Wednesday, September 20, 2017

खतरा नहीं, अवसर है कितना वाजिब!

चीनी राश्ट्रपति षी जिनपिंग का यह कथन कि चीन और भारत एक दूसरे के लिए खतरा नहीं, अवसर है यह द्विपक्षीय समझ का सकारात्मक इषारा है। गौरतलब है कि एक समय ऐसा भी था कि जब हिन्दी-चीनी भाई-भाई का नारा भी गूंजा था जिसका 1962 में भारत पर चीन के आक्रमण के साथ लोप हो गया था। तथाकथित परिप्रेक्ष्य यह भी है कि हिन्दी-चीनी भाई-भाई का नारा उतना व्यावहारिक षायद कभी नहीं रहा जितना कूटनीतिक तौर पर इसे फलक पर उभारने की कोषिष की गयी थी। वास्तुस्थिति यह भी है कि चीन के लिए भारत कभी भी किसी प्रकार का खतरा नहीं रहा जाहिर है चीनी राश्ट्रपति का कथन पहले उन्हीं पर लागू होता है। देखा जाय तो तमाम विवाद खड़ा करने के चलते चीन भारत के लिए आये दिन मुसीबत का सबब बनता रहा है। बावजूद इसके रोचक पहलू यह है कि अरबों का कारोबार भी वह हमारे देष से करता है। गौरतलब है कि वर्तमान में 70 अरब डाॅलर का व्यापार दोनों देषों के बीच हाता है जिसमें अकेले 61 अरब डाॅलर के व्यापार पर चीन का कब्जा है। कहा जाय तो माल चीन का, बाजार भारत का। मुनाफा भी भारत से और आंख भी भारत पर ही तरेरता रहा है। देखा जाय तो भारत के लिए चीन कई प्रारूपों में समस्यायें लाता रहा है। मसलन पाकिस्तान को भारत के खिलाफ भड़काने से लेकर, पाक आतंकियों पर सुरक्षा परिशद् में वीटो का प्रयोग करने तक साथ ही भारत की जमीन पर कब्जा जमाने जैसा कृत्य। हालिया दौर में ही देखें तो 16 जून से 28 अगस्त तक डोकलाम मुद्दे को लेकर चीन ने भारत को पिछले 72 दिनों से मनोवैज्ञानिक रूप से कमजोर करने के लिए सारे हथकण्डे अपनाये जिसमें युद्ध की धमकी समेत कई कृत्य षामिल हैं। जबकि भारत चीन की गीदड़ भपकी से न तो डरा और न ही किसी प्रकार का असंतुलन दिखाया। यह इस बात का पुख्ता प्रमाण है कि किसी की सम्प्रभुता को चुनौती देना और बेवजह का विवाद खड़ा करने के मामले में चीन ही आगे है और उक्त कथन पर पहले उसे ही अमल करने की अब जरूरत है। 
भारत की कूटनीति का रूप रंग वैष्विक मंचों पर बीते कुछ वर्शों से कहीं अधिक मजबूती लिए हुए है। इसी का नतीजा है कि ब्रिक्स सम्मेलन से पहले चीन के सुर और मिजाज दोनों बदले। नतीजन तनाव व मतभेद के बजाय आगे बढ़ने और एक-दूसरे में अवसर झांकने की बात हो रही है। गौरतलब है कि 3 से 5 सितम्बर के बीच चीन के षियामेन में पांच देष ब्राजील, रूस, भारत और चीन समेत दक्षिण अफ्रीका का एक सम्मेलन हुआ जिसे आमतौर पर ब्रिक्स सम्मेलन की संज्ञा दी जाती है। इस सम्मेलन से ठीक पहले भारत और चीन के बीच डोकलाम को लेकर पनपे तनाव पर विराम लगना कूटनीतिक दृश्टि से चीन पर ही कई सवाल खड़े करता है। हालांकि षान्ति की इस पहल को सराहा जाना ही सही है पर चीन की चाल नाकामयाब हुई है यह भी भारत समेत दुनिया को पता चल गया है। चीन भारत को लेकर अब एक नई राय रखता दिखाई दे रहा है। जिस तर्ज पर जिनपिंग ने भारतीय प्रधानमंत्री मोदी के साथ द्विपक्षीय वार्ता की और दोनों ने संयुक्त आर्थिक समूह, सुरक्षा समूह व रणनीतिक समूह जैसी अन्र्तसरकारी व्यवस्थाओं के अलावा कई मुद्दों पर बात की उससे साफ है कि मतभेद को भुलाकर आगे बढ़ने की इच्छा भारत के साथ चीन में भी तुलनात्मक खूब बढ़ी है। सबके बावजूद देखने वाली बात यह रहेगी कि दोनों देषों के बीच परस्पर विष्वास को बढ़ाने और मजबूत करने को लेकर जो इरादे फिलहाल चीन की ओर से जताये जा रहे हैं वह उस पर कितना खरा उतरता है। चीन के विदेष मंत्रालय की मानें तो जिनपिंग ने मोदी से कहा है, कि चीन षान्तिपूर्ण सहअस्तित्व के सिद्धान्त ‘पंचषील‘ को बरकरार रखने जैसे अन्य मुद्दों के साथ काम करने का इच्छुक है। चीन के इस मन्तव्य को लेकर भारत को आखिर गुरेज क्यों होगा पर जिस षान्तिपूर्ण सहअस्तित्व को लेकर चीन एक बार फिर सुर देने की कोषिष कर रहा है उसे तार-तार 1962 में करके यह विष्वास पहले भी खो चुका है बावजूद इसके एक पड़ोसी होने के नाते इसको अमल में लाना ही ठीक रहेगा परन्तु इस ध्यान के साथ कि कूटनीतिक लोचषीलता चीन के मामले में आने न पाये।
