यह चिंता का विशय है और गम्भीरता से विचार करने वाला भी कि देष की आबादी में सर्वाधिक स्थान घेरने वाले किसान अनगिनत समस्याओं से क्यों जूझ रहे हैं। हम लोकतंत्र से बंधे हैं अतः यह सर्वथा आवष्यक है कि मानवता का ध्यान रखा जाय और किसानों को नये कानूनों से कोई आपत्ति है तो उन्हें बात कहने का मौका दिया जाये। इसमें कोई दो राय नहीं कि कृशि से सम्बंधित तीन कानून इन दिनों खूब सुर्खियां बटोर रहे हैं। पंजाब, हरियाणा और पष्चिमी उत्तर प्रदेष के किसान दिल्ली को चैतरफा घेर कर नाकेबंदी कर चुके हैं। किसानों का मानना है कि ये कानून उनके लिए घाटे का सौदा है या तो सरकार इसे वापस ले या फिर एक चैथा कानून न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएमपी) का भी बनाये ताकि उनकी फसल की निर्धारित कीमत की गारंटी हो। किसानों को डर है कि पूंजीपति इन कानूनों के सहारे उनका षोशण करेंगे। हालांकि उनका यह डर गैर वाजिब नहीं है। सरकार को चाहिए कि किसान को प्राथमिकता दे न कि अपने बनाये गये कानून को सही सिद्ध करने में पूरी कूबत झोके। वैसे एक बात यह भी है कि सरकार किसानों को समझाना चाहती है कि यह कानून उनके लिए बहुत फायदे का है। यदि सरकार किसानों को समझ कर कानून बनाती तो षायद यह नौबत न आती। दो टूक सच्चाई यह है कि किसानों को लेकर सरकारें मजबूत नीति के बजाय वोट की राजनीति करती रहीं हैं और किसान कभी सूखा, बाढ़ की चपेट में तो कभी उनके मन-माफिक कानून न होने की वजह से अपने को असहाय महसूस करते रहे हैं। दुर्भाग्य तो यह भी है कि 70 साल बाद भी किसान न केवल कर्ज की समस्या से जूझ रहा है बल्कि आत्महत्या की दर को भी बढ़ा दिया है। भारत में किसानों की आत्महत्या कितना संगीन मामला है इस पर कौन समझ रखेगा। सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को जो आंकड़ा कुछ वर्श पहले उपलब्ध कराया था उससे यह पता चला कि हर साल 12 हजार किसान आत्महत्या कर रहे हैं। कर्ज में डूबे और खेती में हो रहे घाटे को किसान बर्दाष्त नहीं कर पा रहे हैं और जब तब सरकारी नीतियों के चलते भी उन्हें सड़क पर उतरना पड़ता है जैसा कि इन दिनों स्थिति देखने को मिल रही है।
यह बात वाजिब ही कही जायेगी कि कृशि प्रधान भारत में कई सैद्धान्तिक और व्यावहारिक कठिनाईयों से किसान ही नहीं सरकारें भी जूझ रही हैं। अन्तर सिर्फ इतना है कि किसान मर रहा है और सरकारें मजा कर रही हैं। सबको पता है कि सुबह-षाम थाली में भोजन चाहिए और यह किसानों के पसीने से ही निर्मित होता है बावजूद इसके उसे पहले भूख की फिर स्वयं के अस्तित्व की लड़ाई के लिए और अपने ही उपज की कीमत के लिए संघर्श करना पड़ता है। स्वामीनाथन रिपोर्ट को देखें तो उसमें भी एमएसपी को डेढ़ गुने की बात कही गयी है। 15 अगस्त 2017 लाल किले से देष को सम्बोधन करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने किसानों की जिन्दगी बदलने के लिये जिस रास्ते का उल्लेख किया था वह कृशि संसाधनों से ताल्लुक रखता है जिसमें उत्तम बीज, पानी, बिजली की बेहतर उपलब्धता के साथ बाजार व्यवस्था को दुरूस्त करना षामिल था। जबकि तब से कई 15 अगस्त निकल गये किसानों के रास्ते समतल नहीं हुए और अब एक नया बखेड़ा खड़ा हो गया है।
