Wednesday, September 20, 2017

समतल मार्ग की खोज में भारत

भारत-म्यांमार के सम्बंधों की जड़ें सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और ऐतिहासिक जुड़ाव से जुड़ी है। भूगोल की पड़ताल बताती है कि दोनों देषों की लगभग 1650 किलोमीटर लम्बी साझी भू-सीमा है। पूर्वोत्तर के अरूणाचल, नागालैण्ड, मणिपुर समेत मिजोरम का म्यांमार की सीमा से सम्बंध है। कई पक्षों को ध्यान में रखते हुए भारत और म्यांमार के लिए आपसी सम्बंध बनाये रखना कहीं अधिक महत्वपूर्ण हमेषा से रहा है और आगे भी इसकी आवष्यकता बनी रहेगी। बीते 3 से 5 सितम्बर को चीन के षियामेन में समाप्त हुए ब्रिक्स सम्मेलन के बाद प्रधानमंत्री मोदी का अगला पड़ाव म्यांमार था। 5 से 7 सितम्बर का समय म्यांमार के साथ सम्बंध के अलावा कई बकाया कार्य को पूरा करने में खर्च किया जाना साथ ही दोनों देषों के बीच एक ऐसे समतल मार्ग की तलाष जिससे आगे की राह दुष्वारियों से भरी न रहे। दोनों पड़ोसियों के बीच ऐतिहासिक रिष्तों को और मजबूत करने पर जो चर्चा हुई कमोबेष ऐसा वर्शों से होता आया है पर मोदी षासनकाल में पड़ोसी समेत दुनिया के तमाम देषों के साथ सन्धि, समझौते व कूटनीति फलक पर रहे हैं। इसके पहले भी प्रधानमंत्री मोदी आसियान बैठक के दौरान म्यांमार जा चुके हैं। चीन से म्यांमार पहुंचे मोदी के जेहन में म्यांमार के साथ द्विपक्षीय मुद्दों सहित भारत में रहे 40 हजार रोहिंग्या मुसलमान भी हैं। म्यांमार में सबसे बड़े जातीय समूह बर्मन के लोगों का वहां प्रभुत्व है साथ ही यहां कई अल्वपसंख्यक समूहों का विद्रोह भी चलता रहता है। गौरतलब है कि बर्मा के नाम से जाना जाने वाला म्यांमार में साल 1962 से लेकर 2011 तक सैन्य षासन था।
भारत के लिए म्यांमार दक्षिण पूर्वी एषिया का प्रवेष द्वार है जबकि चीन के लिए एक रणनीतिक एहमियत वाला देष है। ऐसे में म्यांमार के साथ दायरे का और बढ़ना तथा मार्ग का और समतल होना कहीं अधिक जरूरी है। गौरतलब है कि म्यांमार चीन की वन बेल्ट, वन रोड़ परियोजना का एक महत्वपूर्ण पड़ाव है जबकि भारत इस परियोजना के विरोध में है। इतना ही नहीं भारत की लुक ईस्ट व एक्ट ईस्ट नीति के तहत भी म्यांमार कहीं अधिक महत्वपूर्ण देष है। पड़ताल बताती है कि दोनों देषों के बीच कई सकारात्मक तो कुछ नकारात्मक अनुभव रहे हैं। पचास के दषक में भारत एवं म्यांमार के आपसी सम्बंध मधुर थे परन्तु 60 के दषक में इसमें अवरोध आया था ऐसा इसलिए क्योंकि उस समय इसका झुकाव चीन की ओर हुआ था। लेकिन एक सही बात यह भी थी कि चीन से झुकाव के बावजूद अपनी विदेष नीति में म्यांमार ने कभी भी भारत को नजंरअंदाज नहीं किया। गौरतलब है कि म्यांमार की सामरिक स्थिति चीन और भारत के बीच बफर देष जैसी है। 1980 तथा 1990 के दषक में कुछ वर्शों तक म्यांमार के सम्बंध में भारत विदेष नीति का मुख्य जोर वहां लोकतंत्र की बहाली और मानवाधिकारों की सुरक्षा पर रहा। जाहिर है कुछ वर्शों तक भारत यथार्थवादी दृश्टिकोण अपनाते हुए कहा था कि लोकतंत्र की स्थापना म्यांमार का आन्तरिक मामला है और भारत को उसमें कोई भूमिका निभाने की आवष्यकता नहीं है।  म्यांमार के सम्बंध में भारतीय नीति वर्तमान में भारतीय राश्ट्रीय हित के परिप्रेक्ष्य में कहीं अधिक विचारपूर्ण है। वर्श 2011 से वहां लोकतंत्र की बहाली हुई। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखें तो म्यांमार में लोकतंत्र की हरियाली के चलते भारत के साथ सम्बंध ही सुचारू और सकारात्मक बने हुए हैं। इन्हीं के बीच प्रधानमंत्री मोदी तीन दिवसीय दौरा इसे कहीं अधिक पुख्ता बनाने के काम आयेगा।
म्यांमार के रखाइन प्रान्त में रोहिंग्या मुसलमानों के साथ जातिय हिंसा की घटनाओं में तेजी आने के बीच मोदी की इस यात्रा के कुछ और भी मायने हैं। गौरतलब है कि भारत सरकार अपने देष में रोहिंग्या प्रवासी को लेकर भी चिंतित है और सरकार उन्हें स्वदेष वापस भेजने पर विचार कर रही है। 40 हजार रोंहिंग्या का भारत में अवैध रूप से रहना कहीं से वाजिब नहीं है साथ ही जिस तरह इन्हें लेकर म्यांमार में हिंसा बढ़ी है वह कहीं न कहीं नस्लवाद की अवधारणा से प्रेरित प्रतीत होता है। साल 2012 में रखाइन प्रान्त में हिंसा हुई और यह मध्य म्यांमार और माण्डले तक फैल गया। हिंसा के पीछे वजह यौन उत्पीड़न और स्थानीय विवाद मुख्य रहे हैं। छोटे तरीके से उठा यह विवाद साम्प्रदायिक संघर्श का रूप ले लिया है। अनुमान है कि 2012 की बौद्ध और मुसलमानों के बीच हुई हिंसा में 200 रोहिंग्या मुसलमानों की मौत हुई थी और हजारों को दर-बदर होना पड़ा था। तभी से हिंसा और विवाद की लपटें उठ रही हैं। अगस्त 2013, जनवरी 2014 और जून 2014 में हुए साम्प्रदायिक हिंसा से रोहिंग्या पुरूश, महिला, बच्चों के मरने वालों की तादाद बढ़ गयी है। अक्सर यह सवाल उठ खड़ा होता है कि आखिर हिंसा के पीछे कैसे धर्म का लब्बो-लुआब आ जाता है और किस प्रकार इसकी आड़ में सैकड़ों मौतें हो जाती हैं। सैन्य षासन के दौरान म्यांमार में तनाव का लम्बा इतिहास रहा है फलस्वरूप घटनायें भी होती रही हैं। रोहिंग्या के खिलाफ हिंसा को साम्प्रदायिक रूपरंग भी दिया गया है। महत्वपूर्ण यह भी है कि लोकतांत्रिक सरकार के समय में इस प्रकार की घटना का बने रहना लोकतंत्र की कमजोरी को लेकर चिंता बढ़ा देता है। म्यांमार को सामाजिक-आर्थिक विकास की दृश्टि से कहीं अधिक प्रभावित और स्वयं को पोशित करना है ऐसे में साम्प्रदायिक दंगों की चपेट में उसका होना कहीं से उचित नहीं है। प्रधानमंत्री मोदी ने यात्रा से पहले कहा था कि भारत और म्यांमार सुरक्षा और आतंकवाद निरोध, एवं निवेष, बुनियादी ढांचा एवं ऊर्जा और संस्कृति के क्षेत्रों में सहयोग मजबूत करने पर गौर कर रहे हैं। 
म्यांमार के वास्तविक नेता और लोकतंत्र की प्रणेता आंग सान सू की से रोहिंग्या समस्या समेत कई मसलों का जमीनी हल भी निकालना है। जिस कद के साथ मोदी सरकार ने कूटनीतिक कदम अब तक उठाये हैं उसमें यह इतना कठिन नहीं है। भारत सरकार के लिए अवैध रोहिंग्या मुसलमान चिंता का कारण है पर समाधान षीघ्र होगा इसके आसार कम हैं परन्तु समय के साथ इससे निजात जरूर मिल सकती है। इससे पहले प्रधानमंत्री 2014 में आसियान बैठक में हिस्सा लेने म्यांमार गये थे और एक सकारात्मक वातावरण का निर्माण किया था। भारत-म्यांमार सम्बंधों को कई सम्भावनाओं के साथ भी जोड़ा जाता रहा है। दोनों के बीच व्यापक सैन्य सहयोग की भावना, द्विपक्षीय व्यापार बढ़ाने, प्राकृतिक, आर्थिक सामग्रियों को उपयोग में लाया जाना। खास यह भी है कि उर्जा समृद्ध देष म्यांमार से भारत गैस के मामले में और आगे की बात कर सकता है। इससे भारत की ऊर्जा आवष्यकताएं पूरी हो सकती हैं। जिस सौहर्द्रता की तलाष भारत को है देखा जाय तो उसका तलबगार म्यांमार भी है। आंग सान सू की दिल्ली विष्वविद्यालय की छात्र रह चुकी हैं और भारत की सामाजिक-सांस्कृतिक दषा को बेहतर तरीके से पहचानती हैं। सम्भव है कि दोनों देषों के बीच कई बुनियादी जुड़ाव भी काम के होंगे। भारत म्यांमार सम्बंधों को दोनों देषों की अपनी सीमाओं पर षान्ति और सौहार्द्रता को बढ़ावा देने, दीर्घकालिक आर्थिक विकास समेत आम नागरिकों के बीच मेल-मिलाप तथा कई अन्य बिन्दुओं को ध्यान में रखते हुए एक साझी राह निकाली जा सकती है। गौरतलब है कि भारत और म्यांमार के बीच सम्बंध कहीं अधिक षान्तिपूर्ण हैं पर समय के साथ पड़ोसी देष के नाते जिस तरह की ऊर्जा सम्बंधों में भरनी है उसकी रिक्तता को ध्यान में रखकर चर्चा-परिचर्चा तथा संवाद होना लाज़मी है। प्रधानमंत्री मोदी की म्यांमार की इस यात्रा से कई नई राह खुलेगी साथ ही खुरदुरी राह समतल भी होगी ऐसी उम्मीद करना गैर आपेक्षित नहीं है। 


