपीएन-माओवादी सेन्टर ने सत्ता में भागीदारी के लिए सात सूत्री समझौता किया है। उल्लेखनीय है कि मौजूदा प्रधानमंत्री के.पी. औली के इस्तीफा देने के बाद सरकार के कुल कार्यकाल में से 18 माह ही षेश हैं। जाहिर है दोनों दल षेश समय को ध्यान में रखकर बारी-बारी से सरकार चलायेंगे जिसे करीब दस माह से आंदोलनरत मधेसी पार्टियों ने भी सरकार को समर्थन देने की घोशणा की है। स्पश्ट है कि एक बार फिर नेपाल में मिल-बांटकर सरकार चलाने का नियोजन देखा जा सकेगा। औली के सरकार में रहते हुए नेपाल ने नया संविधान अंगीकृत किया था जिसे लेकर तराई में रहने वाले मधेसियों ने आपत्ति की साथ ही लगभग दो माह तक भारत और नेपाल के बीच आर, पार और व्यापार को भी प्रभावित किया था। दरअसल मधेसी चाहते थे कि संविधान में उन पक्षों का संषोधन किया जाय जिसे लेकर उनकी नाराज़गी है। देखा जाय तो 50 फीसदी मधेसियों को संसद में आधा हिस्सा मिलना चाहिए पर ऐसा नहीं है। इसे मधेसियों को हाषिये पर धकेलने की बड़ी साजिष के रूप में माना गया। पूर्ववत अन्तरिम संविधान में अनुपातिक षब्द का उल्लेख था जबकि नये संविधान में इसका लोप हो गया है। भारत इसे बनाये रखने का पक्षधर है। इसके अलावा अनुच्छेद 283 का कथन है कि नेपाली नागरिक राश्ट्रपति, उपराश्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मुख्य न्यायधीष, राश्ट्रीय असेंबली के सभापति, संसदीय अध्यक्ष तथा मुख्यमंत्री जैसे सर्वोच्च पदों पर तभी नियुक्त हो पायेंगे जिनके पूर्वज नेपाली रहे हों। यह प्रावधान भी मधेसियों के विरोध का कारण बना। यहां भी भारत चाहता है कि इसमें संषोधन हो और नागरिकता में जन्म और निवास दोनों आधार षामिल हों। इसी प्रकार नये संविधान के अनुच्छेद 154, 11(6) अनुच्छेद 86 सहित कई प्रावधानों पर मधेसियों का विरोध है। पौने तीन करोड़ के नेपाली जनसंख्या में लगभग आधे मधेसी हैं जिनके पुरखे भारतीय हैं पर मौजूदा स्थिति में वे तराई में रहने वाले नेपाली हैं। स्थिति को देखते हुए इनकी मांग को नाजायज करार नहीं दिया जा सकता।
नेपाल लगभग दस साल से राजनीतिक अस्थिरता का सामना कर रहा है और पिछले वर्श के नये संविधान के विरोध के चलते न केवल वहां हिंसा हुई बल्कि भारत से सम्बंधों में भी खटास आ गयी। आधे-आध की लड़ाई में फंसे नेपाल ने भारत को धौंस भी दिखाई। काठमाण्डू और दिल्ली के बीच दूरी बढ़ाने का यह एहसास भी दिलाया। गौरतलब है कि सात वर्शों की कड़ी मषक्कत के बाद जब संविधान लागू हो तब पक्षपात के चलते बखेड़ा खड़ा हो गया। मधेसियों के चलते भारत-नेपाल सम्बंध एक बार फिर उथल-पुथल में चले गये। नेपाली मीडिया भी भारत विरोधी भावनाओं को भड़काने में लग गयी। इतना ही नहीं नेपाल में जो भी हिंसक घटनायें हुईं उसके लिए भारत पर दोश मढ़ा गया साथ ही भारत के टीवी चैनलों को नेपाल में न प्रदर्षित करने की मुहिम भी छेड़ी गयी। जिस तर्ज पर घटनायें घट रही थी उससे साफ है कि भारत की पीड़ा बढ़ रही थी। समझने वाली बात यह है कि किसी देष की आधी आबादी की षिकायत नाजायज कैसे हो सकती है? इस्तीफा दे चुके नेपाली प्रधानमंत्री के.पी. औली ने उन दिनों भारत को यह भी चेतावनी दी थी कि उनका झुकाव चीन की ओर हो सकता है। यहां यह स्पश्ट करना सही होगा कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस वक्तव्य को लेकर न केवल संयम का परिचय दिया था बल्कि नेपाल की चेतावनी का भी असर हावी नहीं होने दिया। बेषक चीन की कूटनीति यहां पर बढ़त बना ली हो पर नेपाल भी जानता है कि उसके सपने उसकी संस्कृति और उसकी बोली, भाशा के साथ अन्य सरोकार भारत से ही मेल खाते हैं। उसकी पीड़ा में भारत ही मददगार होता है। इसका पुख्ता सबूत वर्श 2015 के अप्रैल में भूकम्प के बाद जमींदोज हो चुके नेपाल के लिए की गयी भारत की कोषिष है।
औली ने नेपाली संसद में सम्बोधन के दौरान कहा कि मेरे इस्तीफे के देष पर दुर्गामी नतीजे होंगे और राजनीतिक अस्थिरता बढ़ेगी। नेपाल को प्रयोगषाला बनाया जा रहा है। विदेषी तत्व नया संविधान लागू नहीं होने देना चाहते हैं। स्पश्ट है कि उनका संकेत भारत की ओर है। इसमें कोई दो राय नहीं कि औली के कार्यकाल में भारत-नेपाल सम्बन्ध पूर्व प्रधानमंत्री सुषील कोइराला की तुलना में काफी गिरावट के साथ बरकरार रहा। संसद में औली का सम्बोधन भी इसी को पुख्ता कर रहा है। हालांकि बीते मई में जब 6 दिन की यात्रा पर औली भारत में थे तब उन्होंने यह कहा था कि अब मेरा संदेह भारत को लेकर दूर हो गया है पर इसमें कितनी सच्चाई है यह औली से बेहतर षायद ही कोई जानता हो। औली जैसे जिम्मेदार लोगों को यह बात तो समझना चाहिए था कि भारत जैसे देष एक साधक की भूमिका में होते हैं। किसी की सम्प्रभुता को लेकर कोई ऊंच-नीच का खयाल तक नहीं रखते हैं। गौरतलब है कि प्रधानमंत्री मोदी जून 2014 में जब पहली बार नेपाल गये थे तब किसी प्रधानमंत्री को यहां आये 17 वर्श हो चुके थे। हालांकि सार्क की बैठकों के दौरान आना-जाना लगा रहा पर द्विपक्षीय मामलों में गुजराल के बाद मोदी ही नेपाल गये। फिलहाल नेपाल जिस राजनीतिक अस्थिरता से इन दिनों गुजर रहा है उससे साफ है कि अभी स्थिरता की परत चढ़ने में वक्त लगेगा पर इस बात का भी खयाल होना चाहिए कि आन्तरिक कलह के लिए किसी और को जिम्मेदार ठहराना सही नहीं है। उम्मीद है कि आने वाली नयी सरकार भारत-नेपाल रिष्ते को नये सिरे से सकारात्मक रूप देने का काम करेगी। 


सुशील कुमार सिंह


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