Tuesday, July 19, 2016

तख्तापलट से बचा पर उथल-पुथल में फंसा तुर्की

जब भी तख्तापलट की सम्भावनाओं से युक्त देषों की संरचना और उसकी बनावट को लेकर बहस होती है तो यह स्वाभाविक सा पक्ष उभरता है कि ऐसे देषों में लोकतंत्र की प्रासंगिकता कैसी और कितनी है? हालांकि तुर्की इस मामले में अग्रणी देषों में नहीं गिना जाता है। तुर्की में बीते 15 जुलाई की रात जब यह घटना प्रत्यक्ष हुई कि साजिषन यहां तख्तापलट की कोषिष की गयी है तो भारत समेत दुनिया के तमाम देष का ध्यान इस ओर अनायास चला गया। हालांकि तख्तापलट की साजिष नाकाम हो गयी और यहां की सरकार इसके जिम्मेदार लोगों पर षिकंजा कसना षुरू कर दिया है। तुर्की के राश्ट्रपति ने हजारों सैनिकों के हिरासत में लेने के अलावा कई सेना कमांडरों और जजों को भी गिरफ्त में लिया है। यहां के न्यायमंत्री का कहना है कि ऐसे लोगों की संख्या 6 हजार के पार है। जब भी देष में तख्तापलट जैसी सम्भावनाएं प्रचलन में आने की कोषिष करती हैं तो एक सवाल यह जरूर खड़ा होता है कि संरचनात्मक तौर पर वह देष कितना सुदृढ़ है। गौरतलब है कि पड़ोसी पाकिस्तान में कई बार तख्तापलट हो चुका है और लोकतांत्रिक सरकारें रौंदी गयी हैं। साफ है कि ऐसे देषों में लोकतंत्र की जुताई-बुआई के साथ खाद-पानी में भी काफी कमी बरती जाती है। फिलहाल तुर्की के राश्ट्रपति रचेत तैयब अर्दोयान ने अमेरीका के पेंसिलवेनिया में रह रहे गुलेन को तख्तापलट का साजिषकत्र्ता बताया। फतहुल्लाह गुलेन एक धर्मगुरू है जो मौजूदा राश्ट्रपति का पुराना राजनीतिक प्रतिद्वन्दी भी है। यह भी बताया जा रहा है कि तख्तापलट में सैनिकों का नेतृत्व करने वाले कर्नल का भी गुलेन से सम्बंध है। हालांकि नब्बे के दषक से ही अमेरिका में रह रहे धर्मगुरू गुलेन ने आरोप को न केवल खारिज किया बल्कि स्थानीय अखबार न्यूयाॅर्क टाइम्स में यह बयान भी जारी किया है कि इस घटना से उसे गहरा दुःख हुआ है।
इस्लामी धर्मगुरू गुलेन तुर्की का सबसे ताकतवर षख्स है और यहां इसके लाखों अनुयायी हैं। इतना ही नहीं तुर्की की सेना, सरकार एवं सुरक्षा एजेंसियों में आज भी इसके कई विष्वासपात्र हैं। यह अरबों डाॅलर का न केवल कारोबारी है बल्कि इनके 150 से अधिक देषों में कई स्कूल भी चलते हैं। गौरतलब है कि धर्मगुरू गुलेन तुर्की विरोधी आरोपों के चलते ही अमेरिका निर्वासित हुए थे। हालांकि बाद में इन आरोपों से उन्हें मुक्त कर दिया गया। तुर्की के धर्मगुरूओं का और भारतीय मुसलमानों के बीच भी एक गहरा ऐतिहासिक रिष्ता देखा जा सकता है। प्रथम विष्व युद्ध के बाद जब ब्रिटेन एवं तुर्की के बीच होने वाली सेवर्स की सन्धि से यहां के सुल्तान के समस्त अधिकार छीने गये थे तब संसार भर के मुसलमानों के साथ भारतीय मुसलमानों ने भी इसका विरोध किया था। असल में तुर्की के सुल्तान को ये सब अपना खलीफा मानते थे। यहीं से भारतीय मुसलमान ब्रिटिष सरकार से नफरत भी करने लगे थे। यही दौर था जब भारतीय राश्ट्रीय आन्दोलन भी अधेड़ अवस्था से गुजर रहा था। उन दिनों राश्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भारतीय मुसलमानों के साथ न केवल सहानुभूति व्यक्त की बल्कि इसके विरोध में बनी अखिल भारतीय खिलाफत कमेटी की अध्यक्षता भी की। देखा जाय तो औपनिवेषिक काल में भारत और तुर्की के बीच एक धार्मिक रिष्ता था। बेषक तुर्की का तख्तापलट की साजिष वाला हालिया परिप्रेक्ष्य से भारत सीधे तौर पर प्रभावित न हुआ हो मगर जिस प्रकार दोनों देषों के बीच द्विपक्षीय सम्बंध हैं उसे देखते हुए इसे बेअसर भी नहीं कहा जा सकता। 