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन  आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
ई-मेल: sushilksingh589@gmail.com

खतरा नहीं, अवसर है कितना वाजिब!

चीनी राश्ट्रपति षी जिनपिंग का यह कथन कि चीन और भारत एक दूसरे के लिए खतरा नहीं, अवसर है यह द्विपक्षीय समझ का सकारात्मक इषारा है। गौरतलब है कि एक समय ऐसा भी था कि जब हिन्दी-चीनी भाई-भाई का नारा भी गूंजा था जिसका 1962 में भारत पर चीन के आक्रमण के साथ लोप हो गया था। तथाकथित परिप्रेक्ष्य यह भी है कि हिन्दी-चीनी भाई-भाई का नारा उतना व्यावहारिक षायद कभी नहीं रहा जितना कूटनीतिक तौर पर इसे फलक पर उभारने की कोषिष की गयी थी। वास्तुस्थिति यह भी है कि चीन के लिए भारत कभी भी किसी प्रकार का खतरा नहीं रहा जाहिर है चीनी राश्ट्रपति का कथन पहले उन्हीं पर लागू होता है। देखा जाय तो तमाम विवाद खड़ा करने के चलते चीन भारत के लिए आये दिन मुसीबत का सबब बनता रहा है। बावजूद इसके रोचक पहलू यह है कि अरबों का कारोबार भी वह हमारे देष से करता है। गौरतलब है कि वर्तमान में 70 अरब डाॅलर का व्यापार दोनों देषों के बीच हाता है जिसमें अकेले 61 अरब डाॅलर के व्यापार पर चीन का कब्जा है। कहा जाय तो माल चीन का, बाजार भारत का। मुनाफा भी भारत से और आंख भी भारत पर ही तरेरता रहा है। देखा जाय तो भारत के लिए चीन कई प्रारूपों में समस्यायें लाता रहा है। मसलन पाकिस्तान को भारत के खिलाफ भड़काने से लेकर, पाक आतंकियों पर सुरक्षा परिशद् में वीटो का प्रयोग करने तक साथ ही भारत की जमीन पर कब्जा जमाने जैसा कृत्य। हालिया दौर में ही देखें तो 16 जून से 28 अगस्त तक डोकलाम मुद्दे को लेकर चीन ने भारत को पिछले 72 दिनों से मनोवैज्ञानिक रूप से कमजोर करने के लिए सारे हथकण्डे अपनाये जिसमें युद्ध की धमकी समेत कई कृत्य षामिल हैं। जबकि भारत चीन की गीदड़ भपकी से न तो डरा और न ही किसी प्रकार का असंतुलन दिखाया। यह इस बात का पुख्ता प्रमाण है कि किसी की सम्प्रभुता को चुनौती देना और बेवजह का विवाद खड़ा करने के मामले में चीन ही आगे है और उक्त कथन पर पहले उसे ही अमल करने की अब जरूरत है। 
भारत की कूटनीति का रूप रंग वैष्विक मंचों पर बीते कुछ वर्शों से कहीं अधिक मजबूती लिए हुए है। इसी का नतीजा है कि ब्रिक्स सम्मेलन से पहले चीन के सुर और मिजाज दोनों बदले। नतीजन तनाव व मतभेद के बजाय आगे बढ़ने और एक-दूसरे में अवसर झांकने की बात हो रही है। गौरतलब है कि 3 से 5 सितम्बर के बीच चीन के षियामेन में पांच देष ब्राजील, रूस, भारत और चीन समेत दक्षिण अफ्रीका का एक सम्मेलन हुआ जिसे आमतौर पर ब्रिक्स सम्मेलन की संज्ञा दी जाती है। इस सम्मेलन से ठीक पहले भारत और चीन के बीच डोकलाम को लेकर पनपे तनाव पर विराम लगना कूटनीतिक दृश्टि से चीन पर ही कई सवाल खड़े करता है। हालांकि षान्ति की इस पहल को सराहा जाना ही सही है पर चीन की चाल नाकामयाब हुई है यह भी भारत समेत दुनिया को पता चल गया है। चीन भारत को लेकर अब एक नई राय रखता दिखाई दे रहा है। जिस तर्ज पर जिनपिंग ने भारतीय प्रधानमंत्री मोदी के साथ द्विपक्षीय वार्ता की और दोनों ने संयुक्त आर्थिक समूह, सुरक्षा समूह व रणनीतिक समूह जैसी अन्र्तसरकारी व्यवस्थाओं के अलावा कई मुद्दों पर बात की उससे साफ है कि मतभेद को भुलाकर आगे बढ़ने की इच्छा भारत के साथ चीन में भी तुलनात्मक खूब बढ़ी है। सबके बावजूद देखने वाली बात यह रहेगी कि दोनों देषों के बीच परस्पर विष्वास को बढ़ाने और मजबूत करने को लेकर जो इरादे फिलहाल चीन की ओर से जताये जा रहे हैं वह उस पर कितना खरा उतरता है। चीन के विदेष मंत्रालय की मानें तो जिनपिंग ने मोदी से कहा है, कि चीन षान्तिपूर्ण सहअस्तित्व के सिद्धान्त ‘पंचषील‘ को बरकरार रखने जैसे अन्य मुद्दों के साथ काम करने का इच्छुक है। चीन के इस मन्तव्य को लेकर भारत को आखिर गुरेज क्यों होगा पर जिस षान्तिपूर्ण सहअस्तित्व को लेकर चीन एक बार फिर सुर देने की कोषिष कर रहा है उसे तार-तार 1962 में करके यह विष्वास पहले भी खो चुका है बावजूद इसके एक पड़ोसी होने के नाते इसको अमल में लाना ही ठीक रहेगा परन्तु इस ध्यान के साथ कि कूटनीतिक लोचषीलता चीन के मामले में आने न पाये।
इस सच के साथ भी तोड-मरोड़ नहीं हो सकती कि चीन डोकलाम की परछाई को ब्रिक्स पर पड़ने नहीं देना चाहता था। इसके पीछे बड़ी वजह भारत की मजबूत कूटनीति भी कह सकते हैं। असल में चीन इन दिनों चैतरफा घिरा हुआ था कुछ हद तक अभी भी। अमेरिका और जापान की तरफ से आये बयान, उत्तर कोरिया को लेकर अमेरिका की धमकी तथा भारत के साथ 70 अरब डाॅलर का वर्तमान में किया जा रहा व्यापार भी काफी कुछ सोचने के लिए उसे मजबूर किया है। वैसे वैष्विक फलक पर चीन की दादागिरी को लेकर लगभग सभी देषों को यह पता चलने लगा है कि उसकी नीति भारत को जानबूझकर नुकसान पहुंचाने वाली रहती है। इज़राइल के साथ भारत का प्रगाढ़ होता सम्बंध भी चीन को कहीं-न-कहीं खूब खटका है। पेरिस में डोकलाम विवाद के दौरान भी मोदी और जिनपिंग की मुलाकात ब्रिक्स से पहले भी हो चुकी है पर वहां कोई ऐसी सकारात्मक बातचीत के आसार नहीं बने थे। मोदी जिनपिंग की बीते 5 सितम्बर को ब्रिक्स सम्मेलन के दौरान हुई द्विपक्षीय वार्ता में मतभेद को छोड़ आगे बढ़ने का चिंतन समाहित है। एक घण्टे की मुलाकात फिलहाल सफल कही जायेगी। प्रधानमंत्री मोदी का ब्रिक्स के जरिये यह कहना कि बेहतर दुनिया बनाये यह हमारी जिम्मेदारी है। सबका साथ, सबका विकास जरूरी है कहीं न कहीं भारत की उदारता और आगे बढ़ने की भावना का परिलक्षण निहित है। यह प्रसंग भी बड़ा उम्दा है कि जिस देष से युद्ध जैसे आसार बन रहे हों उसी देष में द्विपक्षीय वार्ता से षान्ति की पहल हो और मतभेद छोड़ आगे बढ़ने की बात की जाय साथ ही खतरे की भावना से मुक्त होकर अवसर के सुर में सुर मिलाया जाय यह अपने आप में एक अनोखा विस्तार है। अक्सर कहा जाता है कि मामले कूटनीति से अपनाये जायें बेषक भारत चीन के बीच जो हुआ वह कुछ और नहीं एक मजबूत कूटनीति ही तो है। 
खास यह भी है कि ब्रिक्स के मंच से चीन समेत सभी सदस्य देष पाकिस्तान के आतंक पर जो संयुक्त पक्ष रखा वह भी भारत की दृश्टि से इसलिए ठीक है क्योंकि चीन में पाक के खिलाफ या उसके आतंकियों के खिलाफ कुछ भी हासिल कर पाना नामुमकिन जैसा है जो इस बार ऐसा नहीं रहा। चीन से हमारे कई विवाद हैं। सरहदी इलाकों में पनपी समस्या यदि समाधान को किसी तरह प्राप्त कर ले तो यह दोनों की दोस्ती में मील का पत्थर सिद्ध होगा पर रूस की तरह चीन हमारा नैसर्गिक मित्र नहीं है। यही कारण है कि भारत पड़ोसी हो सकता है पर टूट कर चीन दोस्ती करे ऐसा षायद नहीं हो सकता। यदि इसमें भी चीन ने चालबाजी दिखाई तो अवसर के बजाय खतरे बढ़ेंगे पर संतुलन बरकरार रहता है तो आर, पार और व्यापार समेत कई कृत्य आसान बने रहेंगे। निहित भाव यह भी है कि भारत और चीन एक बार फिर षान्ति को अपनाने और मतभेद को छोड़ने को लेकर आगे बढ़ चले हैं पर इरादों की परख अभी होना बाकी है मुख्यतः यह बात चीन पर लागू होती है क्योंकि लद्दाख की सीमा से लेकर अरूणाचल की सीमा तक षान्ति भंग करने में चीन ने कभी कोई अवसर नहीं गंवाया है। फिलहाल अब उसे तय करना है कि भारत के लिए वह खतरा है या भारत उसके लिए एक अवसर है।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
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Monday, September 4, 2017

