हमें संसद क्यों चाहिए दरअसल ये, वे तत्व हैं जो सम्मिलित रूप से भारत में एक लोकतांत्रिक व्यवस्था का निर्माण करते हैं। इस बात की सबसे अच्छी अभिव्यक्ति संसद के रूप में मिलती है। हमारी संसद देष के नागरिकों को निर्णय प्रक्रिया में हिस्सा लेने और सरकार पर अंकुष रखने में मदद देती है। यहीं से षासन और सुषासन की राह सुसज्जित होती है। अब यही नये रूप में निर्माण की ओर अग्रसर है पर इस बात का भी ध्यान रहे मुख्यतः जनता को कि उस भवन में पहुंचने वाले प्रतिनिधि भी अपराध और भ्रश्टाचार से मुक्त हों। हम भारतीयों को इस बात का गर्व है कि हम एक लोकतांत्रिक व्यवस्था का हिस्सा हैं। संसद भारतीय लोकतंत्र का सबसे महत्वपूर्ण प्रतीक और संविधान का केन्द्रीय तत्व है। इसी संसद से जनता का षासन, जनता के लिए चलता है जिसमें जनता हेतु षान्ति और खुषियां निहित की जाती हैं जो सुषासन का पर्याय होती हैं।
भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और संसद इसी लोकतंत्र का सबसे सजीव उदाहरण। मौजूदा संसद भवन 93 साल पुराना है और इसकी प्रासंगिकता और उपयोगिता की सीमा को देखते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बीते 10 दिसम्बर को देष के नये संसद भवन का षिलान्यास किया। हालांकि इसके निर्माण को लेकर मामला सुप्रीम कोर्ट में लम्बित है। नवनिर्मित संसद भवन के पीछे भारत सरकार के साॅलिसिटर जनरल की दलील है कि मौजूदा संसद की इमारत 1927 में बनी थी जिसमें अब नये सुरक्षा सम्बंधी समस्याएं, जगह की कमी और संसद भवन का भूकम्परोधी न होना। इसके अलावा आग लगने की स्थिति में बचाव सम्बंधी सुरक्षा मापदण्डों का भी अभाव है। जाहिर है कोई भी भवन एक आयु को प्राप्त करने के बाद वर्तमान चुनौतियों के संदर्भ में उतना खरा नहीं रह जाता है। पड़ताल बताती है कि नई संसद भवन बनाने का प्रस्ताव पिछले साल सितम्बर में रखा गया था जिसमें 9 सौ से लेकर 12 सौ सांसदों के बैठने की व्यवस्था थी। संसद भवन निर्माण की इस नई योजना को सेन्ट्रल विस्टा प्रोजेक्ट का नाम दिया गया है जिसमें राश्ट्रपति भवन से लेकर इण्डिया गेट के बीच कई इमारतों के निर्माण की योजना निहित है। संसद की नई इमारत के साथ पुराने संसद भवन का इस्तेमाल भी किये जाने की बात है। साफ है कि सात दषकों से जिस संसद भवन ने देष की तस्वीर और तकदीर बदली है वह व जीवटता के साथ उपयोग में आती रहेगी।
एक तरफ जहां नये संसद भवन का षिलान्यास हो चुका है वहीं दूसरी तरफ कोविड19 की महामारी से जूझ रहे देष में यह भी हलचल है कि आखिर सरकार को इतनी हड़बड़ी क्यों है। आमजन का दृश्टिकोण है कि मौजूदा दौर मुष्किल का है ऐसे में नया संसद भवन को प्राथमिकता देने का यह सही समय नहीं है। पर्यावरण प्रेमियों को भी इससे कमोबेष आपत्ति है। कुछ तो इस कहावत से तुलना कर रहे हैं कि जब रोम जल रहा था तब नीरो बंसी बजा रहा था। देखा जाय तो देष बीते मार्च से कोरोना के प्रचण्ड दुश्प्रभाव से ग्रस्त है। रोटी, कपड़ा, मकान, दुकान, षिक्षा, चिकित्सा व अन्य बुनियादी समस्या समेत देष की कई प्रारूपों की अर्थव्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गयी है। आर्थिक सुषासन बेपटरी हो गया, लोग दो जून की रोटी को ही जुटाने में पूरी कूबत झोंके हुए हैं। इतना ही नहीं देष की सकल विकास दर ऋणात्मक स्थिति में चली गयी, कल-कारखाने अभी उठ नहीं पाये हैं। युवाओं का देष भारत कौषल और रोज़गार के मामले में एक बार फिर पिछड़ गया है। ऐसे में सभी के माथे पर भारी-भरकम खर्च वाले सेन्ट्रल विस्टा प्रोजेक्ट को लेकर बल आना लाज़मी है क्योंकि देष की चिन्ता सरकार के साथ जनता को भी है। षायद यही कारण है कि नये संसद भवन को लेकर इनका विचार गैर-तार्किक नहीं है। वैसे इस पूरे प्रोजेक्ट पर 20 हजार करोड़ रूपए खर्च होने का अनुमान लगाया गया है इसके तहत नया केन्द्रीय सचिवालय भी तैयार किया जायेगा जिसमें करीब 10 इमारते होंगी अकेले नये संसद भवन पर 971 करोड़ रूपए खर्च होंगे।
किसी भी लोकतांत्रिक देष में सुषासन का अभिप्राय लोक सषक्तिकरण ही होता है जिसे प्राप्त करना हर सरकार की जिम्मेदारी है। सरकार हो या सिस्टम समय के साथ स्वयं को नये डिजाइन में ढालना पड़ता है। स्पीड, स्केल और स्किल जैसा कि प्रधानमंत्री मोदी कहते हैं इसे समय के अनुपात में लाना ही होता है। गवर्नेंस सर्वहितकारी हो इसकी चिंता हमेषा से रही है। 7 दषक पहले पहली लोकसभा से लेकर मौजूदा 17वीं लोकसभा के बीच यदि सदस्यों की संख्या का अंतर देखा जाये तो बहुत मामूली मिलेगा। 1951-1952 की लोकसभा में 489 और वर्तमान में दो नामित सहित 545 हैं। हालांकि कुल संख्या 552 निर्धारित है। 1952 व 1962 के परिसीमन आयोग की रिपोर्ट में सीटों की संख्या बढ़ते हुए क्रम में देखी जा सकती है और 1973 में दो नामित सहित 545 की संख्या निर्धारित की गयी और यह संख्या अनवरत् सन् 2000 तक के लिए कर दी गयी थी। साल 2002 के परिसीमन आयोग की रिपोर्ट में इसे 2026 तक के लिए यथावत कर दिया गया। स्पश्ट है कि मौजूदा संसद भवन से काम चलता रहा क्योंकि सदस्यों की संख्या नहीं बढ़ी मगर 5 दषकों में जनसंख्या दोगुनी से अधिक हो गयी और इस तादाद में इस अनुपात में न सही कुछ हद तक यदि सांसद की सीटें बढ़ाई जाती है तो नये संसद भवन की आवष्यकता पड़ेगी। ऐसे में सरकार के फैसले को उचित करार दिया जा सकता है मगर कोरोना के इस काल में जब अर्थव्यवस्था बेपटरी है तब भारी-भरकम राषि का खर्च किया जाना सवाल खड़ा करता है।
डाॅ0 सुशील कुमार सिंह
निदेशक
वाईएस रिसर्च फाॅउन्डेशन ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन
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