इस सच के साथ भी तोड-मरोड़ नहीं हो सकती कि चीन डोकलाम की परछाई को ब्रिक्स पर पड़ने नहीं देना चाहता था। इसके पीछे बड़ी वजह भारत की मजबूत कूटनीति भी कह सकते हैं। असल में चीन इन दिनों चैतरफा घिरा हुआ था कुछ हद तक अभी भी। अमेरिका और जापान की तरफ से आये बयान, उत्तर कोरिया को लेकर अमेरिका की धमकी तथा भारत के साथ 70 अरब डाॅलर का वर्तमान में किया जा रहा व्यापार भी काफी कुछ सोचने के लिए उसे मजबूर किया है। वैसे वैष्विक फलक पर चीन की दादागिरी को लेकर लगभग सभी देषों को यह पता चलने लगा है कि उसकी नीति भारत को जानबूझकर नुकसान पहुंचाने वाली रहती है। इज़राइल के साथ भारत का प्रगाढ़ होता सम्बंध भी चीन को कहीं-न-कहीं खूब खटका है। पेरिस में डोकलाम विवाद के दौरान भी मोदी और जिनपिंग की मुलाकात ब्रिक्स से पहले भी हो चुकी है पर वहां कोई ऐसी सकारात्मक बातचीत के आसार नहीं बने थे। मोदी जिनपिंग की बीते 5 सितम्बर को ब्रिक्स सम्मेलन के दौरान हुई द्विपक्षीय वार्ता में मतभेद को छोड़ आगे बढ़ने का चिंतन समाहित है। एक घण्टे की मुलाकात फिलहाल सफल कही जायेगी। प्रधानमंत्री मोदी का ब्रिक्स के जरिये यह कहना कि बेहतर दुनिया बनाये यह हमारी जिम्मेदारी है। सबका साथ, सबका विकास जरूरी है कहीं न कहीं भारत की उदारता और आगे बढ़ने की भावना का परिलक्षण निहित है। यह प्रसंग भी बड़ा उम्दा है कि जिस देष से युद्ध जैसे आसार बन रहे हों उसी देष में द्विपक्षीय वार्ता से षान्ति की पहल हो और मतभेद छोड़ आगे बढ़ने की बात की जाय साथ ही खतरे की भावना से मुक्त होकर अवसर के सुर में सुर मिलाया जाय यह अपने आप में एक अनोखा विस्तार है। अक्सर कहा जाता है कि मामले कूटनीति से अपनाये जायें बेषक भारत चीन के बीच जो हुआ वह कुछ और नहीं एक मजबूत कूटनीति ही तो है। 
खास यह भी है कि ब्रिक्स के मंच से चीन समेत सभी सदस्य देष पाकिस्तान के आतंक पर जो संयुक्त पक्ष रखा वह भी भारत की दृश्टि से इसलिए ठीक है क्योंकि चीन में पाक के खिलाफ या उसके आतंकियों के खिलाफ कुछ भी हासिल कर पाना नामुमकिन जैसा है जो इस बार ऐसा नहीं रहा। चीन से हमारे कई विवाद हैं। सरहदी इलाकों में पनपी समस्या यदि समाधान को किसी तरह प्राप्त कर ले तो यह दोनों की दोस्ती में मील का पत्थर सिद्ध होगा पर रूस की तरह चीन हमारा नैसर्गिक मित्र नहीं है। यही कारण है कि भारत पड़ोसी हो सकता है पर टूट कर चीन दोस्ती करे ऐसा षायद नहीं हो सकता। यदि इसमें भी चीन ने चालबाजी दिखाई तो अवसर के बजाय खतरे बढ़ेंगे पर संतुलन बरकरार रहता है तो आर, पार और व्यापार समेत कई कृत्य आसान बने रहेंगे। निहित भाव यह भी है कि भारत और चीन एक बार फिर षान्ति को अपनाने और मतभेद को छोड़ने को लेकर आगे बढ़ चले हैं पर इरादों की परख अभी होना बाकी है मुख्यतः यह बात चीन पर लागू होती है क्योंकि लद्दाख की सीमा से लेकर अरूणाचल की सीमा तक षान्ति भंग करने में चीन ने कभी कोई अवसर नहीं गंवाया है। फिलहाल अब उसे तय करना है कि भारत के लिए वह खतरा है या भारत उसके लिए एक अवसर है।


सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन  आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन
डी-25, नेहरू काॅलोनी,
सेन्ट्रल एक्साइज आॅफिस के सामने,
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