छोटे देश का बड़ा दुस्साहस

अमेरिकी राष्ट्रपति  डोनाल्ड ट्रंप के तमाम नसीहत और धमकी के बावजूद उत्तर कोरिया ने वो कर दिखाया जिसकी उम्मीद दुनिया के किसी देश को नहीं रही होगी। गौरतलब है कि अमेरिका, जापान और चीन समेत पूरी दुनिया की हिदायतों को दरकिनार करते हुए उत्तर कोरिया ने रविवार को छठा परमाणु परीक्षण कर दिया। इस बार उसने हाइड्रोजन बम का परीक्षण किया है जो परमाणु बम की तुलना में सैकड़ों गुना अधिक ताकतवर होता है। उत्तर कोरिया के इस दुस्साहस के चलते वैष्विक फलक पर यह चर्चा अब आम है कि आखिर ऐसी मनमानी का क्या उपचार हो। वैसे देखा जाय तो निडर उत्तर कोरिया ने पहले ही कई बार दुस्साहस का परिचय देते हुए दुनिया के माथे पर बल ला चुका है। संयुक्त राश्ट्र की सुरक्षा परिशद् की बंदिषें कई बार इस पर थोपी गई बावजूद इसके यहां के तानाषाह किम जोंग को काबू करना तो छोड़िए इसके दुस्साहस का कोई तोड़ नहीं ढूंढ़ा जा सका। वैष्विक कूटनीति और संसार के रक्षा मामलों को गम्भीर वर्णन की ओर मोड़ा जाय तो मामला अब प्रतिबंधों तक ही सीमित न होकर वैष्विक समुदाय से उत्तर कोरिया को अलग-थलग करना ही एक मात्र रास्ता दिखाई देता है। हालांकि यह भी षायद स्थायी हल नहीं है क्योंकि इससे दुनिया का खौफ खत्म होता नहीं दिखाई देता। कहा जाय तो जब तक यहां के तानाषाह किम जोंग को सबक नहीं सिखाया जायेगा तब तक वह दुनिया की चिंता को समझ नहीं पायेगा। गौर करने वाली बात यह भी है कि इन दिनों अमेरिका और उत्तर कोरिया के बीच युद्ध जैसी स्थिति बनी हुई है। बावजूद इसके उत्तर कोरिया के परमाणु परीक्षण से यह साफ है कि फिलहाल उसे किसी धमकी का असर बिल्कुल नहीं है। इतना ही नहीं अभी चंद दिनों पहले ही उसके द्वारा दागी गयी एक मिसाइल जापान के ऊपर से गुजरी थी जिसे लेकर चर्चा अभी षांत नहीं हुई थी कि एक और परीक्षण करके उसने दुनिया को फिलहाल थर्रा दिया है। हाइड्रोजन बम के परीक्षण के दौरान चीन, जापान, दक्षिण कोरिया व रूस समेत कई देषों मंे 6.3 रिएक्टर पैमाने पर भूकम्प दर्ज किया गया। गौरतलब है कि चीन में बीते 3 सितम्बर से ही ब्रिक्स देषों की बैठक आरंभ हुई और प्रधानमंत्री मोदी भारत का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। जाहिर है उत्तर कोरिया के इस कृत्य का प्रभाव ब्रिक्स की बैठक पर भी पड़ेगा। परिप्रेक्ष्य और दृश्टिकोण यह भी है कि यह बम 9 अगस्त 1945 को नागासाकी पर गिरे बम से पांच गुना ज्यादा षक्तिषाली तो है ही इसके अलावा इसे मिसाइल से भी दागना पूरी तरह सम्भव है। 
क्या उत्तर कोरिया का परमाणु हथियार आखिरी लक्ष्य है। किम जोंग के 2011 में सत्ता में आने के बाद से उसका पूरा ध्यान सैन्य आधुनिकीकरण पर है। फलस्वरूप तभी से परमाणु हथियार को लेकर मनमानी भी अधिक हुई है। वैसे उत्तर कोरिया में परमाणु आकांक्षा 1960 के दषक से ही देखी जा सकती है। यह चाहत न केवल अमेरिका, जापान और दक्षिण कोरिया के खिलाफ है बल्कि वह ऐतिहासिक साझेदार चीन और रूस पर निर्भरता से भी मुक्त होने के चलते है। तो क्या यह मान लिया जाय कि उत्तर कोरिया का तानाषाह किम जोंग तमाम प्रतिबंधों और धमकियों के बावजूद विध्वंसक मनमानी करता रहेगा। क्या उत्तर कोरिया का कोई इलाज है? जिस तर्ज पर अमेरिका ने उत्तर कोरिया को धमकाया और सबक सिखाने की बात कही क्या उसका असर उस पर हुआ। परीक्षण इस बात के सबूत हैं कि ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। उत्तर कोरियाई मिसाइलों की रेंज पर एक दृश्टि डाली जाय तो साफ है कि चीन के बीजिंग से लेकर जापान के टोकियो समेत सिंगापुर, सिडनी, सैनफ्रांसिस्को और 10 हजार किलोमीटर हवाई तक इसकी पहुंच है। बीते 3 सितम्बर के परमाणु परीक्षण को जोड़ कर अब तक 6 परमाणु परीक्षण करने वाला उत्तर कोरिया विध्वंस की मानो भट्टी पर बैठा है। जब 9 अक्टूबर 2006 को इसने पहला भूमिगत परमाणु परीक्षण किया था तब दुनिया के तमाम देषों की चिंता बढ़ा दी थी। इस दौरान 4.3 तीव्रता का भूकम्प दर्ज किया गया था। बामुष्किल तीन साल भी नहीं बीते थे तभी उसने मई 2009 में एक बार फिर परमाणु परीक्षण करके दुनिया में अपने खौफ के प्रति सघनता बढ़ा दी। सिलसिला यहीं नहीं रूका फरवरी 2013 में एक बार फिर परमाणु परीक्षण उत्तर कोरिया ने किया। हद तब हो गयी जब वर्श 2016 में 6 जनवरी और 9 सितम्बर को उसने परमाणु परीक्षण करके सारी सीमायें लांघ दी। हालांकि इस दौरान संयुक्त राश्ट्र की सुरक्षा परिशद् ने इस पर प्रतिबंध भी लगाये पर उत्तर कोरिया का तानाषाह किम जोंग अपनी सनकपन से कभी पीछे नहीं हटा। देखा जाय तो वर्श 2006 से 2017 के बीच आधा दर्जन बार परमाणु परीक्षण और बैलिस्टिक मिसाइल का परीक्षण करके उत्तर कोरिया दुनिया के लिए न केवल चुनौती खड़ा किया है बल्कि दुनिया की रत्ती भर भी चिंता नहीं करता इसे भी बार-बार दिखाया है। 
क्षेत्रफल और जनसंख्या की दृश्टि से विष्व के कई छोटे देषों में षुमार उत्तर कोरिया वैष्विक नियमों को दरकिनार करते हुए अपने निजी एजेण्डे को तवज्जो दे रहा है। इसकी प्राथमिकता है कि वह मिसाइल और परमाणु परीक्षण जारी रखे ताकि युद्ध की स्थिति में उसके पास पर्याप्त प्रतिरोधक क्षमता हो। उत्तर कोरिया अक्सर लीबिया और इराक जैसे देषों का उदाहरण देता है और उसका मानना है कि यदि वे क्षमताषील होते तो उनका हश्र ऐसा न होता। वह लगातार अमेरिका की निंदा भी करता रहा है। उसके मुताबिक अमेरिका किम जोंग की सरकार का सिर कलम करने की कोषिष कर रहा है। दो टूक यह भी है कि अमेरिका, रूस, ब्रिटेन समेत चीन और फ्रांस हाइड्रोजन बम की फहरिस्त में पहले से षामिल है तो क्या अब उत्तर कोरिया भी इसमें षुमार हो गया है। विष्लेशकों का मानना है कि यह सम्भव है कि उत्तर कोरिया परमाणु हथियारों के दम पर दक्षिण कोरिया की अर्थव्यवस्था और जनसंख्या को चुनौती दे साथ ही अमेरिका के गले की हड्डी भी बने। गौरतलब है कि अमेरिका और उत्तर कोरिया कहीं न कहीं युद्ध के मुहाने पर भी खड़े हैं पर असल चिंता यह है कि जिस सीटीबीटी और एनपीटी सहित कई कार्यक्रमों के सहारे परमाणु हथियारों की रोकथाम के लिए बीते पांच दषकों से तमाम कोषिषें की जा रही हैं आखिर उसका क्या होगा। परमाणु बम की होड़ में दुनिया को खड़ा करके उत्तर कोरिया बड़े अपराध को न्यौता फिलहाल बरसों से देने में लगा है। सभ्य दुनिया का चेहरा ऐसा तो नहीं होता जैसा वहां के तानाषाह किम जोंग का है और सहने की सीमा भी इतनी नहीं होती जैसे कि षेश दुनिया इन दिनों तमाषबीन बनी हुई है। उत्तर कोरिया के अब इस दुस्साहस के बाद रूस ने षान्त रहने का आग्रह किया। भारत ने भी षान्ति की अपील की, अमेरिका और जापान ने लगाम लगाना जरूरी बताया साथ ही उत्तर कोरिया को षह देने वाला चीन भी इस पर एतराज जताया है पर सवाल इस बात का है कि बात तो इससे आगे निकल चुकी है। जो दुनिया परमाणु हथियारों का समाप्त करने की मनसूबा रखती है उसी में से एक अदना सा देष अगर इसकी होड़ विकसित करे तो क्या रास्ता अपनाया जाय। इस पर अभी कुछ भी स्पश्ट नहीं है। यह बात अक्सर कही जाती रही है कि मामले कूटनीति से निपटाये जायेंगे पर उत्तर कोरिया षायद इसकी परिभाशा और व्याख्या से भी अछूता है। फिलहाल दुनिया के मानचित्र में छोटा दिखने वाला उत्तर कोरिया बड़ा दुस्साहस दिखाकर सभी को एक बार फिर बेचैन कर दिया है। 