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के षासनकाल में दोनों देषों के बीच 2003 में विज्ञान और तकनीक क्षेत्र में सहयोग को लेकर समझौते को पुनः स्वीकृति दी गयी थी। दूरसंचार, कम्प्यूटरीकरण, सूचना प्रौद्योगिकी, अन्तरिक्ष अनुसंधान, बायोटैक्नोलोजी और पर्यावरण तकनीक आदि पर परस्पर अध्ययन का भी निर्णय लिया गया था। आतंकवाद को वैष्विक खतरा मानते हुए तुर्की और भारत ने अन्तर्राश्ट्रीय समुदाय से अन्तर्राश्ट्रीय आतंकवाद विरोधी सम्मेलनों, सन्धियों साथ ही अन्य सम्बन्धित प्रयासों के प्रावधानों को मानने का अनुरोध किया था। गौरतलब है कि तुर्की एक सम्पन्न देष है जहां भारत के उत्पादों की पर्याप्त मांग है। तुर्की भी भारत के साथ अच्छे व्यापारिक सम्बंधों की ओर झुकाव दिखाता रहा है। भारत की कुछ कम्पनियां तुर्की में निवेष के माध्यम से पहले से ही लाभ ले रही हैं। असल में तुर्की यूरोपीय संघ की कस्टम संघ में सम्मिलित देष है और यह भारतीय कम्पनियों के लिए एक अवसर रहा है कि वे तुर्की के साथ-साथ इज़राइल और यूरोपीय देषों के साथ उपलब्ध अवसरों का लाभ उठायें। यूरोपीय संघ के साथ तुर्की की कस्टम संघ भारतीय कम्पनियों को यूरोपीय बाजार में बिना सीमा षुल्क और बाधाओं के आर्थिक सम्बंधों को बढ़ाने का एक महत्वपूर्ण अवसर प्रदान करता है। जाहिर है कि भारत और तुर्की के बीच भले ही सम्बंध अन्य यूरोपीय देषों की भांति बहुत सुर्खियां न लिए हों पर एक संतुलित मापदण्डों में आर-पार और व्यापार का सिलसिला यहां भी कमतर नहीं कहा जा सकता। देखा जाय तो द्विपक्षीय व्यापार वर्श 2007-08 में करीब साढ़े तीन अरब डाॅलर के उच्च स्तर पर पहुंच गया था जबकि हाल ही के पांच वर्शों में यह पांच गुना ज्यादा वृद्धि बनाये हुए है।
जिस प्रकार तुर्की में तख्तापलट करने की कोषिष की गयी उससे साफ है कि समस्या अभी पूरी तरह टली नहीं है। जाहिर है तुर्की को इस मामले में पुख्ता और मजबूत नियोजन नये सिरे से करना होगा। फिलहाल तुर्की एक बड़े बवंडर से बच गया है और यहां की सरकार धर-पकड़ में लगी हुई है। सेना और न्यायपालिका के बाद अब तुर्की की पुलिस निषाने पर है। बीते 18 जुलाई को नौ हजार से अधिक पुलिस अधिकारियों को यहां बर्खास्त कर दिया। सूचना तो यह भी है कि 30 क्षेत्रीय गवर्नर और 50 से ज्यादा अधिकारी हटाये गये हैं जबकि अगले आदेष तक 30 लाख कर्मचारियों की छुट्टी रद्द कर दी गयी। जाहिर है उन्हें काम पर षीघ्र ही वापस लौटना होगा। गौरतलब है कि जनता के समर्थन के बूते 15 जुलाई की रात सैन्य तख्तापलट की कोषिष नाकाम तो कर दी गयी पर जिस प्रकार तुर्की के हालात एकाएक बिगड़ गये हैं उसे ठीक होने में वहां की सरकार को दिन दूनी, रात चैगुनी की तर्ज पर काम करना होगा। इसके अलावा भी तुर्की के समक्ष कई और  समस्याएं हैं। मौत की सजा बहाल करने के मामले में भी यूरोपीय संघ ने इसे घेरने का काम किया है। 28 सदस्यों वाले यूरोपीय संघ का देष जर्मनी ने कहा है कि यदि मौत की सजा तुर्की बहाल करता है तो समूह का हिस्सा नहीं रह सकता। ध्यान्तव्य हो कि यूरोपीय संघ से इंग्लैण्ड पिछले माह हुए जनमत के चलते बाहर हो चुका है। बताते चलें कि 14 जुलाई, 2004 को तुर्की ने मौत की सजा इसलिए खत्म कर दी थी क्योंकि उसे यूरोपीय संघ का सदस्य बनना था। हालांकि 1984 के बाद से किसी को भी मौत की सज़ा तुर्की में नहीं दी गयी थी जबकि 1980 से 1984 के बीच 27 राजनीतिक कार्यकत्र्ताओं समेत 50 को यह सज़ा दी गयी थी। तुर्की मौजूदा परिस्थितियों में किसी संकट से नहीं जूझ रहा है ऐसा सोचना बेमानी है। वहां का जन-जीवन इन दिनों अस्त-व्यस्त है, चिकित्सा व्यवस्था से लेकर रोजमर्रा की जिन्दगी चुनौतीपूर्ण बनी हुई है। सरकार सभी की जिम्मेदारी तय करने में लगी है परन्तु सब कुछ पहले जैसा होने में अभी भी अच्छा खासा समय और धन व्यय करना होगा। 


सुशील कुमार सिंह

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