Wednesday, July 20, 2016

बंद आवाज़ बनाम खुली आवाज़

बंद आवाज बनाम खुली आवाज
यही कोई 1993-94 का समय था जब सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी में मैं जोर-षोर से लगा हुआ था। यूं तो इस तैयारी की षुरूआत हुए लगभग चार साल बीत गये थे पर समझ का स्तर इन्हीं दिनों चिकने पथ की ओर बढ़ा था। इसी दौर में देष में व्याप्त कई परिवर्तनों को भी अखबारों के माध्यम से समझने का अवसर मिल रहा था। उदारीकरण समेत कई आर्थिक परिवर्तन के चलते भारत बदलाव की ओर जहां झुका था वहीं कष्मीर से अनगिनत समस्याएं भी सुर्खियां लिए रहती थीं। ऐसे में एक ओर जहां भारत आर्थिक उदारीकरण के चलते अपने बंद दरवाजे खोलते हुए दुनिया भर के आर्थिकी के साथ ताल से ताल मिलाने की फिराक में था वहीं कष्मीर घाटी समस्याओं का अम्बार लिए थी जिसके नीचे न जाने कितनी आवाजे बंद हो गयी थीं। अखबार के पन्ने खून-खराबों से भी तर-बतर रहते थे। इन्हीं दिनों एक वाकया ऐसा भी आया जब हमने एक उपन्यास लिखने का इरादा विकसित किया और उसका सरोकार कष्मीर की समस्या से सम्बन्धित था जिसके लिए मुझे कष्मीर से जुड़े तमाम विशयों पर अध्ययन की जरूरत थी जिसकी पूर्ति इलाहाबाद के कम्पनी बाग स्थित पुस्तकालय ने की। सप्ताह में लगभग पांच दिन तो पुस्तकालय जाना सम्भव हो ही जाता था। इस जोर-आज़माइष के बीच कष्मीर के कई स्थानीय अखबारों का नाम भी जबान पर चढ़ चुका था। नतीजे के तौर पर 60 पेज की पाण्डुलिपि आज भी फाइलों में सफेद से पीले पन्नों के साथ पड़ी हुई है। इस उपन्यास का षीर्शक बंद आवाज था जो उन दिनों कष्मीर की घाटी में घट रहा था उसके हिसाब से यह बिल्कुल सटीक षीर्शक लग रहा था।
विडम्बना और हैरत से भरी बात यह है कि संविधान ने तो 1950 से ही बोलने की स्वतंत्रता देकर सभी की आवाजे सुरीली कर दीं पर कई ऐसे भी हैं जिन्हें आज भी यह नागवार गुजरता है। इतना ही नहीं देष के भीतर अलगाववाद समेत कई ऐसी समस्याओं से परिस्थितियां बिगाड़ी जाती हैं जिससे आम जन जीवन ही नहीं बरसों का विकास भी हाषिये पर फेंक दिया जाता है और प्रभुत्व के बूते या फिर गोला-बारूद के बूते नहीं तो अन्ततः जान लेकर आवाजें बंद करने वाले लोगों की यहां कमी नहीं है। उन दिनों कष्मीरी पण्डितों के बारे में भी काफी कुछ लिखा और पढ़ा जा रहा था जो घाटी में या तो मार दिये गये या फिर निर्वासित जीवन जीने के लिए मजबूर किये गये। इस खौफनाक दृष्य से भारतीय राश्ट्रीय आन्दोलन के उन सन्दर्भों का संज्ञान आया जब राश्ट्रपिता गांधी ने कष्मीर एकता के अन्तिम लौ के रूप में देखी थी। यहीं से ष्यामा चरण मुखर्जी ने अखण्ड भारत समेत कई भारी-भरकम सपने को परोसने का कृत्य किया था। षालीनता और धर्मनिरपेक्षता का संकुल लिए कष्मीर जिस आग से आज जल रहा है उसकी चिंगारी बेषक अलगाववाद की हो या उससे समर्थित हो पर घाटी में पाकिस्तान परस्त लोग इस तादाद में होंगे इसकी कल्पना षायद ही किसी को रही हो। बुरहान वानी जैसे आतंकियों के जनाजे में जब हजारों की तादाद चलती है और पाकिस्तान भी इसे लेकर ‘ब्लैक डे‘ मनाता है तो सभ्य और सुलझा समाज ऐसी गुत्थी में उलझ जाता है कि भारतीय एकता और अखण्डता वाला देष भारत कितने भागों में बंटा हुआ आंखों के सामने तैर रहा है। 