सुशील कुमार सिंह
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कश्मीर नीति के आईने में पाक की सूरत

आतंक के विरूद्ध जहां भारत दुनिया में सबसे बुलंद आवाज के लिए जाना जाता है वहीं इसके पैरोकार के रूप में पाकिस्तान का नाम अव्वल नम्बर पर है। आतंक के मुद्दे पर अमेरिकी राश्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की विगत् दिनों जो फटकार पाकिस्तान को मिली उससे भी साफ है कि अब झूठ के खेल से बहुत दिनों तक पाकिस्तान दुनिया को धोखा नहीं दे सकता। गौरतलब है कि विगत् दिनों अमेरिका की दक्षिण एषिया सम्बंधी नीति घोशित करते हुए डोनाल्ड ट्रंप आतंकियों के पनाहगार पाकिस्तान को खूब खरी-खोटी सुनाई थी जबकि अफगान नीति को लेकर उन्होंनंे भारत से सहायता की अपेक्षा रखी। कष्मीर की आड़ में आतंक का गोरखधंधा करने वाला पाकिस्तान अब चैतरफा घिरा हुआ है और बौखलाया भी है। पाकिस्तान की कष्मीर नीति फेल हो चुकी है। यह बात भारत की ओर से नहीं बल्कि भारत में पाकिस्तान के उच्चायुक्त रह चुके अब्दुल बासित ने कही है। बासित ने पाकिस्तान को इस बात के लिए भी आगाह कर दिया है कि उसे कष्मीर नीति पर पुर्नविचार करना चाहिए। पाकिस्तान की आतंकी कालगुजारियों के बावजूद जोर-जोर से कष्मीर के नाम पर ढोल पीटने वाले अब्दुल बासित आखिर अपने देष के हुक्मरानों को नीति बदलने का सुझाव क्यों दे रहे हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि अमेरिका में 9/11 के हमले के बाद आतंकवाद को लेकर जो चित्र दुनिया में उभरा और भारत ने जिस प्रकार षेश दुनिया को यह समझाने में सफल रहा कि कष्मीर में आजादी की लड़ाई नहीं बल्कि आतंक का घिनौना खेल चल रहा है। उक्त संदर्भ से अब्दुल बासित भी इत्तेफाक रखते हैं। बासित के इस दृश्टिकोण का कि पाकिस्तान अन्तर्राश्ट्रीय मंचों पर केवल कष्मीर का राग अलापता रहा। इससे भी साफ है कि पाक की कष्मीर नीति आतंक की आड़ लिए हुए थी जबकि भारत इसे बेपर्दा करने में सफल रहा। यदि इस बात की सच्चाई को और बारीकी से पड़ताल की जाय तो यह भी उजागर होता है कि भारत पाकिस्तान की उस कष्मीर नीति से दुनिया का परिचय कराना चाहता था जहां आतंक के बेहिसाब अड्डे हैं। कमोबेष दुनिया के कई देष इसे समझते तो थे पर खुलकर मानने के लिए तैयार नहीं थे परन्तु जिस प्रकार डोनाल्ड ट्रंप ने आतंक के मामले में पाकिस्तान को आड़े हाथ लिया है उससे उसकी कलई फिलहाल खुल गई है। 
पाकिस्तान को अल्लाह ही बचा सकता है अब्दुल बासित का यह बयान भी पाकिस्तान के अंदर बड़े उथल-पुथल का संकेत दे रहा है। देखा जाय तो बीते कई दषकों से पाकिस्तान ने आतंकियों पर भरोसा जता कर बड़ा अपराध किया है। सरकारें बदलीं, सत्ता का ओर-छोर बदला साथ ही परवेज़ मुर्षरफ जैसे तानाषाह भी आये पर सभी भारत को चोट पहुंचाने के मंसूबे से ही भरे रहे। जिस तर्ज पर पाक ने आतंक को पाला-पोसा और इसे लेकर दुनिया से जो झूठ बोला साथ ही जो अनगिनत वादा खिलाफी की है उसे देखते हुए भी यह तय था कि हश्र तो एक दिन बुरा ही होगा। इतना ही नहीं भारत जैसे देष में आतंकियों को हिंसा फैलाने के लिए उकसाकर जो अपराध पाकिस्तान ने किये हैं और जिस तरह भारत ने उसे अलग-थलग करने के लिए मुहिम छेड़ी है उससे भी साफ था कि एक दिन ऊंट पहाड़ के नीचे आयेगा। हद तब हो गयी जब आतंकियों की पैरोकारी करते-करते पाकिस्तान यह भूल गया कि जब यह तिलिस्म टूटेगा तब कौन सा मुंह लेकर दुनिया का सामना वह करेगा। अमेरिका की ओर से लगातार दी जा रही धमकी भरी चेतावनी और भारत द्वारा आतंक के विरोध में निरंतर बढ़ाई जा रही दुनिया भर में इसके प्रति चेतना भी उसकी मुसीबत का सबब है। पाकिस्तान अपनी करतूतों के चलते दुनिया की नजरों में कमोबेष आतंकी देष हो गया है और इसी दुनिया के अन्तर्राश्ट्रीय मंचों पर इस परछाई से मुक्त न होने के कारण गम्भीर देषों की सूची से भी मानो बेदखल की ओर है। षायद इसी के चलते अब्दुल बासित ने पाकिस्तान को चेताया है कि अब उसे कष्मीर पर रोना-धोना छोड़कर सक्रिय कूटनीति का सहारा लेना चाहिए। गौरतलब है कि कष्मीर राग की आड़ में ही दषकों से पाकिस्तान दहषत की रोटियां सेकता रहा है। हालांकि यहां स्पश्ट कर दें कि पाकिस्तान के गलत नीतियों की पैरोकारी करने में अब्दुल बासित जैसे लोगों का भी योगदान है। गौरतलब है जिस कूबत के साथ सत्ता में समझ होनी चाहिए और जिस तरह सत्ता के साथ संलग्न इकाईयों को अपनी भूमिका निभानी चाहिए उसमें पाक के भारत में उच्चायुक्त रहे बासित भी आते हैं परन्तु जब-जब भारत आतंक को लेकर पाकिस्तान से उम्मीदें की तब-तब उसे आईना दिखाने में ये भी पीछे नहीं रहे। दो टूक यह भी है कि अभी भी पाकिस्तान को कष्मीर नीति पर पुर्नविचार की बात तो बासित कर रहे हैं परन्तु इस्लामाबाद को इस बात के लिए आगाह नहीं कर रहे हैं कि देष से आतंक का खात्मा करें। 
जितनी पुरानी भारत की आजादी है, उतनी ही पाकिस्तान की है। जितना पुराना भारत का लोकतंत्र, उतना ही पुराना पाकिस्तान का भी लोकतंत्र है और कष्मीर का विवाद भी उतना ही पुराना है पर अन्तर इस बात का है कि भारत संयमित, संतुलित तथा संदर्भित देषों की पराकाश्ठा है जबकि पाकिस्तान नकारात्मक विचारों से भरा कष्मीर राग अलापने वाला, लोक कल्याण को हाषिये पर रखने वाला तथा लोकतंत्र के मामले में नकारा देष है। मानचित्र को देखें तो पाक अधिकृत कष्मीर का क्षेत्र हरे रंग में दिखता है पर वहां की जमीन आतंकियों के दहषत से खौफजदा और हिंसा से लहुलुहान है। गहरा भूरा क्षेत्र भारतीय कष्मीर और अक्साई चीन जो कभी भारत का हिस्सा था वहां चीन का अधिकार है। ये वही चीन है जो बीते 16 जून से 28 अगस्त तक डोकलाम पर कुंडली मारे बैठा था पर कूटनीतिक दांवपेंच के चलते बीते 28 अगस्त को समस्या फिलहाल टल गयी है। भारत-पाकिस्तान के बीच कष्मीर का मसला कहीं अधिक विवादित है। पाक अधिकृत कष्मीर जिसे संक्षिप्त षब्दों में पीओके कहते हैं और जिस पर संयुक्त राश्ट्र सहित अधिकांष संस्थायें भी भारत के इसी नाम के साथ सहमति जताती हैं। पीओके में बेरोजगारी, षिक्षा, स्वास्थ समेत अनेकों बुनियादी कठिनाईयां हैं। यहां के बाषिन्दे पाकिस्तान से इस क्षेत्र में मुक्ति चाहते हैं दूसरे षब्दों में पाकिस्तान की बर्बरता से आजादी। वैसे देखा जाय तो पीओके को लेकर पाकिस्तान ने कभी विकास का बड़ा मन नहीं दिखाया। लोक कल्याण को यहां पनपने नहीं दिया। कहा जाय तो पीओके में व्याप्त दर्जनों समस्याएं जो आज भी हैं पाक के सत्ताधारकों ने उसे हल करने के बजाय आतंकियों की पाठषाला खोलने पर ही पूरा ध्यान दिया। पीओके एक ऐसी धरती है जो पाकिस्तान का जुल्म सह रही है। तथाकथित परिप्रेक्ष्य यह भी है कि कष्मीर घाटी भी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष दषकों से पाक के जुर्म से मुक्त नहीं हो पायी है जब भारत के अंदर का कष्मीर पाक के आतंकी जुल्मों से मुक्त नहीं हो पा रहा है तो जरा सोचिये पीओके किस कठिनाई से गुजर रहा होगा।
अन्ततः यह कि पाकिस्तान की यह सोच थी कि कष्मीर नीति पर अडिग रहो और इसकी आड़ में आतंक का खेल खेलते रहो साथ ही दुनिया को यह जताते रहो कि वहां आजादी की लड़ाई चल रही है जबकि कहानी इससे उलट है। भारत पाक प्रायोजित आतंक को लेकर दषकों से मुसीबत झेलता रहा और दुनिया को यह समझाने में सफल रहा कि पाकिस्तान आतंकियों का षरणगाह है नतीजन अमेरिका समेत कई बड़े देष अब भारत के इस रूख के साथ हैं। सम्भव है पाकिस्तान अब घिरा हुआ महसूस कर रहा है साथ ही आर्थिक नुकसान की ओर भी है। ऐसे में कष्मीर पर राग अलापने के सुर में परिवर्तन वाली बात लाज़मी प्रतीत होती है पर इतने मात्र से बात नहीं बनेगी जब तक कि पाकिस्तान की जमीन से आतंक का पूरी तरह सफाया नहीं होता। 

सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन  आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
देहरादून-248001 (उत्तराखण्ड)
फोन: 0135-2668933, मो0: 9456120502
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चमत्कारिक सत्ता का समाजशास्त्र

जब बीते 25 अगस्त को हरियाणा के पंचकुला की सीबीआई कोर्ट ने डेरा सच्चा सौदा के गुरमीत राम रहीम को दुश्कर्म के चलते आरोपी करार दिया था तब एक बार फिर यह साफ हो गया कि चमत्कार का दावा करने वाले बाबाओं का समाजषास्त्र कितना स्याह है। समाजकार्य के अन्तर्गत यदि इसे देखें तो यह सीधे तौर पर सफेदपोष अपराध की संज्ञा में आता है। जिस सिलसिलेवार तरीके से बीते कुछ वर्शों से आसाराम बापू, हरियाणा के ही रामपाल तथा स्वामी भीमानंद समेत कई बाबाओं का कच्चा चिट्ठा सामने आया उससे चिंता बढ़ी है। फिलहाल गुरमीत राम रहीम को सीबीआई कोर्ट ने 28 अगस्त के अपने निर्णय में 10 वर्श की सजा सुना दी है। इस आलोक में एक बार फिर यह सुनिष्चित होता है कि देष में विधि का षासन है और संविधान के अनुच्छेद 14 के अन्तर्गत सभी को कानून के समक्ष बराबर का दर्जा मिला हुआ है। यह भी स्पश्ट होता है धार्मिक-सामाजिक कार्यों की आड़ में यदि गलत कृत्य होंगे तो वह भारतीय दण्ड संहिता के निषाने पर होगा। सोमवार को सजा से जुड़े निर्णय के बाद हिंसक घटनायें एक बार फिर कुछ मात्रा में सामने आई। गौरतलब है कि 25 अगस्त के निर्णय के बाद हरियाणा में जो हुआ वह कानून-व्यवस्था को लहुलुहान करने वाला था। कुछ ही घण्टों में जहां-तहां सैकड़ों गाड़ियां धूं-धूं कर जलने लगी, सरकारी सम्पत्तियां आग के हवाले कर दी गईं और पूरे घटनाक्रम में 32 की जान गई। पंचकुला समेत हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेष एवं अन्य प्रांतों के कई हिस्सों में कानून व्यवस्था कुछ घण्टों के लिए बेबस भी हुई। इससे भी साफ होता है कि राम रहीम का बीते ढ़ाई दषकों में कितना प्रभाव बढ़ चुका था। घटना को लेकर हरियाणा की खट्टर सरकार पर चैतरफा सवाल उठे। एक बार तो ऐसा लगा कि इस बार खट्टर सरकार का बच पाना मुष्किल है पर ऐसा नहीं हुआ। आखिरकार उन्हें जीवनदान मिला जबकि उच्च न्यायालय ने भी घटना को लेकर हरियाणा सरकार को कटघरे में खड़ा किया था। ऐसा क्यों किया गया इस सवाल पर भी चिंतन थोड़ा गाढ़ा तो होना ही चाहिए। आखिरकार बार-बार असफल रहने वाली खट्टर सरकार के खिलाफ केन्द्र ने कड़ा रूख क्यों नहीं अपनाया जबकि जाठ आंदोलन समेत यहां प्रतिवर्श की दर से जान-माल को नुकसान पहुंचाने वाली घटनाएं लगातार हो रही हैं। जहां तक समझ जाती है लगता है कि इसके पीछे एक बड़ा कारण यह भी है कि मोदी सरकार हरियाणा की खट्टर सरकार को बेदखल करके यह आरोप पुख्ता नहीं होने देना चाहती कि वाकई में सरकार कानून-व्यवस्था को बचाये रखने में असफल रही है। बल्कि इसकी जगह पर दलील यह है कि कुछ घण्टों के भीतर ही इस पर काबू पा लिया गया।
फिलहाल ये तय हो चुका है कि राम रहीम दस वर्श तक जेल में सजा भुगतेंगे। यह कम बड़ी बात नहीं है कि वे दो लड़कियां जो समाज में सामान्य से ऊपर नहीं थी उनकी बदौलत षासन, सत्ता और राजनीति का सिरा मोड़ देने वाले बाबा को सजा मिली। उन पत्रकारों को भी सम्मान मिलना चाहिए जिन्होंने बाबा के रसूख के आगे हथियार नहीं डाले बल्कि अपनी जान गंवा दी। साथ ही सीबीआई कोर्ट के उन अधिवक्ताओं एवं न्यायाधीष को भी नहीं भूलना चाहिए जिन्होंने न्याय के लिए आम और खास में कोई फर्क नहीं किया। जब इस तरीके के संदर्भ कई कानूनी और सामाजिक पेंचीदगियों के बाद और वर्शों खर्च करने के पष्चात् निर्णय का रूप लेते हैं तब न्यायपालिका पर भरोसा पहले की तुलना में स्वयं अपने आप बढ़ जाता है। धार्मिक एवं सामाजिक क्रियाओं के अन्तर्गत गुरमीत राम रहीम ढ़ाई दषक से अधिक लम्बे वक्त के चलते एक मजबूत पूंजीवाद की ओर भी अग्रसर हुआ पर सकारात्मक भूमिका का निर्वहन न करने के चलते आज सलाखों के पीछे है। धर्मषास्त्र की अपनी एक स्पश्ट धारा है और समाजषास्त्र की भी निहित एक विचारधारा है जाहिर है इसके उल्लंघन से कोई भी मकड़जाल में फंस सकता है। गुरमीत राम रहीम समेत दर्जनों बाबा इसके पुख्ता उदाहरण हैं। धर्म ने मनुश्य को मनुश्य बनाने में कहीं अधिक भूमिका अदा की है परन्तु इसी की आड़ में चमत्कारिक सत्ता हथियाने वाले बाबा ये भूल जाते हैं कि धर्म का अनुपालन भी उन्हीं की नैतिकता में षुमार था। यहां धर्म का तात्पर्य कत्र्तव्य से है न कि हिन्दू , मुस्लिम, सिक्ख, ईसाइ से है।
ऐसा भी देखा गया है कि समय के साथ जब आर्थिक ताकत बढ़ती है और विकार को गैर अनुषासित होने का मौका दे दिया जाता है तब ऐसे संगठनों के लिए कई चुनौतियां खड़ी हो जाती हैं। आसाराम बापू से लेकर गुरमीत राम रहीम तक दर्जनों ऐसे बाबा मिल जायेंगे जिन्होंने अपने करिष्माई सत्ता के प्रभाव में कुछ भी करेंगे उन्हें चुनौती नहीं मिलेगी का भ्रम हमेषा पाले रहे जिसका नतीजे में जेल की सलाखें आईं। मैक्स वेबर ने भी नौकरषाही के अन्तर्गत तीन सत्ताओं की बात की है जिसमें पारम्परिक, कानूनी और करिष्माई सत्ता षामिल है। करोड़ों अनुयायी से परिपूर्ण राम रहीम का नेटवर्क जिस तर्ज पर फैला था उसे करिष्माई में परखा जा सकता है। वैसे राश्ट्रपिता महात्मा गांधी को भी भारतीय राश्ट्रीय आंदोलन के उन दिनों में करिष्माई नेतृत्व के लिए जाना जाता था और इससे जुड़े अनुषासन का अनुपालन उन्होंने ताउम्र किया। जितना बड़ा करिष्मा उतना बड़ा नैतिक बोध से अभिभूत होने के बजाय दुश्कर्म और अपराध से युक्त राम रहीम जैसे बाबाओं का जब असली चेहरा सामने आता है तब न तो करिष्मा रह जाता है न रसूख बचता है, ऐसे में अनुयायी समेत पूरी व्यवस्था बड़े सदमे से गुजरती है। 
डेरा सच्चा सौदा जैसे आश्रमों की दो दुनिया है एक दुनिया वो है जो लोगों को नज़र आती है, जो लोगों के लिए है जिसमें उनकी भलाई के लिए कार्यक्रम चलते हैं जिसमें रहने, ठहरने और खाने का पूरा पुख्ता इंतजाम होता है। धर्मषालायें भी होती हैं और अस्पताल भी होते हैं इतना ही नहीं जीवन के हर कठिन मोड़ को सरल बनाने वाले उपाय भी उपलब्ध होते हैं। गरीब से गरीब व्यक्ति भी यहां लोक कल्याण और बुनियादी विकास से स्वयं को जुड़ा हुआ पाता है। ऐसी दुनिया में अनुयायियों की संख्या बेहिसाब बढ़ती है पर बाबा राम रहीम की एक दूसरी दुनिया भी है जिसे न तो अनुयायी जानते हैं और न ही आश्रम के बाहर के लोग ही इसे जानते हैं। गुरमीत राम रहीम जैसे बाबा जब आम लोगों के बीच होते हैं तो भगवान होते हैं उनके सुख-दुःख के साझीदार होते हैं। गौरतलब है कि बाबा राम रहीम ने जो दुनिया बसाई उसमें हर चीज़ मौजूद है षायद जिसके बारे में सोचा न जा सके वो भी परन्तु आंखों को चकाचैंध कर देने वाली और लोक कल्याण के गौरव गाथा से युक्त आश्रम के बीच गुफा क्यों होती है और उस गुफा में कैसे तीसरी और चैथी दुनिया पनपाई गयी होती है इसकी भनक तो उन्हें ही होती है जो भुग्तभोगी होते हैं। साफ है गुरमीत राम रहीम ने धार्मिक कामकाज की आड़ में सामाजिक ताने-बाने को तार-तार किया है। न केवल स्त्रियों का षोशण किया बल्कि रिष्तों की आड़ में मर्यादाओं को भी स्याह किया है। इतना ही नहीं गुरमीत राम रहीम जैसे लोग ही हैं जिनकी वजह से अनुषासित और मर्यादित साधु व संत समाज आज कटघरे में है। सजा तो उस जुर्म की मिली है जो गुरमीत राम रहीम ने किया है परन्तु चमत्कारिक और संत होने की आड़ में जो भरोसा समाज ने किया और जो चोट समाजषास्त्र को पहुंची उसकी भरपाई कौन करेगा?

सुशील कुमार सिंह
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नई करवट लेती तमिलनाडु की राजनीति