ऐसा देखा गया है कि किसानों से उपजी समस्याओं को लेकर सरकारों की संवेदना भी इधर-उधर होती रही है पर उनकी फटे हाल जिन्दगी में कोई बड़ा परिवर्तन नहीं भर पाया। प्रधानमंत्री मोदी 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने की बात कह रहे हैं। इस हकीकत पर 2022 में ही विचार होगा। अब तो कोविड का दौर है। इस लक्ष्य का क्या होगा अब तो दूर की कौड़ी लगती है। बड़ा सवाल है कि दिन बदलेंगे, बदल रहे हैं पर किसान कहां खड़ा है। 90 के दषक से मुफलिसी के चलते आत्महत्या के मार्ग को अपना चुका किसान उसी पर सरपट क्यों दौड़ रहा है। देष की 60 फीसदी आबादी किसानों की है। बहुतायत में नेता, मंत्री व प्रषासनिक अमला समेत कई सामाजिक चिंतक इस बात को कहने से कोई गुरेज नहीं करते कि उनके पुरखे भी किसान और मजदूर थे पर जब इन्हीं की जिन्दगी में थोड़ी रोषनी भरने की बात हो तो इनकी नीतियां और सोच या तो सीमित हो जाती है या बौनी पड़ जाती हैं। भारत में किसान आत्महत्या क्यों कर रहे हैं। यह लाख टके का नहीं अरब टके का सवाल है और इनकी संख्या लगातार क्यों बढ़ रही है। इतना ही नहीं आत्महत्या से जो राज्य या इलाके अछूते थे वे भी इसकी चपेट में आ रहे हैं। इस सवाल की तह तक जाने के बजाय सरकारें बचाव की नीति पर काम करने लगती हैं। मर्ज का इलाज नहीं बल्कि उसे टालने की कोषिष में लग जाती है। दुख इस बात का है कि सत्ता में आने से पहले यही सभी के जीवन के मार्ग को समुचित और समतल बनाने के वायदे करती है और जब इनके मतों को हथिया कर सत्तासीन हो जाते हैं तो ना जाने इनके विजन को क्या हो जाता है।
किसानों की स्थिति लगातार क्यों बिगड़ रही है। सरकारों से उनका भरोसा क्यों उठ रहा है और उनकी मुष्किलें कम होने के बजाय क्यों बढ़ रही हैं ये सभी सवाल फलक पर तैर रहे हैं। किसान अपना खून-पसीना बहाकर अनाज पैदा करते हैं और बाकी उन्हीं अनाज से अपनी सेहत ठीक कर रहे हैं इस चिंता से परे कि वे किस हाल में है। दिल्ली की सीमा पर लाखों किसान भरपूर जाड़े में कानून के खिलाफ खड़े हैं। अब सरकार बातचीत की बात कह रही है। किसान बे षर्त और बिना किसी लाग-लपेट के कानून वापसी की बात कह रहे हैं या फिर उपज की गारंटी वाला भी कानून आये। वैसे किसानों की कोई गलती नहीं है। कानून बनाते समय सरकार ने इस बात की कोई जहमत नहीं उठाई कि उनसे भी पूछा जाये जबकि नई षिक्षा नीति 2020 के मामले में लाखों लोगों की राय ली गयी थी। सन् 1970 में गेहूं 76 रूपए कुंतल था जो अब मात्र 20 गुना अधिक कीमत का है जबकि सरकारी नौकरी करने वालों की तनख्वाह कहीं-कहीं 3 सौ गुना से अधिक है। यह बात समझ से परे है कि किसान मजबूर की जिन्दगी क्यों जिये। लोकतंत्र में सत्ता पर कोई भी पहुंच सकता है पर वह सबके काम आयेगा इसकी उम्मीद मानो अब है ही नहीं क्योंकि 70 सालों से अगर कोई सबसे ज्यादा छला गया है तो वह किसान ही है। आंखों में सपने ठूसने वाली सरकारें कुर्सी की फिराक में किसानों का न दर्द समझ पाती हैं और न ही कोई दवा ठीक से दे पायी हैं। अब किसान रूकता नहीं है और न ही झुकता है। अब तो सरकार को कर्जदार और स्वयं को मालिक समझता है। अब सरकार को समझना है कि वह किसानों के साथ कौन सा रिष्ता निभाना चाहती है। फिलहाल किसान जब-जब सड़क पर उतरा है तख्त हिले जरूर हैं। मौजूदा सरकार को किसानों की स्थिति को देखते हुए न केवल फायदे की कृशि नीति बनाये बल्कि अपना भरोसा भी जीते। ध्यान रहे लोकतंत्र में जनहित सर्वोपरी होता है अन्न और अन्नदाता का अपमान करके कोई पनपा नहीं है ऐसे में किसानों के इस आंदोलन को आयी-गयी नहीं किया जा सकता बल्कि संवेदना के साथ समस्या हल करना ही होगा।
डाॅ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन
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