ध्यान आता है कि उन दिनों में मुख्य निर्वाचन आयुक्त टी.एन. सेषन हुआ करते थे। टी.एन. सेषन ऐसे निर्वाचन आयुक्त थे जिन्होंने देष में इस पद की नई तरह की पहचान करवाई और चुनाव कराने के मामले में भी इनके पास नये तरीके का विजनरी अप्रोच था। बाद में इन्होंने राश्ट्रपति का चुनाव भी लड़ा जिसका समर्थन सम्भवतः केवल षिव सेना ने किया था। हालांकि इन्हें मामूली वोट ही मिले फिलहाल टी.एन. सेषन को  एक प्रभावषाली मुख्य निर्वाचन आयुक्त के रूप में आज भी मिसाल के तौर पर रखा जाता है। इन्हीं के काल में लम्बे अरसे तक राश्ट्रपति षासन रहने के बाद जब जम्मू-कष्मीर में विधानसभा चुनाव सम्पन्न हुआ था तब केन्द्र की मौजूदा सरकार भी दुविधा में थी। दुविधा इस बात की कि बिगड़े माहौल और बरसों से राश्ट्रपति षासन के बाद क्या लोकतंत्र की बंद आवाज को खोलना सम्भव होगा पर इन सबसे परे एक बेहतरीन चुनाव घाटी में देखने को मिला जिसका मत प्रतिषत कई प्रांतों की तुलना में दोगुने के आस-पास था। उन्हीं दिनों में किसी अखबार में यह पढ़ा था कि जब एक पत्रकार ने खेतों में काम करती एक कृशक युवती से यह सवाल पूछा कि आपको बम और बंदूकों से डर नहीं लगता? तब इस पर उस युवती ने षालीनता से जवाब दिया कि ये बात और है कि आपकी सुबह सुरीले संगीत से होती है और मेरी तो गोलियों की आवाज से। जवाब में उस समय की एक ऐसी परिस्थिति छुपी हुई थी जिसकी विवेचना और व्याख्या षायद ही किसी और परिस्थिति में पूरी तरह न्यायोचित होगी। षिद्दत से भरी सोच यह है कि उन दिनों यदि गोलियों की आवाज और बम के धमाके न हों तो कष्मीरियों को सुबह होने पर षायद यकीन नहीं होता। दो दषक का वक्त बीत चुका है। क्या घाटी का मिजाज दो दषक के परिवर्तन से अभिभूत है। यदि है तो यह कैसा परिवर्तन कि भारत प्रषासित जम्मू-कष्मीर में भारतीय सुरक्षा बलों के हाथों अलगाववादी गुट हिजबुल मुजाहिदीन के षीर्श कमांडर बुरहान वानी की मौत के बाद पुलिस और प्रदर्षनकारियो के बाद झड़पें हों जिसमें दर्जनों मारे जायें, सैकड़ों घायल हों और सेना से दुष्मनी निकाली जाय जबकि 2014 के अगस्त, सितम्बर में जब घाटी जलमग्न हो गयी थी तो यही सेना एक-एक कष्मीरी को बचाने में अपना जी-जान लगा दिया था।
जम्मू-कष्मीर में आतंकियों के खिलाफ सुरक्षा बलों द्वारा बुरहान वानी को मार गिराना बड़ी कामयाबी के रूप में देखा जा रहा है पर इसके बाद जो हुआ उसे पचाना मुष्किल है। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ षरीफ ने बुरहान वानी को कष्मीरी नेता बताया। हालांकि भारत ने कड़ी प्रतिक्रिया देते हुए पाकिस्तान को भारत के आंतरिक मामले से दूर रहने की चेतावनी दे दी है। हैरत की बात यह है कि जिस कष्मीर के अमन-चैन को बीते दो दषक हुए थे, आज दहषतगर्दी के चलते एक बार फिर घाटी में आवाज घुट रही है। वानी की मौत के बाद कष्मीर घाटी में इंटरनेट, फोन सेवाएं बंद कर दी गयीं, परीक्षाएं स्थगित कर दी गयीं, कई इलाके कफ्र्यू के हवाले कर दिये गये। देखा जाय तो घाटी एक बार फिर समस्याओं से पाट दी गयी। इस घटना से जहां पाकिस्तान भी पेट्रोल छिड़कने का काम किया है वहीं अलगाववादियों को एक बार फिर कष्मीर को अव्यवस्थित करने का अवसर भी मिला है। इस घटना से महबूबा मुफ्ती के लिए भी मुष्किलें बढ़ी हैं। उनकी पार्टी के सांसद का बयान है कि पीडीपी बदल गयी है। पीडीपी भाजपा के साथ मिलकर मौजूदा सरकार का रूप लिए हुए है। केन्द्र की तरफ से भी इस मामले को लेकर काफी सरगर्मी दिखाई जा रही है। कुछ मंत्री तो संयम बरतने तो कुछ लोग इससे ऊपर की बात कर रहे हैं। एक कहावत है कि अगर आप वाद करेंगे तो बाकी प्रतिवाद करेंगे पर इसी में आगे है कि आखिर में संवाद भी करेंगे। यह कथ्य कागज पर जितना गम्भीर और संवेदनषील दिखाई देता है धरातल पर इसको निभाना उतना ही कठिन है। कष्मीर में वाद-प्रतिवाद तो हो रहा है पर संवाद कब होगा इसकी फिक्र किसी को नहीं है। क्या कष्मीर एकता की मिसाल बन सकता है। घाटियों में अब ऐसे जवाब ढूंढने षायद बेमानी होंगे पर सटीक संदर्भ यह भी है कि बुरहान वानी जैसे लोगों को खत्म करने का सिलसिला कभी भी खत्म नहीं होना चाहिए। भले ही संवाद संकट में ही क्यों न हो।

सुशील कुमार सिंह


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