भारतीय राजनीति में उत्तर के बाद दक्षिण का बड़ा महत्व है जिसमें तमिलनाडु की अपनी अलग महत्ता रखता है। जहां इन दिनों राजनीति नई करवट ले रही है। तमिलनाडु की सियासत मौजूदा समय में जिस रूप-रंग को धारण कर रही है इसकी आहट पहले से ही थी। जिस तर्ज पर सियासी बटवारे यहां की जमीन पर हुए उससे भी यह लगता था कि समय के साथ मोलतोल और सौदेबाजी के चलते यहां की राजनीति नई राह ले लेगी। बामुष्किल छः महीने बीते होंगे कि सब कुछ आईने की तरह साफ हो गया और अब गुटों में बंटे नेता एक साथ हैं पर सरकार खतरे में है। असल में 25 विधायकों समेत टीटीवी दिनाकरन गुट के बगावत से सरकार पर संकट बढ़ गया है। देखा जाय तो सत्तारूढ़ अन्नाद्रमुक के ई. पलानीस्वामी और तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री रहे पन्नीरसेल्वम के गुटों का आपसी विलय कोई एकाएक परिणाम नहीं है बल्कि इसके पीछे महीनों की राजनीति है। इतना ही नहीं दोनों धड़ों के नेताओं ने बीते सप्ताह प्रधानमंत्री मोदी से अलग-अलग मुलाकात भी की थी। वैसे एक सच यह भी है कि जयललिता के निधन के बाद भाजपा की नजर अन्नाद्रमुक पर थी साथ ही भाजपा उन दिनों पन्नीरसेल्वम को मुख्यमंत्री बनाये रखने के पक्ष में भी थी। जयललिता की बहुत करीबी वी.के. षषिकला और दिनाकरन गुट से तमिलनाडु के मुख्यमंत्री पलानीस्वामी की बढ़ती दूरियों ने यह साफ कर दिया था कि पन्नीरसेल्वम का गुट कभी भी उनके साथ हो सकता है। गौरतलब है कि अन्नाद्रमुक के अन्दर जो धड़े बने उनमें कोई बड़ा वैचारिक विभाजन नहीं था बल्कि जे. जयललिता के विरासत पर कब्जे को लेकर उनके नज़दीकियों के बीच के लोगों का आपसी झगड़ा था। जब तत्कालीन मुख्यमंत्री जयललिता का पिछले वर्श दिसम्बर में स्वर्गवास हुआ तब तमिलनाडु की सियासत हिचकोले लेने लगी थी। बामुष्किल महीने भर बीते थे कि उनकी खास सहयोगी वी.के. षषिकला सत्ता पर काबिज होने वाले मनसूबे के चलते तत्कालीन मुख्यमंत्री पन्नीरसेल्वम को गद्दी छोड़ने का खुले मन से आदेष दे दिया। यही सियासत के वैचारिक बंटवारे का बड़ा मोड़ था। हालांकि षषिकला की मुराद पूरी नहीं हुई क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले ने बीते फरवरी में उन्हें सलाखों के पीछे कर दिया। मौजूदा समय में वे कर्नाटक की एक जेल में निर्धारित सजा काट रही हैं। जेल जाने से पहले तमिलनाडु की राजनीति में षषिकला ने काफी उथल-पुथल किया था। पन्नीरसेल्वम से नाराज षषिकला ने न केवल पलानीस्वामी को तमिलनाडु का मुख्यमंत्री बनवाया बल्कि सेल्वम को पार्टी से बाहर का रास्ता भी दिखाया और अब यही दोनों एक साथ तो हुए हैं पर दिनाकरन गुट ने सरकार के लिए संकट खड़ा कर दिया है। वैसे तमिलनाडु की राजनीति इस बात के लिए अधिक जानी जायेगी कि गैर महत्वाकांक्षी मुख्यमंत्री बने और अति महत्वाकांक्षी षषिकला को जेल जाना पड़ा। 
फिलहाल एआईडीएमके के दोनों धड़े के विलय के बावजूद राज्य में राजनीतिक उथल-पुथल थमने का नाम नहीं ले रहा है। बीते 22 अगस्त को षषिकला और टीटीवी दिनाकरन के करीबी विधायकों ने राज्यपाल से मुलाकात कर मुख्यमंत्री पलानीस्वामी को हटाने की मांग की साथ ही यह भी कहा कि उनके पास बहुमत नहीं है। जैसा कि इन दिनों राजनीति में खूब देखा जा रहा है कि जब भी कोई बगावती समूह बनता है तो उसे सियासी बीमारियों से बचाने के लिए किसी स्थान विषेश पर भेज दिया जाता है। दिनाकरन समर्थक विधायकों को भी पाण्डेचेरी के रिसाॅर्ट में रखा गया है। इसके पहले गुजरात और उत्तराखण्ड में भी ऐसा हो चुका है। हालांकि कहा यह जा रहा है कि वे वहां गये हैं। सरकार पर संकट क्यों है इसे समझना भी सही होगा। असल में तमिलनाडु में कुल 234 विधायक हैं जिसमें एआईडीएमके के 134 और विरोधी करूणानिधि की डीएमके के 89 इसके अलावा कांग्रेस के आठ और अन्य के एक विधायक हैं। दिनाकरन समर्थक यह दावा कर रहे हैं कि 25 विधायक फिलहाल पलानीस्वामी के विरूद्ध हैं। इस स्थिति से स्पश्ट है कि तत्कालीन मुख्यमंत्री की सरकार संख्याबल के मामले में कमजोर है। विवाद को देखते हुए द्रमुक ने भी राज्यपाल को चिट्ठी लिखकर विधानसभा सत्र बुलाने और मुख्यमंत्री को बहुमत साबित करने की मांग की। गौरतलब है कि कर्नाटक में भी जब बरसों पहले कुछ ऐसी ही स्थिति बनी थी तब यदुरप्पा सरकार को विष्वास मत हासिल करने का निर्देष दिया गया था। वैसे भी यह कोई अचरज वाली बात नहीं है कि सत्ताधारी दल के अंदर जब धडे़ बनते हैं तो सरकार के संख्याबल में कमी होना स्वाभाविक है। पलानीस्वामी की सरकार फिलहाल इस मुष्किल से घिरती दिखाई देती है। जाहिर है यदि दिनाकरन समर्थक अडिग रहते हैं तो मौजूदा सरकार के लिए जरूरी संख्याबल जुटाना असम्भव होगा। ऐसी स्थिति में सत्ता परिवर्तन भी सम्भव है। फिलहाल तमिलनाडु की सियासत किस करवट बैठेगी आगे के दिनों में बिल्कुल स्पश्ट हो जायेगा। 
तमिलनाडु की राजनीति इसलिए भी मौजूदा समय में रसूखदार है क्योंकि यहां की अगली विधानसभा का गठन होने में चार वर्श का वक्त लगेगा। दोनों गुटों अर्थात् पूर्व मुख्यमंत्री पन्नीरसेल्वम और मौजूदा मुख्यमंत्री पलानीस्वामी का एक साथ होने से बेषक पार्टी को मजबूती मिलती हो पर सरकार खोने के भय से अभी यह दल मुक्त नहीं हैं और इस परीक्षा में सफल होना इसलिए भी आवष्यक है क्योंकि विरासत की होड़ में इन्हें स्वयं को अव्वल भी सिद्ध करना है। गौरतलब है कि जब तत्कालीन मुख्यमंत्री जयललिता को आय से अधिक के मामले में जेल हुई थी तब उनके सबसे अधिक करीबी पन्नीरसेल्वम मुख्यमंत्री बने थे जाहिर है जयललिता के विरासत का सही हकदार तो पन्नीरसेल्वम ही हैं पर राजनीतिक उतार-चढ़ाव के बीच वी.के. षषिकला ने पलानीस्वामी को इसका हकदार बना दिया था। फिलहाल वी.के. षषिकला जेल में हैं और ये दोनों विरासत के अगुवा बने हुए हैं। जिस तरह यहां की सियासत बदली है और इनकी केन्द्र में सत्तारूढ़ एनडीए के प्रति सूझबूझ बढ़ी है उससे भी साफ है कि बिहार में जेडीयू के तर्ज पर अब एआईडीएमके भी मोदी के साथ सफर करने के मामले में कुछ ही दूरी पर खड़ी है। देखा जाय तो प्रधानमंत्री मोदी जयललिता के समय से ही एआईडीएमके को एनडीए के साथ लाने की पहल करते रहे हैं। हालांकि उनकी ऐसी ही पहल पष्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को लेकर भी थी पर वहां दाल नहीं गली। आज भी मोदी और ममता ठीक-ठाक राजनीतिक विरोधी के तौर पर जाने जाते हैं। ऐसा ही कुछ दृष्य 2015 के बिहार चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री मोदी और नीतीष कुमार के बीच था पर लालू के खानदानी भ्रश्टाचार के चलते सुषासन बाबू नीतीष ने लालू का न केवल साथ छोड़ना ठीक समझा बल्कि महागठबंधन को भी ठेंगा दिखा दिया। इतना ही नहीं 24 घण्टे के भीतर भाजपा का साथ लेकर वे सत्तासीन हुए और कुछ ही दिन पहले चार साल का वनवास तोड़ते हुए एनडीए में अपने दल का विलय कर दिया। 
फिलहाल तमिलनाडु की सियासत कमोबेष उथल-पुथल से पूरी तरह बाहर नहीं है। ऐसे में बड़े सहारे की जरूरत उन्हें भी है और वहां की बदली राजनीति में भाजपा को दक्षिण के सबसे महत्वपूर्ण राज्य में दमदार प्रवेष का बड़ा सियासी मौका हाथ लगा है। वर्श 2019 में सरकार दोहराने का मनसूबा रखने वाले प्रधानमंत्री मोदी को भी एक बड़े दल का सहारा मिलता दिखाई देता है। कुछ ही दिनों में मंत्रिपरिशद् का विस्तार होगा जाहिर है अन्नाद्रमुक और जेडीयू के लोग भी इसमें षामिल होंगे। हालांकि अन्नाद्रमुक के एनडीए में षामिल होने की घोशणा अभी षेश है पर स्थिति को देखते हुए लगता है कि अब यह महज एक औपचारिकता है। फिलहाल जयललिता की विरासत पर जो सियासत इन दिनों गरमाई है उसमें दिनाकरन ने लंगी मार दी है। ऐसे में पलानीस्वामी और पन्नीरसेल्वम की जोड़ी को परिपक्व कूटनीतिक खेल तो दिखाना ही होगा।


सुशील कुमार सिंह
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कूटनीतिक फलक पर फिर भारत

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने बीते मंगलवार को नई अफगान नीति का एलान किया जो भारत के हितों और उम्मीदों के मुताबिक है। इस नीति के एलान के साथ ही ट्रंप ने भारत को अहम षक्ति मानते हुए रणनीतिक सहयोग और मजबूत करने का भी आह्वान किया है। गौरतलब है कि भारत और अफगानिस्तान का सम्बंध पहले से ही कहीं अधिक प्रगाढ़ है। अफगानिस्तान के आधारभूत संरचना के निर्माण में भी भारत ने महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाई है यहां तक कि अफगानी संसद के निर्माण में भी उसका योगदान है। डोनाल्ड ट्रंप यह अच्छी तरह जानते हैं कि पाकिस्तान के दिमाग को सही करने के लिए उसे धमकाना और अफगानिस्तान के प्रति रचनात्मक रूख रखना क्यों जरूरी है। ट्रंप ने यह भी साफ कर दिया है कि भारत अमेरिका के अफगान नीति का एक अहम हिस्सा है। इसी बीच चेतावनी भरे लहजे में ट्रंप ने पाकिस्तान को कहा है कि अगर वह नहीं सुधरा तो उसे बहुत कुछ खोना पड़ सकता है। गौरतलब है कि अरबों डाॅलर अमेरिका से प्राप्त करने वाला पाकिस्तान आतंकियों का बरसों से पनाहगार बना हुआ है। अफगानिस्तान और पाकिस्तान में अभी भी अमेरिका द्वारा सूचीबद्ध 20 विदेषी आतंकी संगठन सक्रिय हैं। वैसे देखा जाय तो ट्रंप की फटकार अमेरिका को लेकर कोई पहली बार नहीं है इसके पहले वे पाक को आतंकियों का स्वर्ग बता चुके हैं। हालांकि इसी बीच तालिबान ने ट्रंप को भी चेतावनी दी है कि यदि अमेरिका अफगानिस्तान से अपने सैनिक नहीं हटाता तो जल्द ही 21वीं सदी की इस महाषक्ति के लिए अफगानिस्तान एक अन्य कब्रगाह बन जायेगा। गौरतलब है कि बीते डेढ़ दषक से अमेरिकी सेना अफगानिस्तान में डटी हुई है। हालांकि पहले की तुलना में इनकी मात्रा कम है। फिलहाल डोनाल्ड ट्रंप के पाकिस्तान पर किये गये तीखे वार से चीन झुंझला गया है और सच्चे और अच्छे मित्र की भांति पाकिस्तान के पक्ष में खड़ा हो गया है। गौरतलब है कि अमेरिकी राश्ट्रपति  द्वारा  पहले उत्तर कोरिया और अब एक बार फिर पाकिस्तान को धमकाना चीन को पच नहीं रहा है साथ ही मौजूदा समय में उसकी कूटनीति भी इसके चलते कमजोर हो रही है। भारत से अफगान मसले में डोनाल्ड ट्रंप द्वारा सहयोग की मांग और एक अहम् षक्ति के रूप में स्वीकार्यता चीन को जरूर अखर रहा होगा और वह भी ऐसे समय में जब डोकलाम को लेकर भारत और चीन आमने-सामने हैं।
दो महीने से अधिक वक्त बीत चुका है डोकलाम पर भारतीय और चीनी सेना टस से मस नहीं हुई हैं। चीन ने भारत को डराने-धमकाने से लेकर दबाने तक के तमाम हथकंडे अपनाये बावजूद इसके उसे मनचाही सफलता हासिल नहीं हो पायी। भारत को बार-बार धौंस दिखाने वाला चीन इस बार भारतीय कूटनीति के आगे बेबस हुआ है। इसी बीच बीते 20 अगस्त को अमेरिकी संसद में पेष की गई डोकलाम विवाद की रिपोर्ट में कहा गया है कि यह गतिरोध दोनों देषों के बीच युद्ध भी करा सकता है। ऐसे में अमेरिका और भारत का सामरिक सहयोग चीन के साथ अमेरिकी रिष्तों के लिए मुष्किलें पैदा कर सकता है। अमेरिकी कांग्रेस की षोध सेवा की ओर से आई यह मामूली और संक्षिप्त रिपोर्ट जिसका षीर्शक डोकलाम में चीन सीमा पर तनाव है। इसमें कुछ नई बात बताने की कोषिष की गई है पर भारत की रणनीति को देखते हुए इस रिपोर्ट के अनुमान को सही कहना संदर्भित प्रतीत नहीं होता। हालांकि चीन ने 22 अगस्त को एक बार फिर धमकी दिया है यदि उसकी सेना भारत में घुसी तो कोहराम मच जायेगा। वास्तुस्थिति को देखते हुए फिलहाल डोकलाम मुद्दे पर अब यह लगता है कि चीन अपनी रणनीति में नई बातें लायेगा और युद्ध से बचने की कोषिष भी करेगा। इसके अलावा उत्तराखण्ड की सीमा में भी उसके दखल को नजरअंदाज़ नहीं किया जा सकता। पूर्वोत्तर की सीमाओं मुख्यतः अरूणाचल में परेषानी खड़ी करने वाली गतिविधियां भी चीन बढ़ा सकता है। डोकलाम पर नाकाम चीन कुछ ऐसे हथकण्डे भी इन दिनों अपना रहा है जिस पर यकीन करना फिलहाल मुष्किल है पर इसमें काफी हद तक सच्चाई है। ब्रह्यपुत्र नदी में आई बाढ़ और पानी के हाहाकार से जूझते असम के लिए काफी हद तक चीन ही जिम्मेदार है। ऐसा नहीं है कि असम की घाटियों में पहले बाढ़ नहीं आई हो पर इस बार ज्यादा और अधिक समय की बाढ़ है। सम्भव है कि चीन डोकलाम विवाद में बैकफुट में होने के चलते पानी से बदला ले रहा है। माना जा रहा है कि चीन भारतीयों को डुबोने के लिए पानी छोड़ रहा है और उसे इस बात की भी पूरी जानकारी है कि कब, कितना पानी छोड़ने पर जान-माल का अधिक नुकसान होगा। 
वैष्विक फलक के बदले मिजाज में उत्तर कोरिया का भी मिजाज़ इन दिनों सातवें आसमान पर है और अमेरिका के निषाने पर है। बीते कई दिनों से अमेरिका और उत्तर कोरिया के बीच युद्ध का वातावरण निर्मित होता जा रहा है। गौरतलब है कि उत्तर कोरिया से 11 हजार किलीमीटर दूर अमेरिका उसके परमाणु एवं मिसाइल कार्यक्रम के चलते खार खाये हुए है। बात यहीं तक नहीं है उत्तर कोरिया के दुस्साहस का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि साल 2006 से 2016 के बीच चार बार परमाणु परीक्षण समेत कई मिसाइलों का परीक्षण किया है। उत्तर कोरिया ने बीते माह बैलेस्टिक मिसाइल का परीक्षण करके मानो अमेरिका को खुली चुनौती दे दी हो। हालांकि परीक्षण सफल नहीं था। संयुक्त राश्ट्र संघ की सुरक्षा परिशद् के प्रतिबंधों से भी मानो उसका कोई लेना-देना न हो। दक्षिण कोरिया व जापान सहित कई प्रषान्त महासागरीय देष उत्तर कोरिया के हरकतों से बे-इंतहा परेषान हैं। वैसे उत्तर कोरिया के व्यापार और अन्य मामलों में बढ़त दिलाने में चीन का बड़ा हाथ है। यहां तक कि उत्तर कोरिया के कल-कारखानों में बनने वाले सामान पर मेड इन चाइना का छाप होता है। इससे यह अंदाजा लगाना आसान है कि दोनों की आपस में कितनी छनती है। फिलहाल कोरियाई प्रायद्वीप में बढ़े तनाव के बीच 21 अगस्त से अमेरिका और दक्षिण कोरिया युद्धाभ्यास की षुरूआत कर चुके हैं। जिसे लेकर उत्तर कोरिया ने अमेरिका को चेताने का दुस्साहस किया है कि ऐसा करके वह आग में घी डालने का काम कर रहा है। गौरतलब है कि उत्तर कोरिया के साथ चीन को भी यह युद्धाभ्यास अखर रहा है। चीन ने भी इस पर आपत्ति दर्ज की थी। उलची फ्रीडम गार्डियन नामक इस युद्धाभ्यास में दोनों देषों के करीब एक लाख सैनिक हिस्सा ले रहे हैं। चीन के लिए यह युद्धाभ्यास एक प्रकार से भारत के प्रति उसका उठा हुआ कदम पर मोवैज्ञानिक प्रहार भी है। साथ ही सप्ताह भर पहले जापान का डोकलाम पर रूख भारत की ओर होना भी चीन के लिए चिंता का सबब बना हुआ है। जाहिर है जापान के इस कदम से भारत को मनोवैज्ञानिक बढ़त और भूटान को भी राहत मिली होगी। 
स्पश्ट है कि भारत चीन के साथ बढ़ते तनाव और उसकी बढ़ती दादागिरी से अब हर हाल में मुक्ति चाहता है। ऐसे में अमेरिका का भारत के साथ इस तरह का रवैया इस मामले में मददगार सिद्ध हो सकता है। गौरतलब है कि सितम्बर के प्रथम सप्ताह में ब्रिक्स देषों की चीन में बैठक होनी है और प्रधानमंत्री मोदी के षामिल होने की सम्भावना है। फिलहाल वैष्विक परिदृष्य में दुनिया के अनेक देषों समेत पूरब के देषों के बीच मौजूदा दौर में तनाव सतरंगी रूप ले चुका है। दो टूक यह भी है कि चीन भारत की बढ़ती अर्थव्यवस्था के चलते भी यहां-वहां की उछलकूद करता रहता है पर उसे यह नहीं पता कि पड़ोस के साथ आर, पार और व्यापार के अलावा सुगम रिष्ते की सम्भावना हमेषा फलक पर होती है। केवल तनाव देने से तनाव ही मिलता है और फायदे के रास्ते बंद हो जाते हैं। 


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन  आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 
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